वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 31 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 31
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकत्रिंशः सर्गः (31)
(हनुमान जी का सीता को सुनाने के लिये श्रीराम-कथा का वर्णन करना)
एवं बहुविधां चिन्तां चिन्तयित्वा महामतिः।
संश्रवे मधुरं वाक्यं वैदेह्या व्याजहार ह॥१॥
इस प्रकार बहुत-सी बातें सोच-विचारकर महामति हनुमान जी ने सीता को सुनाते हुए मधुर वाणी में इस तरह कहना आरम्भ किया— ॥१॥
राजा दशरथो नाम रथकुञ्जरवाजिमान्।
पुण्यशीलो महाकीर्तिरिक्ष्वाकूणां महायशाः॥२॥
‘इक्ष्वाकुवंश में राजा दशरथ नाम से प्रसिद्ध एक पुण्यात्मा राजा हो गये हैं। वे अत्यन्त कीर्तिमान् और महान् यशस्वी थे। उनके यहाँ रथ, हाथी और घोड़े बहुत अधिक थे॥२॥
राजर्षीणां गुणश्रेष्ठस्तपसा चर्षिभिः समः।
चक्रवर्तिकुले जातः पुरंदरसमो बले॥३॥
‘उन श्रेष्ठ नरेश में राजर्षियों के समान गुण थे। तपस्या में भी वे ऋषियों की समानता करते थे। उनका जन्म चक्रवर्ती नरेशों के कुल में हुआ था। वे देवराज इन्द्र के समान बलवान् थे॥३॥
अहिंसारतिरक्षुद्रो घृणी सत्यपराक्रमः।
मुख्यस्येक्ष्वाकुवंशस्य लक्ष्मीवॉल्लक्ष्मिवर्धनः॥४॥
पार्थिवव्यञ्जनैर्युक्तः पृथुश्रीः पार्थिवर्षभः।
पृथिव्यां चतुरन्तायां विश्रुतः सुखदः सुखी॥५॥
‘उनके मन में अहिंसा-धर्म के प्रति बड़ा अनुराग था। उनमें क्षुद्रता का नाम नहीं था। वे दयालु, सत्यपराक्रमी और श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंश की शोभा बढ़ाने वाले थे। वे लक्ष्मीवान् नरेश राजोचित लक्षणों से युक्त, परिपुष्ट शोभा से सम्पन्न और भूपालों में श्रेष्ठ थे। चारों समुद्र जिसकी सीमा हैं, उस सम्पूर्ण भूमण्डल में सब ओर उनकी बड़ी ख्याति थी। वे स्वयं तो सुखी थे ही दूसरों को भी सुख देने वाले थे॥ ४-५ ॥
तस्य पुत्रः प्रियो ज्येष्ठस्ताराधिपनिभाननः।
रामो नाम विशेषज्ञः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्॥६॥
‘उनके ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम-नाम से प्रसिद्ध हैं। वे पिता के लाडले, चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाले, सम्पूर्ण धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और शस्त्र-विद्या के विशेषज्ञ हैं॥६॥
रक्षिता स्वस्य वृत्तस्य स्वजनस्यापि रक्षिता।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य च परंतपः॥७॥
‘शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम अपने सदाचार के, स्वजनों के, इस जीव-जगत् के तथा धर्म के भी रक्षक हैं ॥ ७॥
तस्य सत्याभिसंधस्य वृद्धस्य वचनात् पितुः।
सभार्यः सह च भ्रात्रा वीरः प्रव्रजितो वनम्॥८॥
‘उनके बूढ़े पिता महाराज दशरथ बड़े सत्यप्रतिज्ञ थे। उनकी आज्ञा से वीर श्रीरघुनाथजी अपनी पत्नी और भाई लक्ष्मण के साथ वन में चले आये॥८॥
तेन तत्र महारण्ये मृगयां परिधावता।
राक्षसा निहताः शूरा बहवः कामरूपिणः॥९॥
‘वहाँ विशाल वन में शिकार खेलते हुए श्रीराम ने इच्छानुसार रूप धारण करने वाले बहुत-से शूरवीर राक्षसों का वध कर डाला॥९॥
जनस्थानवधं श्रुत्वा निहतौ खरदूषणौ।
ततस्त्वमर्षापहृता जानकी रावणेन तु॥१०॥
‘उनके द्वारा जनस्थान के विध्वंस और खरदूषण के वध का समाचार सुनकर रावण ने अमर्षवश जनकनन्दिनी सीता का अपहरण कर लिया॥ १०॥
वञ्चयित्वा वने रामं मृगरूपेण मायया।
स मार्गमाणस्तां देवीं रामः सीतामनिन्दिताम्॥
आससाद वने मित्रं सुग्रीवं नाम वानरम्।
‘पहले तो उस राक्षस ने माया से मृग बने हुए मारीच के द्वारा वन में श्रीरामचन्द्रजी को धोखा दियाऔर स्वयं जानकीजी को हर ले गया। भगवान् श्रीराम परम साध्वी सीतादेवी की खोज करते हुए मतंग-वन में आकर सुग्रीव नामक वानर से मिले और उनके साथ उन्होंने मैत्री स्थापित कर ली॥ ११ १/२॥
ततः स वालिनं हत्वा रामः परपुरंजयः॥१२॥
आयच्छत् कपिराज्यं तु सुग्रीवाय महात्मने।
‘तदनन्तर शत्रु-नगरी पर विजय पाने वाले श्रीराम ने वाली का वध करके वानरों का राज्य महात्मा सुग्रीव को दे दिया॥ १२ १/२॥
सुग्रीवेणाभिसंदिष्टा हरयः कामरूपिणः॥१३॥
दिक्षु सर्वासु तां देवीं विचिन्वन्तः सहस्रशः।
‘तत्पश्चात् वानरराज सुग्रीव की आज्ञा से इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हजारों वानर सीतादेवी का पता लगाने के लिये सम्पूर्ण दिशाओं में निकले हैं॥ १३ १/२॥
अहं सम्पातिवचनाच्छतयोजनमायतम्॥१४॥
तस्या हेतोर्विशालाक्ष्याः समुद्रं वेगवान् प्लुतः।
‘उन्हीं में से एक मैं भी हूँ। मैं सम्पाति के कहने से विशाललोचना विदेहनन्दिनी की खोज के लिये सौ योजन विस्तृत समुद्र को वेगपूर्वक लाँघकर यहाँ आया हूँ॥ १४ १/२॥
यथारूपां यथावर्णां यथालक्ष्मवती च ताम्॥१५॥
अश्रौषं राघवस्याहं सेयमासादिता मया।
विररामैवमुक्त्वा स वाचं वानरपुंगवः ॥ १६॥
‘मैंने श्रीरघुनाथजी के मुख से जानकीजी का जैसा रूप, जैसा रंग तथा जैसे लक्षण सुने थे, उनके अनुरूप ही इन्हें पाया है।’ इतना ही कहकर वानरशिरोमणि हनुमान जी चुप हो गये॥ १५-१६ ॥
जानकी चापि तच्छ्रुत्वा विस्मयं परमं गता।
ततः सा वक्रकेशान्ता सुकेशी केशसंवृतम्।
उन्नम्य वदनं भीरुः शिंशपामन्ववैक्षत॥१७॥
उनकी बातें सुनकर जनकनन्दिनी सीता को बड़ा विस्मय हुआ। उनके केश धुंघराले और बड़े ही सुन्दर थे। भीरु सीता ने केशों से ढके हुए अपने मुँह को ऊपर उठाकर उस अशोक-वृक्ष की ओर देखा ॥ १७॥
निशम्य सीता वचनं कपेश्च दिशश्च सर्वाः प्रदिशश्च वीक्ष्य।
स्वयं प्रहर्षं परमं जगाम सर्वात्मना राममनुस्मरन्ती॥१८॥
कपि के वचन सुनकर सीता को बड़ी प्रसन्नता हुई। । वे सम्पूर्ण वृत्तियों से भगवान् श्रीराम का स्मरण करती हुई समस्त दिशाओं में दृष्टि दौड़ाने लगीं॥ १८॥
सा तिर्यगूर्ध्वं च तथा ह्यधस्तानिरीक्षमाणा तमचिन्त्यबुद्धिम्।
ददर्श पिंगाधिपतेरमात्यं वातात्मजं सूर्यमिवोदयस्थम्॥१९॥
उन्होंने ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर दृष्टिपात करके उन अचिन्त्य बुद्धिवाले पवनपुत्र हनुमान् को, जो वानरराज सुग्रीव के मन्त्री थे, उदयाचल पर विराजमान सूर्य के समान देखा॥ १९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकत्रिंशः सर्गः॥३१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में इकतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३१॥
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