वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 32 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 32
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
द्वात्रिंशः सर्गः (32)
(सीताजी का तर्क-वितर्क)
ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलितमानसा।
वेष्टितार्जुनवस्त्रं तं विद्युत्संघातपिंगलम्॥१॥
सा ददर्श कपिं तत्र प्रश्रितं प्रियवादिनम्।
फुल्लाशोकोत्कराभासं तप्तचामीकरेक्षणम्॥२॥
तब शाखाके भीतर छिपे हुए, विद्युत्पुञ्ज के समान अत्यन्त पिंगल वर्णवाले और श्वेत वस्त्रधारी हनुमान जी पर उनकी दृष्टि पड़ी फिर तो उनका चित्त चञ्चल हो उठा। उन्होंने देखा, फूले हुए अशोक के समान अरुण कान्ति से प्रकाशित एक विनीत और प्रियवादी वानर डालियों के बीच में बैठा है। उसके नेत्र तपाये हुए सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। १-२॥
साथ दृष्ट्वा हरिश्रेष्ठं विनीतवदवस्थितम्।
मैथिली चिन्तयामास विस्मयं परमं गता॥३॥
विनीतभाव से बैठे हुए वानरश्रेष्ठ हनुमान जी को देखकर मिथिलेशकुमारी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन सोचने लगीं- ॥३॥
अहो भीममिदं सत्त्वं वानरस्य दुरासदम्।
दुर्निरीक्ष्यमिदं मत्वा पुनरेव मुमोह सा॥४॥
‘अहो! वानरयोनि का यह जीव तो बड़ा ही भयंकर है। इसे पकड़ना बहुत ही कठिन है। इसकी ओर तो आँख उठाकर देखने का भी साहस नहीं होता।’ ऐसा विचारकर वे पुनः भयसे मूर्च्छित-सी हो गयीं॥ ४॥
विललाप भृशं सीता करुणं भयमोहिता।
राम रामेति दुःखार्ता लक्ष्मणेति च भामिनी॥५॥
भय से मोहित हुई भामिनी सीता अत्यन्त करुणाजनक स्वर में ‘हा राम! हा राम! हा लक्ष्मण!’ ऐसा कहकर दुःख से आतुर हो अत्यन्त विलाप करने लगीं॥ ५॥
रुरोद सहसा सीता मन्दमन्दस्वरा सती।
साथ दृष्ट्वा हरिवरं विनीतवदुपागतम्।
मैथिली चिन्तयामास स्वप्नोऽयमिति भामिनी॥
उस समय सीता मन्द स्वर में सहसा रो पड़ीं। । इतने ही में उन्होंने देखा, वह श्रेष्ठ वानर बड़ी विनय के साथ निकट आ बैठा है तब भामिनी मिथिलेशकुमारीने सोचा-‘यह कोई स्वप्न तो नहीं है॥६॥
सा वीक्षमाणा पृथुभुग्नवक्त्रं शाखामृगेन्द्रस्य यथोक्तकारम्।
ददर्श पिंगप्रवरं महार्ह वातात्मजं बुद्धिमतां वरिष्ठम्॥७॥
उधर दृष्टिपात करते हुए उन्होंने वानरराज सुग्रीवके आज्ञापालक विशाल और टेढ़े मुखवाले परम आदरणीय, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ, वानरप्रवर पवनपुत्र हनुमान जी को देखा॥७॥
सा तं समीक्ष्यैव भृशं विपन्ना गतासुकल्पेव बभूव सीता।
चिरेण संज्ञां प्रतिलभ्य चैवं विचिन्तयामास विशालनेत्रा॥८॥
उन्हें देखते ही सीताजी अत्यन्त व्यथित होकर ऐसी दशा को पहुँच गयीं, मानो उनके प्राण निकल गये हों। फिर बड़ी देर में चेत होने पर विशाललोचना विदेहराजकुमारी ने इस प्रकार विचार किया— ॥ ८॥
स्वप्नो मयायं विकृतोऽद्य दृष्टः शाखामृगः शास्त्रगणैर्निषिद्धः।
स्वस्त्यस्तु रामाय सलक्ष्मणाय तथा पितुर्मे जनकस्य राज्ञः॥९॥
‘आज मैंने यह बड़ा बुरा स्वप्न देखा है। सपने में वानर को देखना शास्त्रों ने निषिद्ध बताया है। मेरी भगवान् से प्रार्थना है कि श्रीराम, लक्ष्मण और मेरे पिता जनक का मंगल हो (उनपर इस दुःस्वप्न का प्रभाव न पड़े) ॥९॥
स्वप्नो हि नायं नहि मेऽस्ति निद्रा शोकेन दुःखेन च पीडितायाः।
सुखं हि मे नास्ति यतो विहीना तेनेन्दुपूर्णप्रतिमाननेन॥१०॥
‘परंतु यह स्वप्न तो हो नहीं सकता; क्योंकि शोक और दुःख से पीड़ित रहने के कारण मुझे कभी नींद आती ही नहीं है (नींद उसे आती है, जिसे सुख हो) मुझे तो उन पूर्णचन्द्र के समान मुखवाले श्रीरघुनाथजी से बिछुड़ जाने के कारण अब सुख सुलभ ही नहीं है॥ १० ॥
रामेति रामेति सदैव बुद्ध्या विचिन्त्य वाचा ब्रुवती तमेव।।
तस्यानुरूपं च कथां तदर्था मेवं प्रपश्यामि तथा शृणोमि॥११॥
‘मैं बुद्धि से सर्वदा ‘राम! राम!’ ऐसा चिन्तन करके वाणी द्वारा भी राम-नाम का ही उच्चारण करती रहती हूँ; अतः उस विचार के अनुरूप वैसे ही अर्थवाली यह कथा देख और सुन रही हूँ॥११॥
अहं हि तस्याद्य मनोभवेन सम्पीडिता तदगतसर्वभावा।
विचिन्तयन्ती सततं तमेव तथैव पश्यामि तथा शृणोमि॥१२॥
‘मेरा हृदय सर्वदा श्रीरघुनाथ में ही लगा हुआ है; अतः श्रीराम-दर्शन की लालसा से अत्यन्त पीड़ित हो सदा उन्हीं का चिन्तन करती हुई उन्हीं को देखती और उन्हीं की कथा सुनती हूँ॥ १२॥
मनोरथः स्यादिति चिन्तयामि तथापि बुद्ध्यापि वितर्कयामि।
किं कारणं तस्य हि नास्ति रूपं सुव्यक्तरूपश्च वदत्ययं माम्॥१३॥
‘सोचती हूँ कि सम्भव है यह मेरे मन की ही कोई भावना हो तथापि बुद्धि से भी तर्क-वितर्क करती हूँ कि यह जो कुछ दिखायी देता है, इसका क्या कारण है? मनोरथ या मन की भावना का कोई स्थूल रूप नहीं होता; परंतु इस वानर का रूप तो स्पष्ट दिखायी दे रहा है और यह मुझसे बातचीत भी करता है। १३॥
नमोऽस्तु वाचस्पतये सवज्रिणे स्वयम्भुवे चैव हुताशनाय।
अनेन चोक्तं यदिदं ममाग्रतो वनौकसा तच्च तथास्तु नान्यथा॥१४॥
‘मैं वाणी के स्वामी बृहस्पति को, वज्रधारी इन्द्रको, स्वयम्भू ब्रह्माजी को तथा वाणी के अधिष्ठातृ-देवता अग्नि को भी नमस्कार करती हूँ। इस वनवासी वानर ने मेरे सामने यह जो कुछ कहा है, वह सब सत्य हो, उसमें कुछ भी अन्यथा न हो’ ॥ १४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे द्वात्रिंशः सर्गः॥३२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३२॥
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