वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 33 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 33
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
त्रयस्त्रिंशः सर्गः (33)
(सीताजी का हनुमान जी को अपना परिचय देते हुए अपने वनगमन और अपहरण का वृत्तान्त बताना)
सोऽवतीर्य द्रुमात् तस्माद् विद्रुमप्रतिमाननः।
विनीतवेषः कृपणः प्रणिपत्योपसृत्य च॥१॥
तामब्रवीन्महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः।
शिरस्यञ्जलिमाधाय सीतां मधुरया गिरा॥२॥
उधर मूंगे के समान लाल मुखवाले महातेजस्वी पवनकुमार हनुमान जी ने उस अशोक-वृक्ष से नीचे उतरकर माथे पर अञ्जलि बाँध ली और विनीतभाव से दीनतापूर्वक निकट आकर प्रणाम करने के अनन्तर सीताजी से मधुर वाणी में कहा— ॥१-२॥
का नु पद्मपलाशाक्षि क्लिष्टकौशेयवासिनि।
द्रुमस्य शाखामालम्ब्य तिष्ठसि त्वमनिन्दिते॥३॥
किमर्थं तव नेत्राभ्यां वारि स्रवति शोकजम्।
पुण्डरीकपलाशाभ्यां विप्रकीर्णमिवोदकम्॥४॥
‘प्रफुल्लकमलदल के समान विशाल नेत्रोंवाली देवि! यह मलिन रेशमी पीताम्बर धारण किये आप कौन हैं? अनिन्दिते! इस वृक्ष की शाखा का सहारा लिये आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? कमल के पत्तों से झरते हुए जल-बिन्दुओं के समान आप की आँखों से ये शोक के आँसू क्यों गिर रहे हैं। ३-४॥
सुराणामसुराणां च नागगन्धर्वरक्षसाम्।
यक्षाणां किंनराणां च का त्वं भवसि शोभने॥
का त्वं भवसि रुद्राणां मरुतां वा वरानने।
वसूनां वा वरारोहे देवता प्रतिभासि मे॥६॥
‘शोभने! आप देवता, असुर, नाग, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, किन्नर, रुद्र, मरुद्गण अथवा वसुओं में से कौन हैं? इनमें से किसकी कन्या अथवा पत्नी हैं? सुमुखि! वरारोहे ! मुझे तो आप कोई देवता-सी जान पड़ती हैं। ५-६॥
किं नु चन्द्रमसा हीना पतिता विबुधालयात्।
रोहिणी ज्योतिषां श्रेष्ठा श्रेष्ठा सर्वगुणाधिका॥७॥
‘क्या आप चन्द्रमा से बिछुड़कर देवलोक से गिरी हुई नक्षत्रों में श्रेष्ठ और गुणों में सबसे बढ़ी-चढ़ी रोहिणी देवी हैं? ॥ ७॥
कोपाद् वा यदि वा मोहाद् भर्तारमसितेक्षणे।
वसिष्ठं कोपयित्वा त्वं वासि कल्याण्यरुन्धती॥८॥
‘अथवा कजरारे नेत्रोंवाली देवि! आप कोप या मोह से अपने पति वसिष्ठजी को कुपित करके यहाँ आयी हुई कल्याणस्वरूपा सतीशिरोमणि अरुन्धती तो नहीं हैं॥८॥
को नु पुत्रः पिता भ्राता भर्ता वा ते सुमध्यमे।
अस्माल्लोकादमुं लोकं गतं त्वमनुशोचसि॥९॥
‘सुमध्यमे! आपका पुत्र, पिता, भाई अथवा पति कौन इस लोक से चलकर परलोकवासी हो गया है, जिसके लिये आप शोक करती हैं॥९॥
रोदनादतिनिःश्वासाद् भूमिसंस्पर्शनादपि।
न त्वां देवीमहं मन्ये राज्ञः संज्ञावधारणात्॥१०॥
व्यञ्जनानि हि ते यानि लक्षणानि च लक्षये।
महिषी भूमिपालस्य राजकन्या च मे मता ॥११॥
‘रोने, लम्बी साँस खींचने तथा पृथ्वी का स्पर्श करने के कारण मैं आपको देवी नहीं मानता। आप बारम्बार किसी राजा का नाम ले रही हैं तथा आपके चिह्न और लक्षण जैसे दिखायी देते हैं, उन सब पर दृष्टिपात करने से यही अनुमान होता है कि आप किसी राजा की महारानी तथा किसी नरेश की कन्या हैं॥ १०-११॥
रावणेन जनस्थानाद् बलात् प्रमथिता यदि।
सीता त्वमसि भद्रं ते तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः॥१२॥
‘रावण जनस्थान से जिन्हें बलपूर्वक हर लाया था, वे सीताजी ही यदि आप हों तो आपका कल्याण हो। आप ठीक-ठीक मुझे बताइये। मैं आपके विषय में जानना चाहता हूँ॥ १२ ॥
यथा हि तव वै दैन्यं रूपं चाप्यतिमानुषम्।
तपसा चान्वितो वेषस्त्वं राममहिषी ध्रुवम्॥१३॥
‘दुःख के कारण आप में जैसी दीनता आ गयी है, जैसा आपका अलौकिक रूप है तथा जैसा तपस्विनी का-सा वेष है, इन सबके द्वारा निश्चय ही आप श्रीरामचन्द्रजी की महारानी जान पड़ती हैं’। १३॥
सा तस्य वचनं श्रुत्वा रामकीर्तनहर्षिता।
उवाच वाक्यं वैदेही हनूमन्तं द्रुमाश्रितम्॥१४॥
हनुमान जी की बात सुनकर विदेहनन्दिनी सीता श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा से बहुत प्रसन्न थीं; अतः वृक्ष का सहारा लिये खड़े हुए उन पवनकुमार से इस प्रकार बोलीं॥
पृथिव्यां राजसिंहानां मुख्यस्य विदितात्मनः।
स्नुषा दशरथस्याहं शत्रुसैन्यप्रणाशिनः ॥ १५॥
दुहिता जनकस्याहं वैदेहस्य महात्मनः।
सीतेति नाम्ना चोक्ताहं भार्या रामस्य धीमतः॥
‘कपिवर! जो भूमण्डल के श्रेष्ठ राजाओं में प्रधान थे, जिनकी सर्वत्र प्रसिद्धि थी तथा जो शत्रुओं की सेना का संहार करने में समर्थ थे, उन महाराज दशरथ की मैं पुत्रवधू हूँ, विदेहराज महात्मा जनक की पुत्री हूँ और परमबुद्धिमान् भगवान् श्रीराम की धर्मपत्नी हूँ मेरा नाम सीता है।
समा द्वादश तत्राहं राघवस्य निवेशने।
भुञ्जाना मानुषान् भोगान् सर्वकामसमृद्धिनी॥१७॥
‘अयोध्या में श्रीरघुनाथजी के अन्तःपुर में बारह वर्षों तक मैं सब प्रकार के मानवीय भोग भोगती रही और मेरी सारी अभिलाषाएँ सदैव पूर्ण होती रहीं। १७॥
ततस्त्रयोदशे वर्षे राज्ये चेक्ष्वाकुनन्दनम्।
अभिषेचयितुं राजा सोपाध्यायः प्रचक्रमे॥१८॥
‘तदनन्तर तेरहवें वर्ष में महाराज दशरथ ने राजगुरु वसिष्ठजी के साथ इक्ष्वाकुकुलभूषण भगवान् श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी आरम्भ की॥ १८॥
तस्मिन् सम्भ्रियमाणे तु राघवस्याभिषेचने।
कैकेयी नाम भर्तारमिदं वचनमब्रवीत्॥१९॥
‘जब वे श्रीरघुनाथजी के अभिषेक के लिये आवश्यक सामग्री का संग्रह कर रहे थे, उस समय उनकी कैकेयी नामवाली भार्या ने पति से इस प्रकार कहा- ॥ १९॥
न पिबेयं न खादेयं प्रत्यहं मम भोजनम्।
एष मे जीवितस्यान्तो रामो यद्यभिषिच्यते॥२०॥
‘अब न तो मैं जलपान करूँगी और न प्रतिदिन का भोजन ही ग्रहण करूँगी। यदि श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ तो यही मेरे जीवन का अन्त होगा॥ २० ॥
यत् तदुक्तं त्वया वाक्यं प्रीत्या नृपतिसत्तम।
तच्चेन्न वितथं कार्यं वनं गच्छतु राघवः॥ २१॥
‘नृपश्रेष्ठ! आपने प्रसन्नतापूर्वक मुझे जो वचन दिया है, उसे यदि असत्य नहीं करना है तो श्रीराम वन को चले जायँ’ ॥ २१॥
स राजा सत्यवाग् देव्या वरदानमनुस्मरन्।
मुमोह वचनं श्रुत्वा कैकेय्याः क्रूरमप्रियम्॥२२॥
‘महाराज दशरथ बड़े सत्यवादी थे। उन्होंने कैकेयी देवी को दो वर देने के लिये कहा था। उस वरदान का स्मरण करके कैकेयी के क्रूर एवं अप्रिय वचन को सुनकर वे मूर्च्छित हो गये॥ २२ ॥
ततस्तं स्थविरो राजा सत्यधर्मे व्यवस्थितः।
ज्येष्ठं यशस्विनं पुत्रं रुदन् राज्यमयाचत॥२३॥
‘तदनन्तर सत्यधर्म में स्थित हुए बूढ़े महाराज ने अपने यशस्वी ज्येष्ठ पुत्र श्रीरघुनाथजी से भरत के लिये राज्य माँगा॥ २३॥
स पितुर्वचनं श्रीमानभिषेकात् परं प्रियम्।
मनसा पूर्वमासाद्य वाचा प्रतिगृहीतवान्॥२४॥
‘श्रीमान् राम को पिताके वचन राज्याभिषेक से भी बढ़कर प्रिय थे। इसलिये उन्होंने पहले उन वचनों को मन से ग्रहण किया, फिर वाणी से भी स्वीकार कर लिया॥
दद्यान्न प्रतिगृह्णीयात् सत्यं ब्रूयान्न चानृतम्।
अपि जीवितहेतोर्हि रामः सत्यपराक्रमः॥२५॥
‘सत्य-पराक्रमी भगवान् श्रीराम केवल देते हैं, लेते नहीं। वे सदा सत्य बोलते हैं, अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये भी कभी झूठ नहीं बोल सकते॥ २५ ॥
स विहायोत्तरीयाणि महार्हाणि महायशाः।
विसृज्य मनसा राज्यं जनन्यै मां समादिशत्॥२६॥
‘उन महायशस्वी श्रीरघुनाथजी ने बहुमूल्य उत्तरीय वस्त्र उतार दिये और मन से राज्य का त्याग करके मुझे अपनी माता के हवाले कर दिया॥ २६॥
साहं तस्याग्रतस्तूर्णं प्रस्थिता वनचारिणी।
नहि मे तेन हीनाया वासः स्वर्गेऽपि रोचते॥२७॥
‘किंतु मैं तुरंत ही उनके आगे-आगे वन की ओर चल दी; क्योंकि उनके बिना मुझे स्वर्ग में रहना अच्छा नहीं लगता॥२७॥
प्रागेव तु महाभागः सौमित्रिर्मित्रनन्दनः।
पूर्वजस्यानुयात्रार्थे कुशचीरैरलंकृतः॥ २८॥
‘अपने सुहृदों को आनन्द देने वाले सुमित्राकुमार महाभाग लक्ष्मण भी अपने बड़े भाई का अनुसरण करने के लिये उनसे भी पहले कुश तथा चीर-वस्त्र धारण करके तैयार हो गये॥ २८॥
ते वयं भर्तुरादेशं बहुमान्य दृढव्रताः।
प्रविष्टाः स्म पुरादृष्टं वनं गम्भीरदर्शनम्॥२९॥
‘इस प्रकार हम तीनों ने अपने स्वामी महाराज दशरथ की आज्ञा को अधिक आदर देकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते हुए उस सघन वन में प्रवेश किया, जिसे पहले कभी नहीं देखा था॥२९॥
वसतो दण्डकारण्ये तस्याहममितौजसः।
रक्षसापहृता भार्या रावणेन दुरात्मना॥३०॥
‘वहाँ दण्डकारण्य में रहते समय उन अमिततेजस्वी भगवान् श्रीराम की भार्या मुझ सीता को दुरात्मा राक्षस रावण यहाँ हर लाया है ॥ ३० ॥
द्वौ मासौ तेन मे कालो जीवितानुग्रहः कृतः।
ऊर्ध्वं द्वाभ्यां तु मासाभ्यां ततस्त्यक्ष्यामि जीवितम्॥३१॥
‘उसने अनुग्रहपूर्वक मेरे जीवन-धारण के लिये दो मास की अवधि निश्चित कर दी है। उन दो महीनों के बाद मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा’। ३१॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे त्रयस्त्रिंशः सर्गः॥३३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३३॥