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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 34 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 34

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
चतुस्त्रिंशः सर्गः (34)

(सीताजी का हनुमान् जी के प्रति संदेह और उसका समाधान तथा हनुमान् जी के द्वारा श्रीरामचन्द्रजी के गुणों का गान)

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा हनूमान् हरिपुंगवः।
दुःखाद् दुःखाभिभूतायाः सान्त्वमुत्तरमब्रवीत्॥

दुःख-पर-दुःख उठाने के कारण पीड़ित हुई सीता का उपर्युक्त वचन सुनकर वानरशिरोमणि हनुमान जी ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ॥१॥

अहं रामस्य संदेशाद् देवि दूतस्तवागतः।
वैदेहि कुशली रामः स त्वां कौशलमब्रवीत्॥२॥

‘देवि! मैं श्रीरामचन्द्रजी का दूत हूँ और आपके लिये उनका संदेश लेकर आया हूँ। विदेहनन्दिनी ! श्रीरामचन्द्रजी सकुशल हैं और उन्होंने आपका कुशल-समाचार पूछा है॥२॥

यो ब्राह्ममस्त्रं वेदांश्च वेद वेदविदां वरः।
स त्वां दाशरथी रामो देवि कौशलमब्रवीत्॥३॥

‘देवि! जिन्हें ब्रह्मास्त्र और वेदों का भी पूर्ण ज्ञान है, वे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ दशरथनन्दन श्रीराम स्वयं सकुशल रहकर आपकी भी कुशल पूछ रहे हैं॥३॥

लक्ष्मणश्च महातेजा भर्तुस्तेऽनुचरः प्रियः।
कृतवाञ्छोकसंतप्तः शिरसा तेऽभिवादनम्॥४॥

‘आपके पति के अनुचर तथा प्रिय महातेजस्वी लक्ष्मण ने भी शोक से संतप्त हो आपके चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम कहलाया है’ ॥ ४॥

सा तयोः कुशलं देवी निशम्य नरसिंहयोः।
प्रतिसंहृष्टसर्वांगी हनूमन्तमथाब्रवीत्॥५॥

पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण का समाचार सुनकर देवी सीता के सम्पूर्ण अंगों में हर्षजनित रोमांच हो आया और वे हनुमान् जी से बोलीं- ॥५॥

कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मा।
एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि॥६॥

‘यदि मनुष्य जीवित रहे तो उसे सौ वर्ष बाद भी आनन्द प्राप्त होता ही है, यह लौकिक कहावत आज मुझे बिलकुल सत्य एवं कल्याणमयी जान पड़ती है’॥६॥

तयोः समागमे तस्मिन् प्रीतिरुत्पादिताद्भुता।
परस्परेण चालापं विश्वस्तौ तौ प्रचक्रतुः॥७॥

सीता और हनुमान् के इस मिलाप (परस्पर दर्शन)-से दोनों को ही अद्भुत प्रसन्नता प्राप्त हुई। वे दोनों विश्वस्त होकर एक-दूसरे से वार्तालाप करने लगे॥७॥

तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा हनूमान् मारुतात्मजः।
सीतायाः शोकतप्तायाः समीपमुपचक्रमे॥८॥

शोकसंतप्त सीता की वे बातें सुनकर पवनकुमार हनुमान् जी उनके कुछ निकट चले गये॥ ८॥

यथा यथा समीपं स हनूमानुपसर्पति।
तथा तथा रावणं सा तं सीता परिशङ्कते॥९॥

हनुमान जी ज्यों-ज्यों निकट आते, त्यों-ही-त्यों सीता को यह शङ्का होती कि यह कहीं रावण न हो॥ ९॥

अहो धिग् धिक्कृतमिदं कथितं हि यदस्य मे।
रूपान्तरमुपागम्य स एवायं हि रावणः॥१०॥

ऐसा विचार आते ही वे मन-ही-मन कहने लगीं’अहो! धिक्कार है, जो इसके सामने मैंने अपने मन की बात कह दी। यह दूसरा रूप धारण करके आया हुआ वह रावण ही है’ ॥ १० ॥

तामशोकस्य शाखां तु विमुक्त्वा शोककर्शिता।
तस्यामेवानवद्याङ्गी धरण्यां समुपाविशत्॥११॥

फिर तो निर्दोष अङ्गोंवाली सीता उस अशोक वृक्ष की शाखा को छोड़ शोक से कातर हो वहीं जमीन पर बैठ गयीं॥११॥

अवन्दत महाबाहुस्ततस्तां जनकात्मजाम्।
सा चैनं भयसंत्रस्ता भूयो नैनमुदैक्षत॥१२॥

तत्पश्चात् महाबाहु हनुमान् ने जनकनन्दिनी सीता के चरणों में प्रणाम किया, किंतु वे भयभीत होने के कारण फिर उनकी ओर देख न सकीं॥ १२ ॥

तं दृष्ट्वा वन्दमानं च सीता शशिनिभानना।
अब्रवीद दीर्घमुच्छ्वस्य वानरं मधुरस्वरा॥१३॥

वानर हनुमान् को बारम्बार वन्दना करते देख चन्द्रमुखी सीता लम्बी साँस खींचकर उनसे मधुर वाणी में बोलीं- ॥ १३॥

मायां प्रविष्टो मायावी यदि त्वं रावणः स्वयम्।
उत्पादयसि मे भूयः संतापं तन्न शोभनम्॥१४॥

‘यदि तुम स्वयं मायावी रावण हो और मायामय शरीर में प्रवेश करके फिर मुझे कष्ट दे रहे हो तो यह तुम्हारे लिये अच्छी बात नहीं है॥ १४ ॥

स्वं परित्यज्य रूपं यः परिव्राजकरूपवान्।
जनस्थाने मया दृष्टस्त्वं स एव हि रावणः॥१५॥

‘जिसे मैंने जनस्थान में देखा था तथा जो अपने यथार्थ रूप को छोड़कर संन्यासी का रूप धारण करके आया था, तुम वही रावण हो॥ १५ ॥

उपवासकृशां दीनां कामरूप निशाचर।
संतापयसि मां भूयः संतापं तन्न शोभनम्॥१६॥

‘इच्छानुसार रूप धारण करने वाले निशाचर! मैं उपवास करते-करते दुबली हो गयी हूँ और मन-ही मन दुःखी रहती हूँ। इतने पर भी जो तुम फिर मुझे संताप दे रहे हो, यह तुम्हारे लिये अच्छी बात नहीं
है॥१६॥

अथवा नैतदेवं हि यन्मया परिशङ्कितम्।
मनसो हि मम प्रीतिरुत्पन्ना तव दर्शनात्॥१७॥

‘अथवा जिस बात की मेरे मन में शङ्का हो रही है, वह न भी हो; क्योंकि तुम्हें देखने से मेरे मन में प्रसन्नता हुई है॥ १७॥

यदि रामस्य दूतस्त्वमागतो भद्रमस्तु ते।
पृच्छामि त्वां हरिश्रेष्ठ प्रिया रामकथा हि मे॥१८॥

‘वानरश्रेष्ठ! सचमुच ही यदि तुम भगवान् श्रीराम के दूत हो तो तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे उनकी बातें पूछती हूँ; क्योंकि श्रीराम की चर्चा मुझे बहुत ही प्रिय है।

गुणान् रामस्य कथय प्रियस्य मम वानर।
चित्तं हरसि मे सौम्य नदीकुलं यथा रयः॥१९॥

‘वानर ! मेरे प्रियतम श्रीराम के गुणों का वर्णन करो। सौम्य ! जैसे जल का वेग नदी के तट को हर लेता है,उसी प्रकार तुम श्रीराम की चर्चा से मेरे चित्त को चुराये लेते हो॥ १९॥

अहो स्वप्नस्य सुखता याहमेव चिराहृता।
प्रेषितं नाम पश्यामि राघवेण वनौकसम्॥२०॥

‘अहो! यह स्वप्न कैसा सुखद हुआ? जिससे यहाँ चिरकाल से हरकर लायी गयी मैं आज भगवान् श्रीराम के भेजे हुए दूत वानर को देख रही हूँ॥२०॥

स्वप्नेऽपि यद्यहं वीरं राघवं सहलक्ष्मणम्।
पश्येयं नावसीदेयं स्वप्नोऽपि मम मत्सरी ॥२१॥

यदि मैं लक्ष्मणसहित वीरवर श्रीरघुनाथजी को स्वप्न में भी देख लिया करूँ तो मुझे इतना कष्ट न हो; परंतु स्वप्न भी मुझसे डाह करता है॥ २१॥

नाहं स्वप्नमिमं मन्ये स्वप्ने दृष्ट्वा हि वानरम्।
न शक्योऽभ्युदयः प्राप्तुं प्राप्तश्चाभ्युदयो मम॥२२॥

‘मैं इसे स्वप्न नहीं समझती; क्योंकि स्वप्न में वानर को देख लेने पर किसी का अभ्युदय नहीं हो सकता और मैंने यहाँ अभ्युदय प्राप्त किया है (अभ्युदयकाल में जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी ही प्रसन्नता मेरे मन में छा रही है) ॥ २२॥

किं नु स्याच्चित्तमोहोऽयं भवेद् वातगतिस्त्वियम्।
उन्मादजो विकारो वा स्यादयं मृगतृष्णिका॥२३॥

‘अथवा यह मेरे चित्त का मोह तो नहीं है। वातविकार से होने वाला भ्रम तो नहीं है। उन्माद का विकार तो नहीं उमड़ आया अथवा यह मृगतृष्णा तो नहीं है।

अथवा नायमुन्मादो मोहोऽप्युन्मादलक्षणः।
सम्बुध्ये चाहमात्मानमिमं चापि वनौकसम्॥२४॥

‘अथवा यह उन्मादजनित विकार नहीं है। उन्माद के समान लक्षण वाला मोह भी नहीं है; क्योंकि मैं अपने आपको देख और समझ रही हूँ तथा इस वानर को भी ठीक-ठीक देखती और समझती हूँ (उन्माद आदि की अवस्थाओं में इस तरह ठीक-ठीक ज्ञान होना सम्भव नहीं है।)’ ॥ २४॥

इत्येवं बहुधा सीता सम्प्रधार्य बलाबलम्।
रक्षसां कामरूपत्वान्मेने तं राक्षसाधिपम्॥२५॥
एतां बुद्धिं तदा कृत्वा सीता सा तनुमध्यमा।
न प्रतिव्याजहाराथ वानरं जनकात्मजा॥२६॥

इस तरह सीता अनेक प्रकार से राक्षसों की प्रबलता और वानर की निर्बलता का निश्चय करके उन्हें राक्षसराज रावण ही माना; क्योंकि राक्षसों में इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति होती है। ऐसा विचारकर सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली जनककुमारी सीता ने कपिवर हनुमान् जी से फिर कुछ नहीं कहा। २५-२६॥

सीताया निश्चितं बुद्ध्वा हनूमान् मारुतात्मजः।
श्रोत्रानुकूलैर्वचनैस्तदा तां सम्प्रहर्षयन्॥२७॥

सीता के इस निश्चय को समझकर पवनकुमार हनुमान् जी उस समय कानों को सुख पहुँचाने वाले अनुकूल वचनों द्वारा उनका हर्ष बढ़ाते हुए बोले-॥ २७॥

आदित्य इव तेजस्वी लोककान्तः शशी यथा।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवो वैश्रवणो यथा॥२८॥

‘भगवान् श्रीराम सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान लोककमनीय तथा देव कुबेर की भाँति सम्पूर्ण जगत् के राजा हैं॥ २८॥

विक्रमेणोपपन्नश्च यथा विष्णुर्महायशाः।
सत्यवादी मधुरवाग् देवो वाचस्पतिर्यथा॥२९॥

‘महायशस्वी भगवान् विष्णु के समान पराक्रमी तथा बृहस्पतिजी की भाँति सत्यवादी एवं मधुरभाषी हैं

रूपवान् सुभगः श्रीमान् कंदर्प इव मूर्तिमान्।
स्थानक्रोधे प्रहर्ता च श्रेष्ठो लोके महारथः ॥ ३०॥

‘रूपवान्, सौभाग्यशाली और कान्तिमान् तो वे इतने हैं, मानो मूर्तिमान् कामदेव हों वे क्रोध के पात्र पर ही प्रहार करने में समर्थ और संसार के श्रेष्ठ महारथी हैं॥ ३०॥

बाहच्छायामवष्टब्धो यस्य लोको महात्मनः।
अपक्रम्याश्रमपदान्मृगरूपेण राघवम्॥३१॥
शून्ये येनापनीतासि तस्य द्रक्ष्यसि तत्फलम्।

‘सम्पूर्ण विश्व उन महात्मा की भुजाओं के आश्रय में – उन्हीं की छत्रछाया में विश्राम करता है। मृगरूपधारी निशाचर द्वारा श्रीरघुनाथजी को आश्रम से  दूर हटाकर जिसने सूने आश्रम में पहुँचकर आपका अपहरण किया है, उसे उस पाप का जो फल मिलनेवाला है, उसको आप अपनी आँखों देखेंगी॥ ३१ १/२॥

अचिराद् रावणं संख्ये यो वधिष्यति वीर्यवान्॥३२॥
क्रोधप्रमुक्तैरिषुभिर्व्वलद्भिरिव पावकैः।

‘पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी क्रोधपूर्वक छोड़े गये प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाणों द्वारा समराङ्गण में शीघ्र ही रावण का वध करेंगे॥ ३२ १/२॥

तेनाहं प्रेषितो दूतस्त्वत्सकाशमिहागतः॥३३॥
त्वद्वियोगेन दुःखार्तः स त्वां कौशलमब्रवीत्।

‘मैं उन्हीं का भेजा हुआ दूत होकर यहाँ आपके पास आया हूँ। भगवान् श्रीराम आपके वियोगजनितदुःख से पीड़ित हैं। उन्होंने आपके पास अपनी कुशल कहलायी है और आपकी भी कुशल पूछी है।। ३३ १/२॥

लक्ष्मणश्च महातेजाः सुमित्रानन्दवर्धनः॥ ३४॥
अभिवाद्य महाबाहुः स त्वां कौशलमब्रवीत्।

‘सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले महातेजस्वी महाबाहु लक्ष्मण ने भी आपको प्रणाम करके आपकी कुशल पूछी है॥ ३४ १/२॥

रामस्य च सखा देवि सुग्रीवो नाम वानरः॥३५॥
राजा वानरमुख्यानां स त्वां कौशलमब्रवीत्।
नित्यं स्मरति ते रामः ससुग्रीवः सलक्ष्मणः॥३६॥

‘देवि! श्रीरघुनाथजी के सखा एक सुग्रीव नामक वानर हैं, जो मुख्य-मुख्य वानरों के राजा हैं, उन्होंने भी आपसे कुशल पूछी है सुग्रीव और लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी प्रतिदिन आपका स्मरण करते हैं। ३५-३६॥

दिष्ट्या जीवसि वैदेहि राक्षसीवशमागता।
नचिराद् द्रक्ष्यसे राम लक्ष्मणं च महारथम्॥३७॥

‘विदेहनन्दिनि! राक्षसियों के चंगुल में फँसकर भी आप अभीतक जीवित हैं, यह बड़े सौभाग्य की बात है। अब आप शीघ्र ही महारथी श्रीराम और लक्ष्मण का दर्शन करेंगी॥ ३७॥

मध्ये वानरकोटीनां सुग्रीवं चामितौजसम्।
अहं सुग्रीवसचिवो हनूमान् नाम वानरः॥ ३८॥

‘साथ ही करोड़ों वानरों से घिरे हुए अमिततेजस्वी सुग्रीव को भी आप देखेंगी। मैं सुग्रीव का मन्त्री हनुमान् नामक वानर हूँ॥ ३८॥

प्रविष्टो नगरी लङ्कां लङ्घयित्वा महोदधिम्।
कृत्वा मूर्ध्नि पदन्यासं रावणस्य दुरात्मनः॥ ३९॥

‘मैंने महासागर को लाँघकर और दुरात्मा रावण के सिरपर पैर रखकर लङ्कापुरी में प्रवेश किया है॥ ३९॥

त्वां द्रष्टमुपयातोऽहं समाश्रित्य पराक्रमम्।
नाहमस्मि तथा देवि यथा मामवगच्छसि।
विशङ्का त्यज्यतामेषा श्रद्धत्स्व वदतो मम॥४०॥

‘मैं अपने पराक्रम का भरोसा करके आपका दर्शन करने के लिये यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। देवि! आप मुझे जैसा समझ रही हैं, मैं वैसा नहीं हूँ। आप यह विपरीत आशङ्का छोड़ दीजिये और मेरी बात पर विश्वास कीजिये’ ॥ ४०॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुस्त्रिंशः सर्गः॥ ३४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३४॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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