वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 36 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 36
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षट्त्रिंशः सर्गः (36)
(हनुमान जी का सीता को मुद्रिका देना, सीता का ‘श्रीराम कब मेरा उद्धार करेंगे’ यह उत्सुक होकर पूछना तथा हनुमान् का श्रीराम के सीताविषयक प्रेम का वर्णन करके उन्हें सान्त्वना देना)
भूय एव महातेजा हनूमान् पवनात्मजः।
अब्रवीत् प्रश्रितं वाक्यं सीताप्रत्ययकारणात्॥१॥
तदनन्तर महातेजस्वी पवनकुमार हनुमान् जी सीताजी को विश्वास दिलाने के लिये पुनः विनययुक्त वचन बोले- ॥१॥
वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः।
रामनामाङ्कितं चेदं पश्य देव्यङ्गलीयकम्॥२॥
‘महाभागे ! मैं परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम का दूत वानर हूँ। देवि! यह श्रीराम नाम से अङ्कित मुद्रिका है, इसे लेकर देखिये॥२॥
प्रत्ययार्थं तवानीतं तेन दत्तं महात्मना।
समाश्वसिहि भद्रं ते क्षीणदुःखफला ह्यसि॥३॥
‘आपको विश्वास दिलाने के लिये ही मैं इसे लेता आया हूँ। महात्मा श्रीरामचन्द्रजी ने स्वयं यह अंगूठी मेरे हाथ में दी थी। आपका कल्याण हो। अब आप धैर्य धारण करें। आपको जो दुःखरूपी फल मिल रहा था, वह अब समाप्त हो चला है’॥३॥
गृहीत्वा प्रेक्षमाणा सा भर्तुः करविभूषितम्।
भर्तारमिव सम्प्राप्त जानकी मुदिताभवत्॥४॥
पति के हाथ को सुशोभित करने वाली उस मुद्रिका को लेकर सीताजी उसे ध्यान से देखने लगीं। उस समय जानकीजी को इतनी प्रसन्नता हुई, मानो स्वयं उनके पतिदेव ही उन्हें मिल गये हों॥४॥
चारु तद् वदनं तस्यास्ताम्रशुक्लायतेक्षणम्।
बभूव हर्षोदग्रं च राहुमुक्त इवोडुराट्॥५॥
उनका लाल, सफेद और विशाल नेत्रों से युक्त मनोहर मुख हर्ष से खिल उठा, मानो चन्द्रमा राहु के ग्रहण से मुक्त हो गया हो॥५॥
ततः सा ह्रीमती बाला भर्तुः संदेशहर्षिता।
परितुष्टा प्रियं कृत्वा प्रशशंस महाकपिम्॥६॥
वे लजीली विदेहबाला प्रियतम का संदेश पाकर बहुत प्रसन्न हुईं। उनके मन को बड़ा संतोष हुआ। वे महाकपि हनुमान जी का आदर करके उनकी प्रशंसा करने लगीं- ॥६॥
विक्रान्तस्त्वं समर्थस्त्वं प्राज्ञस्त्वं वानरोत्तम।
येनेदं राक्षसपदं त्वयैकेन प्रधर्षितम्॥७॥
‘वानरश्रेष्ठ! तुम बड़े पराक्रमी, शक्तिशाली और बुद्धिमान् हो; क्योंकि तुमने अकेले ही इस राक्षसपुरी को पददलित कर दिया है॥७॥
शतयोजनविस्तीर्णः सागरो मकरालयः।
विक्रमश्लाघनीयेन क्रमता गोष्पदीकृतः॥८॥
‘तुम अपने पराक्रम के कारण प्रशंसा के योग्य हो; क्योंकि तुमने मगर आदि जन्तुओं से भरे हुए सौ योजन विस्तारवाले महासागर को लाँघते समय उसे गाय की खुरी के बराबर समझा है, इसलिये प्रशंसा के पात्र हो॥
नहि त्वां प्राकृतं मन्ये वानरं वानरर्षभ।
यस्य ते नास्ति संत्रासो रावणादपि सम्भ्रमः॥९॥
‘वानरशिरोमणे! मैं तुम्हें कोई साधारण वानर नहीं मानती हूँ; क्योंकि तुम्हारे मन में रावण-जैसे राक्षससेभी न तो भय होता है और न घबराहट ही॥९॥
अर्हसे च कपिश्रेष्ठ मया समभिभाषितुम्।
यद्यसि प्रेषितस्तेन रामेण विदितात्मना॥१०॥
‘कपिश्रेष्ठ! यदि तुम्हें आत्मज्ञानी भगवान् श्रीराम ने भेजा है तो तुम अवश्य इस योग्य हो कि मैं तुमसे बातचीत करूँ॥ १० ॥
प्रेषयिष्यति दुर्धर्षो रामो नापरीक्षितम्।
पराक्रममविज्ञाय मत्सकाशं विशेषतः॥११॥
‘दुर्धर्ष वीर श्रीरामचन्द्रजी विशेषतः मेरे निकट ऐसे किसी पुरुष को नहीं भेजेंगे, जिसके पराक्रमका उन्हें ज्ञान न हो तथा जिसके शीलस्वभाव की उन्होंने परीक्षा न कर ली हो ॥ ११॥
दिष्ट्या च कुशली रामो धर्मात्मा सत्यसंगरः।
लक्ष्मणश्च महातेजाः सुमित्रानन्दवर्धनः॥१२॥
‘सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा भगवान् श्रीराम सकुशल हैं तथा सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले महातेजस्वी लक्ष्मण भी स्वस्थ एवं सुखी हैं, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ है और यह शुभ संवाद मेरे लिये सौभाग्य का सूचक है॥ १२॥
कुशली यदि काकुत्स्थः किं न सागरमेखलाम्।
महीं दहति कोपेन युगान्ताग्निरिवोत्थितः॥१३॥
‘यदि ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम सकुशल हैं तो वे प्रलयकाल में उठे हुए प्रलयंकर अग्नि के समान कुपित हो समुद्रों से घिरी हुई सारी पृथ्वी को दग्ध क्यों नहीं कर देते हैं ? ॥ १३॥
अथवा शक्तिमन्तौ तौ सुराणामपि निग्रहे।
ममैव तु न दुःखानामस्ति मन्ये विपर्ययः॥१४॥
‘अथवा वे दोनों भाई देवताओं को भी दण्ड देने की शक्ति रखते हैं (तो भी अबतक जो चुप बैठे हैं, इसमें उनका नहीं मेरे ही भाग्य का दोष है)। मैं समझती हूँ कि अभी मेरे ही दुःखों का अन्त नहीं आया है॥ १४॥
कच्चिन्न व्यथते रामः कच्चिन्न परितप्यते।
उत्तराणि च कार्याणि कुरुते पुरुषोत्तमः॥१५॥
‘अच्छा, यह तो बताओ, पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी के मन में कोई व्यथा तो नहीं है? वे संतप्त तो नहीं होते? उन्हें आगे जो कुछ करना है, उसे वे करते हैं या नहीं? ॥ १५ ॥
कच्चिन्न दीनः सम्भ्रान्तः कार्येषु च न मुह्यति।
कच्चित् पुरुषकार्याणि कुरुते नृपतेः सुतः॥१६॥
उन्हें किसी प्रकार की दीनता या घबराहट तो नहीं है? वे काम करते-करते मोह के वशीभूत तो नहीं हो जाते? क्या राजकुमार श्रीराम पुरुषोचित कार्य (पुरुषार्थ) करते हैं? ॥ १६॥
द्विविधं त्रिविधोपायमुपायमपि सेवते।
विजिगीषुः सुहृत् कच्चिन्मित्रेषु च परंतपः॥१७॥
‘क्या शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीराम मित्रों के प्रति मित्रभाव रखकर साम और दानरूप दो उपायों का ही अवलम्बन करते हैं? तथा शत्रुओं के प्रति उन्हें जीतने की इच्छा रखकर दान, भेद और दण्ड–इन तीन प्रकार के उपायों का ही आश्रय लेते हैं ? ॥ १७॥
कच्चिन्मित्राणि लभतेऽमित्रैश्चाप्यभिगम्यते।
कच्चित् कल्याणमित्रश्च मित्रैश्चापि पुरस्कृतः॥१८॥
‘क्या श्रीराम स्वयं प्रयत्नपूर्वक मित्रों का संग्रह करते हैं? क्या उनके शत्रु भी शरणागत होकर अपनी रक्षा के लिये उनके पास आते हैं? क्या उन्होंने मित्रों का उपकार करके उन्हें अपने लिये कल्याणकारी बना लिया है? क्या वे कभी अपने मित्रों से भी उपकृत या पुरस्कृत होते हैं? ॥ १८ ॥
कच्चिदाशास्ति देवानां प्रसादं पार्थिवात्मजः।
कच्चित् पुरुषकारं च दैवं च प्रतिपद्यते॥१९॥
‘क्या राजकुमार श्रीराम कभी देवताओं का भी कृपा प्रसाद चाहते हैं उनकी कृपा के लिये प्रार्थना करते हैं? क्या वे पुरुषार्थ और दैव दोनों का आश्रय लेते हैं? ॥
कच्चिन्न विगतस्नेहो विवासान्मयि राघवः।
कच्चिन्मां व्यसनादस्मान्मोक्षयिष्यति राघवः॥२०॥
‘दुर्भाग्यवश मैं उनसे दूर हो गयी हूँ। इस कारण श्रीरघुनाथजी मुझ पर स्नेहहीन तो नहीं हो गये हैं? क्या वे मुझे कभी इस संकट से छुड़ायेंगे? ॥ २० ॥
सुखानामुचितो नित्यमसुखानामनूचितः।
दुःखमुत्तरमासाद्य कच्चिद् रामो न सीदति॥२१॥
‘वे सदा सुख भोगने के ही योग्य हैं, दुःख भोगने के योग्य कदापि नहीं हैं; परंतु इन दिनों दुःख-पर-दुःख उठाने के कारण श्रीराम अधिक खिन्न और शिथिल तो नहीं हो गये हैं? ॥२१॥
कौसल्यायास्तथा कच्चित् सुमित्रायास्तथैव च।
अभीक्ष्णं श्रूयते कच्चित् कुशलं भरतस्य च॥२२॥
‘क्या उन्हें माता कौसल्या, सुमित्रा तथा भरत का कुशल-समाचार बराबर मिलता रहता है ? ॥ २२ ॥
मन्निमित्तेन मानार्हः कच्चिच्छोकेन राघवः।
कच्चिन्नान्यमना रामः कच्चिन्मां तारयिष्यति॥२३॥
‘क्या सम्माननीय श्रीरघुनाथजी मेरे लिये होने वाले शोक से अधिक संतप्त हैं? वे मेरी ओर से अन्यमनस्क तो नहीं हो गये हैं? क्या श्रीराम मुझे इस संकट से उबारेंगे?॥
कच्चिदक्षौहिणी भीमां भरतो भ्रातृवत्सलः।
ध्वजिनी मन्त्रिभिर्गप्तां प्रेषयिष्यति मत्कृते॥२४॥
‘क्या भाईपर अनुराग रखने वाले भरतजी मेरे उद्धार के लिये मन्त्रियों द्वारा सुरक्षित भयंकर अक्षौहिणी सेना भेजेंगे? ॥ २४ ॥
वानराधिपतिः श्रीमान् सुग्रीवः कच्चिदेष्यति।
मत्कृते हरिभिर्वीरैर्वृतो दन्तनखायुधैः॥ २५॥
‘क्या श्रीमान् वानरराज सुग्रीव दाँत और नखों से प्रहार करने वाले वीर वानरों को साथ ले मुझे छुड़ाने के लिये यहाँ तक आने का कष्ट करेंगे? ॥ २५॥
कच्चिच्च लक्ष्मणः शूरः सुमित्रानन्दवर्धनः।
अस्त्रविच्छरजालेन राक्षसान् विधमिष्यति॥२६॥
‘क्या सुमित्रा का आनन्द बढ़ाने वाले शूरवीर लक्ष्मण, जो अनेक अस्त्रों के ज्ञाता हैं, अपने बाणों की वर्षा से राक्षसों का संहार करेंगे? ॥ २६ ॥
रौद्रेण कच्चिदस्त्रेण रामेण निहतं रणे।
द्रक्ष्याम्यल्पेन कालेन रावणं ससुहृज्जनम्॥२७॥
‘क्या मैं रावण को उसके बन्धु-बान्धवोंसहित थोड़े ही दिनों में श्रीरघुनाथजी के द्वारा युद्ध में भयंकर अस्त्रशस्त्रों से मारा गया देखूगी? ॥ २७॥
कच्चिन्न तद्धेमसमानवर्णं तस्याननं पद्मसमानगन्धि।
मया विना शुष्यति शोकदीनं जलक्षये पद्ममिवातपेन॥२८॥
‘जैसे पानी सूख जाने पर धूप से कमल सूख जाता है, उसी प्रकार मेरे बिना शोक से दुःखी हुआ श्रीराम का वह सुवर्ण के समान कान्तिमान् और कमल के सदृश सुगन्धित मुख सूख तो नहीं गया है? ॥ २८॥
धर्मापदेशात् त्यजतः स्वराज्यं मां चाप्यरण्यं नयतः पदातेः।
नासीद् यथा यस्य न भीन शोकःकच्चित् स धैर्यं हृदये करोति॥२९॥
‘धर्मपालन के उद्देश्य से अपने राज्य का त्याग करते और मुझे पैदल ही वन में लाते समय जिन्हें तनिक भी भय और शोक नहीं हुआ, वे श्रीरघुनाथजी इस संकट के समय हृदय में धैर्य तो धारण करते हैं न?॥ २९॥
न चास्य माता न पिता न चान्यः स्नेहाद् विशिष्टोऽस्ति मया समो वा।
तावद्ध्यहं दूत जिजीविषेयं यावत् प्रवृत्तिं शृणुयां प्रियस्य॥३०॥
‘दूत! उनके माता-पिता तथा अन्य कोई सम्बन्धी भी ऐसे नहीं हैं, जिन्हें उनका स्नेह मुझसे अधिक अथवा मेरे बराबर भी मिला हो। मैं तो तभीतक जीवित रहना चाहती हूँ, जबतक यहाँ आने के सम्बन्ध में अपने प्रियतम की प्रवृत्ति सुन रही हूँ’। ३०॥
इतीव देवी वचनं महार्थं तं वानरेन्द्रं मधुरार्थमुक्त्वा ।
श्रोतुं पुनस्तस्य वचोऽभिरामं रामार्थयुक्तं विरराम रामा॥३१॥
देवी सीता वानरश्रेष्ठ हनुमान् के प्रति इस प्रकार महान् अर्थ से युक्त मधुर वचन कहकर श्रीरामचन्द्रजी से सम्बन्ध रखने वाली उनकी मनोहर वाणी पुनः सुनने के लिये चुप हो गयीं॥ ३१ ॥
सीताया वचनं श्रुत्वा मारुतिर्भीमविक्रमः।
शिरस्यञ्जलिमाधाय वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥३२॥
सीताजी का वचन सुनकर भयंकर पराक्रमी पवनकुमार हनुमान् मस्तक पर अञ्जलि बाँधे उन्हें इस प्रकार उत्तर देने लगे— ॥ ३२॥
न त्वामिहस्थां जानीते रामः कमललोचनः।
तेन त्वां नानयत्याशु शचीमिव पुरंदरः॥३३॥
‘देवि! कमलनयन भगवान् श्रीराम को यह पता ही नहीं है कि आप लङ्का में रह रही हैं। इसीलिये जैसे इन्द्र दानवों के यहाँ से शची को उठा ले गये, उस प्रकार वे शीघ्र यहाँ से आपको नहीं ले जा रहे हैं।
३३॥
श्रुत्वैव च वचो मह्यं क्षिप्रमेष्यति राघवः।
चमू प्रकर्षन् महतीं हयृक्षगणसंयुताम्॥३४॥
‘जब मैं यहाँ से लौटकर जाऊँगा, तब मेरी बात सुनते ही श्रीरघुनाथजी वानर और भालुओं की विशाल सेना लेकर तुरंत वहाँ से चल देंगे॥ ३४ ॥
विष्टम्भयित्वा बाणौटुरक्षोभ्यं वरुणालयम्।
करिष्यति पुरीं लङ्कां काकुत्स्थः शान्तराक्षसाम्॥३५॥
‘ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम अपने बाण-समूहों द्वारा अक्षोभ्य महासागर को भी स्तब्ध करके उसपर सेतु बाँधकर लङ्कापुरी में पहुँच जायेंगे और उसे राक्षसों से सूनी कर देंगे॥ ३५॥
तत्र यद्यन्तरा मृत्युर्यदि देवा महासुराः।
स्थास्यन्ति पथि रामस्य स तानपि वधिष्यति॥३६॥
उस समय श्रीराम के मार्ग में यदि मृत्यु, देवता अथवा बड़े-बड़े असुर भी विघ्न बनकर खड़े होंगे तो वे उन सबका भी संहार कर डालेंगे॥३६॥
तवादर्शनजेनार्ये शोकेन परिपूरितः।
न शर्म लभते रामः सिंहार्दित इव द्विपः॥ ३७॥
‘आर्ये! आपको न देखने के कारण उत्पन्न हुए शोक से उनका हृदय भरा रहता है; अतः श्रीराम सिंह से पीड़ित हुए हाथी की भाँति क्षणभर को भी चैन नहीं पाते हैं॥३७॥
मन्दरेण च ते देवि शपे मूलफलेन च।
मलयेन च विन्ध्येन मेरुणा दर्दुरेण च॥३८॥
यथा सुनयनं वल्गु बिम्बोष्ठं चारुकुण्डलम्।
मुखं द्रक्ष्यसि रामस्य पूर्णचन्द्रमिवोदितम्॥३९॥
‘देवि! मन्दर आदि पर्वत हमारे वासस्थान हैं और फल-मूल भोजन। अतः मैं मन्दराचल, मलय, विन्ध्य, मेरु तथा दर्दुर पर्वत की और अपनी जीविका के साधन फल-मूल की सौगंध खाकर कहता हूँ कि आप शीघ्र ही श्रीराम का नवोदित पूर्ण चन्द्रमा के समान वह मनोहर मुख देखेंगी, जो सुन्दर नेत्र, बिम्बफल के समान लाल-लाल ओठ और सुन्दर कुण्डलों से अलंकृत एवं चित्ताकर्षक है॥ ३८-३९॥
क्षिप्रं द्रक्ष्यसि वैदेहि रामं प्रस्रवणे गिरौ।
शतक्रतुमिवासीनं नागपृष्ठस्य मूर्धनि॥४०॥
‘विदेहनन्दिनि! ऐरावत की पीठ पर बैठे हुए देवराज इन्द्र के समान प्रस्रवण गिरि के शिखरपर विराजमान श्रीराम का आप शीघ्र दर्शन करेंगी॥ ४०॥
न मांसं राघवो भुङ्क्ते न चैव मधु सेवते।
वन्यं सुविहितं नित्यं भक्तमश्नाति पञ्चमम्॥ ४१॥
‘कोई भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न मधु का ही सेवन करता है; फिर भगवान् श्रीराम इन वस्तुओं का सेवन क्यों करते? वे सदा चार समय उपवास करके पाँचवें समय शास्त्रविहित जंगली फल-मूल और नीवार आदि भोजन करते हैं॥ ४१॥
नैव दंशान् न मशकान् न कीटान् न सरीसृपान्।
राघवोऽपनयेद् गात्रात् त्वद्गतेनान्तरात्मना॥४२॥
‘श्रीरघुनाथजी का चित्त सदा आप में लगा रहता है, अतः उन्हें अपने शरीर पर चढ़े हुए डाँस, मच्छर,कीड़ों और सर्पो को हटाने की भी सुधि नहीं रहती॥ ४२॥
नित्यं ध्यानपरो रामो नित्यं शोकपरायणः।
नान्यच्चिन्तयते किंचित् स तु कामवशं गतः॥४३॥
‘श्रीराम आपके प्रेम के वशीभूत हो सदा आपका ही ध्यान करते और निरन्तर आपके ही विरह-शोक में डूबे रहते हैं। आपको छोड़कर दूसरी कोई बात वे सोचते ही नहीं हैं॥४३॥
अनिद्रः सततं रामः सुप्तोऽपि च नरोत्तमः।
सीतेति मधुरां वाणीं व्याहरन् प्रतिबुध्यते॥४४॥
‘नरश्रेष्ठ! श्रीराम को सदा आपकी चिन्ता के कारण कभी नींद नहीं आती है। यदि कभी आँख लगी भी तो ‘सीता-सीता’ इस मधुर वाणी का उच्चारण करते हुए वे जल्दी ही जाग उठते हैं॥४४॥
दृष्ट्वा फलं वा पुष्पं वा यच्चान्यत् स्त्रीमनोहरम्।
बहुशो हा प्रियेत्येवं श्वसंस्त्वामभिभाषते॥४५॥
‘किसी फल, फूल अथवा स्त्रियों के मन को लुभाने वाली दूसरी वस्तु को भी जब वे देखते हैं, तब लंबी साँस लेकर बारंबार ‘हा प्रिये! हा प्रिये!’ कहते हुए आपको पुकारने लगते हैं॥ ४५ ॥
स देवि नित्यं परितप्यमानस्त्वामेव सीतेत्यभिभाषमाणः।
धृतव्रतो राजसुतो महात्मा तवैव लाभाय कृतप्रयत्नः॥४६॥
‘देवि! राजकुमार महात्मा श्रीराम आपके लिये सदा दुःखी रहते हैं, सीता-सीता कहकर आपकी ही रट लगाते हैं तथा उत्तम व्रत का पालन करते हुए आपकी ही प्राप्ति के प्रयत्न में लगे हुए हैं’॥ ४६॥
सा रामसंकीर्तनवीतशोका रामस्य शोकेन समानशोका।
शरन्मुखेनाम्बुदशेषचन्द्रा निशेव वैदेहसुता बभूव॥४७॥
श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा से सीता का अपना शोक तो दूर हो गया; किंतु श्रीराम के शोक की बात सुनकर वे पुनः उन्हीं के समान शोक में निमग्न हो गयीं। उस समय विदेहनन्दिनी सीता शरद्-ऋतु आने पर मेघों की घटा और चन्द्रमा–दोनों से युक्त (अन्धकार और प्रकाशपूर्ण) रात्रि के समान हर्ष और शोक से युक्त प्रतीत होती थीं॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षट्त्रिंशः सर्गः॥ ३६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३६॥