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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 37 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 37

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
सप्तत्रिंशः सर्गः (37)

(सीता का हनुमान जी से श्रीराम को शीघ्र बुलाने का आग्रह, हनुमान जी का सीता से अपने साथ चलने का अनुरोध तथा सीता का अस्वीकार करना)

सा सीता वचनं श्रुत्वा पूर्णचन्द्रनिभानना।
हनूमन्तमुवाचेदं धर्मार्थसहितं वचः॥१॥

हनुमान जी का पूर्वोक्त वचन सुनकर पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली सीता ने उनसे धर्म और अर्थ से युक्त बात कही— ॥१॥

अमृतं विषसम्पृक्तं त्वया वानर भाषितम्।
यच्च नान्यमना रामो यच्च शोकपरायणः॥२॥

‘वानर! तुमने जो कहा कि श्रीरघुनाथजी का चित्त दूसरी ओर नहीं जाता और वे शोक में डूबे रहते हैं, तुम्हारा यह कथन मुझे विषमिश्रित अमृत के समान लगा है॥

ऐश्वर्ये वा सुविस्तीर्णे व्यसने वा सुदारुणे।
रज्ज्वेव पुरुषं बद्ध्वा कृतान्तः परिकर्षति॥३॥

‘कोई बड़े भारी ऐश्वर्य में स्थित हो अथवा अत्यन्त भयंकर विपत्ति में पड़ा हो, काल मनुष्य को इस तरह खींच लेता है, मानो उसे रस्सी में बाँध रखा हो।

विधिनमसंहार्यः प्राणिनां प्लवगोत्तम।
सौमित्रं मां च रामं च व्यसनैः पश्य मोहितान्॥४॥

‘वानरशिरोमणे! दैव के विधान को रोकना प्राणियों के वश की बात नहीं है। उदाहरण के लिये सुमित्राकुमार लक्ष्मण को, मुझको और श्रीराम को भी देख लो। हमलोग किस तरह वियोग-दुःख से मोहित हो रहे हैं। ४॥

शोकस्यास्य कथं पारं राघवोऽधिगमिष्यति।
प्लवमानः परिक्रान्तो हतनौः सागरे यथा॥५॥

‘समुद्रमें नौका के नष्ट हो जाने पर अपने हाथों से तैरने वाले पराक्रमी पुरुष की भाँति श्रीरघुनाथजी कैसे इस शोक-सागर से पार होंगे? ॥ ५॥

राक्षसानां वधं कृत्वा सूदयित्वा च रावणम्।
लङ्कामुन्मथितां कृत्वा कदा द्रक्ष्यति मां पतिः॥६॥

‘राक्षसों का वध, रावण का संहार और लङ्कापुरी का विध्वंस करके मेरे पतिदेव मुझे कब देखेंगे? ॥६॥

स वाच्यः संत्वरस्वेति यावदेव न पूर्यते।
अयं संवत्सरः कालस्तावद्धि मम जीवितम्॥७॥

‘तुम उनसे जाकर कहना, वे शीघ्रता करें। यह वर्ष जब तक पूरा नहीं हो जाता, तभी तक मेरा जीवन शेष है॥

वर्तते दशमो मासो द्वौ तु शेषौ प्लवङ्गम।
रावणेन नृशंसेन समयो यः कृतो मम॥८॥

‘वानर! यह दसवाँ महीना चल रहा है। अब वर्ष पूरा होने में दो ही मास शेष हैं। निर्दयी रावण ने मेरे जीवन के लिये जो अवधि निश्चित की है, उसमें इतना ही समय बाकी रह गया है॥ ८॥

विभीषणेन च भ्रात्रा मम निर्यातनं प्रति।
अनुनीतः प्रयत्नेन न च तत् कुरुते मतिम्॥९॥

‘रावण के भाई विभीषण ने मुझे लौटा देने के लिये उससे यत्नपूर्वक बड़ी अनुनय-विनय की थी, किंतु वह उनकी बात नहीं मानता है॥९॥

मम प्रतिप्रदानं हि रावणस्य न रोचते।
रावणं मार्गते संख्ये मृत्युः कालवशंगतम्॥१०॥

‘मेरा लौटाया जाना रावण को अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह काल के अधीन हो रहा है और युद्ध में मौत उसे ढूँढ़ रही है॥१०॥

ज्येष्ठा कन्या कला नाम विभीषणसुता कपे।
तया ममैतदाख्यातं मात्रा प्रहितया स्वयम्॥११॥

‘कपे! विभीषण की ज्येष्ठ पुत्री का नाम कला है। उसकी माता ने स्वयं उसे मेरे पास भेजा था। उसी ने ये सारी बातें मुझसे कही हैं॥ ११॥

अविन्ध्यो नाम मेधावी विद्वान् राक्षसपुङ्गवः।
धृतिमाञ्छीलवान् वृद्धो रावणस्य सुसम्मतः॥१२॥

‘अविन्ध्य नाम का एक श्रेष्ठ राक्षस है, जो बड़ा ही बुद्धिमान्, विद्वान्, धीर, सुशील, वृद्ध तथा रावण का सम्मानपात्र है॥ १२॥

रामात् क्षयमनुप्राप्तं रक्षसां प्रत्यचोदयत्।
न च तस्य स दुष्टात्मा शृणोति वचनं हितम्॥१३॥

“उसने रावण को यह बताकर कि श्रीराम के हाथ से राक्षसों के विनाश का अवसर आ पहुँचा है, मुझे लौटा देने के लिये प्रेरित किया था, किंतु वह दुष्टात्मा उसके हितकारी वचनों को भी नहीं सुनता है॥ १३॥

आशंसेयं हरिश्रेष्ठ क्षिप्रं मां प्राप्स्यते पतिः।
अन्तरात्मा हि मे शुद्धस्तस्मिंश्च बहवो गुणाः॥१४॥

‘कपिश्रेष्ठ! मुझे तो यह आशा हो रही है कि मेरे पतिदेव मुझसे शीघ्र ही आ मिलेंगे; क्योंकि मेरी अन्तरात्मा शुद्ध है और श्रीरघुनाथजी में बहुत-से गुण हैं।॥ १४॥

उत्साहः पौरुषं सत्त्वमानृशंस्यं कृतज्ञता।
विक्रमश्च प्रभावश्च सन्ति वानर राघवे॥१५॥

‘वानर! श्रीरामचन्द्रजी में उत्साह, पुरुषार्थ, बल, दयालुता, कृतज्ञता, पराक्रम और प्रभाव आदि सभी गुण विद्यमान हैं॥ १५॥

चतुर्दश सहस्राणि राक्षसानां जघान यः।
जनस्थाने विना भ्रात्रा शत्रुः कस्तस्य नोद्विजेत्॥१६॥

‘जिन्होंने जनस्थान में अपने भाई की सहायता लिये बिना ही चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला, उनसे कौन शत्रु भयभीत न होगा? ॥ १६ ॥

न स शक्यस्तुलयितुं व्यसनैः पुरुषर्षभः।
अहं तस्यानुभावज्ञा शक्रस्येव पुलोमजा॥१७॥

‘श्रीरामचन्द्रजी पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। वे संकटों से तोले या विचलित किये जायँ, यह सर्वथा असम्भव है।जैसे पुलोम-कन्या शची इन्द्र के प्रभावको  जानती हैं, उसी तरह मैं श्रीरघुनाथजी की शक्ति-सामर्थ्य को अच्छी तरह जानती हूँ॥ १७॥

शरजालांशुमान् शूरः कपे रामदिवाकरः।
शत्रुरक्षोमयं तोयमुपशोषं नयिष्यति॥१८॥

‘कपिवर ! शूरवीर भगवान् श्रीराम सूर्य के समान हैं। उनके बाणसमूह ही उनकी किरणें हैं। वे उनके द्वारा शत्रुभूत राक्षसरूपी जल को शीघ्र ही सोख लेंगे’। १८॥

इति संजल्पमानां तां रामार्थे शोककर्शिताम्।
अश्रुसम्पूर्णवदनामुवाच हनुमान् कपिः॥१९॥

इतना कहते-कहते सीताके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली। वे श्रीरामचन्द्रजी के लिये शोक से पीड़ित हो रही थीं। उस समय कपिवर हनुमान जी ने उनसे कहा— ॥ १९॥

श्रुत्वैव च वचो मह्यं क्षिप्रमेष्यति राघवः।
चमूं प्रकर्षन् महतीं हयृक्षगणसंकुलाम्॥२०॥

‘देवि! आप धैर्य धारण करें। मेरा वचन सुनते ही श्रीरघुनाथजी वानर और भालुओं की विशाल सेना लेकर शीघ्र यहाँ के लिये प्रस्थान कर देंगे॥२०॥

अथवा मोचयिष्यामि त्वामद्यैव सराक्षसात्।
अस्माद् दुःखादुपारोह मम पृष्ठमनिन्दिते॥२१॥

‘अथवा मैं अभी आपको इस राक्षसजनित दुःख से छुटकारा दिला दूंगा। सती-साध्वी देवि! आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये॥ २१॥

त्वां तु पृष्ठगतां कृत्वा संतरिष्यामि सागरम्।
शक्तिरस्ति हि मे वोढुं लङ्कामपि सरावणाम्॥२२॥

‘आपको पीठ पर बैठाकर मैं समुद्र को लाँघ जाऊँगा। मुझमें रावणसहित सारी लङ्का को भी ढो ले जाने की शक्ति है॥२२॥

अहं प्रस्रवणस्थाय राघवायाद्य मैथिलि।
प्रापयिष्यामि शक्राय हव्यं हुतमिवानलः॥२३॥

‘मिथिलेशकुमारी! रघुनाथजी प्रस्रवणगिरि पर रहते हैं। मैं आज ही आपको उनके पास पहुँचा दूंगा ठीक उसी तरह, जैसे अग्निदेव हवन किये गये हविष्य को इन्द्र की सेवा में ले जाते हैं ॥ २३॥

द्रक्ष्यस्यद्यैव वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम्।
व्यवसायसमायुक्तं विष्णुं दैत्यवधे यथा॥२४॥

‘विदेहनन्दिनि! दैत्यों के वध के लिये उत्साह रखने वाले भगवान् विष्णु की भाँति राक्षसों के संहार के लिये सचेष्ट हुए श्रीराम और लक्ष्मण का आप आज ही दर्शन करेंगी॥ २४॥

त्वदर्शनकृतोत्साहमाश्रमस्थं महाबलम्।
पुरंदरमिवासीनं नगराजस्य मूर्धनि॥२५॥

‘आपके दर्शन का उत्साह मन में लिये महाबली श्रीराम पर्वत-शिखर पर अपने आश्रम में उसी प्रकार बैठे हैं, जैसे देवराज इन्द्र गजराज ऐरावत की पीठ पर विराजमान होते हैं॥२५॥

पृष्ठमारोह मे देवि मा विकाङ्क्षस्व शोभने।
योगमन्विच्छ रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी॥२६॥

‘देवि! आप मेरी पीठ पर बैठिये। शोभने! मेरे कथन की उपेक्षा न कीजिये। चन्द्रमा से मिलने वाली रोहिणी की भाँति आप श्रीरामचन्द्रजी के साथ मिलने का निश्चय कीजिये॥२६॥

कथयन्तीव शशिना संगमिष्यसि रोहिणी।।
मत्पृष्ठमधिरोह त्वं तराकाशं महार्णवम्॥२७॥

‘मुझे भगवान् श्रीराम से मिलना है, इतना कहते ही आप चन्द्रमा से रोहिणी की भाँति श्रीरघुनाथजी से मिल जायँगी। आप मेरी पीठ पर आरूढ़ होइये और आकाशमार्ग से ही महासागर को पार कीजिये॥२७॥

नहि मे सम्प्रयातस्य त्वामितो नयतोऽङ्गने।
अनुगन्तुं गतिं शक्ताः सर्वे लङ्कानिवासिनः॥२८॥

‘कल्याणि! मैं आपको लेकर जब यहाँ से चलूँगा, उस समय समूचे लङ्का-निवासी मिलकर भी मेरा पीछा नहीं कर सकते॥२८॥

यथैवाहमिह प्राप्तस्तथैवाहमसंशयम्।
यास्यामि पश्य वैदेहि त्वामुद्यम्य विहायसम्॥२९॥

‘विदेहनन्दिनि ! जिस प्रकार मैं यहाँ आया हूँ, उसी तरह आपको लेकर आकाशमार्ग से चला जाऊँगा, इसमें संदेह नहीं है आप मेरा पराक्रम देखिये’। २९॥

मैथिली तु हरिश्रेष्ठाच्छ्रुत्वा वचनमद्भुतम्।
हर्षविस्मितसर्वाङ्गी हनूमन्तमथाब्रवीत्॥३०॥

वानरश्रेष्ठ हनुमान् के मुख से यह अद्भुत वचन सुनकर मिथिलेशकुमारी सीता के सारे शरीर में हर्ष और विस्मय के कारण रोमाञ्च हो आया। उन्होंने हनुमान जी से कहा— ॥ ३०॥

हनूमन् दूरमध्वानं कथं मां नेतुमिच्छसि।
तदेव खलु ते मन्ये कपित्वं हरियूथप॥३१॥

‘वानरयूथपति हनुमान् ! तुम इतने दूर के मार्ग पर मुझे कैसे ले चलना चाहते हो? तुम्हारे इसदुःसाहस को मैं वानरोचित चपलता ही समझती हूँ।३१॥

कथं चाल्पशरीरस्त्वं मामितो नेतुमिच्छसि।
सकाशं मानवेन्द्रस्य भर्तुर्मे प्लवगर्षभ॥३२॥

‘वानरशिरोमणे! तुम्हारा शरीर तो बहुत छोटा है। फिर तुम मुझे मेरे स्वामी महाराज श्रीराम के पास ले जाने की इच्छा कैसे करते हो?’ ॥ ३२ ॥

सीतायास्तु वचः श्रुत्वा हनूमान् मारुतात्मजः।
चिन्तयामास लक्ष्मीवान् नवं परिभवं कृतम्॥३३॥

सीताजी की यह बात सुनकर शोभाशाली पवनकुमार हनुमान् ने इसे अपने लिये नया तिरस्कार ही माना॥ ३३॥

न मे जानाति सत्त्वं वा प्रभाव वासितेक्षणा।
तस्मात् पश्यतु वैदेही यद् रूपं मम कामतः॥३४॥

वे सोचने लगे—’कजरारे नेत्रोंवाली विदेहनन्दिनी सीता मेरे बल और प्रभाव को नहीं जानतीं। इसलिये आज मेरे उस रूप को, जिसे मैं इच्छानुसार धारण कर लेता हूँ, ये देख लें’॥ ३४॥

इति संचिन्त्य हनुमांस्तदा प्लवगसत्तमः।
दर्शयामास सीतायाः स्वरूपमरिमर्दनः॥३५॥

ऐसा विचार करके शत्रुमर्दन वानरशिरोमणि हनुमान् ने उस समय सीता को अपना स्वरूप दिखाया॥ ३५॥

स तस्मात् पादपाद् धीमानाप्लुत्य प्लवगर्षभः।
ततो वर्धितुमारेभे सीताप्रत्ययकारणात्॥३६॥

वे बुद्धिमान् कपिवर उस वृक्ष से नीचे कूद पड़े और सीताजी को विश्वास दिलाने के लिये बढ़ने लगे।३६॥

मेरुमन्दरसंकाशो बभौ दीप्तानलप्रभः।
अग्रतो व्यवतस्थे च सीताया वानरर्षभः॥३७॥

बात-की-बात में उनका शरीर मेरुपर्वत के समान ऊँचा हो गया। वे प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी प्रतीत होने लगे। इस तरह विशाल रूप धारण करके वे वानरश्रेष्ठ हनुमान् सीताजी के सामने खड़े हो गये।

हरिः पर्वतसंकाशस्ताम्रवक्त्रो महाबलः।
वज्रदंष्ट्रनखो भीमो वैदेहीमिदमब्रवीत्॥ ३८॥

तत्पश्चात् पर्वत के समान विशालकाय, तामे के समान लाल मुख तथा वज्र के समान दाढ़ और नखवाले भयानक महाबली वानरवीर हनुमान् विदेहनन्दिनी से इस प्रकार बोले- ॥ ३८॥

सपर्वतवनोद्देशां साट्टप्राकारतोरणाम्।
लङ्कामिमां सनाथां वा नयितुं शक्तिरस्ति मे॥३९॥

‘देवि! मुझमें पर्वत, वन, अट्टालिका, चहारदिवारी और नगरद्वार सहित इस लङ्कापुरी को रावण के साथ ही उठा ले जाने की शक्ति है॥ ३९॥

तदवस्थाप्यतां बुद्धिरलं देवि विकाङ्ख्या।
विशोकं कुरु वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम्॥४०॥

‘अतः आप मेरे साथ चलने का निश्चय कर लीजिये। आपकी आशङ्का व्यर्थ है। देवि! विदेहनन्दिनि! आप मेरे साथ चलकर लक्ष्मणसहित श्रीरघुनाथजी का शोक दूर कीजिये’॥ ४०॥

तं दृष्ट्वाचलसंकाशमुवाच जनकात्मजा।
पद्मपत्रविशालाक्षी मारुतस्यौरसं सुतम्॥४१॥

वायु के औरस पुत्र हनुमान जी को पर्वत के समान विशाल शरीर धारण किये देख प्रफुल्ल कमलदल के समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाली जनककिशोरी ने उनसे कहा – ॥४१॥

तव सत्त्वं बलं चैव विजानामि महाकपे।
वायोरिव गतिश्चापि तेजश्चाग्नेरिवाद्भुतम्॥४२॥

‘महाकपे! मैं तुम्हारी शक्ति और पराक्रम को जानती हूँ। वायु के समान तुम्हारी गति और अग्नि के समान तुम्हारा अद्भुत तेज है॥ ४२ ॥

प्राकृतोऽन्यः कथं चेमां भूमिमागन्तुमर्हति।
उदधेरप्रमेयस्य पारं वानरयूथप॥४३॥

‘वानरयूथपते! दूसरा कोई साधारण वानर अपार महासागर के पार की इस भूमि में कैसे आ सकता है?॥

जानामि गमने शक्तिं नयने चापि ते मम।
अवश्यं सम्प्रधाशु कार्यसिद्धिरिवात्मनः॥४४॥

‘मैं जानती हूँ’ तुम समुद्र पार करने और मुझे ले जाने में भी समर्थ हो, तथापि तुम्हारी तरह मुझे भी अपनी कार्यसिद्धि के विषय में अवश्य भलीभाँति विचार कर लेना चाहिये॥४४॥

अयुक्तं तु कपिश्रेष्ठ मया गन्तुं त्वया सह।
वायुवेगसवेगस्य वेगो मां मोहयेत् तव॥४५॥

‘कपिश्रेष्ठ ! तुम्हारे साथ मेरा जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है; क्योंकि तुम्हारा वेग वायु के वेग के समान तीव्र है। जाते समय यह वेग मुझे मूर्च्छित कर सकता है॥ ४५ ॥

अहमाकाशमासक्ता उपर्युपरि सागरम्।
प्रपतेयं हि ते पृष्ठाद् भूयो वेगेन गच्छतः॥४६॥

‘मैं समुद्र के ऊपर-ऊपर आकाश में पहुँच जाने पर अधिक वेग से चलते हुए तुम्हारे पृष्ठभाग से नीचे गिर सकती हूँ॥ ४६॥

पतिता सागरे चाहं तिमिनक्रझषाकुले।
भवेयमाशु विवशा यादसामन्नमुत्तमम्॥४७॥

‘इस तरह समुद्र में, जो तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्यों, नाकों और मछलियों से भरा हुआ है, गिरकर विवश हो मैं शीघ्र ही जल-जन्तुओं का उत्तम आहार बन जाऊँगी॥

न च शक्ष्ये त्वया सार्धं गन्तुं शत्रुविनाशन।
कलत्रवति संदेहस्त्वयि स्यादप्यसंशयम्॥४८॥

‘इसलिये शत्रुनाशन वीर! मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकूँगी। एक स्त्री को साथ लेकर जब तुम जाने लगोगे, उस समय राक्षसों को तुम पर संदेह होगा, इसमें संशय नहीं है॥४८॥

ह्रियमाणां तु मां दृष्ट्वा राक्षसा भीमविक्रमाः।
अनुगच्छेयुरादिष्टा रावणेन दुरात्मना॥४९॥

‘मुझे हरकर ले जायी जाती देख दुरात्मा रावण की आज्ञा से भयंकर पराक्रमी राक्षस तुम्हारा पीछा करेंगे। ४९॥

तैस्त्वं परिवृतः शूरैः शूलमुद्गरपाणिभिः।
भवेस्त्वं संशयं प्राप्तो मया वीर कलत्रवान्॥५०॥

‘वीर! उस समय मुझ-जैसी रक्षणीया अबला के साथ होने के कारण तुम हाथों में शूल और मुद्गर धारण करने वाले उन शौर्यशाली राक्षसों से घिरकर प्राणसंशय की अवस्था में पहुँच जाओगे॥ ५० ॥

सायुधा बहवो व्योम्नि राक्षसास्त्वं निरायुधः।
कथं शक्ष्यसि संयातुं मां चैव परिरक्षितुम्॥५१॥

‘आकाश में अस्त्र-शस्त्रधारी बहुत-से राक्षस तुमपर आक्रमण करेंगे और तुम्हारे हाथ में कोई भी अस्त्र न होगा। उस दशा में तुम उन सबके साथ युद्ध और मेरी रक्षा दोनों कार्य कैसे कर सकोगे? ॥ ५१॥

युध्यमानस्य रक्षोभिस्ततस्तैः क्रूरकर्मभिः।
प्रपतेयं हि ते पृष्ठाद् भयार्ता कपिसत्तम॥५२॥

‘कपिश्रेष्ठ! उन क्रूरकर्मा राक्षसों के साथ जब तुम युद्ध करने लगोगे, उस समय मैं भय से पीड़ित होकर तुम्हारी पीठ से अवश्य ही गिर जाऊँगी॥५२॥

अथ रक्षांसि भीमानि महान्ति बलवन्ति च।
कथंचित् साम्पराये त्वां जयेयुः कपिसत्तम।५३॥
अथवा युध्यमानस्य पतेयं विमुखस्य ते।
पतितां च गृहीत्वा मां नयेयुः पापराक्षसाः॥५४॥

‘कपिश्रेष्ठ! यदि कहीं वे महान् बलवान् भयानक राक्षस किसी तरह तुम्हें युद्ध में जीत लें अथवा युद्ध करते समय मेरी रक्षा की ओर तुम्हारा ध्यान न रहने से यदि मैं गिर गयी तो वे पापी राक्षस मुझ गिरी हुई अबला को फिर पकड़ ले जायँगे॥ ५३-५४॥

मां वा हरेयुस्त्वद्धस्ताद् विशसेयुरथापि वा।
अनवस्थौ हि दृश्येते युद्धे जयपराजयौ॥५५॥

‘अथवा यह भी सम्भव है कि वे निशाचर मुझे तुम्हारे हाथ से छीन ले जायँ या मेरा वध ही कर डालें; क्योंकि युद्ध में विजय और पराजय को अनिश्चित ही देखा जाता है॥ ५५ ॥

अहं वापि विपद्येयं रक्षोभिरभितर्जिता।
त्वत्प्रयत्नो हरिश्रेष्ठ भवेन्निष्फल एव तु॥५६॥

‘अथवा वानरशिरोमणे! यदि राक्षसों की अधिक डाँट पड़ने पर मेरे प्राण निकल गये तो फिर तुम्हारा यह सारा प्रयत्न निष्फल ही हो जायगा॥५६॥

कामं त्वमपि पर्याप्तो निहन्तुं सर्वराक्षसान्।
राघवस्य यशो हीयेत् त्वया शस्तैस्तु राक्षसैः॥५७॥

‘यद्यपि तुम भी सम्पूर्ण राक्षसों का संहार करने में समर्थ हो तथापि तुम्हारे द्वारा राक्षसों का वध हो जानेपर श्रीरघुनाथजी के सुयश में बाधा आयेगी (लोग यही कहेंगे कि श्रीराम स्वयं कुछ भी न कर सके)। ५७॥

अथवाऽऽदाय रक्षांसि न्यसेयुः संवृते हि माम्।
यत्र ते नाभिजानीयुहरयो नापि राघवः॥५८॥

‘अथवा यह भी सम्भव है कि राक्षसलोग मुझे ले जाकर किसी ऐसे गुप्त स्थान में रख दें, जहाँ न तो वानरों को मेरा पता लगे और न श्रीरघुनाथजी को ही॥

आरम्भस्तु मदर्थोऽयं ततस्तव निरर्थकः।
त्वया हि सह रामस्य महानागमने गुणः॥५९॥

‘यदि ऐसा हुआ तो मेरे लिये किया गया तुम्हारा यह सारा उद्योग व्यर्थ हो जायगा। यदि तुम्हारे साथ श्रीरामचन्द्रजी यहाँ पधारें तो उनके आने से बहुत बड़ा लाभ होगा॥ ५९॥

मयि जीवितमायत्तं राघवस्यामितौजसः।
भ्रातृणां च महाबाहो तव राजकुलस्य च॥६०॥

‘महाबाहो! अमित पराक्रमी श्रीरघुनाथजी का, उनके भाइयों का, तुम्हारा तथा वानरराज सुग्रीव के कुल का जीवन मुझ पर ही निर्भर है॥६०॥

तौ निराशौ मदर्थं च शोकसंतापकर्शितौ।
सह सर्वक्षहरिभिस्त्यक्ष्यतः प्राणसंग्रहम्॥६१॥

‘शोक और संताप से पीड़ित हुए वे दोनों भाई जब मेरी प्राप्ति की ओर से निराश हो जायँगे, तब सम्पूर्ण रीछों और वानरों के साथ अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे॥

भर्तुर्भक्तिं पुरस्कृत्य रामादन्यस्य वानर।
नाहं स्प्रष्टुं स्वतो गात्रमिच्छेयं वानरोत्तम॥६२॥

‘वानरश्रेष्ठ! (तुम्हारे साथ न चल सकने का एक प्रधान कारण और भी है—) वानरवीर! पतिभक्ति की ओर दृष्टि रखकर मैं भगवान् श्रीराम के सिवा दूसरे किसी पुरुष के शरीर का स्वेच्छा से स्पर्श करना नहीं चाहती॥ ६२॥

यदहं गात्रसंस्पर्श रावणस्य गता बलात्।
अनीशा किं करिष्यामि विनाथा विवशा सती॥६३॥

‘रावण के शरीर से  जो मेरा स्पर्श हो गया है, वह तो उसके बलात् हुआ है उस समय मैं असमर्थ, अनाथ और बेबस थी, क्या करती॥ ६३॥

यदि रामो दशग्रीवमिह हत्वा सराक्षसम्।
मामितो गृह्य गच्छेत तत् तस्य सदृशं भवेत्॥६४॥

‘यदि श्रीरघुनाथजी यहाँ राक्षसोंसहित दशमुख रावणका वध करके मुझे यहाँ से ले चलें तो वह उनके योग्य कार्य होगा॥६४॥

श्रुताश्च दृष्टा हि मया पराक्रमा महात्मनस्तस्य रणावमर्दिनः।
न देवगन्धर्वभुजङ्गराक्षसा भवन्ति रामेण समा हि संयुगे॥६५॥

‘मैंने युद्ध में शत्रुओं का मर्दन करने वाले महात्मा श्रीराम के पराक्रम अनेक बार देखे और सुने हैं। देवता, गन्धर्व, नाग और राक्षस सब मिलकर भी संग्राम में उनकी समानता नहीं कर सकते॥६५॥

समीक्ष्य तं संयति चित्रकार्मुकं महाबलं वासवतुल्यविक्रमम्।
सलक्ष्मणं को विषहेत राघवं हुताशनं दीप्तमिवानिलेरितम्॥६६॥

‘युद्धस्थल में विचित्र धनुष धारण करने वाले इन्द्रतुल्य पराक्रमी महाबली श्रीरघुनाथजी लक्ष्मण के साथ रह वायु का सहारा पाकर प्रज्वलित हुए अग्नि की भाँति उद्दीप्त हो उठते हैं। उस समय उन्हें देखकर उनका वेग कौन सह सकता है? ॥६६॥

सलक्ष्मणं राघवमाजिमर्दनं दिशागजं मत्तमिव व्यवस्थितम्।
सहेत को वानरमुख्य संयुगे युगान्तसूर्यप्रतिमं शरार्चिषम्॥६७॥

‘वानरशिरोमणे! समराङ्गण में अपने बाणरूपी तेज से प्रलयकालीन सूर्य के समान प्रकाशित होने वालेऔर मतवाले दिग्गज की भाँति खड़े हुए रणमर्दन श्रीराम और लक्ष्मण का सामना कौन कर सकता है? ॥ ६७॥

स मे कपिश्रेष्ठ सलक्ष्मणं प्रियं सयूथपं क्षिप्रमिहोपपादय।
चिराय रामं प्रति शोककर्शितां कुरुष्व मां वानरवीर हर्षिताम्॥६८॥

‘इसलिये कपिश्रेष्ठ! वानरवीर! तुम प्रयत्न करके यूथपति सुग्रीव और लक्ष्मणसहित मेरे प्रियतम श्रीरामचन्द्रजी को शीघ्र यहाँ बुला ले आओ। मैं श्रीराम के लिये चिरकाल से शोकाकुल हो रही हूँ। तुम उनके शुभागमन से मुझे हर्ष प्रदान करो’ ॥ ६८॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तत्रिंशः सर्गः॥३७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३७॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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