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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 38 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 38

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
अष्टात्रिंशः सर्गः (38)

(सीताजी का हनुमान जी को पहचान के रूप में चित्रकट पर्वत पर घटित हए एक कौए के प्रसंग को सुनाना, श्रीराम को शीघ्र बुलाने के लिये अनुरोध करना और चूड़ामणि देना)

ततः स कपिशार्दूलस्तेन वाक्येन तोषितः।
सीतामुवाच तच्छ्रुत्वा वाक्यं वाक्यविशारदः॥१॥

सीता के इस वचन से कपिश्रेष्ठ हनुमान जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बातचीत में कुशल थे। उन्होंने पूर्वोक्त बातें सुनकर सीता से कहा— ॥१॥

युक्तरूपं त्वया देवि भाषितं शुभदर्शने।
सदृशं स्त्रीस्वभावस्य साध्वीनां विनयस्य च॥२॥

‘देवि! आपका कहना बिलकुल ठीक और युक्तिसंगत है। शुभदर्शने! आपकी यह बात नारी स्वभाव के तथा पतिव्रताओं की विनयशीलता के अनुरूप है॥२॥

स्त्रीत्वान्न त्वं समर्थासि सागरं व्यतिवर्तितुम्।
मामधिष्ठाय विस्तीर्णं शतयोजनमायतम्॥३॥

‘इसमें संदेह नहीं कि आप अबला होने के कारण मेरी पीठ पर बैठकर सौ योजन विस्तृत समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं हैं॥३॥

द्वितीयं कारणं यच्च ब्रवीषि विनयान्विते।
रामादन्यस्य नार्हामि संसर्गमिति जानकि॥४॥
एतत् ते देवि सदृशं पत्न्यास्तस्य महात्मनः।
का ह्यन्या त्वामृते देवि ब्रूयाद् वचनमीदृशम्॥

‘जनकनन्दिनि! आपने जो दूसरा कारण बताते हुए कहा है कि मेरे लिये श्रीरामचन्द्रजी के सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्वेच्छापूर्वक स्पर्श करना उचित नहीं है, यह आपके ही योग्य है। देवि! महात्मा श्रीराम की धर्मपत्नी के मुख से ऐसी बात निकल सकती है। आपको छोड़कर दूसरी कौन स्त्री ऐसा वचन कह सकती है॥ ४-५॥

श्रोष्यते चैव काकुत्स्थः सर्वं निरवशेषतः।
चेष्टितं यत् त्वया देवि भाषितं च ममाग्रतः॥६॥

‘देवि! मेरे सामने आपने जो-जो पवित्र चेष्टाएँ की और जैसी-जैसी उत्तम बातें कही हैं, वे सब पूर्णरूप से श्रीरामचन्द्रजी मुझसे सुनेंगे॥६॥

कारणैर्बहुभिर्देवि रामप्रियचिकीर्षया।
स्नेहप्रस्कन्नमनसा मयैतत् समुदीरितम्॥७॥

‘देवि! मैंने जो आपको अपने साथ ले जाने का आग्रह किया, उसके बहुत-से कारण हैं। एक तो मैं श्रीरामचन्द्रजी का शीघ्र ही प्रिय करना चाहता था। अतः स्नेहपूर्ण हृदय से ही मैंने ऐसी बात कही है।
७॥

लङ्काया दुष्प्रवेशत्वाद् दुस्तरत्वान्महोदधेः।
सामर्थ्यादात्मनश्चैव मयैतत् समुदीरितम्॥८॥

‘दूसरा कारण यह है कि लङ्का में प्रवेश करना सबके लिये अत्यन्त कठिन है। तीसरा कारण है, महासागर को पार करने की कठिनाई इन सब कारणों से तथा अपने में आपको ले जाने की शक्ति होने से मैंने ऐसा प्रस्ताव किया था॥८॥

इच्छामि त्वां समानेतुमद्यैव रघुनन्दिना।
गुरुस्नेहेन भक्त्या च नान्यथा तदुदाहृतम्॥९॥

‘मैं आज ही आपको श्रीरघुनाथजी से मिला देना चाहता था। अतः अपने परमाराध्य गुरु श्रीराम के प्रति स्नेह और आपके प्रति भक्ति के कारण ही मैंने ऐसी बात कही थी, किसी और उद्देश्य से नहीं॥९॥

यदि नोत्सहसे यातुं मया सार्धमनिन्दिते।
अभिज्ञानं प्रयच्छ त्वं जानीयाद् राघवो हि यत्॥१०॥

‘किंतु सती-साध्वी देवि! यदि आपके मन में मेरे साथ चलने का उत्साह नहीं है तो आप अपनी कोई पहचान ही दे दीजिये, जिससे श्रीरामचन्द्रजी यह जान लें कि मैंने आपका दर्शन किया है’ ॥१०॥

एवमुक्ता हनुमता सीता सुरसुतोपमा।
उवाच वचनं मन्दं बाष्पप्रग्रथिताक्षरम्॥११॥

हनुमान जी के ऐसा कहने पर देवकन्या के समान तेजस्विनी सीता अश्रुगद्गदवाणी में धीरे-धीरे इस प्रकार बोलीं- ॥ ११॥

इदं श्रेष्ठमभिज्ञानं ब्रूयास्त्वं तु मम प्रियम्।
शैलस्य चित्रकूटस्य पादे पूर्वोत्तरे पदे॥१२॥
तापसाश्रमवासिन्याः प्राज्यमूलफलोदके।
तस्मिन् सिद्धाश्रिते देशे मन्दाकिन्यविदूरतः॥
तस्योपवनखण्डेषु नानापुष्पसुगन्धिषु।
विहृत्य सलिले क्लिन्नो ममाङ्के समुपाविशः॥१४॥

‘वानरश्रेष्ठ! तुम मेरे प्रियतम से यह उत्तम पहचान बताना—’नाथ! चित्रकूट पर्वत के उत्तर-पूर्ववाले भाग पर, जो मन्दाकिनी नदी के समीप है तथा जहाँ फल-मूल और जल की अधिकता है, उस सिद्धसेवित प्रदेश में तापसाश्रम के भीतर जब मैं निवास करती थी, उन्हीं दिनों नाना प्रकार के फूलों की सुगन्ध से वासित उस आश्रम के उपवनों में जलविहार करके आप भीगे हुए आये और मेरी गोद में बैठ गये॥ १२–१४॥

ततो मांससमायुक्तो वायसः पर्यतुण्डयत्।
तमहं लोष्टमुद्यम्य वारयामि स्म वायसम्॥१५॥
दारयन् स च मां काकस्तत्रैव परिलीयते।
न चाप्युपारमन्मांसाद् भक्षार्थी बलिभोजनः॥१६॥

‘तदनन्तर (किसी दूसरे समय) एक मांसलोलुप कौआ आकर मुझपर चोंच मारने लगा। मैंने ढेला उठाकर उसे हटाने की चेष्टा की, परंतु मुझे बार-बार चोंच मारकर वह कौआ वहीं कहीं छिप जाता था। उस बलिभोजी कौए को खाने की इच्छा थी, इसलिये वह मेरा मांस नोचने से निवृत्त नहीं होता था। १५-१६॥

उत्कर्षन्त्यां च रशनां क्रुद्धायां मयि पक्षिणे।
स्रंसमाने च वसने ततो दृष्टा त्वया ह्यहम्॥१७॥

‘मैं उस पक्षी पर बहुत कुपित थी। अतः अपने लहँगे को दृढ़तापूर्वक कसने के लिये कटिसूत्र (नारे)को खींचने लगी। उस समय मेरा वस्त्र कुछ नीचे खिसक गया और उसी अवस्था में आपने मुझे देख लिया॥१७॥

त्वया विहसिता चाहं क्रुद्धा संलज्जिता तदा।
भक्ष्यगृद्धेन काकेन दारिता त्वामुपागता॥१८॥

‘देखकर आपने मेरी हँसी उड़ायी। इससे मैं पहले तो कुपित हुई और फिर लज्जित हो गयी। इतने में ही उस भक्ष्य-लोलुप कौएने फिर चोंच मारकर मुझे क्षत-विक्षत कर दिया और उसी अवस्था में मैं आपके पास आयी॥१८॥

ततः श्रान्ताहमुत्सङ्गमासीनस्य तवाविशम्।
क्रुध्यन्तीव प्रहृष्टेन त्वयाहं परिसान्त्विता॥१९॥

‘आप वहाँ बैठे हुए थे। मैं उस कौए की हरकत से तंग आ गयी थी। अतः थककर आपकी गोद में आ बैठी। उस समय मैं कुपित-सी हो रही थी और आपने प्रसन्न होकर मुझे सान्त्वना दी॥ १९॥

बाष्पपूर्णमुखी मन्दं चक्षुषी परिमार्जती।
लक्षिताहं त्वया नाथ वायसेन प्रकोपिता॥२०॥

‘नाथ! कौए ने मुझे कुपित कर दिया था। मेरे मुखपर आँसुओं की धारा बह रही थी और मैं धीरे-धीरे आँखें पोंछ रही थी। आपने मेरी उस अवस्था को लक्ष्य किया’॥

परिश्रमाच्च सुप्ता हे राघवाङ्केऽस्म्यहं चिरम्।
पर्यायेण प्रसुप्तश्च ममाङ्के भरताग्रजः॥२१॥

‘हनुमान् ! मैं थक जाने के कारण उस दिन बहुत देर तक श्रीरघुनाथजी की गोद में सोयी रही। फिर उनकी बारी आयी और वे भरत के बड़े भाई मेरी गोद में सिर रखकर सो रहे ॥२१॥

स तत्र पुनरेवाथ वायसः समुपागमत्।
ततः सुप्तप्रबुद्धां मां राघवाङ्कात् समुत्थिताम्।
वायसः सहसागम्य विददार स्तनान्तरे ॥२२॥

‘इसी समय वह कौआ फिर वहाँ आया। मैं सोकर जगने के बाद श्रीरघुनाथजी की गोद से उठकर बैठी ही थी कि उस कौए ने सहसा झपटकर मेरी छाती में चोंच मार दी॥ २२॥

पुनः पुनरथोत्पत्य विददार स मां भृशम्।
ततः समुत्थितो रामो मुक्तैः शोणितबिन्दुभिः॥२३॥

‘उसने बारंबार उड़कर मुझे अत्यन्त घायल कर दिया। मेरे शरीर से रक्त की बूंदें झरने लगीं, इससे श्रीरामचन्द्रजी की नींद खुल गयी और वे जागकर उठ बैठे॥२३॥

स मां दृष्ट्वा महाबाहुर्वितुन्नां स्तनयोस्तदा।
आशीविष इव क्रुद्धः श्वसन् वाक्यमभाषत॥२४॥

‘मेरी छाती में घाव हुआ देख महाबाहु श्रीराम उस समय कुपित हो उठे और फुफकारते हुए विषधर सर्प के समान जोर-जोर से साँस लेते हुए बोले- ॥ २४॥

केन ते नागनासोरु विक्षतं वै स्तनान्तरम्।
कः क्रीडति सरोषेण पञ्चवक्त्रेण भोगिना॥२५॥

‘हाथी की ढूँड़ के समान जाँघों वाली सुन्दरी! किसने तुम्हारी छाती को क्षत-विक्षत किया है ? कौन रोष से भरे हुए पाँच मुखवाले सर्प के साथ खेल रहा है?’ ॥ २५॥

वीक्षमाणस्ततस्तं वै वायसं समवैक्षत।
नखैः सरुधिरैस्तीक्ष्णैर्मामेवाभिमुखं स्थितम्॥२६॥

‘इतना कहकर जब उन्होंने इधर-उधर दृष्टि डाली, तब उस कौए को देखा, जो मेरी ओर ही मुँह किये बैठा था। उसके तीखे पंजे खून से रँग गये थे॥ २६॥

पुत्रः किल स शक्रस्य वायसः पततां वरः।
धरान्तरं गतः शीघ्रं पवनस्य गतौ समः॥२७॥

‘वह पक्षियों में श्रेष्ठ कौआ इन्द्र का पुत्र था। उसकी गति वायु के समान तीव्र थी। वह शीघ्र ही स्वर्ग से उड़कर पृथ्वी पर आ पहुँचा था॥ २७॥

ततस्तस्मिन् महाबाहुः कोपसंवर्तितेक्षणः।
वायसे कृतवान् क्रूरां मतिं मतिमतां वरः॥२८॥

‘उस समय बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महाबाहु श्रीराम के नेत्र क्रोध से घूमने लगे। उन्होंने उस कौए को कठोर दण्ड देने का विचार किया॥२८॥

स दर्भसंस्तराद् गृह्य ब्रह्मणोऽस्त्रेण योजयत्।
स दीप्त इव कालाग्निर्जज्वालाभिमुखो द्विजम्॥२९॥

‘श्रीराम ने कुश की चटाई से एक कुश निकाला और उसे ब्रह्मास्त्र के मन्त्र से अभिमन्त्रित किया। अभिमन्त्रित करते ही वह कालाग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा। उसका लक्ष्य वह पक्षी ही था। २९॥

स तं प्रदीप्तं चिक्षेप दर्भ तं वायसं प्रति।
ततस्तु वायसं दर्भः सोऽम्बरेऽनुजगाम ह॥३०॥

‘श्रीरघुनाथजी ने वह प्रज्वलित कुश उस कौए की ओर छोड़ा। फिर तो वह आकाश में उसका पीछा करने लगा॥३०॥

अनुसृष्टस्तदा काको जगाम विविधां गतिम्।
त्राणकाम इमं लोकं सर्वं वै विचचार ह॥३१॥

‘वह कौआ कई प्रकार की उड़ानें लगाता अपने प्राण बचाने के लिये इस सम्पूर्ण जगत् में भागता फिरा, किंतु उस बाण ने कहीं भी उसका पीछा न छोड़ा॥३१॥

स पित्रा च परित्यक्तः सर्वैश्च परमर्षिभिः।
त्रील्लोकान् सम्परिक्रम्य तमेव शरणं गतः॥३२॥

‘उसके पिता इन्द्र तथा समस्त श्रेष्ठ महर्षियों ने भी उसका परित्याग कर दिया। तीनों लोकों में घूमकर अन्त में वह पुनः भगवान् श्रीराम की ही शरण में आया॥

स तं निपतितं भूमौ शरण्यः शरणागतम्।
वधार्हमपि काकुत्स्थः कृपया पर्यपालयत्॥३३॥

‘रघुनाथजी शरणागतवत्सल हैं। उनकी शरण में आकर जब वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, तब उन्हें उस पर दया आ गयी; अतः वध के योग्य होने पर भी उस कौए को उन्होंने मारा नहीं, उबारा॥३३॥

परिघुनं विवर्णं च पतमानं तमब्रवीत्।
मोघमस्त्रं न शक्यं तु ब्राह्मं कर्तुं तदुच्यताम्॥३४॥

‘उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी और वह उदास होकर सामने गिरा था। इस अवस्था में उसको लक्ष्यकर के भगवान् बोले—’ब्रह्मास्त्र को तो व्यर्थ किया नहीं जा सकता। अतः बताओ, इसके द्वारा तुम्हारा कौन-सा अङ्ग-भङ्ग किया जाय’॥ ३४ ॥

ततस्तस्याक्षि काकस्य हिनस्ति स्म स दक्षिणम्।
दत्त्वा तु दक्षिणं नेत्रं प्राणेभ्यः परिरक्षितः॥३५॥

‘फिर उसकी सम्मति के अनुसार श्रीराम ने उस अस्त्र से उस कौए की दाहिनी आँख नष्ट कर दी। इस प्रकार दायाँ नेत्र देकर वह अपने प्राण बचा सका। ३५॥

स रामाय नमस्कृत्वा राज्ञे दशरथाय च।
विसृष्टस्तेन वीरेण प्रतिपेदे स्वमालयम्॥ ३६॥

‘तदनन्तर दशरथनन्दन राजा राम को नमस्कार करके उन वीरशिरोमणि से विदा लेकर वह अपने निवासस्थान को चला गया॥३६॥

मत्कृते काकमात्रेऽपि ब्रह्मास्त्रं समुदीरितम्।
कस्माद् यो माहरत् त्वत्तः क्षमसे तं महीपते॥३७॥

‘कपिश्रेष्ठ! तुम मेरे स्वामी से जाकर कहना —’प्राणनाथ! पृथ्वीपते! आपने मेरे लिये एक साधारण अपराध करने वाले कौए पर भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था; फिर जो आपके पास से मुझे हर ले आया, उसको आप कैसे क्षमा कर रहे हैं? ॥ ३७॥

स कुरुष्व महोत्साहां कृपां मयि नरर्षभ।
त्वया नाथवती नाथ ह्यनाथा इव दृश्यते॥३८॥

‘नरश्रेष्ठ! मेरे ऊपर महान् उत्साहसे पूर्ण कृपा कीजिये। प्राणनाथ! जो सदा आपसे सनाथ है, वह सीता आज अनाथ-सी दिखायी देती है॥ ३८॥

आनृशंस्यं परो धर्मस्त्वत्त एव मया श्रुतम्।
जानामि त्वां महावीर्यं महोत्साहं महाबलम्॥३९॥

‘दया करना सबसे बड़ा धर्म है, यह मैंने आपसे ही सुना है। मैं आपको अच्छी तरह जानती हूँ। आपका बल, पराक्रम और उत्साह महान् है॥ ३९॥

अपारवारमक्षोभ्यं गाम्भीर्यात् सागरोपमम्।
भर्तारं ससमुद्राया धरण्या वासवोपमम्॥४०॥

‘आपका कहीं आर-पार नहीं है—आप असीम हैं। आपको कोई क्षुब्ध या पराजित नहीं कर सकता। आप गम्भीरता में समुद्र के समान हैं। समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी के स्वामी हैं तथा इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। मैं आपके प्रभाव को जानती हूँ॥ ४०॥

एवमस्त्रविदां श्रेष्ठो बलवान् सत्त्ववानपि।
किमर्थमस्त्रं रक्षःसु न योजयसि राघव॥४१॥

‘रघुनन्दन! इस प्रकार अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ, बलवान् और शक्तिशाली होते हुए भी आप राक्षसों पर अपने अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं करते हैं? ॥ ४१॥

न नागा नापि गन्धर्वा न सुरा न मरुद्गणाः।
रामस्य समरे वेगं शक्ताः प्रतिसमीहितुम्॥४२॥

‘पवनकुमार! नाग, गन्धर्व, देवता और मरुद्गण —कोई भी समराङ्गण में श्रीरामचन्द्रजी का वेग नहीं सह सकते॥४२॥

तस्य वीर्यवतः कच्चिद् यद्यस्ति मयि सम्भ्रमः।
किमर्थं न शरैस्तीक्ष्णैः क्षयं नयति राक्षसान्॥४३॥

‘उन परम पराक्रमी श्रीराम के हृदय में यदि मेरे लिये कुछ व्याकुलता है तो वे अपने तीखे सायकों से इन राक्षसों का संहार क्यों नहीं कर डालते? ॥ ४३॥

भ्रातुरादेशमादाय लक्ष्मणो वा परंतपः।
कस्य हेतोर्न मां वीरः परित्राति महाबलः॥४४॥

‘अथवा शत्रुओं को संताप देने वाले महाबली वीर लक्ष्मण ही अपने बड़े भाई की आज्ञा लेकर मेरा उद्धार क्यों नहीं करते हैं? ॥ ४४॥

यदि तौ पुरुषव्याघ्रौ वाय्विन्द्रसमतेजसौ।
सुराणामपि दुर्धर्षी किमर्थं मामुपेक्षतः॥४५॥

‘वे दोनों पुरुषसिंह वायु तथा इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। यदि वे देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं तो किसलिये मेरी उपेक्षा करते हैं? ॥ ४५ ॥

ममैव दुष्कृतं किंचिन्महदस्ति न संशयः।
समर्थावपि तौ यन्मां नावेक्षेते परंतपौ॥४६॥

‘निःसंदेह मेरा ही कोई महान् पाप उदित हुआ है, जिससे वे दोनों शत्रुसंतापी वीर मेरा उद्धार करने में समर्थ होते हुए भी मुझ पर कृपादृष्टि नहीं कर रहे हैं’।

वैदेह्या वचनं श्रुत्वा करुणं साश्रु भाषितम्।
अथाब्रवीन्महातेजा हनूमान् हरियूथपः॥४७॥

विदेहकुमारी सीता ने आँसू बहाते हुए जब यह करुणायुक्त बात कही, तब इसे सुनकर वानरयूथपति महातेजस्वी हनुमान् इस प्रकार बोले- ॥४७॥

त्वच्छोकविमुखो रामो देवि सत्येन ते शपे।
रामे दुःखाभिपन्ने तु लक्ष्मणः परितप्यते॥४८॥

‘देवि! मैं सत्य की शपथ खाकर आपसे कहता हूँ कि श्रीरामचन्द्रजी आपके विरह-शोक से पीड़ित हो अन्य सब कार्यों से विमुख हो गये हैं केवल आपका ही चिन्तन करते रहते हैं। श्रीराम के दुःखी होने से लक्ष्मण भी सदा संतप्त रहते हैं॥४८॥

कथंचिद् भवती दृष्टा न कालः परिशोचितुम्।
इमं मुहूर्तं दुःखानामन्तं द्रक्ष्यसि शोभने॥४९॥

‘किसी तरह आपका दर्शन हो गया। अब शोक करने का अवसर नहीं है। शोभने! इसी घड़ी से आप अपने दुःखों का अन्त होता देखेंगी॥४९॥

तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ राजपुत्रौ महाबलौ।
त्वदर्शनकृतोत्साही लोकान् भस्मीकरिष्यतः॥५०॥

‘वे दोनों पुरुषसिंह राजकुमार बड़े बलवान् हैं तथा आपको देखने के लिये उनके मन में विशेष उत्साह है। अतः वे समस्त राक्षस-जगत् को भस्म कर डालेंगे। ५०॥

हत्वा च समरक्रूरं रावणं सहबान्धवम्।
राघवस्त्वां विशालाक्षि स्वां पुरीं प्रति नेष्यति॥५१॥

‘विशाललोचने! रघुनाथजी समराङ्गण में क्रूरता प्रकट करनेवाले रावण को उसके बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर आपको अपनी पुरी में ले जायँगे॥५१॥

ब्रूहि यद् राघवो वाच्यो लक्ष्मणश्च महाबलः।
सुग्रीवो वापि तेजस्वी हरयो वा समागताः॥५२॥

‘अब भगवान् श्रीराम, महाबली लक्ष्मण, तेजस्वी सुग्रीव तथा वहाँ एकत्र हुए वानरों के प्रति आपको जो कुछ कहना हो, वह कहिये’ ॥ ५२॥

इत्युक्तवति तस्मिंश्च सीता पुनरथाब्रवीत्।
कौसल्या लोकभर्तारं सुषुवे यं मनस्विनी॥५३॥
तं ममार्थे सुखं पृच्छ शिरसा चाभिवादय।

हनुमान जी के ऐसा कहने पर देवी सीता ने फिर कहा—’कपिश्रेष्ठ! मनस्विनी कौसल्या देवी ने जिन्हें जन्म दिया है तथा जो सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं, उन श्रीरघुनाथजी को मेरी ओर से मस्तक झुकाकर प्रणाम करना और उनका कुशल-समाचार पूछना। ५३ १/२॥

स्रजश्च सर्वरत्नानि प्रियायाश्च वराङ्गनाः॥५४॥
ऐश्वर्यं च विशालायां पृथिव्यामपि दुर्लभम्।
पितरं मातरं चैव सम्मान्याभिप्रसाद्य च॥५५॥
अनुप्रव्रजितो रामं सुमित्रा येन सुप्रजाः।
आनुकूल्येन धर्मात्मा त्यक्त्वा सुखमनुत्तमम्॥
अनुगच्छति काकुत्स्थं भ्रातरं पालयन् वने।
सिंहस्कन्धो महाबाहुर्मनस्वी प्रियदर्शनः॥५७॥
पितृवद् वर्तते रामे मातृवन्मां समाचरत्।
ह्रियमाणां तदा वीरो न तु मां वेद लक्ष्मणः॥५८॥
वृद्धोपसेवी लक्ष्मीवान् शक्तो न बहुभाषिता।
राजपुत्रप्रियश्रेष्ठः सदृशः श्वशुरस्य मे॥५९॥
मत्तः प्रियतरो नित्यं भ्राता रामस्य लक्ष्मणः।
नियुक्तो धुरि यस्यां तु तामुदहति वीर्यवान्॥६०॥
यं दृष्ट्वा राघवो नैव वृत्तमार्यमनुस्मरत्।
स ममार्थाय कुशलं वक्तव्यो वचनान्मम॥६१॥
मृदुर्नित्यं शुचिर्दक्षः प्रियो रामस्य लक्ष्मणः।
यथा हि वानरश्रेष्ठ दुःखक्षयकरो भवेत्॥६२॥

तत्पश्चात् विशाल भूमण्डल में भी जिसका मिलना कठिन है ऐसे उत्तम ऐश्वर्य का, भाँति-भाँति के हारों, सब प्रकार के रत्नों तथा मनोहर सुन्दरी स्त्रियों का भी परित्याग कर पिता-माता को सम्मानित एवं राजी करके जो श्रीरामचन्द्रजी के साथ वन में चले आये, जिनके कारण सुमित्रा देवी उत्तम संतानवाली कही जाती हैं, जिनका चित्त सदा धर्म में लगा रहता है, जो सर्वोत्तम सुख को त्यागकर वन में बड़े भाई श्रीराम की रक्षा करते हुए सदा उनके अनुकूल चलते हैं, जिनके कंधे सिंह के समान और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं, जो देखने में प्रिय लगते और मन को वश में रखते हैं, जिनका श्रीराम के प्रति पिता के समान और मेरे प्रति माता के समान भाव तथा बर्ताव रहता है, जिन वीर लक्ष्मण को उस समय मेरे हरे जाने की बात नहीं मालूम हो सकी थी, जो बड़े-बूढों की सेवा में संलग्न रहने वाले, शोभाशाली, शक्तिमान् तथा कम बोलने वाले हैं, राजकुमार श्रीराम के प्रिय व्यक्तियों में जिनका सबसे ऊँचा स्थान है, जो मेरे श्वशुर के सदृश पराक्रमी हैं तथा श्रीरघुनाथजी का जिन छोटे भाई लक्ष्मण के प्रति सदा मुझसे भी अधिक प्रेम रहता है, जो पराक्रमी वीर अपने ऊपर डाले हुए कार्यभार को बड़ी योग्यता के साथ वहन करते हैं तथा जिन्हें देखकर श्रीरघुनाथजी अपने मरे हुए पिता को भी भूल गये हैं (अर्थात् जो पिता के समान श्रीराम के पालन में दत्तचित्त रहते हैं)। उन लक्ष्मण से भी तुम मेरी ओर से कुशल पूछना और वानरश्रेष्ठ! मेरे कथनानुसार उनसे ऐसी बातें कहना, जिन्हें सुनकर नित्य कोमल, पवित्र, दक्ष तथा श्रीराम के प्रिय बन्धु लक्ष्मण मेरा दुःख दूर करने को तैयार हो जायँ॥ ५४–६२॥

त्वमस्मिन् कार्यनिर्वाहे प्रमाणं हरियूथप।
राघवस्त्वत्समारम्भान्मयि यत्नपरो भवेत्॥६३॥

‘वानरयूथपते! अधिक क्या कहूँ? जिस तरह यह कार्य सिद्ध हो सके, वही उपाय तुम्हें करना चाहिये। इस विषय में तुम्ही प्रमाण हो—इसका सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। तुम्हारे प्रोत्साहन देने से ही श्रीरघुनाथजी मेरे उद्धार के लिये प्रयत्नशील हो सकते हैं॥६३॥

इदं ब्रूयाश्च मे नाथं शूरं रामं पुनः पुनः।
जीवितं धारयिष्यामि मासं दशरथात्मज॥६४॥
ऊर्ध्वं मासान्न जीवेयं सत्येनाहं ब्रवीमि ते।

‘तुम मेरे स्वामी शूरवीर भगवान् श्रीराम से बारंबार कहना—’दशरथनन्दन! मेरे जीवन की अवधि के लिये जो मास नियत हैं, उनमें से जितना शेष है, उतने ही समय तक मैं जीवन धारण करूँगी। उन अवशिष्ट दो महीनों के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती। यह मैं आपसे सत्य की शपथ खाकर कह रही हूँ॥ ६४१/२॥

रावणेनोपरुद्धां मां निकृत्या पापकर्मणा।
त्रातुमर्हसि वीर त्वं पातालादिव कौशिकीम्॥६५॥

‘वीर! पापाचारी रावण ने मुझे कैद कर रखा है। अतः राक्षसियों द्वारा शठतापूर्वक मुझे बड़ी पीड़ा दी जाती है। जैसे भगवान् विष्णु ने इन्द्र की लक्ष्मी का पाताल से उद्धार किया था, उसी प्रकार आप यहाँ से मेरा उद्धार करें॥६५॥

ततो वस्त्रगतं मुक्त्वा दिव्यं चूडामणिं शुभम्।
प्रदेयो राघवायेति सीता हनुमते ददौ॥६६॥

ऐसा कहकर सीता ने कपड़े में बँधी हुई सुन्दर दिव्य चूड़ामणि को खोलकर निकाला और इसे श्रीरामचन्द्रजी को दे देना’ ऐसा कहकर हनुमान जी के हाथ पर रख दिया॥६६॥

प्रतिगृह्य ततो वीरो मणिरत्नमनुत्तमम्।
अङ्गल्या योजयामास नह्यस्य प्राभवद् भुजः॥६७॥

उस परम उत्तम मणिरत्न को लेकर वीर हनुमान जी ने उसे अपनी अङ्गली में डाल लिया। उनकी बाँह अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी उसके छेद में न आ सकी (इससे जान पड़ता है कि हनुमान जी ने अपना विशाल रूप दिखाने के बाद फिर सूक्ष्म रूप धारण कर लिया था) ॥ ६७॥

मणिरत्नं कपिवरः प्रतिगृह्याभिवाद्य च।
सीतां प्रदक्षिणं कृत्वा प्रणतः पार्श्वतः स्थितः॥६८॥

वह मणिरत्न लेकर कपिवर हनुमान् ने सीता को प्रणाम किया और उनकी प्रदक्षिणा करके वे विनीतभाव से उनके पास खड़े हो गये॥ ६८॥

हर्षेण महता युक्तः सीतादर्शनजेन सः।
हृदयेन गतो राम लक्ष्मणं च सलक्षणम्॥६९॥

सीताजी का दर्शन होने से उन्हें महान् हर्ष प्राप्त हुआ था। वे मन-ही-मन भगवान् श्रीराम और शुभलक्षणसम्पन्न लक्ष्मण के पास पहुँच गये थे। उन दोनों का चिन्तन करने लगे थे॥६९॥

मणिवरमुपगृह्य तं महार्ह जनकनृपात्मजया धृतं प्रभावात्।
गिरिवरपवनावधूतमुक्तः सुखितमनाः प्रतिसंक्रमं प्रपेदे॥७०॥

राजा जनक की पुत्री सीता ने अपने विशेष प्रभाव से जिसे छिपाकर धारण कर रखा था, उस बहुमूल्य मणि-रत्न को लेकर हनुमान जी मन-ही-मन उस पुरुष के समान सुखी एवं प्रसन्न हुए, जो किसी श्रेष्ठ पर्वत के ऊपरी भाग से उठी हुई प्रबल वायु के वेग से कम्पित होकर पुनः उसके प्रभाव से  मुक्त हो गया हो। तदनन्तर उन्होंने वहाँ से लौट जाने की तैयारी की। ७०॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डेऽष्टात्रिंशः सर्गः॥ ३८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में अड़तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥३८॥


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Shivangi

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