वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 39 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 39
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकोनचत्वारिंशः सर्गः (39)
(समद्र-तरण के विषय में शङ्कित हुई सीता को वानरों का पराक्रम बताकर हनुमान जी का आश्वासन देना)
मणिं दत्त्वा ततः सीता हनूमन्तमथाब्रवीत्।
अभिज्ञानमभिज्ञातमेतद् रामस्य तत्त्वतः॥१॥
मणि देने के पश्चात् सीता हनुमान् जी से बोलीं —’मेरे इस चिह्म को भगवान् श्रीरामचन्द्रजी भलीभाँति पहचानते हैं॥१॥
मणिं दृष्ट्वा तु रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति।
वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च॥२॥
‘इस मणि को देखकर वीर श्रीराम निश्चय ही तीन व्यक्तियों का—मेरी माता का, मेरा तथा महाराज दशरथका एक साथ ही स्मरण करेंगे॥२॥
स भूयस्त्वं समुत्साहचोदितो हरिसत्तम।
अस्मिन् कार्यसमुत्साहे प्रचिन्तय यदुत्तरम्॥३॥
‘कपिश्रेष्ठ ! तुम पुनः विशेष उत्साह से प्रेरित हो इस कार्य की सिद्धि के लिये जो भावी कर्तव्य हो, उसे सोचो॥३॥
त्वमस्मिन् कार्यनिर्योगे प्रमाणं हरिसत्तम।
तस्य चिन्तय यो यत्नो दुःखक्षयकरो भवेत्॥४॥
‘वानरशिरोमणे! इस कार्य को निभाने में तुम्ही प्रमाण हो—तुम पर ही सारा भार है। तुम इसके लिये कोई ऐसा उपाय सोचो, जो मेरे दुःख का निवारण करने वाला हो॥४॥
हनूमन् यत्नमास्थाय दुःखक्षयकरो भव।
स तथेति प्रतिज्ञाय मारुतिर्भीमविक्रमः॥५॥
शिरसाऽऽवन्द्य वैदेहीं गमनायोपचक्रमे।
‘हनूमन् ! तुम विशेष प्रयत्न करके मेरा दुःख दूर करने में सहायक बनो।’ तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर सीताजी की आज्ञा के अनुसार कार्य करने की प्रतिज्ञा करके वे भयंकर पराक्रमी पवनकुमार विदेहनन्दिनी के चरणों में मस्तक झुकाकर वहाँ से जाने को तैयार हुए॥ ५ १/२॥
ज्ञात्वा सम्प्रस्थितं देवी वानरं पवनात्मजम्॥६॥
बाष्पगद्गदया वाचा मैथिली वाक्यमब्रवीत्।
पवनपुत्र वानरवीर हनुमान् को वहाँ से लौटने के लिये उद्यत जान मिथिलेशकुमारी का गला भर आया और वे अश्रुगद्गद वाणी में बोलीं- ॥ ६ १/२ ॥
हनूमन् कुशलं ब्रूयाः सहितौ रामलक्ष्मणौ॥७॥
सुग्रीवं च सहामात्यं सर्वान् वृद्धांश्च वानरान्।
ब्रूयास्त्वं वानरश्रेष्ठ कुशलं धर्मसंहितम्॥८॥
‘हनूमन् ! तुम श्रीराम और लक्ष्मण दोनों को एक साथ ही मेरा कुशल-समाचार बताना और उनका कुशल-मङ्गल पूछना। वानरश्रेष्ठ! फिर मन्त्रियोंसहित सुग्रीव तथा अन्य सब बड़े-बूढ़े वानरों से धर्मयुक्त कुशल-समाचार कहना और पूछना॥७-८॥
यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः।
अस्माद् दुःखाम्बुसंरोधात् त्वं समाधातुमर्हसि॥९॥
‘महाबाहु श्रीरघुनाथजी जिस प्रकार इस दुःख के समुद्र से मेरा उद्धार करें, वैसा ही यत्न तुम्हें करना चाहिये॥
जीवन्तीं मां यथा रामः सम्भावयति कीर्तिमान।
तत् त्वया हनुमन् वाच्यं वाचा धर्ममवाप्नुहि॥१०॥
‘हनुमन् ! यशस्वी रघुनाथजी जिस प्रकार मेरे जीते जी यहाँ आकर मुझसे मिलें—मुझे सँभालें वैसी ही बातें तुम उनसे कहो और ऐसा करके वाणी के द्वारा धर्माचरण का फल प्राप्त करो॥ १० ॥
नित्यमुत्साहयुक्तस्य वाचः श्रुत्वा मयेरिताः।
वर्धिष्यते दाशरथेः पौरुषं मदवाप्तये॥११॥
‘यों तो दशरथनन्दन भगवान् श्रीराम सदा ही उत्साह से भरे रहते हैं, तथापि मेरी कही हुई बातें सुनकर मेरी प्राप्ति के लिये उनका पुरुषार्थ और भी बढ़ेगा॥ ११॥
मत्संदेशयुता वाचस्त्वत्तः श्रुत्वैव राघवः।
पराक्रमे मतिं वीरो विधिवत् संविधास्यति॥१२॥
‘तुम्हारे मुख से मेरे संदेश से युक्त बातें सुनकर ही वीर रघुनाथजी पराक्रम करने में विधिवत् अपना मन लगायेंगे’॥ १२॥
सीतायास्तद् वचः श्रुत्वा हनूमान् मारुतात्मजः।
शिरस्यञ्जलिमाधाय वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥१३॥
सीता की यह बात सुनकर पवनकुमार हनुमान् ने माथे पर अञ्जलि बाँधकर विनयपूर्वक उनकी बात का उत्तर दिया- ॥१३॥
क्षिप्रमेष्यति काकुत्स्थो हपृक्षप्रवरैर्वृतः।
यस्ते युधि विजित्यारीन् शोकं व्यपनयिष्यति॥१४॥
‘देवि! जो युद्ध में सारे शत्रुओं को जीतकर आपके शोक का निवारण करेंगे, वे ककुत्स्थकुलभूषण भगवान् श्रीराम श्रेष्ठ वानरों और भालुओं के साथ शीघ्र ही यहाँ पधारेंगे॥१४॥
नहि पश्यामि मत्र्येषु नासुरेषु सुरेषु वा।
यस्तस्य वमतो बाणान् स्थातुमुत्सहतेऽग्रतः॥१५॥
‘मैं मनुष्यों, असुरों अथवा देवताओं में भी किसी को ऐसा नहीं देखता, जो बाणों की वर्षा करते हुए भगवान् श्रीराम के सामने ठहर सके॥ १५ ॥
अप्यर्कमपि पर्जन्यमपि वैवस्वतं यमम्।
स हि सोढुं रणे शक्तस्तव हेतोर्विशेषतः॥१६॥
‘भगवान् श्रीराम विशेषतः आपके लिये तो युद्ध में सूर्य, इन्द्र और सूर्यपुत्र यम का भी सामना कर सकते हैं।। १६॥
स हि सागरपर्यन्तां महीं साधितुमर्हति।
त्वन्निमित्तो हि रामस्य जयो जनकनन्दिनि॥१७॥
‘वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी को भी जीत लेनेयोग्य हैं। जनकनन्दिनि! आपके लिये युद्ध करते समय श्रीरामचन्द्रजी को निश्चय ही विजय प्राप्त होगी’। १७॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सम्यक् सत्यं सुभाषितम्।
जानकी बहु मेने तं वचनं चेदमब्रवीत्॥१८॥
हनुमान जी का कथन युक्तियुक्त, सत्य और सुन्दर था। उसे सुनकर जनकनन्दिनी ने उनका बड़ा आदर किया और वे उनसे फिर कुछ कहने को उद्यत हुईं।
ततस्तं प्रस्थितं सीता वीक्षमाणा पुनः पुनः।
भर्तृस्नेहान्वितं वाक्यं सौहार्दादनुमानयत्॥१९॥
तदनन्तर वहाँ से प्रस्थित हुए हनुमान जी की ओर बार-बार देखती हई सीता ने सौहार्दवश स्वामी के प्रति स्नेह से युक्त सम्मानपूर्ण बात कही— ॥१९॥
यदि वा मन्यसे वीर वसैकाहमरिंदम।
कस्मिंश्चित् संवृते देशे विश्रान्तः श्वो गमिष्यसि॥२०॥
‘शत्रुओं का दमन करने वाले वीर! यदि तुम ठीक समझो तो यहाँ एक दिन किसी गुप्त स्थान में निवास करो। इस तरह एक दिन विश्राम करके कल चले जाना॥ २०॥
मम चैवाल्पभाग्यायाः सांनिध्यात् तव वानर।
अस्य शोकस्य महतो मुहर्तं मोक्षणं भवेत्॥ २१॥
‘वानरवीर! तुम्हारे निकट रहने से मुझ मन्दभागिनी के महान् शोक का थोड़ी देर के लिये निवारण हो जायगा॥२१॥
ततो हि हरिशार्दूल पुनरागमनाय तु।
प्राणानामपि संदेहो मम स्यान्नात्र संशयः॥ २२॥
‘कपिश्रेष्ठ ! विश्राम के पश्चात् यहाँ से यात्रा करने के अनन्तर यदि फिर तुमलोगों के आने में संदेह या विलम्ब हुआ तो मेरे प्राणों पर भी संकट आ जायगा, इसमें संशय नहीं है।॥ २२॥
तवादर्शनजः शोको भूयो मां परितापयेत्।
दुःखादुःखपरामृष्टां दीपयन्निव वानर ॥२३॥
‘वानरवीर ! मैं दुःख-पर-दुःख उठा रही हूँ। तुम्हारे चले जाने पर तुम्हें न देख पाने का शोक मुझे पुनः दग्ध करता हुआ-सा संताप देता रहेगा॥ २३॥
अयं च वीर संदेहस्तिष्ठतीव ममाग्रतः।
सुमहांस्त्वत्सहायेषु हर्युक्षेषु हरीश्वर ॥२४॥
कथं नु खलु दुष्पारं तरिष्यन्ति महोदधिम्।
तानि हयृक्षसैन्यानि तौ वा नरवरात्मजौ॥ २५॥
‘वीर वानरेश्वर! तुम्हारे साथी रीछों और वानरों के विषय में मेरे सामने अब भी यह महान् संदेह तो विद्यमान ही है कि वे रीछ और वानरों की सेनाएँ तथा वे दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण इस दुष्पार महासागर को कैसे पार करेंगे॥ २४-२५॥
त्रयाणामेव भूतानां सागरस्येह लङ्घने।
शक्तिः स्याद् वैनतेयस्य तव वा मारुतस्य वा॥२६॥
‘इस संसार में समुद्र को लाँघने की शक्ति तो केवल तीन प्राणियों में ही देखी गयी है। तुम में, गरुड़ में अथवा वायु देवता में॥२६॥
तदस्मिन् कार्यनिर्योगे वीरैवं दुरतिक्रमे।
किं पश्यसे समाधानं त्वं हि कार्यविदां वरः॥२७॥
‘वीर! इस प्रकार इस समुद्रलङ्घनरूपी कार्य को निभाना अत्यन्त कठिन हो गया है। ऐसी दशा में तुम्हें कार्यसिद्धि का कौन-सा उपाय दिखायी देता है? यह बताओ; क्योंकि कार्यसिद्धि का उपाय जानने वाले लोगों में तुम सबसे श्रेष्ठ हो॥२७॥
काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने।
पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते फलोदयः॥२८॥
‘शत्रुवीरों का संहार करने वाले पवनकुमार! इसमें संदेह नहीं कि तुम अकेले ही मेरे उद्धाररूपी कार्य को सिद्ध करने में पूर्णतः समर्थ हो; परंतु ऐसा करने से जो विजयरूप फल प्राप्त होगा, उसका यश केवल तुम्हीं को मिलेगा, भगवान् श्रीराम को नहीं॥ २८॥
बलैः समग्रैर्युधि मां रावणं जित्य संयुगे।
विजयी स्वपुरं यायात् तत्तस्य सदृशं भवेत्॥२९॥
‘यदि रघुनाथजी सारी सेना के साथ रावण को युद्ध में पराजित करके विजयी हो मुझे साथ ले अपनी पुरी को पधारें तो वह उनके अनुरूप कार्य होगा॥ २९ ॥
बलैस्तु संकुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः।
मां नयेद् यदि काकुत्स्थस्तत् तस्य सदृशं भवेत्॥३०॥
‘शत्रुसेना का संहार करने वाले श्रीराम यदि अपनी सेनाओं द्वारा लङ्का को पददलित करके मुझे अपने साथ ले चलें तो वही उनके योग्य होगा॥ ३०॥
तद्यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः।
भवेदाहवशूरस्य तथा त्वमुपपादय॥३१॥
‘अतः तुम ऐसा उपाय करो जिससे समरशूर महात्मा श्रीराम का उनके अनुरूप पराक्रम प्रकट हो’॥३१॥
तदर्थोपहितं वाक्यं प्रश्रितं हेतुसंहितम्।
निशम्य हनुमान् शेषं वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥३२॥
देवी सीता की उपर्युक्त बात अर्थयुक्त, स्नेहयुक्त तथा युक्तियुक्त थी। उनकी उस अवशिष्ट बात को सुनकर हनुमान जी ने इस प्रकार उत्तर दिया-॥ ३२॥
देवि हय॒क्षसैन्यानामीश्वरः प्लवतां वरः।
सुग्रीवः सत्यसम्पन्नस्तवार्थे कृतनिश्चयः॥३३॥
‘देवि! वानर और भालुओं की सेना के स्वामी कपिश्रेष्ठ सुग्रीव सत्यवादी हैं। वे आपके उद्धार के लिये दृढ़ निश्चय कर चुके हैं॥ ३३॥
स वानरसहस्राणां कोटीभिरभिसंवृतः।
क्षिप्रमेष्यति वैदेहि राक्षसानां निबर्हणः॥३४॥
‘विदेहनन्दिनि! उनमें राक्षसों का संहार करने की शक्ति है। वे सहस्रों कोटि वानरों की सेना साथ लेकर शीघ्र ही लङ्का पर चढ़ाई करेंगे॥ ३४॥ ।
तस्य विक्रमसम्पन्नाः सत्त्ववन्तो महाबलाः।
मनःसंकल्पसम्पाता निदेशे हरयः स्थिताः॥३५॥
‘उनके पास पराक्रमी, धैर्यशाली, महाबली और मानसिक संकल्प के समान बहुत दूर तक उछलकर जाने वाले बहुत-से वानर हैं, जो उनकी आज्ञा का पालन करने के लिये सदा तैयार रहते हैं ॥ ३५ ॥
येषां नोपरि नाधस्तान्न तिर्यक् सज्जते गतिः।
न च कर्मसु सीदन्ति महत्स्वमिततेजसः॥३६॥
‘जिनकी ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर कहीं भी गति नहीं रुकती। वे बड़े-से-बड़े कार्यों के आ पड़ने पर भी कभी हिम्मत नहीं हारते उनमें महान् तेज है॥३६॥
असकृत् तैर्महोत्साहैः ससागरधराधरा।
प्रदक्षिणीकृता भूमिर्वायुमार्गानुसारिभिः॥ ३७॥
“उन्होंने अत्यन्त उत्साह से पूर्ण होकर वायुपथ (आकाश) का अनुसरण करते हुए समुद्र और पर्वतोंसहित इस पृथ्वी की अनेक बार परिक्रमा की है॥३७॥
मदिशिष्टाश्च तुल्याश्च सन्ति तत्र वनौकसः।
मत्तः प्रत्यवरः कश्चिन्नास्ति सुग्रीवसंनिधौ॥३८॥
‘सुग्रीव की सेना में मेरे समान तथा मुझसे भी बढ़कर पराक्रमी वानर हैं। उनके पास कोई भी ऐसा वानर नहीं है जो बल-पराक्रम में मुझसे कम हो। ३८॥
अहं तावदिह प्राप्तः किं पुनस्ते महाबलाः।
नहि प्रकृष्टाः प्रेष्यन्ते प्रेष्यन्ते हीतरे जनाः॥३९॥
‘जब मैं ही यहाँ आ गया, तब अन्य महाबली वीरों के आने में क्या संदेह है? जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उन्हें संदेश-वाहक दूत बनाकर नहीं भेजा जाता। साधारण कोटि के लोग ही भेजे जाते हैं॥ ३९॥
तदलं परितापेन देवि शोको व्यपैतु ते।
एकोत्पातेन ते लङ्कामेष्यन्ति हरियूथपाः॥४०॥
‘अतः देवि! आपको संताप करने की आवश्यकता नहीं है। आपका शोक दूर हो जाना चाहिये। वानरयूथपति एक ही छलाँग में लङ्का पहुँच जायँगे॥ ४०॥
मम पृष्ठगतौ तौ च चन्द्रसूर्याविवोदितौ।
त्वत्सकाशं महासङ्घौ नृसिंहावागमिष्यतः॥४१॥
‘उदयकाल के सूर्य और चन्द्रमा की भाँति शोभा पाने वाले और महान् वानर-समुदाय के साथ रहने वाले वे दोनों पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण मेरी पीठ पर बैठकर आपके पास आ पहुँचेंगे॥४१॥
तौ हि वीरौ नरवरौ सहितौ रामलक्ष्मणौ।
आगम्य नगरी लङ्कां सायकैर्विधमिष्यतः॥४२॥
‘वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर श्रीराम और लक्ष्मण एक साथ आकर अपने सायकों से लङ्कापुरी का विध्वंस कर डालेंगे॥४२॥
सगणं रावणं हत्वा राघवो रघुनन्दनः।
त्वामादाय वरारोहे स्वपुरीं प्रति यास्यति॥४३॥
‘वरारोहे! रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीरघुनाथजी रावण को उसके सैनिकोंसहित मारकर आपको साथ ले अपनी पुरी को लौटेंगे॥४३॥
तदाश्वसिहि भद्रं ते भव त्वं कालकाङ्किणी।
नचिराद् द्रक्ष्यसे रामं प्रज्वलन्तमिवानलम्॥४४॥
‘इसलिये आप धैर्य धारण करें। आपका कल्याण हो। आप समयकी प्रतीक्षा करें। प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी श्रीरघुनाथजी आपको शीघ्र ही दर्शन देंगे॥४४॥
निहते राक्षसेन्द्रे च सपुत्रामात्यबान्धवे।
त्वं समेष्यसि रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी॥४५॥
‘पुत्र, मन्त्री और बन्धु-बान्धवोंसहित राक्षसराज रावण के मारे जाने पर आप श्रीरामचन्द्रजी से उसी प्रकार मिलेंगी, जैसे रोहिणी चन्द्रमा से मिलती है।४५॥
क्षिप्रं त्वं देवि शोकस्य पारं द्रक्ष्यसि मैथिलि।
रावणं चैव रामेण द्रक्ष्यसे निहतं बलात्॥४६॥
‘देवि! मिथिलेशकुमारी! आप शीघ्र ही अपने शोक का अन्त हुआ देखेंगी। आपको यह भी दृष्टिगोचर होगा कि श्रीरामचन्द्रजी ने रावण को बलपूर्वक मार डाला है’ ॥ ४६॥
एवमाश्वास्य वैदेहीं हनूमान् मारुतात्मजः।
गमनाय मतिं कृत्वा वैदेहीं पुनरब्रवीत्॥४७॥
विदेहनन्दिनी सीता को इस प्रकार आश्वासन दे पवनकुमार हनुमान जी ने वहाँ से लौटने का निश्चय करके उनसे फिर कहा- ॥४७॥
तमरिघ्नं कृतात्मानं क्षिप्रं द्रक्ष्यसि राघवम्।
लक्ष्मणं च धनुष्पाणिं लङ्काद्वारमुपागतम्॥४८॥
‘देवि! आप शीघ्र ही देखेंगी कि शुद्ध हृदयवाले शत्रुनाशक श्रीरघुनाथजी तथा लक्ष्मण हाथ में धनुष लिये लङ्का के द्वार पर आ पहुँचे हैं॥४८॥
नखदंष्ट्रायुधान् वीरान् सिंहशार्दूलविक्रमान्।
वानरान् वारणेन्द्राभान् क्षिप्रं द्रक्ष्यसि संगतान्॥४९॥
‘नख और दाढ़ ही जिनके अस्त्र-शस्त्र हैं तथा जो सिंह और व्याघ्रके समान पराक्रमी एवं गजराजों के समान विशालकाय हैं, ऐसे वानरों को भी आप शीघ्र ही एकत्र हुआ देखेंगी॥४९॥
शैलाम्बुदनिकाशानां लङ्कामलयसानुषु।
नर्दतां कपिमुख्यानामार्ये यूथान्यनेकशः॥५०॥
‘आर्ये! पर्वत और मेघ के समान विशालकाय मुख्य-मुख्य वानरों के बहुत-से झुंड लङ्कावर्ती मलयपर्वत के शिखरों पर गर्जते दिखायी देंगे॥५०॥
स तु मर्मणि घोरेण ताडितो मन्मथेषुणा।
न शर्म लभते रामः सिंहार्दित इव द्विपः॥५१॥
‘श्रीरामचन्द्रजी के मर्मस्थल में कामदेव के भयंकर बाणों से चोट पहुँची है। इसलिये वे सिंह से पीड़ित हुए गजराज की भाँति चैन नहीं पाते हैं। ५१॥
रुद मा देवि शोकेन मा भूत् ते मनसो भयम्।
शचीव भा शक्रेण सङ्गमेष्यसि शोभने॥५२॥
‘देवि! आप शोक के कारण रोदन न करें। आपके मन का भय दूर हो जाय। शोभने! जैसे शची देवराज इन्द्र से मिलती हैं, उसी प्रकार आप अपने पतिदेव से मिलेंगी॥५२॥
रामाद् विशिष्टः कोऽन्योऽस्ति कश्चित् सौमित्रिणा समः।
अग्निमारुतकल्पौ तौ भ्रातरौ तव संश्रयौ॥५३॥
‘भला, श्रीरामचन्द्रजी से बढ़कर दूसरा कौन है? तथा लक्ष्मणजी के समान भी कौन हो सकता है? अग्नि और वायु के तुल्य तेजस्वी वे दोनों भाई आपके आश्रय हैं (आपको कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये) ॥ ५३॥
नास्मिंश्चिरं वत्स्यसि देवि देशे रक्षोगणैरध्युषितेऽतिरौद्रे।
न ते चिरादागमनं प्रियस्य क्षमस्व मत्संगमकालमात्रम्॥५४॥
‘देवि! राक्षसोंद्वारा सेवित इस अत्यन्त भयंकर देश में आपको अधिक दिनों तक नहीं रहना पड़ेगा। आपके प्रियतम के आने में विलम्ब नहीं होगा। जबतक मेरी उनसे भेंट न हो, उतने समयतक के विलम्ब को आप क्षमा करें।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकोनचत्वारिंशः सर्गः॥ ३९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूराहुआ॥३९॥