वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 4 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 4
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
चतुर्थः सर्गः (4)
(हनुमान जी का लंकापुरी एवं रावण के अन्तःपुर में प्रवेश)
स निर्जित्य पुरीं लंकां श्रेष्ठां तां कामरूपिणीम्।
विक्रमेण महातेजा हनूमान् कपिसत्तमः॥१॥
अद्वारेण महावीर्यः प्राकारमवपुप्लुवे।
निशि लंकां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः॥२॥
इच्छानुसार रूप धारण करने वाली श्रेष्ठ राक्षसी लंकापुरी को अपने पराक्रम से परास्त करके महातेजस्वी महाबली महान् सत्त्वशाली वानरशिरोमणि कपिकुञ्जर हनुमान् बिना दरवाजे के ही रात में चहारदीवारी फाँद गये और लंका के भीतर घुस गये॥ १-२॥
प्रविश्य नगरी लंकां कपिराजहितंकरः।
चक्रेऽथ पादं सव्यं च शत्रूणां स तु मूर्धनि॥३॥
कपिराज सुग्रीव का हित करने वाले हनुमान जी ने इस तरह लंकापुरी में प्रवेश करके मानो शत्रुओं के सिरपर अपना बायाँ पैर रख दिया॥३॥
प्रविष्टः सत्त्वसम्पन्नो निशायां मारुतात्मजः।
स महापथमास्थाय मुक्तपुष्पविराजितम्॥४॥
ततस्तु तां पुरी लंकां रम्यामभिययौ कपिः।
सत्त्वगुण से सम्पन्न पवनपुत्र हनुमान् उस रात में परकोटे के भीतर प्रवेश करके बिखेरे गये फूलों से सुशोभित राजमार्ग का आश्रय ले उस रमणीय लंकापुरी की ओर चले॥ ४ १/२॥
हसितोत्कृष्टनिनदैस्तूर्यघोषपुरस्कृतैः॥५॥
वज्राङ्कशनिकाशैश्च वज्रजालविभूषितैः।
गृहमेघैः पुरी रम्या बभासे द्यौरिवाम्बुदैः॥६॥
जैसे आकाश श्वेत बादलों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार वह रमणीय पुरी अपने श्वेत मेघसदृश गृहों से उत्तम शोभा पा रही थी। वे गृह अट्टहासजनित उत्कृष्ट शब्दों तथा वाद्यघोषों से मुखरित थे। उनमें वज्रों तथा अंकुशों के चित्र अङ्कित थे और हीरों के बने हुए झरोखे उनकी शोभा बढ़ाते थे॥५-६॥
प्रजज्वाल तदा लंका रक्षोगणगृहैः शुभैः।
सिताभ्रसदृशैश्चित्रैः पद्मस्वस्तिकसंस्थितैः॥७॥
वर्धमानगृहैश्चापि सर्वतः सुविभूषितैः।
उस समय लंका श्वेत बादलों के समान सुन्दर एवं विचित्र राक्षस-गृहों से प्रकाशित हो रही थी। उन गृहों में से कोई तो कमल के आकार में बने हुए थे। कोई स्वस्तिक के चिह्न या आकार से युक्त थे और किन्हीं का निर्माण वर्धमानसंज्ञक गृहों के रूपमें हुआ था। वे सभी सब ओर से सजाये गये थे॥ ७ १/२॥
१-२ वाराहमिहिर की संहिता में गृहों के विभिन्न संस्थानों (आकृतियों) का वर्णन किया गया है। उन्हीं संस्थानों के अनुसार उनके नाम दिये गये हैं। जहाँ स्वस्तिक संस्थान और वर्धमानसंज्ञक गृह का उल्लेख हुआ है, इनके लक्षणों को स्पष्ट करने वाले वचनों को यहाँ उद्धृत किया जाता है
चतुःशालं चतुर्दारं सर्वतोभद्रसंज्ञितम्।
पश्चिमद्वाररहितं नन्द्यावर्ताह्वयन्तु तत्॥
दक्षिणद्वाररहितं वर्धमानं धनप्रदम्।
प्रारद्वाररहितं स्वस्तिकाख्यं पुत्रधनप्रदम्॥
चार शालाओंसे युक्त गृहको, जिसके प्रत्येक दिशामें एक-एक करके चार द्वार हों, ‘सर्वतोभद्र’ कहते हैं। जिसमें तीन ही द्वार हों, पश्चिम दिशाकी ओर द्वार न हो, उसका नाम ‘नन्द्यावर्त’ है। जिसमें दक्षिणके सिवा अन्य तीन दिशाओंमें द्वार हों, उसे ‘वर्धमान्’ गृह कहते हैं। वह धन देनेवाला होता है तथा जिसमें केवल पूर्व दिशाकी ओर द्वार न हो, उस गृहका नाम ‘स्वस्तिक’ है। वह पुत्र और धन देनेवाला होता है।
तां चित्रमाल्याभरणां कपिराजहितंकरः॥८॥
राघवार्थे चरन् श्रीमान् ददर्श च ननन्द च।
वानरराज सुग्रीव का हित करने वाले श्रीमान् हनुमान् श्रीरघुनाथजी की कार्यसिद्धि के लिये विचित्र पुष्पमय आभरणों से अलंकृत लंका में विचरने लगे। उन्होंने उस पुरी को अच्छी तरह देखा और देखकर प्रसन्नता का अनुभव किया॥ ८ १/२॥
भवनाद् भवनं गच्छन् ददर्श कपिकुञ्जरः॥९॥
विविधाकृतिरूपाणि भवनानि ततस्ततः।
शुश्राव रुचिरं गीतं त्रिस्थानस्वरभूषितम्॥१०॥
उन कपिश्रेष्ठ ने जहाँ-तहाँ एक घर से दूसरे घर पर जाते हुए विविध आकार-प्रकार के भवन देखे तथा हृदय, कण्ठ और मूर्धा इन तीन स्थानों से निकलने वाले मन्द, मध्यम और उच्च स्वर से विभूषित मनोहर गीत सुने॥९-१०॥
स्त्रीणां मदनविद्धानां दिवि चाप्सरसामिव।
शुश्राव काञ्चीनिनदं नूपुराणां च निःस्वनम्॥११॥
उन्होंने स्वर्गीय अप्सराओं के समान सुन्दरी तथा कामवेदना से पीड़ित कामिनियों की करधनी और पायजेबों की झनकार सुनी॥११॥
सोपाननिनदांश्चापि भवनेषु महात्मनाम्।
आस्फोटितनिनादांश्च क्ष्वेडितांश्च ततस्ततः॥१२॥
इसी तरह जहाँ-तहाँ महामनस्वी राक्षसों के घरों में सीढ़ियों पर चढ़ते समय स्त्रियों की काञ्ची और मंजीर की मधुरध्वनि तथा पुरुषों के ताल ठोकने और गर्जने की भी आवाजें उन्हें सुनायी दीं॥ १२॥
शुश्राव जपतां तत्र मन्त्रान् रक्षोगृहेषु वै।
स्वाध्यायनिरतांश्चैव यातुधानान् ददर्श सः॥१३॥
राक्षसों के घरों में बहुतों को तो उन्होंने वहाँ मन्त्र जपते हुए सुना और कितने ही निशाचरों को स्वाध्याय में तत्पर देखा॥१३॥
रावणस्तवसंयुक्तान् गर्जतो राक्षसानपि।
राजमार्ग समावृत्य स्थितं रक्षोगणं महत्॥१४॥
कई राक्षसों को उन्होंने रावण की स्तुति के साथ गर्जना करते और निशाचरों की एक बड़ी भीड़ को राजमार्ग रोककर खड़ी हुई देखा॥ १४॥
ददर्श मध्यमे गुल्मे राक्षसस्य चरान् बहून्।
दीक्षिताञ्जटिलान् मुण्डान् गोजिनाम्बरवाससः॥
दर्भमुष्टिप्रहरणानग्निकुण्डायुधांस्तथा।
कूटमुद्गरपाणींश्च दण्डायुधधरानपि॥१६॥
नगर के मध्यभाग में उन्हें रावण के बहुत-से गुप्तचर दिखायी दिये। उनमें कोई योग की दीक्षा लिये हुए, कोई जटा बढ़ाये, कोई मूड़ मुँडाये, कोई गोचर्म या मृगचर्म धारण किये और कोई नंग-धडंग थे। कोई मुट्ठीभर कुशों को ही अस्त्र-रूप से धारण किये हुए थे। किन्हीं का अग्निकुण्ड ही आयुध था किन्हीं के हाथ में कूट या मुद्गर था। कोई डंडे को ही हथियार रूप में लिये हुए थे।
एकाक्षानेकवर्णाश्च लंबोदरपयोधरान्।
करालान् भुग्नवक्त्रांश्च विकटान् वामनांस्तथा॥१७॥
किन्हीं के एक ही आँख थी तो किन्हीं के रूप बहुरंगे थे। कितनों के पेट और स्तन बहुत बड़े थे। कोई बड़े विकराल थे। किन्हीं के मुँह टेढ़े-मेढ़े थे। कोई विकट थे तो कोई बौने ॥१७॥
धन्विनः खड्गिनश्चैव शतघ्नीमुसलायुधान्।
परिघोत्तमहस्तांश्च विचित्रकवचोज्ज्वलान्॥१८॥
किन्हीं के पास धनुष, खड्ग, शतघ्नी और मूसलरूप आयुध थे। किन्हीं के हाथों में उत्तम परिघ विद्यमान थे और कोई विचित्र कवचों से प्रकाशित हो रहे थे॥१८॥
नातिस्थूलान् नातिकृशान् नातिदीर्घातिह्रस्वकान्।
नातिगौरान् नातिकृष्णान्नातिकुब्जान्न वामनान्॥१९॥
कुछ निशाचर न तो अधिक मोटे थे, न अधिक दुर्बल, न बहुत लंबे थे न अधिक छोटे, न बहुत गोरे थे न अधिक काले तथा न अधिक कुबड़े थे न विशेष बौने ही॥ १९॥
विरूपान् बहुरूपांश्च सुरूपांश्च सुवर्चसः।
ध्वजिनः पताकिनश्चैव ददर्श विविधायुधान्॥२०॥
कोई बड़े कुरूप थे, कोई अनेक प्रकार के रूप धारण कर सकते थे, किन्हीं का रूप सुन्दर था, कोई बड़े तेजस्वी थे तथा किन्हीं के पास ध्वजा, पताका और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र थे॥२०॥
शक्तिवृक्षायुधांश्चैव पट्टिशाशनिधारिणः।
क्षेपणीपाशहस्तांश्च ददर्श स महाकपिः॥२१॥
कोई शक्ति और वृक्ष रूप आयुध धारण किये देखे जाते थे तथा किन्हीं के पास पट्टिश, वज्र, गुलेल और पाश थे महाकपि हनुमान् ने उन सबको देखा। २१॥
स्रग्विणस्त्वनुलिप्तांश्च वराभरणभूषितान्।
नानावेषसमायुक्तान् यथास्वैरचरान् बहून्॥२२॥
किन्हीं के गले में फूलों के हार थे और ललाट आदि अंग चन्दन से चर्चित थे। कोई श्रेष्ठ आभूषणों से सजे हुए थे। कितने ही नाना प्रकार के वेशभूषा से संयुक्त थे और बहुतेरे स्वेच्छानुसार विचरने वाले जान पड़ते थे॥२२॥
तीक्ष्णशूलधरांश्चैव वज्रिणश्च महाबलान्।
शतसाहस्रमव्यग्रमारक्षं मध्यमं कपिः॥२३॥
रक्षोऽधिपतिनिर्दिष्टं ददर्शान्तःपुराग्रतः।
कितने ही राक्षस तीखे शूल तथा वज्र लिये हुए थे। वे सब-के-सब महान् बल से सम्पन्न थे। इनके सिवा कपिवर हनुमान् ने एक लाख रक्षक सेना को राक्षसराज रावण की आज्ञा से सावधान होकर नगर के मध्यभाग की रक्षा में संलग्न देखा। वे सारे सैनिक रावण के अन्तःपुर के अग्रभाग में स्थित थे॥ २३ १/२॥
स तदा तद् गृहं दृष्ट्वा महाहाटकतोरणम्॥२४॥
राक्षसेन्द्रस्य विख्यातमद्रिमूर्ध्नि प्रतिष्ठितम्।
पुण्डरीकावतंसाभिः परिखाभिः समावृतम्॥२५॥
प्राकारावृतमत्यन्तं ददर्श स महाकपिः।
त्रिविष्टपनिभं दिव्यं दिव्यनादविनादितम्॥२६॥
रक्षक सेना के लिये जो विशाल भवन बना था, उसका फाटक बहुमूल्य सुवर्ण द्वारा निर्मित हुआ था। उस आरक्षा भवनको देखकर महाकपि हनुमान जी ने राक्षसराज रावण के सुप्रसिद्ध राजमहल पर दृष्टिपात किया, जो त्रिकूट पर्वत के एक शिखर पर प्रतिष्ठित था। वह सब ओर से श्वेत कमलों द्वारा अलंकृत खाइयों से घिरा हुआ था। उसके चारों ओर बहुत ऊँचा परकोटा था, जिसने उस राजभवन को घेर रखा था। वह दिव्य भवन स्वर्गलोक के समान मनोहर था और वहाँ संगीत आदि के दिव्य शब्द गूंज रहे थे॥ २४–२६॥
वाजिह्वेषितसंघुष्टं नादितं भूषणैस्तथा।
रथैर्यानैर्विमानैश्च तथा हयगजैः शुभैः॥२७॥
वारणैश्च चतुर्दन्तैः श्वेताभ्रनिचयोपमैः।
भूषितै रुचिरद्वारं मत्तैश्च मृगपक्षिभिः॥२८॥
घोड़ों की हिनहिनाहटकी आवाज भी वहाँ सब ओर फैली हुई थी। आभूषणों की रुनझुन भी कानों में पड़ती रहती थी। नाना प्रकार के रथ, पालकी आदि सवारी, विमान, सुन्दर हाथी, घोड़े, श्वेत बादलों की घटा के समान दिखायी देने वाले चार दाँतों से युक्त सजे-सजाये मतवाले हाथी तथा मदमत्त पशु-पक्षियों के संचरण से उस राजमहल का द्वार बड़ा सुन्दर दिखायी देता था॥ २७-२८॥
रक्षितं सुमहावीर्यातुधानैः सहस्रशः।
राक्षसाधिपतेर्गुप्तमाविवेश गृहं कपिः॥२९॥
सहस्रों महापराक्रमी निशाचर राक्षसराज के उस महल की रक्षा करते थे। उस गुप्त भवन में भी कपिवर हनुमान् जी जा पहुँचे॥ २९॥
स हेमजाम्बूनदचक्रवालं महार्हमुक्तामणि भूषितान्तम्।
परार्घ्यकालागुरुचन्दनार्ह स रावणान्तःपुरमाविवेश॥३०॥
तदनन्तर जिसके चारों ओर सुवर्ण एवं जाम्बूनद का परकोटा था, जिसका ऊपरी भाग बहुमूल्य मोती और मणियों से विभूषित था तथा अत्यन्त उत्तम काले अगुरु एवं चन्दन से जिसकी अर्चना की जाती थी, रावण के उस अन्तःपुर में हनुमान जी ने प्रवेश किया। ३०॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ॥४॥
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बहुत अच्छा कार्य है प्रभु की प्रेरणा आगे भी आपके बनी रहे