RamCharitManas (RamCharit.in)

इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 40 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 40

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
चत्वारिंशः सर्गः (40)

(सीता का श्रीराम से कहने के लिये पुनः संदेश देना तथा हनुमान जी का उन्हें आश्वासन दे उत्तर-दिशा की ओर जाना)

श्रुत्वा तु वचनं तस्य वायुसूनोर्महात्मनः।
उवाचात्महितं वाक्यं सीता सुरसुतोपमा॥१॥

वायुपुत्र महात्मा हनुमान् जी का वचन सुनकर देवकन्या के समान तेजस्विनी सीता ने अपने हित के विचार से इस प्रकार कहा— ॥१॥

त्वां दृष्ट्वा प्रियवक्तारं सम्प्रहृष्यामि वानर।
अर्धसंजातसस्येव वृष्टिं प्राप्य वसुंधरा ॥२॥

‘वानरवीर! तुमने मुझे बड़ा ही प्रिय संवाद सुनाया है। तुम्हें देखकर हर्ष के मारे मेरे शरीर में रोमाञ्च हो आया है। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा का पानी पड़ने से आधी जमी हुई खेतीवाली भूमि हरी-भरी हो जाती है।

यथा तं पुरुषव्याघ्रं गात्रैः शोकाभिकर्शितैः।
संस्पृशेयं सकामाहं तथा कुरु दयां मयि॥३॥

‘मुझपर ऐसी दया करो, जिससे मैं शोक के कारण दुर्बल हुए अपने अङ्गों द्वारा नरश्रेष्ठ श्रीराम का प्रेमपूर्वक स्पर्श कर सकूँ॥३॥

अभिज्ञानं च रामस्य दद्या हरिगणोत्तम।
क्षिप्तामिषीकां काकस्य कोपादेकाक्षिशातनीम्॥४॥

‘वानरश्रेष्ठ! श्रीराम ने क्रोधवश जो कौए की एक आँख को फोड़ने वाली सींक का बाण चलाया था, उस प्रसङ्ग की तुम पहचान के रूप में उन्हें याद दिलाना॥ ४॥

मनःशिलायास्तिलको गण्डपार्वे निवेशितः।
त्वया प्रणष्टे तिलके तं किल स्मर्तुमर्हसि ॥५॥

‘मेरी ओर से यह भी कहना कि प्राणनाथ! पहले की उस बात को भी याद कीजिये, जब कि मेरे कपोल में लगे हुए तिलक के मिट जाने पर आपने अपने हाथ से मैन्सिल का तिलक लगाया था॥ ५॥

स वीर्यवान् कथं सीतां हृतां समनुमन्यसे।
वसन्तीं रक्षसां मध्ये महेन्द्रवरुणोपम॥६॥

‘महेन्द्र और वरुण  के समान पराक्रमी प्रियतम! आप बलवान् होकर भी अपहृत होकर राक्षसों के घर में निवास करने वाली मुझ सीता का तिरस्कार कैसे सहन करते हैं? ॥६॥

एष चूडामणिर्दिव्यो मया सुपरिरक्षितः।
एतं दृष्ट्वा प्रहृष्यामि व्यसने त्वामिवानघ॥७॥

‘निष्पाप प्राणेश्वर! इस दिव्य चूड़ामणि को मैंने बड़े यत्न से सुरक्षित रखा था और संकट के समय इसे देखकर मानो मुझे आपका ही दर्शन हो गया हो, इस तरह मैं हर्ष का अनुभव करती थी॥७॥

एष निर्यातितः श्रीमान् मया ते वारिसम्भवः।
अतः परं न शक्ष्यामि जीवितुं शोकलालसा॥८॥

‘समुद्र के जल से उत्पन्न हुआ यह कान्तिमान् मणिरत्न आज आपको लौटा रही हूँ। अब शोक से आतुर होने के कारण मैं अधिक समयतक जीवित नहीं रह सकूँगी॥८॥

असह्यानि च दुःखानि वाचश्च हृदयच्छिदः।
राक्षसैः सह संवासं त्वत्कृते मर्षयाम्यहम्॥९॥

‘दुःसह दुःख, हृदय को छेदने वाली बातें और राक्षसियों के साथ निवास—यह सब कुछ मैं आपके लिये ही सह रही हूँ॥९॥

धारयिष्यामि मासं तु जीवितं शत्रुसूदन।
मासादूर्ध्वं न जीविष्ये त्वया हीना नृपात्मज॥१०॥

‘राजकुमार! शत्रुसूदन ! मैं आपकी प्रतीक्षा में किसी तरह एक मास तक जीवन धारण करूँगी। इसके बाद आपके बिना मैं जीवित नहीं रह सकूँगी॥ १० ॥

घोरो राक्षसराजोऽयं दृष्टिश्च न सुखा मयि।
त्वां च श्रुत्वा विषज्जन्तं न जीवेयमपि क्षणम्॥११॥

‘यह राक्षसराज रावण बड़ा क्रूर है। मेरे प्रति इसकी दृष्टि भी अच्छी नहीं है। अब यदि आपको भी विलम्ब करते सुन लूँगी तो मैं क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकती’ ॥ ११॥

वैदेह्या वचनं श्रुत्वा करुणं साश्रुभाषितम्।
अथाब्रवीन्महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः॥१२॥

सीताजी के यह आँसू बहाते कहे हुए करुणाजनक वचन सुनकर महातेजस्वी पवनकुमार हनुमान जी बोले- ॥ १२॥

त्वच्छोकविमुखो रामो देवि सत्येन ते शपे।।
रामे शोकाभिभूते तु लक्ष्मणः परितप्यते॥१३॥

‘देवि! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि श्रीरघुनाथजी आपके शोक से ही सब कामों से विमुख हो रहे हैं। श्रीराम के शोकातुर होने से लक्ष्मण भी बहुत दुःखी रहते हैं॥ १३॥

दृष्टा कथंचिद् भवती न कालः परिदेवितुम्।
इम मुहूर्तं दुःखानामन्तं द्रक्ष्यसि भामिनि॥१४॥

‘अब किसी तरह आपका दर्शन हो गया, इसलिये रोने-धोने या शोक करने का अवसर नहीं रहा। भामिनि! आप इसी मुहूर्त में अपने सारे दुःखों का अन्त हुआ देखेंगी॥ १४॥

तावुभौ पुरुषव्याघ्रौ राजपुत्रावनिन्दितौ।
त्वदर्शनकृतोत्साहौ लङ्कां भस्मीकरिष्यतः॥१५॥

‘वे दोनों भाई पुरुषसिंह राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण सर्वत्र प्रशंसित वीर हैं। आपके दर्शन के लिये उत्साहित होकर वे लङ्कापुरी को भस्म कर डालेंगे। १५॥

हत्वा तु समरे रक्षो रावणं सहबान्धवैः।
राघवौ त्वां विशालाक्षि स्वां पुरी प्रति नेष्यतः॥१६॥

‘विशाललोचने! राक्षस रावण को समराङ्गण में उसके बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर वे दोनों रघुवंशी बन्धु आपको अपनी पुरी में ले जायँगे॥१६॥

यत्तु रामो विजानीयादभिज्ञानमनिन्दिते।
प्रीतिसंजननं भूयस्तस्य त्वं दातुमर्हसि ॥१७॥

‘सती-साध्वी देवि! जिसे श्रीरामचन्द्रजी जान सकें और जो उनके हृदय में प्रेम एवं प्रसन्नताका संचार करने वाली हो, ऐसी कोई और भी पहचान आपके पास हो तो वह उनके लिये आप मुझे दें’॥ १७॥

साब्रवीद् दत्तमेवाहो मयाभिज्ञानमुत्तमम्।
एतदेव हि रामस्य दृष्ट्वा यत्नेन भूषणम्॥१८॥
श्रद्धेयं हनुमन् वाक्यं तव वीर भविष्यति।

तब सीताजी ने कहा—’कपिश्रेष्ठ! मैंने तुम्हें उत्तम से-उत्तम पहचान तो दे ही दी। वीर हनुमन् ! इसी आभूषण को यत्नपूर्वक देख लेनेपर श्रीराम के लिये तुम्हारी सारी बातें विश्वसनीय हो जायँगी’ ॥ १८ १/२॥

स तं मणिवरं गृह्य श्रीमान् प्लवगसत्तमः॥१९॥
प्रणम्य शिरसा देवीं गमनायोपचक्रमे।

उस श्रेष्ठ मणि को लेकर वानरशिरोमणि श्रीमान् हनुमान् देवी सीता को सिर झुका प्रणाम करने के पश्चात् वहाँ से जाने को उद्यत हुए॥ १९ १/२॥

तमुत्पातकृतोत्साहमवेक्ष्य हरियूथपम्॥२०॥
वर्धमानं महावेगमुवाच जनकात्मजा।
अश्रुपूर्णमुखी दीना बाष्पगद्गदया गिरा॥२१॥

वानरयूथपति महावेगशाली हनुमान् को वहाँ से छलाँग मारने के लिये उत्साहित हो बढ़ते देख जनकनन्दिनी सीता के मुख पर आँसुओं की धारा बहने लगी। वे दुःखी हो अश्रु-गद्गद वाणी में बोलीं- ॥ २०-२१॥

हनूमन् सिंहसंकाशौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।
सुग्रीवं च सहामात्यं सर्वान् ब्रूया अनामयम्॥२२॥

‘हनूमन् ! सिंह के समान पराक्रमी दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण से तथा मन्त्रियोंसहित सुग्रीव एवं अन्य सब वानरों से मेरा कुशल-मङ्गल कहना॥ २२ ॥

यथा च स महाबाहुर्मां तारयति राघवः।
अस्माद् दुःखाम्बुसंरोधात् त्वं समाधातुमर्हसि॥२३॥

‘महाबाहु श्रीरघुनाथजी को तुम्हें इस प्रकार समझाना चाहिये, जिससे वे दुःख के इस महासागर से मेरा उद्धार करें॥ २३॥

इदं च तीव्र मम शोकवेगं रक्षोभिरेभिः परिभर्त्सनं च।
ब्रूयास्तु रामस्य गतः समीपं शिवश्च तेऽध्वास्तु हरिप्रवीर ॥२४॥

‘वानरों के प्रमुख वीर! मेरा यह दुःसह शोकवेग और इन राक्षसों की यह डाँट-डपट भी तुम श्रीराम के समीप जाकर कहना जाओ, तुम्हारा मार्ग मङ्गलमय हो’॥२४॥

स राजपुत्र्या प्रतिवेदितार्थः कपिः कृतार्थः परिहृष्टचेताः।
तदल्पशेषं प्रसमीक्ष्य कार्य दिशं ह्यदीची मनसा जगाम॥२५॥

राजकुमारी सीता के उक्त अभिप्राय को जानकर कपिवर हनुमान् ने अपने को कृतार्थ समझा और प्रसन्नचित्त होकर थोड़े-से शेष रहे कार्य का विचार करते हुए वहाँ से उत्तर-दिशा की ओर प्रस्थान किया। २५॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः॥४०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४०॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

सत्य सनातन फाउंडेशन (रजि.) भारत सरकार से स्वीकृत संस्था है। हिन्दू धर्म के वैश्विक संवर्धन-संरक्षण व निःशुल्क सेवाकार्यों हेतु आपके आर्थिक सहयोग की अति आवश्यकता है! हम धर्मग्रंथों को अनुवाद के साथ इंटरनेट पर उपलब्ध कराने हेतु अग्रसर हैं। कृपया हमें जानें और सहयोग करें!

X
error: