वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 41 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 41
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकचत्वारिंशः सर्गः (41)
(हनुमान जी के द्वारा प्रमदावन (अशोकवाटिका)-का विध्वंस)
स च वाग्भिः प्रशस्ताभिर्गमिष्यन् पूजितस्तया।
तस्माद् देशादपाक्रम्य चिन्तयामास वानरः॥१॥
सीताजी से उत्तम वचनों द्वारा समादर पाकर वानरवीर हनुमान जी जब वहाँ से जाने लगे, तब उस स्थान से दूसरी जगह हटकर वे इस प्रकार विचार करने लगे— ॥१॥
अल्पशेषमिदं कार्यं दृष्टेयमसितेक्षणा।
त्रीनुपायानतिक्रम्य चतुर्थ इह दृश्यते॥२॥
‘मैंने कजरारे नेत्रोंवाली सीताजी का दर्शन तो कर लिया, अब मेरे इस कार्य का थोड़ा-सा अंश (शत्रु की शक्ति का पता लगाना) शेष रह गया है। इसके लिये चार उपाय हैं—साम, दान, भेद और दण्ड यहाँ साम आदि तीन उपायों को लाँघकर केवल चौथे उपाय (दण्ड)-का प्रयोग ही उपयोगी दिखायी देता है॥२॥
न साम रक्षःसु गुणाय कल्पते न दानमर्थोपचितेषु युज्यते।
न भेदसाध्या बलदर्पिता जनाः पराक्रमस्त्वेष ममेह रोचते॥३॥
‘राक्षसों के प्रति सामनीति का प्रयोग करने से कोई लाभ नहीं होता। इनके पास धन भी बहुत है, अतःइन्हें दान देने का भी कोई उपयोग नहीं है। इसके सिवा, ये बल के अभिमान में चूर रहते हैं, अतः भेदनीति के द्वारा भी इन्हें वश में नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में मुझे यहाँ पराक्रम दिखाना ही उचित जान पड़ता है॥३॥
न चास्य कार्यस्य पराक्रमादृते विनिश्चयः कश्चिदिहोपपद्यते।
हतप्रवीराश्च रणे तु राक्षसाः कथंचिदीयुर्यदिहाद्य मार्दवम्॥४॥
‘इस कार्य की सिद्धि के लिये पराक्रम के सिवा यहाँ और किसी उपाय का अवलम्बन ठीक नहीं जंचता। यदि युद्ध में राक्षसों के मुख्य-मुख्य वीर मारे जायँ तो ये लोग किसी तरह कुछ नरम पड़ सकते हैं॥४॥
कार्ये कर्मणि निर्वृत्ते यो बहून्यपि साधयेत्।
पूर्वकार्याविरोधेन स कार्यं कर्तुमर्हति॥५॥
‘जो पुरुष प्रधान कार्य के सम्पन्न हो जाने पर दूसरे दूसरे बहुत-से कार्यों को भी सिद्ध कर लेता है और पहले के कार्यों में बाधा नहीं आने देता, वही कार्य को सुचारु रूप में कर सकता है॥५॥
न ह्येकः साधको हेतुः स्वल्पस्यापीह कर्मणः।
यो ह्यर्थं बहुधा वेद स समर्थोऽर्थसाधने॥६॥
‘छोटे-से-छोटे कर्म की भी सिद्धि के लिये कोई एक ही साधक हेतु नहीं हुआ करता। जो पुरुष किसी कार्य या प्रयोजन को अनेक प्रकार से सिद्ध करने की कला जानता हो, वही कार्य-साधन में समर्थ हो सकता
इहैव तावत्कृतनिश्चयो ह्यहं व्रजेयमद्य प्लवगेश्वरालयम्।
परात्मसम्मर्दविशेषतत्त्ववित् ततः कृतं स्यान्मम भर्तृशासनम्॥७॥
‘यदि इसी यात्रा में मैं इस बात को ठीक-ठीक समझ लूँ कि अपने और शत्रुपक्ष में युद्ध होने पर कौन प्रबल होगा और कौन निर्बल, तत्पश्चात् भविष्य के कार्य का भी निश्चय करके आज सुग्रीव के पास चलूँ तो मेरे द्वारा स्वामी की आज्ञाका पूर्णरूप से पालन हुआ समझा जायगा॥७॥
कथं नु खल्वद्य भवेत् सुखागतं प्रसह्य युद्धं मम राक्षसैः सह।
तथैव खल्वात्मबलं च सारवत् समानयेन्मां च रणे दशाननः॥८॥
‘परंतु आज मेरा यहाँ तक आना सुखद अथवा शुभ परिणाम का जनक कैसे होगा? राक्षसों के साथ हठात् युद्ध करने का अवसर मुझे कैसे प्राप्त होगा? तथा दशमुख रावण समर में अपनी सेना को और मुझे भी तुलनात्मक दृष्टि से देखकर कैसे यह समझ सकेगा कि कौन सबल है ? ॥ ८॥
ततः समासाद्य रणे दशाननं समन्त्रिवर्गं सबलं सयायिनम्।
हृदि स्थितं तस्य मतं बलं च सुखेन मत्वाहमितः पुनर्ब्रजे॥९॥
‘उस युद्ध में मन्त्री, सेना और सहायकोंसहित रावण का सामना करके मैं उसके हार्दिक अभिप्राय तथा सैनिक-शक्ति का अनायास ही पता लगा लूँगा। उसके बाद यहाँ से जाऊँगा॥९॥
इदमस्य नृशंसस्य नन्दनोपममुत्तमम्।
वनं नेत्रमनःकान्तं नानाद्रुमलतायुतम्॥१०॥
‘इस निर्दयी रावण का यह सुन्दर उपवन नेत्रों को आनन्द देने वाला और मनोरम है। नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त होने के कारण यह नन्दनवन के समान उत्तम प्रतीत होता है॥ १० ॥
इदं विध्वंसयिष्यामि शुष्कं वनमिवानलः।
अस्मिन् भग्ने ततः कोपं करिष्यति स रावणः॥११॥
‘जैसे आग सूखे वन को जला डालती है, उसी प्रकार मैं भी आज इस उपवन का विध्वंस कर डालूँगा। इसके भग्न हो जाने पर रावण अवश्य मुझपर क्रोध करेगा॥
ततो महत्साश्वमहारथद्विपं बलं समानेष्यति राक्षसाधिपः।
त्रिशूलकालायसपट्टिशायुधं ततो महद्युद्धमिदं भविष्यति॥१२॥
‘तत्पश्चात् वह राक्षसराज हाथी, घोड़े तथा विशाल रथों से युक्त और त्रिशूल, कालायस एवं पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित बहुत बड़ी सेना लेकर आयेगा। फिर तो यहाँ महान् संग्राम छिड़ जायगा’ ॥ १२॥
अहं च तैः संयति चण्डविक्रमैः समेत्य रक्षोभिरभङ्गविक्रमः।
निहत्य तद् रावणचोदितं बलं सुखं गमिष्यामि हरीश्वरालयम्॥१३॥
‘उस युद्ध में मेरी गति रुक नहीं सकती। मेरा पराक्रम कुण्ठित नहीं हो सकता। मैं प्रचण्ड पराक्रम दिखाने वाले उन राक्षसों से भिड़ जाऊँगा और रावण की भेजी हुई उस सारी सेना को मौत के घाट उतारकर सुखपूर्वक सुग्रीव के निवासस्थान किष्किन्धापुरी को लौट जाऊँगा’॥ १३॥
ततो मारुतवत् क्रुद्धो मारुतिर्भीमविक्रमः।
ऊरुवेगेन महता द्रुमान् क्षेप्तुमथारभत्॥१४॥
ऐसा सोचकर भयानक पुरुषार्थ प्रकट करने वाले पवनकुमार हनुमान जी क्रोध से भर गये और वायु के समान बड़े भारी वेग से वृक्षों को उखाड़-उखाड़कर फेंकने लगे॥
ततस्तद्धनुमान् वीरो बभञ्ज प्रमदावनम्।
मत्तद्विजसमाघुष्टं नानाद्रुमलतायुतम्॥१५॥
तदनन्तर वीर हनुमान् ने मतवाले पक्षियों के कलरव से मुखरित और नाना प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से भरे-पूरे उस प्रमदावन (अन्तःपुर के उपवन)-को उजाड़ डाला॥ १५ ॥
तदनं मथितैर्वृक्षैर्भिन्नैश्च सलिलाशयैः।
चूर्णितैः पर्वताप्रैश्च बभूवाप्रियदर्शनम्॥१६॥
वहाँ के वृक्षों को खण्ड-खण्ड कर दिया जलाशयों को मथ डाला और पर्वत-शिखरों को चूरचूर कर डाला। इससे वह सुन्दर वन कुछ ही क्षणों में अभव्य दिखायी देने लगा॥ १६॥
नानाशकुन्तविरुतैः प्रभिन्नसलिलाशयैः।
तानैः किसलयैः क्लान्तैः क्लान्तद्रुमलतायुतैः॥१७॥
न बभौ तद् वनं तत्र दावानलहतं यथा।
व्याकुलावरणा रेजुर्विह्वला इव ता लताः॥१८॥
नाना प्रकार के पक्षी वहाँ भय के मारे चें-चें करने लगे, जलाशयों के घाट टूट-फूट गये, तामे के समान वृक्षों के लाल-लाल पल्लव मुरझा गये तथा वहाँ के वृक्ष और लताएँ भी रौंद डाली गयीं। इन सब कारणों से वह प्रमदावन वहाँ ऐसा जान पड़ता था, मानो दावानल से झुलस गया हो। वहाँ की लताएँ अपने आवरणों के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने से घबरायी हुई स्त्रियों के समान प्रतीत होती थीं।
लतागृहैश्चित्रगृहैश्च सादितै फ्लैर्मृगैरातरवैश्च पक्षिभिः।
शिलागृहैरुन्मथितैस्तथा गृहैः प्रणष्टरूपं तदभून्महद् वनम्॥१९॥
लतामण्डप और चित्रशालाएँ उजाड़ हो गयीं। पाले हुए हिंसक जन्तु, मृग तथा तरह-तरह के पक्षी आर्तनाद करने लगे। प्रस्तरनिर्मित प्रासाद तथा अन्य साधारण गृह भी तहस-नहस हो गये। इससे उस महान् प्रमदावन का सारा रूप-सौन्दर्य नष्ट हो गया।१९॥
सा विह्वलाशोकलताप्रताना वनस्थली शोकलताप्रताना।
जाता दशास्यप्रमदावनस्य कपेर्बलाद्धि प्रमदावनस्य॥२०॥
दशमुख रावण की स्त्रियों की रक्षा करने वाले तथा अन्तःपुर के क्रीडाविहार के लिये उपयोगी उस विशाल कानन की भूमि, जहाँ चंचल अशोक-लताओं के समूह शोभा पाते थे, कपिवर हनुमान जी के बल प्रयोग से श्रीहीन होकर शोचनीय लताओं के विस्तार से युक्त हो गयी (उसकी दुरवस्था देखकर दर्शक के मन में दुःख होता था) ॥ २०॥
ततः स कृत्वा जगतीपतेर्महान् महद् व्यलीकं मनसो महात्मनः।
युयुत्सुरेको बहुभिर्महाबलैः श्रिया ज्वलंस्तोरणमाश्रितः कपिः॥२१॥
इस प्रकार महामना राजा रावणके मन को विशेष कष्ट पहुँचाने वाला कार्य करके अनेक महाबलियों के साथ अकेले ही युद्ध करनेका हौसला लेकर कपिश्रेष्ठ हनुमान् जी प्रमदावन के फाटक पर आ गये। उस समय वे अपने अद्भुत तेज से प्रकाशित हो रहे थे। २१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकचत्वारिंशः सर्गः॥४१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में इकतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४१॥