वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 43 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 43
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
त्रिचत्वारिंशः सर्गः (43)
(हनुमान जी के द्वारा चैत्यप्रासाद का विध्वंस तथा उसके रक्षकों का वध)
ततः स किंकरान् हत्वा हनूमान् ध्यानमास्थितः।
वनं भग्नं मया चैत्यप्रासादो न विनाशितः॥१॥
इधर किंकरों का वध करके हनुमान जी यह सोचने लगे कि ‘मैंने वन को तो उजाड़ दिया, परंतु इस चैत्य* प्रासाद को नष्ट नहीं किया है॥१॥
* लङ्का में राक्षसों के कुलदेवता का जो स्थान था, उसी का नाम ‘चैत्यप्रासाद’ रखा गया था।
तस्मात् प्रासादमद्यैवमिमं विध्वंसयाम्यहम्।
इति संचिन्त्य हनुमान् मनसादर्शयन् बलम्॥२॥
चैत्यप्रासादमुत्प्लुत्य मेरुशृङ्गमिवोन्नतम्।
आरुरोह हरिश्रेष्ठो हनूमान् मारुतात्मजः॥३॥
‘अतः आज इस चैत्यप्रासाद का भी विध्वंस किये देता हूँ। मन-ही-मन ऐसा विचारकर पवनपुत्र वानरश्रेष्ठ हनुमान जी अपने बल का प्रदर्शन करते हुए मेरुपर्वत के शिखर की भाँति ऊँचे उस चैत्यप्रासाद पर उछलकर चढ़ गये’ ॥२-३॥
आरुह्य गिरिसंकाशं प्रासादं हरियूथपः।
बभौ स सुमहातेजाः प्रतिसूर्य इवोदितः॥४॥
उस पर्वताकार प्रासाद पर चढ़कर महातेजस्वी वानर-यूथपति हनुमान् तुरंत के उगे हुए दूसरे सूर्य की भाँति शोभा पाने लगे॥ ४॥
सम्प्रधृष्य तु दुर्धर्षश्चैत्यप्रासादमुन्नतम्।
हनूमान् प्रज्वलँल्लक्ष्म्या पारियात्रोपमोऽभवत्॥५॥
उस ऊँचे प्रासाद पर आक्रमण करके दुर्धर्ष वीर हनुमान जी अपनी सहज शोभा से उद्भासित होते हुए पारियात्र पर्वत के समान प्रतीत होने लगे॥५॥
स भूत्वा सुमहाकायः प्रभावान् मारुतात्मजः।
धृष्टमास्फोटयामास लङ्कां शब्देन पूरयन्॥६॥
वे तेजस्वी पवनकुमार विशाल शरीर धारण करके लङ्का को प्रतिध्वनित करते हुए धृष्टतापूर्वक उस प्रासाद को तोड़ने-फोड़ने लगे॥६॥
तस्यास्फोटितशब्देन महता श्रोत्रघातिना।
पेतुर्विहंगमास्तत्र चैत्यपालाश्च मोहिताः॥७॥
जोर-जोर से होने वाला वह तोड़-फोड़ का शब्द कानों से टकराकर उन्हें बहरा किये देता था। इससे मूर्च्छित हो वहाँ के पक्षी और प्रासादरक्षक भी पृथ्वी पर गिर पड़े॥७॥
अस्त्रविज्जयतां रामो लक्ष्मणश्च महाबलः।
राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपालितः॥८॥
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
हनूमान् शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः॥९॥
न रावणसहस्रं मे युद्धे प्रतिबलं भवेत्।
शिलाभिश्च प्रहरतः पादपैश्च सहस्रशः॥१०॥
धर्षयित्वा पुरीं लङ्कामभिवाद्य च मैथिलीम्।
समृद्धार्थो गमिष्यामि मिषतां सर्वरक्षसाम्॥११॥
उस समय हनुमान जी ने पुनः यह घोषणा की’अस्त्रवेत्ता भगवान् श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण की जय हो। श्रीरघुनाथजी के द्वारा सुरक्षित राजा सुग्रीव की भी जय हो मैं अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले कोसलनरेश श्रीरामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा नाम हनुमान् है। मैं वायु का पुत्र तथा शत्रुसेना का संहार करने वाला हूँ। जब मैं हजारों वृक्षों और पत्थरों से प्रहार करने लगूंगा, उस समय सहस्रों रावण मिलकर भी युद्ध में मेरे बल की समानता अथवा मेरा सामना नहीं कर सकते। मैं लङ्कापुरी को तहस-नहस कर डालूँगा और मिथिलेशकुमारी सीता को प्रणाम करने के अनन्तर सब राक्षसों के देखते-देखते अपना कार्य सिद्ध करके जाऊँगा’॥ ८–११॥
एवमुक्त्वा महाकायश्चैत्यस्थो हरियूथपः।
ननाद भीमनिर्बादो रक्षसां जनयन् भयम्॥१२॥
ऐसा कहकर चैत्यप्रासाद पर खड़े हुए विशालकाय वानरयूथपति हनुमान् राक्षसों के मन में भय उत्पन्न करते हुए भयानक आवाज में गर्जना करने लगे।१२॥
तेन नादेन महता चैत्यपालाः शतं ययुः।
गृहीत्वा विविधानस्त्रान् प्रासान् खड्गान् परश्वधान्॥१३॥
उस भीषण गर्जना से प्रभावित हो सैकड़ों प्रासादरक्षक नाना प्रकार के प्रास, खड्ग और फर से लिये वहाँ आये॥१३॥
विसृजन्तो महाकाया मारुतिं पर्यवारयन्।
ते गदाभिर्विचित्राभिः परिघैः काञ्चनाङ्गदैः॥१४॥
आजग्मुर्वानरश्रेष्ठं बाणैश्चादित्यसंनिभैः।
उन विशालकाय राक्षसों ने उन सब अस्त्रों का प्रहार करते हुए वहाँ पवनकुमार हनुमान् जी को घेर लिया। विचित्र गदाओं, सोने के पत्र जड़े हुए परिघों और सूर्यतुल्य तेजस्वी बाणों से सुसज्जित हो वे सब-के सब उन वानरश्रेष्ठ हनुमान् पर चढ़ आये॥ १४ १/२ ॥
आवर्त इव गङ्गायास्तोयस्य विपुलो महान्॥ १५॥
परिक्षिप्य हरिश्रेष्ठं स बभौ रक्षसां गणः।
वानरश्रेष्ठ हनुमान् को चारों ओर से घेरकर खड़ा हुआ राक्षसों का वह महान् समुदाय गङ्गाजी के जल में उठे हुए बड़े भारी भँवर के समान जान पड़ता था। १५ १/२॥
ततो वातात्मजः क्रुद्धो भीमरूपं समास्थितः॥१६॥
प्रासादस्य महांस्तस्य स्तम्भं हेमपरिष्कृतम्।
उत्पाटयित्वा वेगेन हनूमान् मारुतात्मजः॥१७॥
ततस्तं भ्रामयामास शतधारं महाबलः।
तत्र चाग्निः समभवत् प्रासादश्चाप्यदह्यत॥१८॥
तब राक्षसों को इस प्रकार आक्रमण करते देख पवनकुमार हनुमान् ने कुपित हो बड़ा भयंकर रूप धारण किया। उन महावीर ने उस प्रासाद के एक सुवर्णभूषित खंभे को, जिसमें सौ धारें थीं, बड़े वेग से उखाड़ लिया। उखाड़कर उन महाबली वीर ने उसे घुमाना आरम्भ किया। घुमाने पर उससे आग प्रकट हो गयी, जिससे वह प्रासाद जलने लगा॥ १६–१८॥
दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।
स राक्षसशतं हत्वा वज्रणेन्द्र इवासुरान्॥१९॥
अन्तरिक्षस्थितः श्रीमानिदं वचनमब्रवीत्।
प्रासाद को जलते देख वानरयूथपति हनुमान् ने वज्र से असुरों का संहार करने वाले इन्द्र की भाँति उन सैकड़ों राक्षसों को उस खंभे से ही मार डाला और आकाश में खड़े होकर उन तेजस्वी वीर ने इस प्रकार कहा- ॥ १९ १/२॥
मादृशानां सहस्राणि विसृष्टानि महात्मनाम्॥२०॥
बलिनां वानरेन्द्राणां सुग्रीववशवर्तिनाम्।।
‘राक्षसो! सुग्रीव के वश में रहने वाले मेरे-जैसे सहस्रों विशालकाय बलवान् वानरश्रेष्ठ सब ओर भेजे गये हैं॥ २० १/२॥
अटन्ति वसुधां कृत्स्नां वयमन्ये च वानराः॥२१॥
दशनागबलाः केचित् केचिद् दशगुणोत्तराः।
केचिन्नागसहस्रस्य बभूवुस्तुल्यविक्रमाः॥२२॥
‘हम तथा दूसरे सभी वानर समूची पृथ्वी पर घूम रहे हैं। किन्हीं में दस हाथियों का बल है तो किन्हीं में सौ हाथियों का कितने ही वानर एक सहस्र हाथियों के समान बल-विक्रम से सम्पन्न हैं ॥ २१—२॥
सन्ति चौघबलाः केचित् सन्ति वायुबलोपमाः।
अप्रमेयबलाः केचित् तत्रासन् हरियूथपाः॥२३॥
‘किन्हीं का बल जल के महान् प्रवाह की भाँति असह्य है। कितने ही वायु के समान बलवान् हैं और कितने ही वानर-यूथपति अपने भीतर असीम बल धारण करते हैं॥ २३॥
ईदृग्विधैस्तु हरिभिर्वृतो दन्तनखायुधैः।
शतैः शतसहस्रैश्च कोटिभिश्चायुतैरपि॥२४॥
आगमिष्यति सुग्रीवः सर्वेषां वो निषूदनः।
‘दाँत और नख ही जिनके आयुध हैं ऐसे अनन्त बलशाली सैकड़ों, हजारों, लाखों और करोड़ों वानरों से घिरे हुए वानरराज सुग्रीव यहाँ पधारेंगे. जो तुम सब निशाचरों का संहार करने में समर्थ हैं॥ २४ १/२॥
नेयमस्ति पुरी लङ्का न यूयं न च रावणः।
यस्य त्विक्ष्वाकुवीरेण बद्धं वैरं महात्मना॥२५॥
‘अब न तो यह लङ्कापुरी रहेगी, न तुम लोग रहोगे और न वह रावण ही रह सकेगा, जिसने इक्ष्वाकुवंशी वीर महात्मा श्रीराम के साथ वैर बाँध रखा है’ ॥ २५ ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे त्रिचत्वारिंशः सर्गः॥४३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४३॥
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