वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 44 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 44
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः (44)
(प्रहस्त-पुत्र जम्बुमाली का वध)
संदिष्टो राक्षसेन्द्रेण प्रहस्तस्य सुतो बली।
जम्बुमाली महादंष्ट्रो निर्जगाम धनुर्धरः॥१॥
राक्षसराज रावण की आज्ञा पाकर प्रहस्त का बलवान् पुत्र जम्बुमाली, जिसकी दाढ़ें बहुत बड़ी थीं, हाथ में धनुष लिये राजमहल से बाहर निकला।
रक्तमाल्याम्बरधरः स्रग्वी रुचिरकुण्डलः।
महान् विवृत्तनयनश्चण्डः समरदुर्जयः॥२॥
वह लाल रंग के फूलों की माला और लाल रंग के ही वस्त्र पहने हुए था। उसके गले में हार और कानों में सुन्दर कुण्डल शोभा दे रहे थे। उसकी आँखें घूम रही थीं। वह विशालकाय, क्रोधी और संग्राम में दुर्जय था॥२॥
धनुः शक्रधनुःप्रख्यं महद् रुचिरसायकम्।
विस्फारयाणो वेगेन वज्राशनिसमस्वनम्॥३॥
उसका धनुष इन्द्रधनुष के समान विशाल था। उसके द्वारा छोड़े जाने वाले बाण भी बड़े सुन्दर थे। जब वह वेग से उस धनुष को खींचता, तब उससे वज्र और अशनि के समान गड़गड़ाहट पैदा होती थी॥३॥
तस्य विस्फारघोषेण धनुषो महता दिशः।
प्रदिशश्च नभश्चैव सहसा समपूर्यत॥४॥
उस धनुष की महती टंकार-ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएँ, विदिशाएँ और आकाश सभी सहसा गूंज उठे॥ ४ ॥
रथेन खरयुक्तेन तमागतमुदीक्ष्य सः।
हनूमान् वेगसम्पन्नो जहर्ष च ननाद च॥५॥
वह गधे जुते हुए रथ पर बैठकर आया था। उसे देखकर वेगशाली हनुमान जी बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोर से गर्जना करने लगे॥५॥
तं तोरणविटङ्कस्थं हनूमन्तं महाकपिम्।
जम्बुमाली महातेजा विव्याध निशितैः शरैः॥
महातेजस्वी जम्बुमाली ने महाकपि हनुमान जी को फाटक के छज्जे पर खड़ा देख उन्हें तीखे बाणों से बींधना आरम्भ कर दिया॥६॥
अर्धचन्द्रेण वदने शिरस्येकेन कर्णिना।
बाह्वोर्विव्याध नाराचैर्दशभिस्तु कपीश्वरम्॥७॥
उसने अर्द्धचन्द्र नामक बाण से उनके मुखपर, कर्णी नामक एक बाण से मस्तक पर और दस नाराचों से उन कपीश्वर की दोनों भुजाओं पर गहरी चोट की॥ ७॥
तस्य तच्छुशुभे तानं शरेणाभिहतं मुखम्।
शरदीवाम्बुजं फुल्लं विद्धं भास्कररश्मिना॥८॥
उसके बाण से घायल हुआ हनुमान जी का लाल मुँह शरद् ऋतु में सूर्य की किरणों से विद्ध हो खिले हुए लाल कमल के समान शोभा पा रहा था॥ ८॥
तत्तस्य रक्तं रक्तेन रञ्जितं शुशुभे मुखम्।
यथाऽऽकाशे महापद्मं सिक्तं काञ्चनबिन्दुभिः॥९॥
रक्त से रञ्जित हुआ उनका वह रक्तवर्ण का मुख ऐसी शोभा पा रहा था, मानो आकाश में लाल रंग के विशाल कमल को सुवर्णमय जल की बूंदों से सींच दिया गया हो उस पर सोने का पानी चढ़ा दिया गया हो॥९॥
चुकोप बाणाभिहतो राक्षसस्य महाकपिः।
ततः पार्वेऽतिविपुलां ददर्श महतीं शिलाम्॥१०॥
तरसा तां समुत्पाट्य चिक्षेप जववद् बली।
राक्षस जम्बुमाली के बाणों की चोट खाकर महाकपि हनुमान जी कुपित हो उठे। उन्होंने अपने पास ही पत्थर की एक बहुत बड़ी चट्टान पड़ी देखी और उसे वेग से उठाकर उन बलवान् वीर ने बड़े जोर से उस राक्षस की ओर फेंका॥ १० १/२॥
तां शरैर्दशभिः क्रुद्धस्ताडयामास राक्षसः॥११॥
विपन्नं कर्म तद् दृष्ट्वा हनूमांश्चण्डविक्रमः।
सालं विपुलमुत्पाट्य भ्रामयामास वीर्यवान्॥१२॥
किंतु क्रोध में भरे उस राक्षस ने दस बाण मारकर उस प्रस्तर-शिला को तोड़-फोड़ डाला। अपने उस कर्म को व्यर्थ हुआ देख प्रचण्ड पराक्रमी और बलशाली हनुमान् ने एक विशाल साल का वृक्ष उखाड़कर उसे घुमाना आरम्भ किया॥ ११-१२ ॥
भ्रामयन्तं कपिं दृष्ट्वा सालवृक्षं महाबलम्।
चिक्षेप सुबहून् बाणाञ्जम्बुमाली महाबलः॥१३॥
उन महान् बलशाली वानरवीर को साल का वृक्ष घुमाते देख महाबली जम्बुमाली ने उनके ऊपर बहुत से बाणों की वर्षा की॥१३॥
सालं चतुर्भिश्चिच्छेद वानरं पञ्चभिर्भुजे।
उरस्येकेन बाणेन दशभिस्तु स्तनान्तरे॥१४॥
उसने चार बाणों से सालवृक्ष को काट गिराया, पाँच से हनुमान जी की भुजाओं में, एक बाण से उनकी छाती में और दस बाणों से उनके दोनों स्तनों के मध्यभाग में चोट पहुँचायी॥ १४ ॥
स शरैः पूरिततनुः क्रोधेन महता वृतः।
तमेव परिघं गृह्य भ्रामयामास वेगितः॥१५॥
बाणों से हनुमान जी का सारा शरीर भर गया। फिर तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उसी परिघ को उठाकर उसे बड़े वेग से घुमाना आरम्भ किया॥ १५ ॥
अतिवेगोऽतिवेगेन भ्रामयित्वा बलोत्कटः।
परिघं पातयामास जम्बुमालेमहोरसि॥१६॥
अत्यन्त वेगवान् और उत्कट बलशाली हनुमान् ने बड़े वेग से घुमाकर उस परिघ को जम्बुमाली की विशाल छाती पर दे मारा ॥ १६॥
तस्य चैव शिरो नास्ति न बाहू जानुनी न च।
न धनुर्न रथो नाश्वास्तत्रादृश्यन्त नेषवः॥१७॥
फिर तो न उसके मस्तक का पता लगा और न दोनों भुजाओं तथा घुटनों का ही। न धनुष बचा न रथ, न वहाँ घोड़े दिखायी दिये और न बाण ही॥ १७॥
स हतस्तरसा तेन जम्बुमाली महारथः।
पपात निहतो भूमौ चूर्णिताङ्ग इव द्रुमः॥१८॥
उस परिघ से वेगपूर्वक मारा गया महारथी जम्बुमाली चूर-चूर हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ १८॥
जम्बुमालिं सुनिहतं किंकरांश्च महाबलान्।
चुक्रोध रावणः श्रुत्वा क्रोधसंरक्तलोचनः॥१९॥
जम्बुमाली तथा महाबली किंकरों के मारे जाने का समाचार सुनकर रावण को बड़ा क्रोध हुआ। उसकी आँखें रोष से रक्तवर्ण की हो गयीं॥ १९ ॥
स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्रे निहते महाबले।
अमात्यपुत्रानतिवीर्यविक्रमान् समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः॥२०॥
महाबली प्रहस्तपुत्र जम्बुमाली के मारे जाने पर निशाचरराज रावण के नेत्र रोष से लाल होकर घूमने लगे। उसने तुरंत ही अपने मन्त्री के पुत्रों को, जो बड़े बलवान् और पराक्रमी थे, युद्ध के लिये जाने की आज्ञा दी॥ २०॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥४४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौवालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥४४॥