वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 46 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 46
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षट्चत्वारिंशः सर्गः (46)
(रावण के पाँच सेनापतियों का वध)
हतान् मन्त्रिसुतान् बुद्ध्वा वानरेण महात्मना।
रावणः संवृताकारश्चकार मतिमुत्तमाम्॥१॥
महात्मा हनुमान जी के द्वारा मन्त्री के पुत्र भी मारे गये—यह जानकर रावण ने भयभीत होने पर भी अपने आकार को प्रयत्नपूर्वक छिपाया और उत्तम बुद्धिका आश्रय ले आगे के कर्तव्य का निश्चय किया॥१॥
स विरूपाक्षयूपाक्षौ दुर्धरं चैव राक्षसम्।
प्रघसं भासकर्णं च पञ्च सेनाग्रनायकान्॥२॥
संदिदेश दशग्रीवो वीरान् नयविशारदान्।
हनूमद्ग्रहणेऽव्यग्रान् वायुवेगसमान् युधि॥३॥
दशग्रीव ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण—इन पाँच सेनापतियों को, जो बड़े वीर, नीतिनिपुण, धैर्यवान् तथा युद्ध में वायु के समान वेगशाली थे, हनुमान जी को पकड़ने के लिये आज्ञा दी॥ २-३॥
यात सेनाग्रगाः सर्वे महाबलपरिग्रहाः।
सवाजिरथमातङ्गाः स कपिः शास्यतामिति॥४॥
उसने कहा—’सेना के अग्रगामी वीरो! तुम लोग घोड़े, रथ और हाथियोंसहित बड़ी भारी सेना साथ लेकर जाओ और उस वानर को बलपूर्वक पकड़कर उसे अच्छी तरह शिक्षा दो॥ ४॥
यत्तैश्च खलु भाव्यं स्यात् तमासाद्य वनालयम्।
कर्म चापि समाधेयं देशकालाविरोधितम्॥५॥
‘उस वनचारी वानर के पास पहुँचकर तुम सब लोगों को सावधान और अत्यन्त प्रयत्नशील हो जाना चाहिये तथा काम वही करना चाहिये, जो देश और काल के अनुरूप हो॥५॥
न ह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रति तर्कयन्।
सर्वथा तन्महद् भूतं महाबलपरिग्रहम्॥६॥
‘जब मैं उसके अलौकिक कर्म को देखते हुए उसके स्वरूपपर विचार करता हूँ, तब वह मुझे वानर नहीं जान पड़ता है। वह सर्वथा कोई महान् प्राणी है, जो महान् बल से सम्पन्न है॥ ६॥
वानरोऽयमिति ज्ञात्वा नहि शुद्ध्यति मे मनः।
नैवाहं तं कपिं मन्ये यथेयं प्रस्तुता कथा॥७॥
‘यह वानर है’ ऐसा समझकर मेरा मन उसकी ओर से शुद्ध (विश्वस्त) नहीं हो रहा है। यह जैसा प्रसङ्ग उपस्थित है या जैसी बातें चल रही हैं, उन्हें देखते हुए मैं उसे वानर नहीं मानता हूँ॥७॥
भवेदिन्द्रेण वा सृष्टमस्मदर्थं तपोबलात्।
सनागयक्षगन्धर्वदेवासुरमहर्षयः॥८॥
युष्माभिः प्रहितैः सर्वैर्मया सह विनिर्जिताः।
तैरवश्यं विधातव्यं व्यलीकं किंचिदेव नः॥९॥
‘सम्भव है इन्द्र ने हमलोगों का विनाश करने के लिये अपने तपोबल से इसकी सृष्टि की हो। मेरी आज्ञा से तुम सब लोगों ने मेरे साथ रहकर नागोंसहित यक्षों, गन्धर्वो, देवताओं, असुरों और महर्षियों को भी अनेक बार पराजित किया है; अतः वे अवश्य हमारा कुछ अनिष्ट करना चाहेंगे॥ ८-९॥
तदेव नात्र संदेहः प्रसह्य परिगृह्यताम्।
यात सेनाग्रगाः सर्वे महाबलपरिग्रहाः॥१०॥
सवाजिरथमातङ्गाः स कपिः शास्यतामिति।
‘अतः यह उन्हीं का रचा हुआ प्राणी है, इसमें संदेह नहीं। तुमलोग उसे हठपूर्वक पकड़ ले आओ। मेरी सेना के अग्रगामी वीरो! तुम हाथी, घोड़े और रथोंसहित बड़ी भारी सेना साथ लेकर जाओ और उस वानर को अच्छी तरह शिक्षा दो॥ १० १/२ ॥
नावमन्यो भवद्भिश्च कपि/रपराक्रमः॥११॥
दृष्टा हि हरयः पूर्वे मया विपुलविक्रमाः।
‘वानर समझकर तुम्हें उसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वह धीर और पराक्रमी है। मैंने पहले बड़े-बड़े पराक्रमी वानर और भालू देखे हैं। ११ १/२॥
वाली च सह सुग्रीवो जाम्बवांश्च महाबलः॥१२॥
नीलः सेनापतिश्चैव ये चान्ये द्रिविदादयः।
‘जिनके नाम इस प्रकार हैं-वाली, सुग्रीव, महाबली जाम्बवान्, सेनापति नील तथा द्विविद आदि अन्य वानर ।। १२ १/२॥
नैव तेषां गतिर्भीमा न तेजो न पराक्रमः॥१३॥
न मतिर्न बलोत्साहो न रूपपरिकल्पनम्।
‘किंतु उनका वेग ऐसा भयंकर नहीं है और न उनमें ऐसा तेज, पराक्रम, बुद्धि, बल, उत्साह तथा रूप धारण करने की शक्ति ही है॥ १३ १/२ ॥
महत्सत्त्वमिदं ज्ञेयं कपिरूपं व्यवस्थितम्॥१४॥
प्रयत्नं महदास्थाय क्रियतामस्य निग्रहः।
‘वानर के रूप में यह कोई बड़ा शक्तिशाली जीव प्रकट हुआ है, ऐसा जानना चाहिये अतः तुमलोग महान् प्रयत्न करके उसे कैद करो॥१४ १/२॥
कामं लोकास्त्रयः सेन्द्राः ससुरासुरमानवाः॥१५॥
भवतामग्रतः स्थातुं न पर्याप्ता रणाजिरे।
‘भले ही इन्द्रसहित देवता, असुर, मनुष्य एवं तीनों लोक उतर आयें, वे रणभूमि में तुम्हारे सामने ठहर नहीं सकते॥१५ १/२॥
तथापि तु नयज्ञेन जयमाकाङ्क्षता रणे॥१६॥
आत्मा रक्ष्यः प्रयत्नेन युद्धसिद्धिर्हि चञ्चला।
‘तथापि समराङ्गण में विजय की इच्छा रखने वाले नीतिज्ञ पुरुष को यत्नपूर्वक अपनी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि युद्ध में सफलता अनिश्चित होती है’॥ १६ १/२॥
ते स्वामिवचनं सर्वे प्रतिगृह्य महौजसः॥१७॥
समुत्पेतुर्महावेगा हुताशसमतेजसः।
रथैश्च मत्तै गैश्च वाजिभिश्च महाजवैः॥१८॥
शस्त्रैश्च विविधैस्तीक्ष्णैः सर्वैश्चोपहिता बलैः।
स्वामी की आज्ञा स्वीकार करके वे सब-के-सब अग्नि के समान तेजस्वी, महान् वेगशाली और अत्यन्त बलवान् राक्षस तेज चलने वाले घोड़ों, मतवाले हाथियों तथा विशाल रथों पर बैठकर युद्ध के लिये चल दिये। वे सब प्रकार के तीखे शस्त्रों और सेनाओं से सम्पन्न थे॥ १७-१८ १/२ ॥
ततस्तु ददृशुर्वीरा दीप्यमानं महाकपिम्॥१९॥
रश्मिमन्तमिवोद्यन्तं स्वतेजोरश्मिमालिनम्।
तोरणस्थं महावेगं महासत्त्वं महाबलम्॥२०॥
महामतिं महोत्साहं महाकायं महाभुजम्।
आगे जाने पर उन वीरों ने देखा, महाकपि हनुमान् जी फाटकपर खड़े हैं और अपनी तेजोमयी किरणों से मण्डित हो उदयकाल के सूर्य की भाँति देदीप्यमान हो रहे हैं। उनकी शक्ति, बल, वेग, बुद्धि, उत्साह, शरीर और भुजाएँ सभी महान् थीं॥ १९-२० १/२ ॥
तं समीक्ष्यैव ते सर्वे दिक्षु सर्वास्ववस्थिताः॥२१॥
तैस्तैः प्रहरणैर्भीमैरभिपेतुस्ततस्ततः।
उन्हें देखते ही वे सब राक्षस, जो सभी दिशाओं में खड़े थे, भयंकर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए चारों ओर से उन पर टूट पड़े॥ २१ १/२ ॥
तस्य पञ्चायसास्तीक्ष्णाः सिताः पीतमुखाः
शराः। शिरस्युत्पलपत्राभा दुर्धरेण निपातिताः॥२२॥
निकट पहुँचने पर पहले दुर्धर ने हनुमान जी के मस्तक पर लोहे के बने हुए पाँच बाण मारे। वे सभी बाण मर्मभेदी और पैनी धारवाले थे। उनके अग्रभाग पर सोने का पानी दिया गया था। जिससे वे पीतमुख दिखायी देते थे। वे पाँचों बाण उनके सिर पर प्रफुल्लकमलदल के समान शोभा पा रहे थे॥ २२ ॥
स तैः पञ्चभिराविद्धः शरैः शिरसि वानरः।
उत्पपात नदन् व्योम्नि दिशो दश विनादयन्॥२३॥
मस्तक में उन पाँच बाणों से गहरी चोट खाकर वानरवीर हनुमान जी अपनी भीषण गर्जना से दसों दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए आकाश में ऊपर की ओर उछल पड़े ॥ २३॥
ततस्तु दुर्धरो वीरः सरथः सज्जकार्मुकः।
किरन् शरशतै कैरभिपेदे महाबलः॥२४॥
तब रथ में बैठे हुए महाबली वीर दुर्धर ने धनुष चढ़ाये कई सौ बाणों की वर्षा करते हुए उनका पीछा किया॥
स कपिर्वारयामास तं व्योम्नि शरवर्षिणम्।
वृष्टिमन्तं पयोदान्ते पयोदमिव मारुतः॥२५॥
आकाश में खड़े हुए उन वानरवीर ने बाणों की वर्षा करते हुए दुर्धर को अपने हुंकारमात्र से उसी प्रकार रोक दिया, जैसे वर्षा-ऋतु के अन्त में वृष्टि करने वाले बादल को वायु रोक देती है।॥ २५॥
अद्यमानस्ततस्तेन दर्धरेणानिलात्मजः।
चकार निनदं भूयो व्यवर्धत च वीर्यवान्॥२६॥
जब दुर्धर अपने बाणों से अधिक पीड़ा देने लगा, तब वे परम पराक्रमी पवनकुमार पुनः विकट गर्जना करने और अपने शरीर को बढ़ाने लगे॥ २६ ॥
स दूरं सहसोत्पत्य दुर्धरस्य रथे हरिः।
निपपात महावेगो विधुद्राशिर्गिराविव॥२७॥
तत्पश्चात् वे महावेगशाली वानरवीर बहुत दूर तक ऊँचे उछलकर सहसा दुर्धर के रथ पर कूद पड़े, मानो किसी पर्वत पर बिजली का समूह गिर पड़ा हो ॥ २७॥
ततः स मथिताष्टाश्वं रथं भग्नाक्षकूबरम्।
विहाय न्यपतद् भूमौ दुर्धरस्त्यक्तजीवितः॥ २८॥
उनके भार से रथ के आठों घोड़ों का कचूमर निकल गया, धुरी और कूबर टूट गये तथा दुर्धर प्राणहीन हो उस रथ को छोड़कर पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ २८॥
तं विरूपाक्षयूपाक्षौ दृष्ट्वा निपतितं भुवि।
तौ जातरोषौ दुर्धर्षावुत्पेततुररिंदमौ॥ २९॥
दुर्धर को धराशायी हुआ देख शत्रुओं का दमन करने वाले दुर्धर्ष वीर विरूपाक्ष और यूपाक्ष को बड़ा क्रोध हुआ। वे दोनों आकाश में उछले॥ २९॥
स ताभ्यां सहसोत्प्लुत्य विष्ठितो विमलेऽम्बरे।
मुद्गराभ्यां महाबाहुर्वक्षस्यभिहतः कपिः॥३०॥
उन दोनों ने सहसा उछलकर निर्मल आकाश में खड़े हुए महाबाहु कपिवर हनुमान जी की छाती में मुद्गरों से प्रहार किया॥ ३० ॥
तयोर्वेगवतोर्वेगं निहत्य स महाबलः।
निपपात पुनर्भूमौ सुपर्ण इव वेगितः॥ ३१॥
उन दोनों वेगवान् वीरों के वेग को विफल करके महाबली हनुमान जी वेगशाली गरुड़ के समान पुनः पृथ्वी पर कूद पड़े॥ ३१॥
स सालवृक्षमासाद्य समुत्पाट्य च वानरः।
तावुभौ राक्षसौ वीरौ जघान पवनात्मजः॥३२॥
वहाँ वानरशिरोमणि पवनकुमार ने एक साल-वृक्ष के पास जाकर उसे उखाड़ लिया और उसी के द्वारा उन दोनों राक्षसवीरों को मार डाला॥ ३२॥
ततस्तांस्त्रीन् हतान् ज्ञात्वा वानरेण तरस्विना।
अभिपेदे महावेगः प्रहस्य प्रघसो बली॥३३॥
भासकर्णश्च संक्रुद्धः शूलमादाय वीर्यवान्।
एकतः कपिशार्दूलं यशस्विनमवस्थितौ ॥ ३४॥
उन वेगशाली वानरवीर के द्वारा उन तीनों राक्षसों को मारा गया देख महान् वेग से युक्त बलवान् वीर प्रघस – हँसता हुआ उनके पास आया। दूसरी ओर से पराक्रमी वीर भासकर्ण भी अत्यन्त क्रोध में भरकर शूल हाथ में लिये वहाँ आ पहुँचा। वे दोनों यशस्वी कपिश्रेष्ठ हनुमान जी के निकट एक ही ओर खड़े हो गये। ३३-३४॥
पट्टिशेन शिताग्रेण प्रघसः प्रत्यपोथयत्।
भासकर्णश्च शूलेन राक्षसः कपिकुञ्जरम्॥३५॥
प्रघस ने तेज धारवाले पट्टिशसे तथा राक्षस भासकर्ण ने शूल से कपिकुञ्जर हनुमान जी पर प्रहारकिया॥ ३५॥
स ताभ्यां विक्षतैर्गात्रैरसृग्दिग्धतनूरुहः।
अभवद् वानरः क्रुद्धो बालसूर्यसमप्रभः॥ ३६॥
उन दोनों के प्रहारों से हनुमान जी के शरीर में कई जगह घाव हो गये और उनके शरीर की रोमावली रक्त से रँग गयी। उस समय क्रोध में भरे हुए वानरवीर हनुमान् प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण कान्ति से प्रकाशित हो रहे थे॥३६॥
समुत्पाट्य गिरेः शृङ्गं समृगव्यालपादपम्।
जघान हनुमान् वीरो राक्षसौ कपिकुञ्जरः।
गिरिशृङ्गसुनिष्पिष्टौ तिलशस्तौ बभूवतुः॥ ३७॥
तब मृग, सर्प और वृक्षोंसहित एक पर्वत-शिखर को उखाड़कर कपिश्रेष्ठ वीर हनुमान् ने उन दोनों राक्षसों पर दे मारा। पर्वत-शिखर के आघात से वे दोनों पिस गये और उनके शरीर तिल के समान खण्डखण्ड हो गये॥ ३७॥
ततस्तेष्ववसन्नेषु सेनापतिषु पञ्चसु।
बलं तदवशेषं तु नाशयामास वानरः॥ ३८॥
इस प्रकार उन पाँचों सेनापतियों के नष्ट हो जाने पर हनुमान् जी ने उनकी बची-खुची सेना का भी संहारआरम्भ किया॥३८॥
अश्वैरश्वान् गजैर्नागान् योधैर्योधान् रथै रथान्।
स कपि शयामास सहस्राक्ष इवासुरान्॥३९॥
जैसे देवराज इन्द्र असुरों का विनाश करते हैं, उसी प्रकार उन वानरवीर ने घोड़ों से घोड़ों का, हाथियों से हाथियों का, योद्धाओं से योद्धाओं का और रथों से रथों का संहार कर डाला॥ ३९॥
हयैर्नागैस्तुरंगैश्च भग्नाक्षैश्च महारथैः ।
हतैश्च राक्षसैर्भूमी रुद्धमार्गा समन्ततः॥४०॥
मरे हुए हाथियों और तीव्रगामी घोड़ों से, टूटी हुई धुरीवाले विशाल रथों से तथा मारे गये राक्षसों की लाशों से वहाँ की सारी भूमि चारों ओर से इस तरह पट गयी थी कि आने-जाने का रास्ता बंद हो गया था। ४०॥
ततः कपिस्तान् ध्वजिनीपतीन् रणे निहत्य वीरान् सबलान् सवाहनान्।
तथैव वीरः परिगृह्य तोरणं कृतक्षणः काल इव प्रजाक्षये॥४१॥
इस प्रकार सेना और वाहनोंसहित उन पाँचों वीर सेनापतियों को रणभूमि में मौत के घाट उतारकरमहावीर वानर हनुमान् जी पुनः युद्ध के लिये अवसर पाकर पहले की ही भाँति फाटक पर जाकर खड़े हो गये। उस समय वे प्रजा का संहार करने के लिये उद्यत हुए काल के समान जान पड़ते थे। ४१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षट्चत्वारिंशः सर्गः॥४६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में छियालीसवाँ सर्ग पूराहुआ॥ ४६॥