वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 47 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 47
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
सप्तचत्वारिंशः सर्गः (47)
(रावणपुत्र अक्षकुमार का पराक्रम और वध)
सेनापतीन् पञ्च स तु प्रमापितान् हनूमता सानुचरान् सवाहनान्।
निशम्य राजा समरोद्धतोन्मुखं कुमारमक्षं प्रसमैक्षताक्षम्॥१॥
हनुमान जी के द्वारा अपने पाँच सेनापतियों को सेवकों और वाहनोंसहित मारा गया सुनकर राजा रावण ने अपने सामने बैठे हुए पुत्र अक्षकुमार की ओर देखा, जो युद्ध में उद्धत और उसके लिये उत्कण्ठित रहनेवाला था॥१॥
स तस्य दृष्टयर्पणसम्प्रचोदितः प्रतापवान् काञ्चनचित्रकार्मुकः।
समुत्पपाताथ सदस्युदीरितो द्विजातिमुख्यैर्ह विषेव पावकः॥२॥
पिता के दृष्टिपातमात्र से प्रेरित हो वह प्रतापी वीर युद्ध के लिये उत्साहपूर्वक उठा। उसका धनुष सुवर्णजटित होने के कारण विचित्र शोभा धारण करता था। जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा यज्ञशाला में हविष्य की आहुति देने पर अग्निदेव प्रज्वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार वह भी सभा में उठकर खड़ा हो गया॥२॥
ततो महान् बालदिवाकरप्रभं प्रतप्तजाम्बूनदजालसंततम्।
रथं समास्थाय ययौ स वीर्यवान् महाहरिं तं प्रति नैर्ऋतर्षभः॥३॥
वह महापराक्रमी राक्षसशिरोमणि अक्ष प्रातःकालीन सूर्य के समान कान्तिमान् तथा तपाये हुए सुवर्ण के जाल से आच्छादित रथ पर आरूढ़ हो उन महाकपि हनुमान जी के पास चल दिया॥३॥
ततस्तपःसंग्रहसंचयार्जितं प्रतप्तजाम्बूनदजालचित्रितम्।
पताकिनं रत्नविभूषितध्वजं मनोजवाष्टाश्ववरैः सुयोजितम्॥४॥
सुरासुराधृष्यमसङ्गचारिणं तडित्प्रभं व्योमचरं समाहितम्।
सतूणमष्टासिनिबद्धबन्धुरं यथाक्रमावेशितशक्तितोमरम्॥५॥
विराजमानं प्रतिपूर्णवस्तुना सहेमदाम्ना शशिसूर्यवर्चसा।
दिवाकराभं रथमास्थितस्ततः स निर्जगामामरतुल्यविक्रमः॥६॥
वह रथ उसे बड़ी भारी तपस्याओं के संग्रह से प्राप्त हुआ था। उसमें तपे हुए जाम्बूनद (सुवर्ण)-की जाली जड़ी हुई थी। पताका फहरा रही थी। उसका ध्वजदण्ड रत्नों से विभूषित था। उसमें मन के समान वेगवाले आठ घोड़े अच्छी तरह जुते हुए थे। देवता और असुर कोई भी उस रथ को नष्ट नहीं कर सकते थे। उसकी गति कहीं रुकती नहीं थी। वह बिजली के समान प्रकाशित होता और आकाश में भी चलता था। उस रथ को सब सामग्रियों से सुसज्जित किया गया था। उसमें तरकस रखे गये थे। आठ तलवारों के बँधे रहने से वह और भी सुन्दर दिखायी देता था। उसमें यथास्थान शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्र क्रम से रखे गये थे। चन्द्रमा और सूर्य के समान दीप्तिमान् तथा सोने की रस्सी से युक्त युद्ध के समस्त उपकरणों से सुशोभित उस सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ पर बैठकर देवताओं के तुल्य पराक्रमी अक्षकुमार राजमहल से बाहर निकला॥ ४–६॥
स पूरयन् खं च महीं च साचलां तुरङ्गमातङ्गमहारथस्वनैः।
बलैः समेतैः सहतोरणस्थितं समर्थमासीनमुपागमत् कपिम्॥७॥
घोड़े, हाथी और बड़े-बड़े रथों की भयंकर आवाज से पर्वतोंसहित पृथ्वी तथा आकाश को जाता हुआ वह बड़ी भारी सेना साथ लेकर वाटिका के द्वार पर बैठे हुए शक्तिशाली वीर वानर हनुमान् जी के पास जा पहुँचा॥७॥
स तं समासाद्य हरिं हरीक्षणो युगान्तकालाग्निमिव प्रजाक्षये।
अवस्थितं विस्मितजातसम्भ्रमं समैक्षताक्षो बहुमानचक्षुषा॥८॥
सिंह के समान भयंकर नेत्रवाले अक्षने वहाँ पहुँचकर लोकसंहार के समय प्रज्वलित हुई प्रलयाग्नि के समान स्थित और विस्मय एवं सम्भ्रम में पड़े हुए हनुमान् जी को अत्यन्त गर्वभरी दृष्टि से देखा ॥८॥ स
तस्य वेगं च कपेर्महात्मनः पराक्रमं चारिषु रावणात्मजः।
विचारयन् स्वं च बलं महाबलो युगक्षये सूर्य इवाभिवर्धत॥९॥
उन महात्मा कपिश्रेष्ठ के वेग तथा शत्रुओं के प्रति उनके पराक्रमका और अपने बल का भी विचार करके वह महाबली रावणकुमार प्रलयकाल के सूर्य की भाँति बढ़ने लगा॥९॥
स जातमन्युः प्रसमीक्ष्य विक्रम स्थितः स्थिरः संयति दुर्निवारणम्।
समाहितात्मा हनुमन्तमाहवे प्रचोदयामास शितैः शरैस्त्रिभिः॥१०॥
हनुमान जी के पराक्रम पर दृष्टिपात करके उसे क्रोध आ गया। अतः स्थिरतापूर्वक स्थित हो उसने एकाग्रचित्त से तीन तीखे बाणों द्वारा रणदुर्जय हनुमान् जी को युद्ध के लिये प्रेरित किया॥१०॥
ततः कपिं तं प्रसमीक्ष्य गर्वितं जितश्रमं शत्रुपराजयोचितम्।
अवैक्षताक्षः समुदीर्णमानसं सबाणपाणिः प्रगृहीतकार्मुकः॥११॥
तदनन्तर हाथ में धनुष और बाण लिये अक्ष ने यह जानकर कि ‘ये खेद या थकावट को जीत चुके हैं, शत्रुओं को पराजित करने की योग्यता रखते हैं और युद्ध के लिये इनके मन का उत्साह बढ़ा हुआ है; इसीलिये ये गर्वीले दिखायी देते हैं, उनकी ओर दृष्टिपात किया॥ ११॥
स हेमनिष्काङ्गदचारुकुण्डलः समाससादाशुपराक्रमः कपिम्।
तयोर्बभूवाप्रतिमः समागमः सुरासुराणामपि सम्भ्रमप्रदः॥१२॥
गले में सुवर्ण के निष्क (पदक), बाँहों में बाजूबंद और कानों में मनोहर कुण्डल धारण किये वह शीघ्रपराक्रमी रावणकुमार हनुमान जी के पास आया। उस समय उन दोनों वीरों में जो टक्कर हुई, उसकी कहीं तुलना नहीं थी। उनका युद्ध देवताओं और असुरों के मन में भी घबराहट पैदा कर देने वाला था॥ १२॥
ररास भूमिर्न तताप भानुमान् ववौ न वायुः प्रचचाल चाचलः।
कपेः कुमारस्य च वीर्यसंयुगं ननाद च द्यौरुदधिश्च चुक्षुभे॥१३॥
कपिश्रेष्ठ हनुमान् और अक्षकुमार का वह संग्राम देखकर भूतल के सारे प्राणी चीख उठे। सूर्य का ताप कम हो गया। वायु की गति रुक गयी। पर्वत हिलने लगे। आकाश में भयंकर शब्द होने लगा और समुद्र में तूफान आ गया॥ १३॥
स तस्य वीरः सुमुखान् पतत्रिणः सुवर्णपुङ्खान् सविषानिवोरगान्।
समाधिसंयोगविमोक्षतत्त्वविच्छरानथ त्रीन् कपिमूर्च्यताडयत्॥१४॥
अक्षकुमार निशाना साधने, बाण को धनुष पर चढ़ाने और उसे लक्ष्य की ओर छोड़ने में बड़ा प्रवीण था। उस वीर ने विषधर सोके समान भयंकर, सुवर्णमय पंखों से युक्त, सुन्दर अग्रभागवाले तथा पत्रयुक्त तीन बाण हनुमान जी के मस्तक में मारे॥ १४ ॥
स तैः शरैर्मूर्ध्नि समं निपातितैः क्षरन्नसृग्दिग्धविवृत्तनेत्रः।
नवोदितादित्यनिभः शरांशुमान् व्यराजतादित्य इवांशुमालिकः॥१५॥
उन तीनों की चोट हनुमान् जी के माथे में एक साथ ही लगी, इससे खून की धारा गिरने लगी। वे उस रक्त से नहा उठे और उनकी आँखें घूमने लगीं। उस समय बाणरूपी किरणों से युक्त हो वे तुरंत के उगे हुए अंशुमाली सूर्य के समान शोभा पाने लगे॥ १५ ॥
ततः प्लवङ्गाधिपमन्त्रिसत्तमः समीक्ष्य तं राजवरात्मजं रणे।
उदग्रचित्रायुधचित्रकार्मुकं जहर्ष चापूर्यत चाहवोन्मुखः॥१६॥
तदनन्तर वानरराज के श्रेष्ठ मन्त्री हनुमान् जी राक्षसराज रावण के राजकुमार अक्ष को अति उत्तम विचित्र आयुध एवं अद्भुत धनुष धारण किये देख हर्ष और उत्साह से भर गये और युद्ध के लिये उत्कण्ठित हो अपने शरीर को बढ़ाने लगे॥ १६॥
स मन्दराग्रस्थ इवांशुमाली विवृद्धकोपो बलवीर्यसंवृतः।
कुमारमक्षं सबलं सवाहनं ददाह नेत्राग्निमरीचिभिस्तदा ॥१७॥
हनुमान जी का क्रोध बहुत बढ़ा हुआ था। वे बल और पराक्रम से सम्पन्न थे, अतः मन्दराचल के शिखर पर प्रकाशित होने वाले सूर्यदेव के समान वे अपनी नेत्राग्निमयी किरणों से उस समय सेना और सवारियोंसहित राजकुमार अक्ष को दग्ध-सा करने लगे॥ १७॥
ततः स बाणासनशक्रकार्मुकः शरप्रवर्षो युधि राक्षसाम्बुदः।
शरान् मुमोचाशु हरीश्वराचले बलाहको वृष्टिमिवाचलोत्तमे॥१८॥
तब जैसे बादल श्रेष्ठ पर्वत पर जल बरसाता है, उसी प्रकार युद्धस्थल में अपने शरासनरूपी इन्द्रधनुष से युक्त वह राक्षसरूपी मेघ बाणवर्षी होकर कपिश्रेष्ठ हनुमान् रूपी पर्वत पर बड़े वेग से बाणों की वृष्टि करने लगा॥ १८॥
कपिस्ततस्तं रणचण्डविक्रम प्रवृद्धतेजोबलवीर्यसायकम्।
कुमारमक्षं प्रसमीक्ष्य संयुगे ननाद हर्षाद् घनतुल्यनिःस्वनः॥१९॥
रणभूमि में अक्षकुमार का पराक्रम बड़ा प्रचण्ड दिखायी देता था। उसके तेज, बल, पराक्रम और बाण सभी बढ़े-चढ़े थे। युद्धस्थल में उसकी ओर दृष्टिपात करके हनुमान जी ने हर्ष और उत्साह में भरकर मेघ के समान भयानक गर्जना की॥ १९॥
स बालभावाद् युधि वीर्यदर्पितः प्रवृद्धमन्युः क्षतजोपमेक्षणः।
समाससादाप्रतिमं रणे कपिं गजो महाकूपमिवावृतं तृणैः॥२०॥
समराङ्गण में बल के घमंड में भरे हुए अक्षकुमार को उनकी गर्जना सुनकर बड़ा क्रोध हुआ। उसकी आँखें रक्त के समान लाल हो गयीं। वह अपने बालोचित अज्ञान के कारण अनुपम पराक्रमी हनुमान् जी का सामना करने के लिये आगे बढ़ा। ठीक उसी तरह, जैसे कोई हाथी तिनकों से ढके हुए विशाल कूप की ओर अग्रसर होता है॥ २०॥
स तेन बाणैः प्रसभं निपातितैश्चकार नादं घननादनिःस्वनः।
समुत्सहेनाशु नभः समारुजन् भुजोरुविक्षेपणघोरदर्शनः॥२१॥
उसके बलपूर्वक चलाये हुए बाणों से विद्ध होकर हनुमान जी ने तुरंत ही उत्साहपूर्वक आकाश को विदीर्ण करते हुए-से मेघ के समान गम्भीर स्वर से भीषण गर्जना की। उस समय दोनों भुजाओं और जाँघों को चलाने के कारण वे बड़े भयंकर दिखायी देते थे॥ २१॥
तमुत्पतन्तं समभिद्रवद् बली स राक्षसानां प्रवरः प्रतापवान्।
रथी रथश्रेष्ठतरः किरन् शरैः पयोधरः शैलमिवाश्मवृष्टिभिः॥ २२॥
उन्हें आकाशमें उछलते देख रथियोंमें श्रेष्ठ और रथपर चढ़े हुए उस बलवान्, प्रतापी एवं राक्षसशिरोमणि वीरने बाणोंकी वर्षा करते हुए उनका पीछा किया। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो कोई मेघ किसी पर्वतपर ओले और पत्थरोंकी वर्षा कर रहा हो ॥ २२॥
स ताञ्छरांस्तस्य हरिर्विमोक्षयंश्चचार वीरः पथि वायुसेविते।
शरान्तरे मारुतवद् विनिष्पतन् मनोजवः संयति भीमविक्रमः॥२३॥
उस युद्धस्थल में मन के समान वेगवाले वीर हनुमान् जी भयंकर पराक्रम प्रकट करने लगे। वे अक्षकुमार के उन बाणों को व्यर्थ करते हुए वायु के पथ पर विचरते और दो बाणों के बीच से हवा की भाँति निकल जाते थे॥ २३॥
तमात्तबाणासनमाहवोन्मुखं खमास्तृणन्तं विविधैः शरोत्तमैः।
अवैक्षताक्षं बहुमानचक्षुषा जगाम चिन्तां स च मारुतात्मजः ॥२४॥
अक्षकुमार हाथ में धनुष लिये युद्ध के लिये उन्मुख हो नाना प्रकारके उत्तम बाणोंद्वारा आकाश को आच्छादित किये देता था। पवनकुमार हनुमान ने उसे बड़े आदर की दृष्टि से देखा और वे मन-ही-मन कुछ सोचने लगे॥ २४॥
ततः शरैर्भिन्नभुजान्तरः कपिः कुमारवर्येण महात्मना नदन्।
महाभुजः कर्मविशेषतत्त्वविद् विचिन्तयामास रणे पराक्रमम्॥ २५॥
इतने ही में महामना वीर अक्षकुमार ने अपने बाणों द्वारा कपिश्रेष्ठ हनुमान जी की दोनों भुजाओं के मध्यभाग–छाती में गहरा आघात किया। वे महाबाहु वानरवीर समयोचित कर्तव्यविशेष को ठीक-ठीक जानते थे; अतः वे रणक्षेत्र में उस चोट को सहकर सिंहनाद करते हुए उसके पराक्रम के विषयमें इस प्रकार विचार करने लगे- ॥ २५ ॥
अबालवद् बालदिवाकरप्रभः करोत्ययं कर्म महन्महाबलः।
न चास्य सर्वाहवकर्मशालिनः प्रमापणे मे मतिरत्र जायते॥ २६॥
‘यह महाबली अक्षकुमार बालसूर्य के समान तेजस्वी है और बालक होकर भी बड़ों के समान महान् कर्म कर रहा है। युद्धसम्बन्धी समस्त कर्मों में कुशल होने के कारण अद्भुत शोभा पाने वाले इस वीर को यहाँ मार डालने की मेरी इच्छा नहीं हो रही है।॥ २६॥
अयं महात्मा च महांश्च वीर्यतः समाहितश्चातिसहश्च संयुगे।
असंशयं कर्मगुणोदयादयं सनागयज्ञैर्मुनिभिश्च पूजितः ॥ २७॥
‘यह महामनस्वी राक्षसकुमार बल-पराक्रम की दृष्टि से महान् है। युद्ध में सावधान एवं एकाग्रचित्त है तथा शत्रु के वेग को सहन करने में अत्यन्त समर्थ है। अपने कर्म और गुणों की उत्कृष्टता के कारण यह नागों, यक्षों और मुनियों के द्वारा भी प्रशंसित हुआ होगा, इसमें संशय नहीं है।। २७॥
पराक्रमोत्साहविवृद्धमानसःसमीक्षते मां प्रमुखोऽग्रतः स्थितः।
पराक्रमो ह्यस्य मनांसि कम्पयेत् सुरासुराणामपि शीघ्रकारिणः॥२८॥
‘पराक्रम और उत्साह से इसका मन बढ़ा हुआ है। यह युद्ध के मुहाने पर मेरे सामने खड़ा हो मुझे ही देख रहा है। शीघ्रतापूर्वक युद्ध करने वाले इस वीर का पराक्रम देवताओं और असुरों के हृदय को भी कम्पित कर सकता है॥ २८॥
न खल्वयं नाभिभवेदुपेक्षितः पराक्रमो ह्यस्य रणे विवर्धते।
प्रमापणं ह्यस्य ममाद्य रोचते न वर्धमानोऽग्निरुपेक्षितुं क्षमः ॥ २९॥
‘किंतु यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह मुझे परास्त किये बिना नहीं रहेगा; क्योंकि संग्राम में इसका पराक्रम बढ़ता जा रहा है। अतः अब इसे मार डालना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है। बढ़ती हुई आग की उपेक्षा करना कदापि उचित नहीं है’ ।। २९ ॥
इति प्रवेगं तु परस्य तर्कयन् स्वकर्मयोगं च विधाय वीर्यवान्।
चकार वेगं तु महाबलस्तदा मतिं च चक्रेऽस्य वधे तदानीम्॥३०॥
इस प्रकार शत्रु के वेग का विचार कर उसके प्रतीकार के लिये अपने कर्तव्य का निश्चय करके महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न हनुमान् जी ने उस समय अपना वेग बढ़ाया और उस शत्रु को मार डालने का विचार किया॥ ३० ।।
स तस्य तानष्ट वरान् महाहयान् समाहितान् भारसहान् विवर्तने।
जघान वीरः पथि वायुसेविते तलप्रहारैः पवनात्मजः कपिः॥३१॥
तत्पश्चात् आकाश में विचरते हुए वीर वानर पवनकुमार ने थप्पड़ों की मार से अक्षकुमार के उन आठों उत्तम और विशाल घोड़ों को, जो भार सहन करने में समर्थ और नाना प्रकार के पैंतरे बदलने की कला में सुशिक्षित थे, यमलोक पहुँचा दिया॥३१॥
ततस्तलेनाभिहतो महारथः स तस्य पिङ्गाधिपमन्त्रिनिर्जितः।
स भग्ननीडः परिवृत्तकूबरः पपात भूमौ हतवाजिरम्बरात्॥३२॥
तदनन्तर वानरराज सुग्रीव के मन्त्री हनुमान जी ने अक्षकुमार के उस विशाल रथ को भी अभिभूत कर दिया, उन्होंने हाथ से ही पीटकर रथ की बैठक तोड़ डाली और उसके हरसे को उलट दिया। घोड़े तो पहले ही मर चुके थे, अतः वह महान् रथ आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ३२॥
स तं परित्यज्य महारथो रथं सकार्मुकः खड्गधरः खमुत्पतन्।
ततोऽभियोगादृषिरुग्रवीर्यवान् विहाय देहं मरुतामिवालयम्॥३३॥
उस समय महारथी अक्षकुमार धनुष और तलवार ले रथ छोड़कर अन्तरिक्ष में ही उड़ने लगा। ठीक वैसे ही, जैसे कोई उग्रशक्ति से सम्पन्न महर्षि योगमार्ग से शरीर त्यागकर स्वर्गलोक की ओर चला जा रहा हो॥ ३३॥
कपिस्ततस्तं विचरन्तमम्बरे पतत्त्रिराजानिलसिद्धसेविते।
समेत्य तं मारुतवेगविक्रमः क्रमेण जग्राह च पादयोर्दृढम्॥३४॥
तब वायु के समान वेग और पराक्रमवाले कपिवर हनुमान जी ने पक्षिराज गरुड़, वायु तथा सिद्धों से सेवित व्योममार्ग में विचरते हुए उस राक्षस के पास पहुँचकर क्रमशः उसके दोनों पैर दृढ़तापूर्वक पकड़ लिये॥३४॥
स तं समाविध्य सहस्रशः कपिमहोरगं गृह्य इवाण्डजेश्वरः।
मुमोच वेगात् पितृतुल्यविक्रमो महीतले संयति वानरोत्तमः॥ ३५॥
फिर तो अपने पिता वायु देवता के तुल्य पराक्रमी वानर-शिरोमणि हनुमान् ने जिस प्रकार गरुड़ बड़ेबड़े सर्पो को घुमाते हैं, उसी तरह उसे हजारों बार घुमाकर बड़े वेग से उस युद्ध-भूमि में पटक दिया॥ ३५॥
स भग्नबाहरुकटीपयोधरः क्षरन्नसृनिर्मथितास्थिलोचनः।
सम्भिन्नसंधिः प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः॥ ३६॥
नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छाती के टुकड़े-टुकड़े हो गये, खून की धारा बहने लगी, शरीर की हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियों के जोड़ टूट गये और नसनाड़ियों के बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवनकुमार हनुमान जी के हाथ से मारा गया। ३६॥
महाकपिभूमितले निपीड्य तं चकार रक्षोऽधिपतेर्महद्भयम्।
महर्षिभिश्चक्रचरैः समागतैः समेत्य भूतैश्च सयक्षपन्नगैः।
सुरैश्च सेन्द्र शजातविस्मयैहते कुमारे स कपिर्निरीक्षितः॥ ३७॥
अक्षकुमार को पृथ्वी पर पटककर महाकपि हनुमान् जी ने राक्षसराज रावण के हृदय में बहुत बड़ा भय उत्पन्न कर दिया। उसके मारे जाने पर नक्षत्रमण्डल में विचरने वाले महर्षियों, यक्षों, नागों, भूतों तथा इन्द्रसहित देवताओं ने वहाँ एकत्र होकर बड़े विस्मय के साथ हनुमान जी का दर्शन किया॥ ३७॥
निहत्य तं वज्रिसुतोपमं रणे कुमारमक्षं क्षतजोपमेक्षणम्।
तदेव वीरोऽभिजगाम तोरणं कृतक्षणः काल इव प्रजाक्षये॥ ३८॥
युद्ध में इन्द्रपुत्र जयन्त के समान पराक्रमी और लाल-लाल आँखों वाले अक्षकुमार का काम तमाम करके वीरवर हनुमान जी प्रजा के संहार के लिये उद्यत हुए काल की भाँति पुनः युद्ध की प्रतीक्षा करते हुए वाटिका के उसी द्वार पर जा पहुँचे॥ ३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तचत्वारिंशः सर्गः॥४७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।४७॥