वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 48 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 48
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
अष्टचत्वारिंशः सर्गः (सर्ग 48)
इन्द्रजित् और हनुमान जी का युद्ध, उसके दिव्यास्त्र के बन्धन में बँधकर हनुमान् जी का रावण के दरबार में उपस्थित होना
ततस्तु रक्षोऽधिपतिर्महात्मा हनूमताक्षे निहते कुमारे।
मनः समाधाय स देवकल्पं समादिदेशेन्द्रजितं सरोषः॥१॥
तदनन्तर हनुमान जी के द्वारा अक्षकुमार के मारे जाने पर राक्षसों का स्वामी महाकाय रावण अपने मन को किसी तरह सुस्थिर करके रोष से जल उठा और देवताओं के तुल्य पराक्रमी कुमार इन्द्रजित् (मेघनाद)-को इस प्रकार आज्ञा दी— ॥१॥
त्वमस्त्रविच्छस्त्रभृतां वरिष्ठः सुरासुराणामपि शोकदाता।
सुरेषु सेन्द्रेषु च दृष्टकर्मा पितामहाराधनसंचितास्त्रः॥२॥
‘बेटा! तुमने ब्रह्माजी की आराधना करके अनेक प्रकार के अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। तुम अस्त्रवेत्ता, शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तथा देवताओं और असुरों को भी शोक प्रदान करने वाले हो। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के समुदाय में तुम्हारा पराक्रम देखा गया है।॥ २॥
त्वदस्त्रबलमासाद्य ससुराः समरुद्गणाः।
न शेकुः समरे स्थातुं सुरेश्वरसमाश्रिताः॥३॥
‘इन्द्र के आश्रय में रहने वाले देवता और मरुद्गण भी समरभूमि में तुम्हारे अस्त्र-बल का सामना होने पर टिक नहीं सके हैं॥३॥
न कश्चित् त्रिषु लोकेषु संयुगे न गतश्रमः।
भुजवीर्याभिगुप्तश्च तपसा चाभिरक्षितः।
देशकालप्रधानश्च त्वमेव मतिसत्तमः॥४॥
‘तीनों लोकों में तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो युद्ध से थकता न हो। तुम अपने बाहुबल से तो सुरक्षित हो ही, तपस्या के बल से भी पूर्णतः निरापद हो। देश-काल का ज्ञान रखने वालों में प्रधान और बुद्धि की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ तुम्हीं हो॥४॥
न तेऽस्त्यशक्यं समरेषु कर्मणां न तेऽस्त्यकार्यं मतिपूर्वमन्त्रणे।
न सोऽस्ति कश्चित् त्रिषु संग्रहेषु न वेद यस्तेऽस्त्रबलं बलं च॥५॥
‘युद्ध में तुम्हारे वीरोचित कर्मो के द्वारा कुछ भी असाध्य नहीं है। शास्त्रानुकूल बुद्धिपूर्वक राजकार्य का विचार करते समय तुम्हारे लिये कुछ भी असम्भव नहीं है। तुम्हारा कोई भी विचार ऐसा नहीं होता, जो कार्य का साधक न हो। त्रिलोकी में एक भी ऐसा वीर नहीं है, जो तुम्हारी शारीरिक शक्ति और अस्त्र-बल को न जानता हो॥ ५ ॥
ममानुरूपं तपसो बलं च ते पराक्रमश्चास्त्रबलं च संयुगे।
न त्वां समासाद्य रणावमर्दै मनः श्रमं गच्छति निश्चितार्थम्॥६॥
‘तुम्हारा तपोबल, युद्धविषयक पराक्रम और अस्त्र-बल मेरे ही समान है। युद्धस्थल में तुमको पाकर मेरा मन कभी खेद या विषाद को नहीं प्राप्त होता; क्योंकि इसे यह निश्चित विश्वास रहता है कि विजय तुम्हारे पक्ष में होगी॥६॥
निहताः किंकराः सर्वे जम्बुमाली च राक्षसः।
अमात्यपुत्रा वीराश्च पञ्च सेनाग्रगामिनः॥७॥
‘देखो, किंकर नामवाले समस्त राक्षस मार डाले गये। जम्बुमाली नाम का राक्षस भी जीवित न रह सका, मन्त्रीके सातों वीर पुत्र तथा मेरे पाँच सेनापति भी काल के गाल में चले गये॥७॥
बलानि सुसमृद्धानि साश्वनागरथानि च।
सहोदरस्ते दयितः कुमारोऽक्षश्च सूदितः।
न तु तेष्वेव मे सारो यस्त्वय्यरिनिषूदन॥८॥
“उनके साथ ही हाथी, घोड़े और रथोंसहित मेरी बहुत-सी बल-वीर्य से सम्पन्न सेनाएँ भी नष्ट हो गयीं और तुम्हारा प्रिय बन्धु कुमार अक्ष भी मार डाला गया। शत्रुसूदन! मुझमें जो तीनों लोकों पर विजय पाने की शक्ति है, वह तुम्ही में है। पहले जो लोग मारे गये हैं, उनमें वह शक्ति नहीं थी (इसलिये तुम्हारी विजय निश्चित है) ॥ ८॥
इदं च दृष्ट्वा निहतं महद् बलं कपेः प्रभावं च पराक्रमं च।
त्वमात्मनश्चापि निरीक्ष्य सारं कुरुष्व वेगं स्वबलानुरूपम्॥९॥
‘इस प्रकार अपनी विशाल सेना का संहार और उस वानर का प्रभाव एवं पराक्रम देखकर तुम अपने बल का भी विचार कर लो; फिर अपनी शक्ति के अनुसार उद्योग करो॥९॥
बलावमर्दस्त्वयि संनिकृष्टे यथा गते शाम्यति शान्तशत्रौ।
तथा समीक्ष्यात्मबलं परं च समारभस्वास्त्रभृतां वरिष्ठ॥१०॥
‘शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ वीर ! तुम्हारे सब शत्रु शान्त हो चुके हैं। तुम अपने और पराये बल का विचार करके ऐसा प्रयत्न करो, जिससे युद्धभूमि के निकट तुम्हारे पहुँचते ही मेरी सेना का विनाश रुक जाय॥१०॥
न वीर सेना गणशो च्यवन्ति न वज्रमादाय विशालसारम्।
न मारुतस्यास्ति गतिप्रमाणं न चाग्निकल्पः करणेन हन्तुम्॥११॥
‘वीरवर! तुम्हें अपने साथ सेना नहीं ले जानी चाहिये; क्योंकि वे सेनाएँ समूह-की-समूह या तो भाग जाती हैं या मारी जाती हैं। इसी तरह अधिक तीक्ष्णता और कठोरता से युक्त वज्र लेकर भी जाने की कोई आवश्यकता नहीं है (क्योंकि उसके ऊपर वह भी व्यर्थ सिद्ध हो चुका है)। उस वायुपुत्र हनुमान् की गति अथवा शक्ति का कोई माप-तौल या सीमा नहीं है। वह अग्नि-तुल्य तेजस्वी वानर किसी साधन विशेष से नहीं मारा जा सकता॥ ११॥
तमेवमर्थं प्रसमीक्ष्य सम्यक् स्वकर्मसाम्याद्धि समाहितात्मा।
स्मरंश्च दिव्यं धनुषोऽस्य वीर्य व्रजाक्षतं कर्म समारभस्व॥१२॥
‘इन सब बातों का अच्छी तरह विचार करके प्रतिपक्षी में अपने समान ही पराक्रम समझकर तुम अपने चित्त को एकाग्र कर लो–सावधान हो जाओ। अपने इस धनुष के दिव्य प्रभाव को याद रखते हुए
आगे बढ़ो और ऐसा पराक्रम करके दिखाओ, जो खाली न जाय॥
न खल्वियं मतिश्रेष्ठ यत्त्वां सम्प्रेषयाम्यहम्।
इयं च राजधर्माणां क्षत्रस्य च मतिर्मता॥१३॥
‘उत्तम बुद्धिवाले वीर! मैं तुम्हें जो ऐसे संकट में भेज रहा हूँ, यह यद्यपि (स्नेह की दृष्टि से) उचित नहीं है, तथापि मेरा यह विचार राजनीति और क्षत्रियधर्म के अनुकूल है॥ १३॥
नानाशस्त्रेषु संग्रामे वैशारद्यमरिंदम।
अवश्यमेव बोद्धव्यं काम्यश्च विजयो रणे॥१४॥
‘शत्रुदमन! वीर पुरुष को संग्राम में नाना प्रकार के शस्त्रों की कुशलता अवश्य प्राप्त करनी चाहिये, साथ ही युद्ध में विजय पाने की भी अभिलाषा रखनी चाहिये’ ॥ १४॥
ततः पितुस्तद्वचनं निशम्य प्रदक्षिणं दक्षसुतप्रभावः।
चकार भर्तारमतित्वरेण रणाय वीरः प्रतिपन्नबुद्धिः ॥१५॥
अपने पिता राक्षसराज रावण के इस वचन को सुनकर देवताओं के समान प्रभावशाली वीर मेघनाद ने युद्ध के लिये निश्चित विचार करके जल्दी से अपने स्वामी रावण की परिक्रमा की॥ १५ ॥
ततस्तैः स्वगणैरिष्टैरिन्द्रजित् प्रतिपूजितः।
युद्धोद्धतकृतोत्साहः संग्रामं सम्प्रपद्यत॥१६॥
तत्पश्चात् सभा में बैठे हुए अपने दल के प्रिय राक्षसों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हो इन्द्रजित् विकट युद्ध के लिये मन में उत्साह भरकर संग्रामभूमि की ओर जाने को उद्यत हुआ॥ १६॥
श्रीमान् पद्मविशालाक्षो राक्षसाधिपतेः सुतः।
निर्जगाम महातेजाः समुद्र इव पर्वणि॥१७॥
उस समय प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल नेत्रोंवाला राक्षसराज रावण का पुत्र महातेजस्वी श्रीमान् इन्द्रजित् पर्व के दिन उमड़े हुए समुद्र के समान विशेष हर्ष और उत्साह से पूर्ण हो राजमहल से बाहर निकला॥
स पक्षिराजोपमतुल्यवेगैाश्चतुर्भिः स तु तीक्ष्णदंष्ट्रैः।
रथं समायुक्तमसह्यवेगः समारुरोहेन्द्रजिदिन्द्रकल्पः॥१८॥
जिसका वेग शत्रुओं के लिये असह्य था, वह इन्द्र के समान पराक्रमी मेघनाद पक्षिराज गरुड़ के समान तीव्र गति तथा तीखे दाढ़ों वाले चार सिंहों से जुते हुए उत्तम रथ पर आरूढ़ हुआ॥ १८॥
स रथी धन्विनां श्रेष्ठः शस्त्रज्ञोऽस्त्रविदां वरः।
रथेनाभिययौ क्षिप्रं हनूमान् यत्र सोऽभवत्॥१९॥
अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञाता, अस्त्रवेत्ताओं में अग्रगण्य और धनुर्धरों में श्रेष्ठ वह रथी वीर रथ के द्वारा शीघ्र उस स्थान पर गया, जहाँ हनुमान् जी उसकी प्रतीक्षा में बैठे थे॥ १९॥
स तस्य रथनिर्घोषं ज्यास्वनं कार्मकस्य च।
निशम्य हरिवीरोऽसौ सम्प्रहृष्टतरोऽभवत्॥२०॥
उसके रथ की घर्घराहट और धनुष की प्रत्यञ्चा का गम्भीर घोष सुनकर वानरवीर हनुमान् जी अत्यन्त हर्ष और उत्साह से भर गये॥२०॥
इन्द्रजिच्चापमादाय शितशल्यांश्च सायकान्।
हनमन्तमभिप्रेत्य जगाम रणपण्डितः॥२१॥
इन्द्रजित् युद्ध की कला में प्रवीण था। वह धनुष और तीखे अग्रभागवाले सायकों को लेकर हनुमान जी को लक्ष्य करके आगे बढ़ा॥ २१॥
तस्मिंस्ततः संयति जातहर्षे रणाय निर्गच्छति बाणपाणौ।
दिशश्च सर्वाः कलुषा बभूवु{गाश्च रौद्रा बहुधा विनेदुः ॥ २२॥
हृदय में हर्ष और उत्साह तथा हाथों में बाण लेकर वह ज्यों ही युद्ध के लिये निकला, त्यों ही सम्पूर्ण दिशाएँ मलिन हो गयीं और भयानक पशु नाना प्रकार से आर्तनाद करने लगे॥ २२॥
समागतास्तत्र तु नागयक्षा महर्षयश्चक्रचराश्च सिद्धाः।
नभः समावृत्य च पक्षिसङ्घा विनेदुरुच्चैः परमप्रहृष्टाः॥२३॥
उस समय वहाँ नाग, यक्ष, महर्षि और नक्षत्रमण्डल में विचरने वाले सिद्धगण भी आ गये। साथ ही पक्षियों के समुदाय भी आकाश को आच्छादित करके अत्यन्त हर्ष में भरकर उच्च स्वर से चहचहाने लगे। २३॥
आयान्तं स रथं दृष्ट्वा तूर्णमिन्द्रध्वजं कपिः।
ननाद च महानादं व्यवर्धत च वेगवान्॥२४॥
इन्द्राकार चिह्नवाली ध्वजा से सुशोभित रथ पर बैठकर शीघ्रतापूर्वक आते हुए मेघनाद को देखकर वेगशाली वानर-वीर हनुमान् ने बड़े जोर से गर्जना की और अपने शरीर को बढ़ाया॥२४॥
इन्द्रजित् स रथं दिव्यमाश्रितश्चित्रकार्मुकः।
धनुर्विस्फारयामास तडिदूर्जितनिःस्वनम्॥ २५॥
उस दिव्य रथ पर बैठकर विचित्र धनुष धारण करने वाले इन्द्रजित् ने बिजली की गड़गड़ाहट के समान टंकार करने वाले अपने धनुष को खींचा॥ २५ ॥
ततः समेतावतितीक्ष्णवेगौ महाबलौ तौ रणनिर्विशङ्कौ।
कपिश्च रक्षोऽधिपतेस्तनूजः सुरासुरेन्द्राविव बद्धवैरौ॥ २६॥
फिर तो अत्यन्त दुःसह वेग और महान् बल से सम्पन्न हो युद्ध में निर्भय होकर आगे बढ़ने वाले वे दोनों वीर कपिवर हनुमान् तथा राक्षसराजकुमार मेघनाद परस्पर वैर बाँधकर देवराज इन्द्र और दैत्यराज बलि की भाँति एक-दूसरे से भिड़ गये॥२६॥
स तस्य वीरस्य महारथस्य धनुष्मतः संयति सम्मतस्य।
शरप्रवेगं व्यहनत् प्रवृद्धश्चचार मार्गे पितुरप्रमेयः॥ २७॥
अप्रमेय शक्तिशाली हनुमान जी विशाल शरीर धारण करके अपने पिता वायु के मार्ग पर विचरने और युद्ध में सम्मानित होने वाले उस धनुर्धर महारथी राक्षसवीर के बाणों के महान् वेग को व्यर्थ करने लगे। २७॥
ततः शरानायततीक्ष्णशल्यान् सुपत्रिणः काञ्चनचित्रपुङ्खान्।
मुमोच वीरः परवीरहन्ता सुसंततान् वज्रसमानवेगान्॥२८॥
इतने ही में शत्रुवीरों का संहार करने वाले इन्द्रजित् ने बड़ी और तीखी नोक तथा सुन्दर परों वाले, सोने की विचित्र पंखों से सुशोभित और वज्र के समान वेगशाली बाणों को लगातार छोड़ना आरम्भ किया॥ २८ ॥
ततः स तत्स्यन्दननिःस्वनं च मृदङ्गभेरीपटहस्वनं च।
विकृष्यमाणस्य च कार्मुकस्य निशम्य घोषं पुनरुत्पपात॥२९॥
उस समय उसके रथ की घर्घराहट, मृदङ्ग, भेरी और पटह आदि बाजों के शब्द एवं खींचे जाते हुए धनुष की टंकार सुनकर हनुमान जी फिर ऊपर की ओर उछले॥२९॥
शराणामन्तरेष्वाशु व्यावर्तत महाकपिः।
हरिस्तस्याभिलक्ष्यस्य मोक्षयल्लक्ष्यसंग्रहम्॥३०॥
ऊपर जाकर वे महाकपि वानरवीर लक्ष्य बेधने में प्रसिद्ध मेघनाद के साधे हुए निशाने को व्यर्थ करते हुए उसके छोड़े हुए बाणों के बीच से शीघ्रतापूर्वक निकलकर अपने को बचाने लगे॥ ३०॥
शराणामग्रतस्तस्य पुनः समभिवर्तत।
प्रसार्य हस्तौ हनुमानुत्पपातानिलात्मजः॥३१॥
वे पवनकुमार हनुमान् बारंबार उसके बाणों के सामने आकर खड़े हो जाते और फिर दोनों हाथ फैलाकर बात-की-बात में उड़ जाते थे॥ ३१॥
तावुभौ वेगसम्पन्नौ रणकर्मविशारदौ।
सर्वभूतमनोग्राहि चक्रतुर्युद्धमुत्तमम्॥३२॥
वे दोनों वीर महान् वेग से सम्पन्न तथा युद्ध करने की कला में चतुर थे। वे सम्पूर्ण भूतों के चित्त को आकर्षित करने वाला उत्तम युद्ध करने लगे॥ ३२॥
हनूमतो वेद न राक्षसोऽन्तरं न मारुतिस्तस्य महात्मनोऽन्तरम्।
परस्परं निर्विषहौ बभूवतुः समेत्य तौ देवसमानविक्रमौ॥३३॥
वह राक्षस हनुमान जी पर प्रहार करने का अवसर नहीं पाता था और पवनकुमार हनुमान जी भी उस महामनस्वी वीर को धर दबाने का मौका नहीं पाते थे। देवताओं के समान पराक्रमी वे दोनों वीर परस्पर भिड़कर एक-दूसरे के लिये दुःसह हो उठे थे॥ ३३॥
ततस्तु लक्ष्ये स विहन्यमाने शरेष्वमोघेषु च सम्पतत्सु।
जगाम चिन्तां महतीं महात्मा समाधिसंयोगसमाहितात्मा॥३४॥
लक्ष्यवेध के लिये चलाये हुए मेघनाद के वे अमोघ बाण भी जब व्यर्थ होकर गिर पड़े, तब लक्ष्य पर बाणों का संधान करने में सदा एकाग्रचित्त रहने वाले उस महामनस्वी वीर को बड़ी चिन्ता हुई॥ ३४॥
ततो मतिं राक्षसराजसूनुश्चकार तस्मिन् हरिवीरमुख्ये।
अवध्यतां तस्य कपेः समीक्ष्य कथं निगच्छेदिति निग्रहार्थम्॥ ३५॥
उन कपिश्रेष्ठ को अवध्य समझकर राक्षसराजकुमार मेघनाद वानरवीरों में प्रमुख हनुमान् जी के विषय में यह विचार करने लगा कि ‘इन्हें किसी तरह कैद कर लेना चाहिये, परंतु ये मेरी पकड़ में आ कैसे सकते हैं?’ ॥ ३५॥
ततः पैतामहं वीरः सोऽस्त्रमस्त्रविदां वरः।
संदधे सुमहातेजास्तं हरिप्रवरं प्रति॥ ३६॥
फिर तो अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ उस महातेजस्वी वीर ने उन कपिश्रेष्ठ को लक्ष्य करके अपने धनुषपर ब्रह्माजी के दिये हुए अस्त्र का संधान किया॥ ३६॥
अवध्योऽयमिति ज्ञात्वा तमस्त्रेणास्त्रतत्त्ववित्।
निजग्राह महाबाहुं मारुतात्मजमिन्द्रजित्॥ ३७॥
अस्त्रतत्त्व के ज्ञाता इन्द्रजित् ने महाबाहु पवनकुमार को अवध्य जानकर उन्हें उस अस्त्र से बाँध लिया॥ ३७॥
तेन बद्धस्ततोऽस्त्रेण राक्षसेन स वानरः।
अभवन्निर्विचेष्टश्च पपात च महीतले॥३८॥
राक्षस द्वारा उस अस्त्र से बाँध लिये जाने पर वानरवीर हनुमान जी निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ३८॥
ततोऽथ बुद्ध्वा स तदस्त्रबन्धं प्रभोः प्रभावाद् विगताल्पवेगः।
पितामहानुग्रहमात्मनश्च विचिन्तयामास हरिप्रवीरः॥३९॥
अपने को ब्रह्मास्त्र से बँधा हुआ जानकर भी उन्हीं भगवान् ब्रह्मा के प्रभाव से हनुमान् जी को थोड़ी-सी भी पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ। वे प्रमुख वानरवीर अपने ऊपर ब्रह्माजी के महान् अनुग्रह का विचार करने लगे॥ ३९॥
ततः स्वायम्भुवैमन्त्रैर्ब्रह्मास्त्रं चाभिमन्त्रितम्।
हनूमांश्चिन्तयामास वरदानं पितामहात्॥४०॥
जिन मन्त्रों के देवता साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्मा हैं, उनसे अभिमन्त्रित हुए उस ब्रह्मास्त्र को देखकर हनुमान जी को पितामह ब्रह्मा से अपने लिये मिले हुए वरदान का स्मरण हो आया (ब्रह्माजी ने उन्हें वर दिया था कि मेरा अस्त्र तुम्हें एक ही मुहूर्त में अपने बन्धन से मुक्त कर देगा) ॥ ४०॥
न मेऽस्य बन्धस्य च शक्तिरस्ति विमोक्षणे लोकगुरोः प्रभावात्।
इत्येवमेवं विहितोऽस्त्रबन्धो मयाऽऽत्मयोनेरनुवर्तितव्यः॥४१॥
फिर वे सोचने लगे ‘लोकगुरु ब्रह्मा के प्रभाव से मुझमें इस अस्त्र के बन्धन से छुटकारा पाने की शक्ति नहीं है—ऐसा मानकर ही इन्द्रजित् ने मुझे इस प्रकार बाँधा है, तथापि मुझे भगवान् ब्रह्मा के सम्मानार्थ इस अस्त्रबन्धन का अनुसरण करना चाहिये’ ॥ ४१॥
स वीर्यमस्त्रस्य कपिर्विचार्य पितामहानुग्रहमात्मनश्च।
विमोक्षशक्तिं परिचिन्तयित्वा पितामहाज्ञामनुवर्तते स्म॥४२॥
कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने उस अस्त्र की शक्ति, अपने ऊपर पितामह की कृपा तथा अपने में उसके बन्धन से छूट जाने की सामर्थ्य—इन तीनों पर विचार करके अन्त में ब्रह्माजी की आज्ञा का ही अनुसरण किया। ४२॥
अस्त्रेणापि हि बद्धस्य भयं मम न जायते।
पितामहमहेन्द्राभ्यां रक्षितस्यानिलेन च॥४३॥
उनके मन में यह बात आयी कि ‘इस अस्त्र से बँध जाने पर भी मुझे कोई भय नहीं है; क्योंकि ब्रह्मा, इन्द्र और वायुदेवता तीनों मेरी रक्षा करते हैं। ४३॥
ग्रहणे चापि रक्षोभिर्महन्मे गुणदर्शनम्।
राक्षसेन्द्रेण संवादस्तस्माद् गृह्णन्तु मां परे॥४४॥
राक्षसों द्वारा पकड़े जाने में भी मुझे महान् लाभ ही दिखायी देता है; क्योंकि इससे मुझे राक्षसराज रावण के साथ बातचीत करने का अवसर मिलेगा। अतः शत्रु मुझे पकड़कर ले चलें’॥ ४४ ॥
स निश्चितार्थः परवीरहन्ता समीक्ष्यकारी विनिवृत्तचेष्टः।
परैः प्रसह्याभिगतैर्निगृह्य ननाद तैस्तैः परिभय॑मानः॥४५॥
ऐसा निश्चय करके विचारपूर्वक कार्य करने वाले शत्रुवीरों के संहारक हनुमान जी निश्चेष्ट हो गये। फिर तो सभी शत्रु निकट आकर उन्हें बलपूर्वक पकड़ने और डाँट बताने लगे। उस समय हनुमान् जी , मानो कष्ट पा रहे हों, इस प्रकार चीखते और कटकटाते थे॥४५॥
ततस्ते राक्षसा दृष्ट्वा विनिश्चेष्टमरिंदमम्।
बबन्धुः शणवल्कैश्च द्रुमचीरैश्च संहतैः॥४६॥
राक्षसों ने देखा, अब यह हाथ-पैर नहीं हिलाता, तब वे शत्रुहन्ता हनुमान् जी को सुतरी और वृक्षों के वल्कल को बटकर बनाये गये रस्सों से बाँधने लगे। ४६॥
स रोचयामास परैश्च बन्धं प्रसह्य वीरैरभिगर्हणं च।
कौतूहलान्मां यदि राक्षसेन्द्रो द्रष्टुं व्यवस्येदिति निश्चितार्थः॥४७॥
शत्रुवीरों ने जो उन्हें हठपूर्वक बाँधा और उनका तिरस्कार किया, यह सब कुछ उस समय उन्हें अच्छा लगा। उनके मन में यह निश्चित विचार हो गया था कि ऐसी अवस्था में राक्षसराज रावण सम्भवतः कौतूहलवश मुझे देखने की इच्छा करेगा (इसीलिये वे सब कुछ सह रहे थे) ॥ ४७॥
स बद्धस्तेन वल्केन विमुक्तोऽस्त्रेण वीर्यवान्।
अस्त्रबन्धः स चान्यं हि न बन्धमनुवर्तते॥४८॥
वल्कल के रस्से से बँध जाने पर पराक्रमी हनुमान् ब्रह्मास्त्र के बन्धन से मुक्त हो गये; क्योंकि उस अस्त्र का बन्धन किसी दूसरे बन्धन के साथ नहीं रहता॥ ४८॥
अथेन्द्रजित् तं द्रुमचीरबद्धं विचार्य वीरः कपिसत्तमं तम्।
विमुक्तमस्त्रेण जगाम चिन्तामन्येन बद्धोऽप्यनुवर्ततेऽस्त्रम्॥४९॥
अहो महत् कर्म कृतं निरर्थं न राक्षसैर्मन्त्रगतिर्विमृष्टा।
पुनश्च नास्त्रे विहतेऽस्त्रमन्यत् प्रवर्तते संशयिताः स्म सर्वे॥५०॥
वीर इन्द्रजित् ने जब देखा कि यह वानरशिरोमणि तो केवल वृक्षों के वल्कल से बँधा है, दिव्यास्त्र के बन्धन से मुक्त हो चुका है, तब उसे बड़ी चिन्ता हुई। वह सोचने लगा—’दूसरी वस्तुओं से बँधा हुआ
होने पर भी यह अस्त्र-बन्धन में बँधे हुए की भाँति बर्ताव कर रहा है। ओह ! इन राक्षसों ने मेरा किया हुआ बहुत बड़ा काम चौपट कर दिया। इन्होंने मन्त्र की शक्ति पर विचार नहीं किया। यह अस्त्र जब एक बार व्यर्थ हो जाता है, तब पुनः दूसरी बार इसका प्रयोग नहीं हो सकता अब तो विजयी होकर भी हम सब लोग संशय में पड़ गये॥
अस्त्रेण हनुमान् मुक्तो नात्मानमवबुध्यते।
कृष्यमाणस्तु रक्षोभिस्तैश्च बन्धैर्निपीडितः॥५१॥
हन्यमानस्ततः क्रूरै राक्षसैः कालमुष्टिभिः।
समीपं राक्षसेन्द्रस्य प्राकृष्यत स वानरः॥५२॥
हनुमान् जी यद्यपि अस्त्र के बन्धन से मुक्त हो गये थे तो भी उन्होंने ऐसा बर्ताव किया, मानो वे इस बात को जानते ही न हों। क्रूर राक्षस उन्हें बन्धनों से पीड़ा देते और कठोर मुक्कों से मारते हुए खींचकर ले चले। इस तरह वे वानरवीर राक्षसराज रावण के पास पहुँचाये गये॥
अथेन्द्रजित् तं प्रसमीक्ष्य मुक्तमस्त्रेण बद्धं द्रुमचीरसूत्रैः।
व्यदर्शयत् तत्र महाबलं तं हरिप्रवीरं सगणाय राज्ञे॥५३॥
तब इन्द्रजित् ने उन महाबली वानरवीर को ब्रह्मास्त्र से मुक्त तथा वृक्ष के वल्कलों की रस्सियों से बँधा देख उन्हें वहाँ सभासद्गणोंसहित राजा रावण को दिखाया॥ ५३॥
तं मत्तमिव मातङ्गं बद्धं कपिवरोत्तमम्।
राक्षसा राक्षसेन्द्राय रावणाय न्यवेदयन्॥५४॥
मतवाले हाथी के समान बँधे हुए उन वानरशिरोमणि को राक्षसों ने राक्षसराज रावण की सेवा में समर्पित कर दिया॥ ५४॥
कोऽयं कस्य कुतो वापि किं कार्यं कोऽभ्युपाश्रयः।
इति राक्षसवीराणां दृष्ट्वा संजज्ञिरे कथाः॥५५॥
उन्हें देखकर राक्षसवीर आपस में कहने लगे—’यह कौन है ? किसका पुत्र या सेवक है? कहाँ से आया है? यहाँ इसका क्या काम है? तथा इसे सहारा देने वाला कौन है ? ॥ ५५ ॥
हन्यतां दह्यतां वापि भक्ष्यतामिति चापरे।
राक्षसास्तत्र संक्रुद्धाः परस्परमथाब्रवन्॥५६॥
कुछ दूसरे राक्षस जो अत्यन्त क्रोध से भरे थे, परस्पर इस प्रकार बोले-‘इस वानर को मार डालो, जला डालो या खा डालो’ ॥ ५६॥
अतीत्य मार्ग सहसा महात्मा स तत्र रक्षोऽधिपपादमूले।
ददर्श राज्ञः परिचारवृद्धान् गृहं महारत्नविभूषितं च॥५७॥
महात्मा हनुमान जी सारा रास्ता तै करके जब सहसा राक्षसराज रावण के पास पहुँच गये, तब उन्होंने उसके चरणों के समीप बहुत-से बड़े-बूढ़े सेवकों को और बहुमूल्य रत्नों से विभूषित सभाभवन को भी देखा॥
स ददर्श महातेजा रावणः कपिसत्तमम्।
रक्षोभिर्विकृताकारैः कृष्यमाणमितस्ततः॥५८॥
उस समय महातेजस्वी रावण ने विकट आकार वाले राक्षसों के द्वारा इधर-उधर घसीटे जाते हुए कपिश्रेष्ठ हनुमान जी को देखा॥ ५८॥
राक्षसाधिपतिं चापि ददर्श कपिसत्तमः।
तेजोबलसमायुक्तं तपन्तमिव भास्करम्॥५९॥
कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने भी राक्षसराज रावण को तपते हुए सूर्य के समान तेज और बल से सम्पन्न देखा॥ ५९॥
स रोषसंवर्तितताम्रदृष्टिर्दशाननस्तं कपिमन्ववेक्ष्य।
अथोपविष्टान् कुलशीलवृद्धान् समादिशत् तं प्रति मुख्यमन्त्रीन्॥६०॥
हनुमान जी को देखकर दशमुख रावण की आँखें रोष से चञ्चल और लाल हो गयीं। उसने वहाँ बैठे हुए कुलीन, सुशील और मुख्य मन्त्रियों को उनसे परिचय पूछने के लिये आज्ञा दी॥६० ॥
यथाक्रमं तैः स कपिश्च पृष्टः कार्यार्थमर्थस्य च मूलमादौ।
निवेदयामास हरीश्वरस्य दूतः सकाशादहमागतोऽस्मि॥६१॥
उन सबने पहले क्रमशः कपिवर हनुमान् से उनका कार्य, प्रयोजन तथा उसके मूल कारण के विषय में पूछा तब उन्होंने यह बताया कि ‘मैं वानरराज सुग्रीव के पास से उनका दूत होकर आया हूँ’॥ ६१॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डेऽष्टचत्वारिंशः सर्गः॥४८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४८॥