वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 49 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 49
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकोनपञ्चाशः सर्गः (49)
(रावण के प्रभावशाली स्वरूप को देखकर हनुमान जी के मन में अनेक प्रकार के विचारों का उठना)
ततः स कर्मणा तस्य विस्मितो भीमविक्रमः।
हनूमान् क्रोधताम्राक्षो रक्षोऽधिपमवैक्षत ॥१॥
इन्द्रजित् के उस नीतिपूर्ण कर्म से विस्मित तथा रावण के सीताहरण आदि कर्मों से कुपित हो रोष से लाल आँखें किये भयंकर पराक्रमी हनुमान जी ने राक्षसराज रावण की ओर देखा॥१॥
भ्राजमानं महार्हेण काञ्चनेन विराजता।
मुक्ताजालवृतेनाथ मुकुटेन महाद्युतिम्॥२॥
वह महातेजस्वी राक्षसराज सोने के बने हुए बहुमूल्य एवं दीप्तिमान् मुकुट से, जिसमें मोतियों का काम किया हुआ था, उद्भासित हो रहा था॥२॥
वज्रसंयोगसंयुक्तैर्महार्हमणिविग्रहैः ।
हैमैराभरणैश्चित्रैर्मनसेव प्रकल्पितैः॥३॥
उसके विभिन्न अङ्गों में सोने के विचित्र आभूषण ऐसे सुन्दर लगते थे मानो मानसिक संकल्प द्वारा बनाये गये हों। उनमें हीरे तथा बहुमूल्य मणिरत्न जड़े हुए थे, उन आभूषणों से रावण की अद्भुत शोभा होती थी॥३॥
महार्हक्षौमसंवीतं रक्तचन्दनरूषितम्।
स्वनुलिप्तं विचित्राभिर्विविधाभिश्च भक्तिभिः॥४॥
बहुमूल्य रेशमी वस्त्र उसके शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। वह लाल चन्दन से चर्चित था और भाँतिभाँति की विचित्र रचनाओं से युक्त सुन्दर अङ्गरागों से उसका सारा अङ्ग सुशोभित हो रहा था॥४॥
विचित्रं दर्शनीयैश्च रक्ताक्षैर्भीमदर्शनैः।
दीप्ततीक्ष्णमहादंष्ट्र प्रलम्बं दशनच्छदैः॥५॥
उसकी आँखें देखने योग्य लाल-लाल और भयावनी थीं; उनसे और चमकीली तीखी एवं बड़ीबड़ी दाढ़ों तथा लंबे-लंबे ओठों के कारण उसकी विचित्र शोभा होती थी॥
शिरोभिर्दशभिर्वीरो भ्राजमानं महौजसम्।
नानाव्यालसमाकीर्णैः शिखरैरिव मन्दरम्॥६॥
वीर हनुमान जी ने देखा, अपने दस मस्तकों से सुशोभित महाबली रावण नाना प्रकार के सोसे भरे हुए अनेक शिखरों द्वारा शोभा पाने वाले मन्दराचल के समान प्रतीत हो रहा है॥६॥
नीलाञ्जनचयप्रख्यं हारेणोरसि राजता।
पूर्णचन्द्राभवक्त्रेण सबालार्कमिवाम्बुदम्॥७॥
उसका शरीर काले कोयले के ढेर की भाँति काला था और वक्षःस्थल चमकीले हार से विभूषित था। वह पूर्ण चन्द्र के समान मनोरम मुखद्वारा प्रातःकाल के सूर्य से युक्त मेघ की भाँति शोभा पा रहा था॥ ७॥
बाहुभिर्बद्धकेयूरैश्चन्दनोत्तमरूषितैः।
भ्राजमानाङ्गदैर्भीमैः पञ्चशीरिवोरगैः॥८॥
जिनमें केयूर बँधे थे, उत्तम चन्दन का लेप हुआ था और चमकीले अङ्गद शोभा दे रहे थे, उन भयंकर भुजाओं से सुशोभित रावण ऐसा जान पड़ता था, मानो । पाँच सिरवाले अनेक साँसे सेवित हो रहा हो॥ ८॥
महति स्फाटिके चित्रे रत्नसंयोगचित्रिते।
उत्तमास्तरणास्तीर्णे सूपविष्टं वरासने॥९॥
वह स्फटिकमणि के बने हुए विशाल एवं सुन्दर सिंहासन पर, जो नाना प्रकार के रत्नों के संयोग से चित्रित, विचित्र तथा सुन्दर बिछौनों से आच्छादित था, बैठा हुआ था।
अलंकृताभिरत्यर्थं प्रमदाभिः समन्ततः।
वालव्यजनहस्ताभिरारात्समुपसेवितम्॥१०॥
वस्त्र और आभूषणों से खूब सजी हुई बहुत-सी युवतियाँ हाथ में चँवर लिये सब ओर से आस-पास खड़ी हो उसकी सेवा करती थीं॥ १० ॥
दुर्धरेण प्रहस्तेन महापाइँन रक्षसा।
मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैर्निकुम्भेन च मन्त्रिणा॥११॥
उपोपविष्टं रक्षोभिश्चतुर्भिर्बलदर्पितम्।
कृत्स्नं परिवृतं लोकं चतुर्भिरिव सागरैः॥१२॥
मन्त्र-तत्त्व को जानने वाले दुर्धर, प्रहस्त, महापार्श्व तथा निकुम्भ—ये चार राक्षसजातीय मन्त्री उसके पास बैठे थे। उन चारों राक्षसों से घिरा हुआ बलाभिमानी रावण चार समुद्रों से घिरे हुए समस्त भूलोक की भाँति शोभा पा रहा था॥ ११-१२ ॥
मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैरन्यैश्च शुभदर्शिभिः।
आश्वास्यमानं सचिवैः सुरैरिव सुरेश्वरम्॥१३॥
जैसे देवता देवराज इन्द्र को सान्त्वना देते हैं, उसी प्रकार मन्त्र-तत्त्व के ज्ञाता मन्त्री तथा दूसरे-दूसरे शुभचिन्तक सचिव उसे आश्वासन दे रहे थे॥ १३ ॥
अपश्यद् राक्षसपतिं हनूमानतितेजसम्।
वेष्टितं मेरुशिखरे सतोयमिव तोयदम्॥१४॥
इस प्रकार हनुमान जी ने मन्त्रियों से घिरे हुए अत्यन्त तेजस्वी, सिंहासनारूढ़ राक्षसराज रावण को मेरुशिखर पर विराजमान सजल जलधर के समान देखा॥ १४ ॥
स तैः सम्पीड्यमानोऽपि रक्षोभिर्भीमविक्रमैः।
विस्मयं परमं गत्वा रक्षोऽधिपमवैक्षत॥१५॥
उन भयानक पराक्रमी राक्षसों से पीड़ित होने पर भी हनुमान् जी अत्यन्त विस्मित होकर राक्षसराज रावण को बड़े गौर से देखते रहे॥ १५॥
भ्राजमानं ततो दृष्ट्वा हनुमान् राक्षसेश्वरम्।
मनसा चिन्तयामास तेजसा तस्य मोहितः॥१६॥
उस दीप्तिशाली राक्षसराज को अच्छी तरह देखकर उसके तेज से मोहित हो हनुमान् जी मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे- ॥१६॥
अहो रूपमहो धैर्यमहो सत्त्वमहो द्युतिः।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥१७॥
‘अहो! इस राक्षसराज का रूप कैसा अद्भुत है! कैसा अनोखा धैर्य है। कैसी अनुपम शक्ति है! और कैसा आश्चर्यजनक तेज है! इसका सम्पूर्ण राजोचित लक्षणों से सम्पन्न होना कितने आश्चर्यकी बात है!॥ १७॥
यद्यधर्मो न बलवान् स्यादयं राक्षसेश्वरः।
स्यादयं सुरलोकस्य सशक्रस्यापि रक्षिता॥१८॥
‘यदि इसमें प्रबल अधर्म न होता तो यह राक्षसराज रावण इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवलोक का संरक्षक हो सकता था॥ १८॥
अस्य क्रूरैर्नृशंसैश्च कर्मभिर्लोककुत्सितैः।
सर्वे बिभ्यति खल्वस्माल्लोकाः सामरदानवाः॥१९॥
अयं ह्युत्सहते क्रुद्धः कर्तुमेकार्णवं जगत्।
इति चिन्तां बहुविधामकरोन्मतिमान् कपिः।
दृष्ट्वा राक्षसराजस्य प्रभावममितौजसः॥ २०॥
‘इसके लोकनिन्दित क्रूरतापूर्ण निष्ठुर कर्मो के कारण देवताओं और दानवोंसहित सम्पूर्ण लोक इससे भयभीत रहते हैं। यह कुपित होने पर समस्त जगत् को एकार्णव में निमग्न कर सकता है संसार में
प्रलय मचा सकता है।’ अमित तेजस्वी राक्षसराज के प्रभाव को देखकर वे बुद्धिमान् वानरवीर ऐसी अनेक प्रकार की चिन्ताएँ करते रहे ॥ १९-२०॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः॥४९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ।४९॥