वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 5 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 5
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
पञ्चमः सर्गः (5)
(हनुमान जी का रावणके अन्तःपुरमें घर-घरमें सीताको ढूँढ़ना और उन्हें न देखकर दुःखी होना)
ततः स मध्यंगतमंशुमन्तं ज्योत्स्नावितानं मुहुरुद्रमन्तम्।
ददर्श धीमान् भुवि भानुमन्तं गोष्ठे वृषं मत्तमिव भ्रमन्तम्॥१॥
तत्पश्चात् बुद्धिमान् हनुमान जी ने देखा, जिस प्रकार गोशाला के भीतर गौओं के झुंड में मतवाला साँड़ विचरता है, उसी प्रकार पृथ्वी के ऊपर बारम्बार अपनी चाँदनी का चँदोवा तानते हए चन्द्रदेव आकाश के मध्यभाग में तारिकाओं के बीच विचरण कर रहे हैं॥१॥
लोकस्य पापानि विनाशयन्तं महोदधिं चापि समेधयन्तम्।
भूतानि सर्वाणि विराजयन्तं ददर्श शीतांशुमथाभियान्तम्॥२॥
वे शीतरश्मि चन्द्रमा जगत् के पाप-तापका नाश कर रहे हैं, महासागर में ज्वार उठा रहे हैं, समस्त प्राणियों को नयी दीप्ति एवं प्रकाश दे रहे हैं और आकाश में क्रमशः ऊपर की ओर उठ रहे हैं॥२॥
या भाति लक्ष्मी वि मन्दरस्था यथा प्रदोषेषु च सागरस्था।
तथैव तोयेषु च पुष्करस्था रराज सा चारुनिशाकरस्था॥३॥
भूतलपर मन्दराचल में, संध्या के समय महासागर में और जल के भीतर कमलों में जो लक्ष्मी जिस प्रकार सुशोभित होती हैं, वे ही उसी प्रकार मनोहर चन्द्रमा में शोभा पा रही थीं॥३॥
हंसो यथा राजतपञ्जरस्थः सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः।
वीरो यथा गर्वितकुञ्जरस्थश्चन्द्रोऽपि बभ्राज तथाम्बरस्थः॥४॥
जैसे चाँदी के पिंजरे में हंस, मन्दराचलकी कन्दरा में सिंह तथा मदमत्त हाथी की पीठपर वीर पुरुष शोभा पाते हैं, उसी प्रकार आकाश में चन्द्रदेव सुशोभित हो रहे थे॥
स्थितः ककुद्मानिव तीक्ष्णशृङ्गो महाचलः श्वेत इवोर्ध्वशृङ्गः।
हस्तीव जाम्बूनदबद्धशृङ्गो विभाति चन्द्रः परिपूर्णशृङ्गः॥५॥
जैसे तीखे सींग वाला बैल खड़ा हो, जैसे ऊपर को उठे शिखर वाला महान् पर्वत श्वेत (हिमालय) शोभा पाता हो और जैसे सुवर्णजटित दाँतों से युक्त गजराज सुशोभित होता हो, उसी प्रकार हरिण के शृङ्गरूपी चिह्न से युक्त परिपूर्ण चन्द्रमा छबि पा रहे थे॥५॥
विनष्टशीताम्बुतुषारपङ्को महाग्रहग्राहविनष्टपङ्कः।
प्रकाशलक्ष्याश्रयनिर्मलाङ्को रराज चन्द्रो भगवान् शशाङ्कः॥६॥
जिनका शीतल जल और हिमरूपी पङ्क से संसर्ग का दोष नष्ट हो गया है, अर्थात् जो इनके संसर्ग से बहुत दूर है, सूर्य-किरणों को ग्रहण करने के कारण जिन्होंने अपने अन्धकाररूपी पङ्क को भी नष्ट कर दिया है तथा प्रकाश रूप लक्ष्मी का आश्रयस्थान होने के कारण जिनकी कालिमा भी निर्मल प्रतीत होती है, वे भगवान् शशलाञ्छन चन्द्रदेव आकाश में प्रकाशित हो रहे थे॥६॥
शिलातलं प्राप्य यथा मृगेन्द्रो महारणं प्राप्य यथा गजेन्द्रः।
राज्यं समासाद्य यथा नरेन्द्रस्तथा प्रकाशो विरराज चन्द्रः ॥७॥
जैसे गुफा के बाहर शिलातलपर बैठा हुआ मृगराज (सिंह) शोभा पाता है, जैसे विशाल वन में पहुँचकर गजराज सुशोभित होता है तथा जैसे राज्य पाकर राजा अधिक शोभा से सम्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल प्रकाश से युक्त होकर चन्द्रदेव सुशोभित हो रहे थे॥७॥
प्रकाशचन्द्रोदयनष्टदोषः प्रवृद्धरक्षःपिशिताशदोषः।
रामाभिरामेरितचित्तदोषः स्वर्गप्रकाशो भगवान् प्रदोषः॥८॥
प्रकाशयुक्त चन्द्रमा के उदय से जिसका अन्धकाररूपी दोष दूर हो गया है, जिसमें राक्षसों के जीव-हिंसा और मांसभक्षणरूपी दोष बढ़ गये हैं तथा रमणियों के रमण-विषयक चित्तदोष (प्रणय-कलह) निवृत्त हो गये हैं, वह पूजनीय प्रदोषकाल स्वर्गसदृश सुख का प्रकाश करने लगा।
तन्त्रीस्वराः कर्णसुखाः प्रवृत्ताः स्वपन्ति नार्यः पतिभिः सुवृत्ताः।
नक्तंचराश्चापि तथा प्रवृत्ता विहर्तुमत्यद्भुतरौद्रवृत्ताः॥९॥
वीणा के श्रवणसुखद शब्द झङ्कत हो रहे थे, सदाचारिणी स्त्रियाँ पतियों के साथ सो रही थीं तथा अत्यन्त अद्भुत और भयंकर शील-स्वभाव वाले निशाचर निशीथ काल में विहार कर रहे थे॥९॥
मत्तप्रमत्तानि समाकुलानि रथाश्वभद्रासनसंकुलानि।
वीरश्रिया चापि समाकुलानि ददर्श धीमान् स कपिः कुलानि॥१०॥
बुद्धिमान् वानर हनुमान् ने वहाँ बहुत-से घर देखे। किन्हीं में ऐश्वर्य-मद से मत्त निशाचर निवास करते थे, किन्हीं में मदिरापान से मतवाले राक्षस भरे हुए थे। । कितने ही घर रथ, घोड़े आदि वाहनों और भद्रासनों से सम्पन्न थे तथा कितने ही वीर-लक्ष्मी से व्याप्त दिखायी देते थे। वे सभी गृह एक-दूसरे से मिले हुए थे॥१०॥
परस्परं चाधिकमाक्षिपन्ति भुजांश्च पीनानधिविक्षिपन्ति।
मत्तप्रलापानधिविक्षिपन्ति मत्तानि चान्योन्यमधिक्षिपन्ति॥११॥
राक्षस लोग आपस में एक-दूसरे पर अधिक आक्षेप करते थे। अपनी मोटी-मोटी भुजाओं को भी हिलाते और चलाते थे। मतवालों की-सी बहकी-बहकी बातें करते थे और मदिरा से उन्मत्त होकर परस्पर कटु वचन बोलते थे॥११॥
रक्षांसि वक्षांसि च विक्षिपन्ति गात्राणि कान्तासु च विक्षिपन्ति।
रूपाणि चित्राणि च विक्षिपन्ति दृढानि चापानि च विक्षिपन्ति॥१२॥
इतना ही नहीं, वे मतवाले राक्षस अपनी छाती भी पीटते थे। अपने हाथ आदि अंगों को अपनी प्यारी पत्नियों पर रख देते थे। सुन्दर रूपवाले चित्रों का निर्माण करते थे और अपने सुदृढ़ धनुषों को कान तक खींचा करते थे॥ १२॥
ददर्श कान्ताश्च समालभन्त्यस्तथापरास्तत्र पुनः स्वपन्त्यः।
सुरूपवत्राश्च तथा हसन्त्यः क्रुद्धाः पराश्चापि विनिःश्वसन्त्यः॥१३॥
हनुमान जी ने यह भी देखा कि नायिकाएँ अपने अंगों में चन्दन आदि का अनुलेपन करती हैं। दूसरी वहीं सोती हैं। तीसरी सुन्दर रूप और मनोहर मुखवाली ललनाएँ हँसती हैं तथा अन्य वनिताएँ प्रणय-कलह से कुपित हो लंबी साँसें खींच रही हैं। १३॥
महागजैश्चापि तथा नदद्भिः सुपूजितैश्चापि तथा सुसद्भिः।
रराज वीरैश्च विनिःश्वसद्भिह्रदा भुजंगैरिव निःश्वसद्भिः॥१४॥
चिग्घाड़ते हुए महान् गजराजों, अत्यन्त सम्मानित श्रेष्ठ सभासदों तथा लंबी साँसें छोड़ने वाले वीरों के कारण वह लंकापुरी फुफकारते हुए सोसे युक्त सरोवरों के समान शोभा पा रही थी॥ १४ ॥
बुद्धिप्रधानान् रुचिराभिधानान् संश्रद्दधानाञ्जगतः प्रधानान्।
नानाविधानान् रुचिराभिधानान् ददर्श तस्यां पुरि यातुधानान्॥१५॥
हनुमान जी ने उस पुरी में बहुत-से उत्कृष्ट बुद्धिवाले, सुन्दर बोलने वाले, सम्यक् श्रद्धा रखने वाले, अनेक प्रकार के रूप-रंगवाले और मनोहर नाम धारण करने वाले विश्वविख्यात राक्षस देखे॥ १५॥
ननन्द दृष्ट्वा स च तान् सुरूपान् नानागुणानात्मगुणानुरूपान्।
विद्योतमानान् स च तान् सुरूपान् ददर्श कांश्चिच्च पुनर्विरूपान्॥१६॥
वे सुन्दर रूपवाले, नाना प्रकार के गुणों से सम्पन्न, अपने गुणों के अनुरूप व्यवहार करने वाले और तेजस्वी थे। उन्हें देखकर हनुमान् जी बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बहुतेरे राक्षसों को सुन्दर रूपसे सम्पन्न देखा और कोई-कोई उन्हें बड़े कुरूप दिखायी दिये॥ १६॥
ततो वरार्हाः सुविशुद्धभावास्तेषां स्त्रियस्तत्र महानुभावाः।
प्रियेषु पानेषु च सक्तभावा ददर्श तारा इव सुस्वभावाः॥१७॥
तदनन्तर वहाँ उन्होंने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करने के योग्य सुन्दरी राक्षस-रमणियों को देखा, जिनका भाव अत्यन्त विशुद्ध था। वे बड़ी प्रभावशालिनी थीं। उनका मन प्रियतम में तथा मधुपान में आसक्त था। वे तारिकाओं की भाँति कान्तमती और सुन्दर स्वभाववाली थीं॥१७॥
स्त्रियो ज्वलन्तीस्त्रपयोपगूढा निशीथकाले रमणोपगूढाः।
ददर्श काश्चित् प्रमदोपगूढा यथा विहंगा विहगोपगूढाः॥१८॥
हनुमान जी की दृष्टि में कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी आयीं, जो अपने रूप-सौन्दर्य से प्रकाशित हो रही थीं। वे बड़ी लजीली थीं और आधी रात के समय अपने प्रियतम के आलिङ्गनपाश में इस प्रकार बँधी हुई थीं जैसे पक्षिणी पक्षी के द्वारा आलिङ्गित होती है। वे सब-के-सब आनन्द में मग्न थीं॥ १८ ॥
अन्याः पुनर्हऱ्यातलोपविष्टास्तत्र प्रियाङ्केषु सुखोपविष्टाः।
भर्तुः परा धर्मपरा निविष्टा ददर्श धीमान् मदनोपविष्टाः ॥ १९॥
दूसरी बहुत-सी स्त्रियाँ महलों की छतों पर बैठी थीं। वे पति की सेवा में तत्पर रहने वाली, धर्मपरायणा, विवाहिता और कामभावना से भावित थीं। हनुमान् जी ने उन सबको अपने प्रियतम के अङ्क में सुखपूर्वक बैठी देखा ॥ १९॥
अप्रावृताः काञ्चनराजिवर्णाः काश्चित्पराास्तपनीयवर्णाः।
पुनश्च काश्चिच्छशलक्ष्मवर्णाः कान्तप्रहीणा रुचिराङ्गवर्णाः॥२०॥
कितनी ही कामिनियाँ सुवर्ण-रेखा के समान कान्तिमती दिखायी देती थीं। उन्होंने अपनी ओढ़नी उतार दी थी। कितनी ही उत्तम वनिताएँ तपाये हुए सुवर्ण के समान रंगवाली थीं तथा कितनी ही
पतिवियोगिनी बालाएँ चन्द्रमा के समान श्वेत वर्ण की दिखायी देती थीं। उनकी अंगकान्ति बड़ी ही सुन्दर थी॥२०॥
ततः प्रियान् प्राप्य मनोऽभिरामान् सुप्रीतियुक्ताः सुमनोऽभिरामाः।
गृहेषु हृष्टाः परमाभिरामा हरिप्रवीरः स ददर्श रामाः॥२१॥
तदनन्तर वानरों के प्रमुख वीर हनुमान जी ने विभिन्न गृहों में ऐसी परम सुन्दरी रमणियों का अवलोकन किया, जो मनोभिराम प्रियतम का संयोग पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो रही थीं। फूलों के हार से विभूषित होने के कारण उनकी रमणीयता और भी बढ़ गयी थी और वे सब-की-सब हर्ष से उत्फुल्ल दिखायी देती थीं॥२१॥
चन्द्रप्रकाशाश्च हि वक्त्रमाला वक्राः सुपक्ष्माश्च सुनेत्रमालाः।
विभूषणानां च ददर्श मालाः शतहदानामिव चारुमालाः॥२२॥
उन्होंने चन्द्रमा के समान प्रकाशमान मुखों की पंक्तियाँ, सुन्दर पलकों वाले तिरछे नेत्रों की पंक्तियाँ और चमचमाती हुई विद्युल्लेखाओं के समान आभूषणों की भी मनोहर पंक्तियाँ देखीं॥ २२ ॥
न त्वेव सीतां परमाभिजातां पथि स्थिते राजकुले प्रजाताम्।
लतां प्रफुल्लामिव साधुजातां ददर्श तन्वीं मनसाभिजाताम्॥२३॥
किंतु जो परमात्मा के मानसिक संकल्प से धर्ममार्गपर स्थिर रहने वाले राजकुल में प्रकट हुई थीं, जिनका प्रादुर्भाव परम ऐश्वर्य की प्राप्ति कराने वाला है, जो परम सुन्दररूप में उत्पन्न हुई प्रफुल्ल लता के समान शोभा पाती थीं, उन कृशाङ्गी सीता को उन्होंने वहाँ कहीं नहीं देखा था॥ २३॥ ।
सनातने वर्त्मनि संनिविष्टां रामेक्षणीं तां मदनाभिविष्टाम्।
भर्तर्मनः श्रीमदनप्रविष्टां स्त्रीभ्यः पराभ्यश्च सदा विशिष्टाम्॥२४॥
उष्णार्दितां सानुसृतास्रकण्ठी पुरा वराहॊत्तमनिष्ककण्ठीम्।
सुजातपक्ष्मामभिरक्तकण्ठी वने प्रनृत्तामिव नीलकण्ठीम्॥२५॥
अव्यक्तरेखामिव चन्द्रलेखां पांसुप्रदिग्धामिव हेमरेखाम्।
क्षतप्ररूढामिव वर्णरेखां वायुप्रभुग्नामिव मेघरेखाम्॥२६॥
सीतामपश्यन्मनुजेश्वरस्य रामस्य पत्नी वदतां वरस्य।
बभूव दुःखोपहतश्चिरस्य प्लवंगमो मन्द इवाचिरस्य॥२७॥
जो सदा सनातन मार्गपर स्थित रहने वाली, श्रीराम पर ही दृष्टि रखने वाली, श्रीरामविषयक काम या प्रेम से परिपूर्ण, अपने पति के तेजस्वी मन में बसी हुई तथा दूसरी सभी स्त्रियों से सदा ही श्रेष्ठ थीं; जिन्हें विरहजनित ताप सदा पीड़ा देता रहता था, जिनके नेत्रों से निरन्तर आँसुओं की झड़ी लगी रहती थी और कण्ठ उन आँसुओं से गद्गद रहता था, पहले संयोग काल में जिनका कण्ठ श्रेष्ठ एवं बहुमूल्य निष्क (पदक)-से विभूषित रहा करता था, जिनकी पलकें बहुत ही सुन्दर थीं और कण्ठस्वर अत्यन्त मधुर था । तथा जो वन में नृत्य करने वाली मयूरी के समान मनोहर लगती थीं, जो मेघ आदि से आच्छादित
होने के कारण अव्यक्त रेखावाली चन्द्रलेखा के समान दिखायी देती थीं, धूलि-धूसर सुवर्ण-रेखा-सी प्रतीत होती थीं, बाण के आघात से उत्पन्न हुई रेखा (चिह्न)-सी जान पड़ती थीं तथा वायु के द्वारा उड़ायी जाती हुई बादलों की रेखा-सी दृष्टिगोचर होती थीं। वक्ताओं में श्रेष्ठ नरेश्वर श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी उन सीताजी को बहुत देर तक ढूँढ़ने पर भी जब हनुमान् जी न देख सके, तब वे तत्क्षण अत्यन्त दुःखी और शिथिल हो गये॥२४–२७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५॥
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