वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 50 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 50
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 50)
रावण का प्रहस्त के द्वारा हनुमान जी सेलङ्का में आने का कारण पुछवाना और हनुमान् का अपने को श्रीराम का दूत बताना
तमुद्रीक्ष्य महाबाहुः पिङ्गाक्षं पुरतः स्थितम्।
रोषेण महताऽऽविष्टो रावणो लोकरावणः॥१॥
समस्त लोकों को रुलाने वाला महाबाहु रावण भूरी आँखों वाले हनुमान जी को सामने खड़ा देख महान् रोष से भर गया॥१॥
शङ्काहतात्मा दध्यौ स कपीन्द्रं तेजसा वृतम्।
किमेष भगवान् नन्दी भवेत् साक्षादिहागतः॥
येन शप्तोऽस्मि कैलासे मया प्रहसिते पुरा।
सोऽयं वानरमर्तिः स्यात्किंस्विद बाणोऽपि वासुरः॥३॥
साथ ही तरह-तरह की आशङ्काओं से उसका दिल बैठ गया। अतः वह तेजस्वी वानरराज के विषय में विचार करने लगा—’क्या इस वानर के रूप में साक्षात् भगवान् नन्दी यहाँ पधारे हुए हैं, जिन्होंने पूर्वकाल में कैलास पर्वत पर जब कि मैंने उनका उपहास किया था, मुझे शाप दे दिया था? वे ही तो वानर का स्वरूप धारण करके यहाँ नहीं आये हैं? अथवा इस रूप में बाणासुर का आगमन तो नहीं हुआ है ?’ ॥ २-३॥
स राजा रोषताम्राक्षः प्रहस्तं मन्त्रिसत्तमम्।
कालयुक्तमुवाचेदं वचो विपुलमर्थवत्॥४॥
इस तरह तर्क-वितर्क करते हुए राजा रावण ने क्रोध से लाल आँखें करके मन्त्रिवर प्रहस्त से समयानुकूल गम्भीर एवं अर्थयुक्त बात कही— ॥ ४॥
दुरात्मा पृच्छ्यतामेष कुतः किं वास्य कारणम्।
वनभङ्गे च कोऽस्यार्थो राक्षसानां च तर्जने॥५॥
‘अमात्य! इस दुरात्मा से पूछो तो सही, यह कहाँ से आया है? इसके आने का क्या कारण है? प्रमदावन को उजाड़ने तथा राक्षसों को मारने में इसका क्या उद्देश्य था? ॥ ५॥
मत्पुरीमप्रधृष्यां वै गमने किं प्रयोजनम्।
आयोधने वा कं कार्यं पृच्छयतामेष दुर्मतिः॥६॥
‘मेरी दुर्जय पुरी में जो इसका आना हुआ है, इसमें इसका क्या प्रयोजन है? अथवा इसने जो राक्षसों के साथ युद्ध छेड़ दिया है, उसमें इसका क्या उद्देश्य है? ये सारी बातें इस दुर्बुद्धि वानर से पूछो’॥ ६॥
रावणस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्तो वाक्यमब्रवीत्।
समाश्वसिहि भद्रं ते न भीः कार्या त्वया कपे॥७॥
रावण की बात सुनकर प्रहस्त ने हनुमान् जी से कहा —’वानर ! तुम घबराओ न, धैर्य रखो। तुम्हारा भला हो। तुम्हें डरने की आवश्यकता नहीं है॥७॥
यदि तावत् त्वमिन्द्रेण प्रेषितो रावणालयम्।
तत्त्वमाख्याहि मा ते भूद् भयं वानर मोक्ष्यसे॥८ ॥
‘यदि तुम्हें इन्द्र ने महाराज रावण की नगरी में भेजा है तो ठीक-ठीक बता दो। वानर ! डरो न। छोड़ दिये जाओगे॥ ८॥
यदि वैश्रवणस्य त्वं यमस्य वरुणस्य च।
चारुरूपमिदं कृत्वा प्रविष्टो नः पुरीमिमाम्॥९॥
‘अथवा यदि तुम कुबेर, यम या वरुण के दूत हो और यह सुन्दर रूप धारण करके हमारी इस पुरी में घुस आये हो तो यह भी बता दो॥९॥
विष्णुना प्रेषितो वापि दूतो विजयकाक्षिणा।
नहि ते वानरं तेजो रूपमात्रं तु वानरम्॥१०॥
‘अथवा विजय की अभिलाषा रखने वाले विष्णु ने तुम्हें दूत बनाकर भेजा है? तुम्हारा तेज वानरों का-सा नहीं है केवल रूप मात्र वानरका है॥ १० ॥
तत्त्वतः कथयस्वाद्य ततो वानर मोक्ष्यसे।
अनृतं वदतश्चापि दुर्लभं तव जीवितम्॥११॥
‘वानर! इस समय सच्ची बात कह दो, फिर तुम छोड़ दिये जाओगे। यदि झूठ बोलोगे तो तुम्हारा जीना असम्भव हो जायगा॥११॥
अथवा यन्निमित्तस्ते प्रवेशो रावणालये।
एवमुक्तो हरिवरस्तदा रक्षोगणेश्वरम्॥१२॥
अब्रवीन्नास्मि शक्रस्य यमस्य वरुणस्य च।
धनदेन न मे सख्यं विष्णुना नास्मि चोदितः॥१३॥
‘अथवा और सब बातें छोड़ो। तुम्हारा इस रावण के नगर में आने का क्या उद्देश्य है ? यही बता दो।’ प्रहस्त के इस प्रकार पूछने पर उस समय वानरश्रेष्ठ हनुमान् ने राक्षसों के स्वामी रावण से कहा —’मैं इन्द्र, यम अथवा वरुण का दूत नहीं हूँ। कुबेर के साथ भी मेरी मैत्री नहीं है और भगवान् विष्णु ने भी मुझे यहाँ नहीं भेजा है॥ १२-१३॥
जातिरेव मम त्वेषा वानरोऽहमिहागतः।
दर्शने राक्षसेन्द्रस्य तदिदं दुर्लभं मया॥१४॥
वनं राक्षसराजस्य दर्शनार्थं विनाशितम्।
ततस्ते राक्षसाः प्राप्ता बलिनो युद्धकाङ्क्षिणः॥
रक्षणार्थं च देहस्य प्रतियुद्धा मया रणे।
‘मैं जन्म से ही वानर हूँ और राक्षस रावण से मिलने के उद्देश्य से ही मैंने उनके इस दुर्लभ वन को उजाड़ा है। इसके बाद तुम्हारे बलवान् राक्षस युद्ध की इच्छा से मेरे पास आये और मैंने अपने शरीर की रक्षा के लिये रणभूमि में उनका सामना किया। १४-१५ १/२॥
अस्त्रपाशैर्न शक्योऽहं बद्धं देवासुरैरपि॥१६॥
पितामहादेष वरो ममापि हि समागतः।
‘देवता अथवा असुर भी मुझे अस्त्र अथवा पाश से बाँध नहीं सकते। इसके लिये मुझे भी ब्रह्माजी से वरदान मिल चुका है। १६ १/२ ॥
राजानं द्रष्टुकामेन मयास्त्रमनुवर्तितम्॥१७॥
विमुक्तोऽप्यहमस्त्रेण राक्षसैस्त्वभिवेदितः।
‘राक्षसराज को देखने की इच्छा से ही मैंने अस्त्र से बँधना स्वीकार किया है। यद्यपि इस समय मैं अस्त्र से मुक्त हूँ तथापि इन राक्षसों ने मुझे बँधा समझकर ही यहाँ लाकर तुम्हें सौंपा है॥ १७ १/२॥
केनचिद् रामकार्येण आगतोऽस्मि तवान्तिकम्॥१८॥
दूतोऽहमिति विज्ञाय राघवस्यामितौजसः।
श्रूयतामेव वचनं मम पथ्यमिदं प्रभो॥१९॥
‘भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का कुछ कार्य है, जिसके लिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ। प्रभो! मैं अमित तेजस्वी श्रीरघुनाथजी का दूत हूँ, ऐसा समझकर मेरे इस हितकारी वचन को अवश्य सुनो’ ।। १८-१९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चाशः सर्गः॥५०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ।५०॥