वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 53 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 53
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
त्रिपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 53)
राक्षसों का हनुमान जी की पूँछ में आग लगाकर उन्हें नगर में घुमाना
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा दशग्रीवो महात्मनः।
देशकालहितं वाक्यं भ्रातुरुत्तरमब्रवीत्॥१॥
छोटे भाई महात्मा विभीषण की बात देश और काल के लिये उपयुक्त एवं हितकर थी। उसको सुनकर दशानन ने इस प्रकार उत्तर दिया- ॥१॥
सम्यगुक्तं हि भवता दूतवध्या विगर्हिता।
अवश्यं तु वधायान्यः क्रियतामस्य निग्रहः॥२॥
‘विभीषण! तुम्हारा कहना ठीक है। वास्तव में दूत के वध की बड़ी निन्दा की गयी है; परंतु वध के अतिरिक्त दूसरा कोई दण्ड इसे अवश्य देना चाहिये।
कपीनां किल लाङ्गलमिष्टं भवति भूषणम्।
तदस्य दीप्यतां शीघ्रं तेन दग्धेन गच्छतु॥३॥
‘वानरों को अपनी पूंछ बड़ी प्यारी होती है। वही इनका आभूषण है। अतः जितना जल्दी हो सके, इसकी पूँछ जला दो। जली पूँछ लेकर ही यह यहाँ से जाय॥३॥
ततः पश्यन्त्वमुं दीनमङ्गवैरूप्यकर्शितम्।
सुमित्रज्ञातयः सर्वे बान्धवाः ससुहृज्जनाः॥४॥
‘वहाँ इसके मित्र, कुटुम्बी, भाई-बन्धु तथा हितैषी सुहृद् इसे अङ्ग-भङ्ग के कारण पीड़ित एवं दीन अवस्था में देखें ॥४॥
आज्ञापयद् राक्षसेन्द्रः पुरं सर्वं सचत्वरम्।
लाङ्गलेन प्रदीप्तेन रक्षोभिः परिणीयताम्॥५॥
फिर राक्षसराज रावण ने यह आज्ञा दी कि ‘राक्षसगण इसकी पूँछ में आग लगाकर इसे सड़कों और चौराहोंसहित समूचे नगर में घुमावें ॥५॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राक्षसाः कोपकर्कशाः।
वेष्टन्ते तस्य लाङ्गलं जीर्णैः कार्पासिकैः पटैः॥
स्वामी का यह आदेश सुनकर क्रोध के कारण कठोरतापूर्ण बर्ताव करने वाले राक्षस हनुमान जी की पूँछ में पुराने सूती कपड़े लपेटने लगे॥६॥
संवेष्टयमाने लाङ्गले व्यवर्धत महाकपिः।
शुष्कमिन्धनमासाद्य वनेष्विव हुताशनम्॥७॥
जब उनकी पूँछ में वस्त्र लपेटा जाने लगा, उस समय वनों में सूखी लकड़ी पाकर भभक उठने वाली आग की भाँति उन महाकपि का शरीर बढ़कर बहुत बड़ा हो गया।
तैलेन परिषिच्याथ तेऽग्निं तत्रोपपादयन्।
लाङ्गलेन प्रदीप्तेन राक्षसांस्तानताडयत्॥८॥
रोषामर्षपरीतात्मा बालसूर्यसमाननः।
राक्षसों ने वस्त्र लपेटने के पश्चात् उनकी पूँछ पर तेल छिड़क दिया और आग लगा दी। तब हनुमान् जी का हृदय रोष से भर गया। उनका मुख प्रातःकाल के सूर्य की भाँति अरुण आभा से उद्भासित हो उठा और वे अपनी जलती हुई पूँछ से ही राक्षसों को पीटने लगे॥ ८ १/२॥
स भूयः संगतैः क्रूरै राक्षसैर्हरिपुङ्गवः॥९॥
सहस्त्रीबालवृद्धाश्च जग्मुः प्रीतिं निशाचराः।
तब क्रूर राक्षसोंने मिलकर पुनः उन वानरशिरोमणिको कसकर बाँध दिया। यह देख स्त्रियों, बालकों और वृद्धोंसहित समस्त निशाचर बड़े प्रसन्न हुए॥९ १/२॥
निबद्धः कृतवान् वीरस्तत्कालसदृशीं मतिम्॥१०॥
कामं खलु न मे शक्ता निबद्धस्यापि राक्षसाः।
छित्त्वा पाशान् समुत्पत्य हन्यामहमिमान् पुनः॥
तब वीरवर हनुमान जी बँधे-बँधे ही उस समय के योग्य विचार करने लगे—’यद्यपि मैं बँधा हुआ हूँ तो भी इन राक्षसों का मुझपर जोर नहीं चल सकता। इन बन्धनों को तोड़कर मैं ऊपर उछल जाऊँगा और पुनः इन्हें मार सकूँगा॥ १०-११॥
यदि भर्तृहितार्थाय चरन्तं भर्तृशासनात्।
निबध्नन्ते दुरात्मानो न तु मे निष्कृतिः कृता॥१२॥
‘मैं अपने स्वामी श्रीराम के हित के लिये विचर रहा हूँ तो भी ये दुरात्मा राक्षस यदि अपने राजा के आदेश से मुझे बाँध रहे हैं तो इससे मैं जो कुछ कर चुका हूँ, उसका बदला नहीं पूरा हो सका है॥ १२ ॥
सर्वेषामेव पर्याप्तो राक्षसानामहं युधि।
किं तु रामस्य प्रीत्यर्थं विषहिष्येऽहमीदृशम्॥१३॥
‘मैं युद्धस्थल में अकेला ही इन समस्त राक्षसों का संहार करने में पूर्णतः समर्थ हूँ, किंतु इस समय श्रीरामचन्द्रजी की प्रसन्नता के लिये मैं ऐसे बन्धन को चुपचाप सह लूँगा॥१३॥
लङ्का चारयितव्या मे पुनरेव भवेदिति।
रात्रौ नहि सुदृष्टा मे दुर्गकर्मविधानतः॥१४॥
“ऐसा करने से मुझे पुनः समूची लङ्का में विचरने और इसके निरीक्षण करने का अवसर मिलेगा; क्योंकि रात में घूमने के कारण मैंने दुर्ग रचना की विधि पर दृष्टि रखते हुए इसका अच्छी तरह अवलोकन नहीं किया था॥ १४॥
अवश्यमेव द्रष्टव्या मया लङ्का निशाक्षये।
कामं बध्नन्तु मे भूयः पुच्छस्योद्दीपनेन च॥१५॥
पीडां कुर्वन्ति रक्षांसि न मेऽस्ति मनसः श्रमः।
‘अतः सबेरा हो जाने पर मुझे अवश्य ही लङ्का देखनी है। भले ही ये राक्षस मुझे बारंबार बाँधे और पूँछ में आग लगाकर पीड़ा पहुँचायें। मेरे मन में इसके कारण तनिक भी कष्ट नहीं होगा’ ॥ १५ १/२॥
ततस्ते संवृताकारं सत्त्ववन्तं महाकपिम्॥१६॥
परिगृह्य ययुर्हृष्टा राक्षसाः कपिकुञ्जरम्।
शङ्कभेरीनिनादैश्च घोषयन्तः स्वकर्मभिः॥१७॥
राक्षसाः क्रूरकर्माणश्चारयन्ति स्म तां पुरीम्।
तदनन्तर वे क्रूरकर्मा राक्षस अपने दिव्य आकार को छिपाये रखने वाले सत्त्वगुणशाली महान् वानरवीर कपिकुञ्जर हनुमान जी को पकड़कर बड़े हर्ष के साथ ले चले और शङ्ख एवं भेरी बजाकर उनके (रावण-द्रोह आदि) अपराधों की घोषणा करते हुए उन्हें लङ्कापुरी में सब ओर घुमाने लगे॥ १६-१७ १/२॥
अन्वीयमानो रक्षोभिर्ययौ सुखमिरंदमः॥१८॥
हनूमांश्चारयामास राक्षसानां महापुरीम्।
अथापश्यद् विमानानि विचित्राणि महाकपिः॥
शत्रुदमन हनुमान जी बड़ी मौज से आगे बढ़ने लगे। समस्त राक्षस उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। महाकपि हनुमान् जी राक्षसों की उस विशाल पुरी में विचरते हुए उसे देखने लगे। उन्होंने वहाँ बड़े विचित्र विमान देखे ॥ १८-१९॥
संवृतान् भूमिभागांश्च सुविभक्तांश्च चत्वरान्।
रथ्याश्च गृहसम्बाधाः कपिः शृङ्गाटकानि च॥२०॥
तथा रथ्योपरथ्याश्च तथैव च गृहान्तरान्।
परकोटे से घिरे हुए कितने ही भूभाग, पृथक्-पृथक् बने हुए सुन्दर चबूतरे, घनीभूत गृहपंक्तियों से घिरी हुई सड़कें, चौराहे, छोटी-बड़ी गलियाँ और घरों के मध्यभाग—इन सबको वे बड़े गौर से देखने लगे॥ २० १/२॥
चत्वरेषु चतुष्केषु राजमार्गे तथैव च ॥ २१॥
घोषयन्ति कपिं सर्वे चार इत्येव राक्षसाः।
सब राक्षस उन्हें चौराहों पर, चार खंभेवाले मण्डपों में तथा सड़कों पर घुमाने और जासूस कहकर उनका परिचय देने लगे॥ २१ १/२॥
स्त्रीबालवृद्धा निर्जग्मुस्तत्र तत्र कुतूहलात्॥२२॥
तं प्रदीपितलाङ्गलं हनूमन्तं दिदृक्षवः।।
भिन्न-भिन्न स्थानों में जलती पूंछवाले हनुमान जी को देखनेके लिये वहाँ बहुत-से बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ कौतूहलवश घर से बाहर निकल आती थीं। २२ १/२॥
दीप्यमाने ततस्तस्य लाङ्गलागे हनूमतः॥२३॥
राक्षस्यस्ता विरूपाक्ष्यः शंसुर्देव्यास्तदप्रियम्।
हनुमान जी की पूँछ में जब आग लगायी जा रही थी, उस समय भयंकर नेत्रोंवाली राक्षसियों ने सीतादेवी के पास जाकर उनसे यह अप्रिय समाचार कहा— ॥ २३ १/२॥
यस्त्वया कृतसंवादः सीते ताम्रमुखः कपिः॥२४॥
लाङ्गलेन प्रदीप्तेन स एष परिणीयते।
‘सीते! जिस लाल मुँहवाले बन्दर ने तुम्हारे साथ बातचीत की थी, उसकी पूँछ में आग लगाकर उसे सारे नगर में घुमाया जा रहा है’ ॥ २४ १/२॥
श्रुत्वा तद् वचनं क्रूरमात्मापहरणोपमम्॥ २५॥
वैदेही शोकसंतप्ता हुताशनमुपागमत्।
अपने अपहरण की ही भाँति दुःख देने वाली यह क्रूरतापूर्ण बात सुनकर विदेहनन्दिनी सीता शोक से संतप्त हो उठीं और मन-ही-मन अग्निदेव की उपासना करने लगीं॥ २५ १/२॥
मङ्गलाभिमुखी तस्य सा तदासीन्महाकपेः॥२६॥
उपतस्थे विशालाक्षी प्रयता हव्यवाहनम्।
उस समय विशाललोचना पवित्रहृदया सीता महाकपि हनुमान जी के लिये मङ्गलकामना करती हुई अग्निदेव की उपासना में संलग्न हो गयीं और इस प्रकार बोलीं- ॥२६ १/२॥
यद्यस्ति पतिशुश्रूषा यद्यस्ति चरितं तपः।
यदि वा त्वेकपत्नीत्वं शीतो भव हनूमतः॥ २७॥
‘अग्निदेव! यदि मैंने पति की सेवा की है और यदि मुझमें कुछ भी तपस्या तथा पातिव्रत्य का बल है तो तुम हनुमान के लिये शीतल हो जाओ॥२७॥
यदि किंचिदनुक्रोशस्तस्य मय्यस्ति धीमतः।
यदि वा भाग्यशेषो मे शीतो भव हनूमतः॥ २८॥
‘यदि बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम के मन में मेरे प्रति किंचिन्मात्र भी दया है अथवा यदि मेरा सौभाग्य शेष है तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ॥२८॥
यदि मां वृत्तसम्पन्नां तत्समागमलालसाम्।
स विजानाति धर्मात्मा शीतो भव हनूमतः॥२९॥
‘यदि धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी मुझे सदाचार से सम्पन्न और अपने से मिलने के लिये उत्सुक जानते हैं तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ॥२९॥
यदि मां तारयेदार्यः सुग्रीवः सत्यसंगरः।
अस्माद् दुःखाम्बुसंरोधाच्छीतो भव हनूमतः॥३०॥
‘यदि सत्यप्रतिज्ञ आर्य सुग्रीव इस दुःख के महासागर से मेरा उद्धार कर सकें तो तुम हनुमान् के लिये शीतल हो जाओ’ ॥ ३०॥
ततस्तीक्ष्णार्चिरव्यग्रः प्रदक्षिणशिखोऽनलः।
जज्वाल मृगशावाक्ष्याः शंसन्निव शुभं कपेः॥३१॥
मृगनयनी सीता के इस प्रकार प्रार्थना करने पर तीखी लपटोंवाले अग्निदेव मानो उन्हें हनुमान के मङ्गल की सूचना देते हुए शान्तभाव से जलने लगे। उनकी शिखा प्रदक्षिण-भाव से उठने लगी॥३१॥
हनूमज्जनकश्चैव पुच्छानलयुतोऽनिलः।
ववौ स्वास्थ्यकरो देव्याः प्रालेयानिलशीतलः॥
हनुमान् के पिता वायुदेवता भी उनकी पूँछ में लगी हुई आग से युक्त हो बर्फीली हवा के समान शीतल और देवी सीता के लिये स्वास्थ्यकारी (सुखद) होकर बहने लगे॥ ३२॥
दह्यमाने च लाङ्गले चिन्तयामास वानरः।
प्रदीप्तोऽग्निरयं कस्मान्न मां दहति सर्वतः॥३३॥
उधर पूँछ में आग लगायी जाने पर हनुमान जी सोचने लगे—’अहो! यह आग सब ओरसे प्रज्वलित होने पर भी मुझे जलाती क्यों नहीं है ? ॥ ३३॥
दृश्यते च महाज्वालः करोति च न मे रुजम्।
शिशिरस्येव सम्पातो लाङ्गलाग्रे प्रतिष्ठितः॥ ३४॥
‘इसमें इतनी ऊँची ज्वाला उठती दिखायी देती है, तथापि यह आग मुझे पीड़ा नहीं दे रही है। मालूम होता है मेरी पूँछ के अग्रभाग में बर्फ का ढेर-सा रख दिया गया है॥ ३४॥
अथ वा तदिदं व्यक्तं यद् दृष्टं प्लवता मया।
रामप्रभावादाश्चर्यं पर्वतः सरितां पतौ॥ ३५॥
‘अथवा उस दिन समुद्र को लाँघते समय मैंने सागर में श्रीरामचन्द्रजी के प्रभाव से पर्वत के प्रकट होने की जो आश्चर्यजनक घटना देखी थी, उसी तरह आज यह अग्नि की शीतलता भी व्यक्त हुई है॥ ३५ ॥
यदि तावत् समुद्रस्य नाकस्य च धीमतः।
रामार्थं सम्भ्रमस्तादृक् किमग्निर्न करिष्यति॥ ३६॥
‘यदि श्रीराम के उपकार के लिये समुद्र और बुद्धिमान् मैनाक के मन में वैसी आदरपूर्ण उतावली देखी गयी तो क्या अग्निदेव उन भगवान् के उपकार के लिये शीतलता नहीं प्रकट करेंगे? ॥ ३६॥
सीतायाश्चानृशंस्येन तेजसा राघवस्य च।
पितुश्च मम सख्येन न मां दहति पावकः॥३७॥
‘निश्चय ही भगवती सीता की दया, श्रीरघुनाथजी के तेज तथा मेरे पिता की मैत्री के प्रभाव से अग्निदेव मुझे जला नहीं रहे हैं ॥ ३७॥
भूयः स चिन्तयामास मुहूर्तं कपिकुञ्जरः।
कथमस्मद्विधस्येह बन्धनं राक्षसाधमैः॥३८॥
प्रतिक्रियास्य युक्ता स्यात् सति मह्यं पराक्रमे।
तदनन्तर कपिकुञ्जर हनुमान् ने पुनः एक मुहूर्त तक इस प्रकार विचार किया ‘मेरे-जैसे पुरुष का यहाँ इन नीच निशाचरो द्वारा बाँधा जाना कैसे उचित हो सकता है ? पराक्रम रहते हुए मुझे अवश्य इसका प्रतीकार करना चाहिये’ ॥ ३८ १/२॥
ततश्छित्त्वा च तान् पाशान् वेगवान् वै महाकपिः॥३९॥
उत्पपाताथ वेगेन ननाद च महाकपिः।
यह सोचकर वे वेगशाली महाकपि हनुमान् (जिन्हें राक्षसों ने पकड़ रखा था) उन बन्धनों को तोड़कर बड़े वेग से ऊपर को उछले और गर्जना करने लगे (उस समय भी उनका शरीर रस्सियों में बँधा हुआ ही था) ॥ ३९ १/२॥
पुरद्वारं ततः श्रीमान् शैलशृङ्गमिवोन्नतम्॥४०॥
विभक्तरक्षःसम्बाधमाससादानिलात्मजः।
उछलकर वे श्रीमान् पवनकुमार पर्वत-शिखर के समान ऊँचे नगरद्वार पर जा पहुंचे, जहाँ राक्षसों की भीड़ नहीं थी॥ ४० १/२॥
स भूत्वा शैलसंकाशः क्षणेन पुनरात्मवान्॥४१॥
ह्रस्वतां परमां प्राप्तो बन्धनान्यवशातयत्।
विमुक्तश्चाभवच्छ्रीमान् पुनः पर्वतसंनिभः॥४२॥
पर्वताकार होकर भी वे मनस्वी हनुमान् पुनः क्षणभर में बहुत ही छोटे और पतले हो गये। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे बन्धनों को निकाल फेंका। उन बन्धनों से मुक्त होते ही तेजस्वी हनुमान जी फिर पर्वत के समान विशालकाय हो गये॥ ४१-४२॥
वीक्षमाणश्च ददृशे परिघं तोरणाश्रितम्।
स तं गृह्य महाबाहुः कालायसपरिष्कृतम्।
रक्षिणस्तान् पुनः सर्वान् सूदयामास मारुतिः॥४३॥
उस समय उन्होंने जब इधर-उधर दृष्टि डाली, तब उन्हें फाटक के सहारे रखा हुआ एक परिघ दिखायी दिया। काले लोहे के बने हुए उस परिघ को लेकर महाबाहु पवनपुत्र ने वहाँ के समस्त रक्षकों को फिर मार गिराया॥४३॥
स तान् निहत्वा रणचण्डविक्रमः समीक्षमाणः पुनरेव लङ्काम्।
प्रदीप्तलाङ्गलकृतार्चिमाली प्रकाशितादित्य इवार्चिमाली॥४४॥
उन राक्षसों को मारकर रणभूमि में प्रचण्ड पराक्रम प्रकट करने वाले हनुमान जी पुनः लङ्कापुरी का निरीक्षण करने लगे। उस समय जलती हुई पूँछ से जो ज्वालाओं की माला-सी उठ रही थी, उससे अलंकृत हुए वे वानरवीर तेजःपुञ्ज से देदीप्यमान सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहे थे॥४४॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः॥५३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५३॥