वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 55 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 55
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
पञ्चपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 55)
सीताजी के लिये हनुमान् जी की चिन्ता और उसका निवारण
संदीप्यमानां वित्रस्तां त्रस्तरक्षोगणां पुरीम्।
अवेक्ष्य हनुमाँल्लङ्कां चिन्तयामास वानरः॥१॥
वानरवीर हनुमान जी ने जब देखा कि सारी लङ्कापुरी जल रही है, वहाँ के निवासियों पर त्रास छा गया है और राक्षसगण अत्यन्त भयभीत हो गये हैं, तब उनके मन में सीता के दग्ध होने की आशङ्का से बड़ी चिन्ता हुई॥१॥
तस्याभूत् सुमहांस्त्रासः कुत्सा चात्मन्यजायत।
लङ्कां प्रदहता कर्म किंस्वित् कृतमिदं मया॥२॥
साथ ही उनपर महान् त्रास छा गया और उन्हें अपने प्रति घृणा-सी होने लगी। वे मन-ही-मन कहने लगे—’हाय! मैंने लङ्का को जलाते समय यह कैसा कुत्सित कर्म कर डाला? ॥२॥
धन्याः खलु महात्मानो ये बुद्ध्या कोपमुत्थितम्।
निरुन्धन्ति महात्मानो दीप्तमग्निमिवाम्भसा॥३॥
‘जो महामनस्वी महात्मा पुरुष उठे हुए कोप को अपनी बुद्धि के द्वारा उसी प्रकार रोक देते हैं, जैसे साधारण लोग जल से प्रज्वलित अग्नि को शान्त कर देते हैं, वे ही इस संसार में धन्य हैं॥३॥
क्रुद्धः पापं न कुर्यात् कः क्रुद्धो हन्याद् गुरूनपि।
क्रुद्धः परुषया वाचा नरः साधूनधिक्षिपेत्॥४॥
‘क्रोध से भर जाने पर कौन पुरुष पाप नहीं करता? क्रोध के वशीभूत हुआ मनुष्य गुरुजनों की भी हत्या कर सकता है। क्रोधी मानव साधु पुरुषों पर भी कटुवचनों द्वारा आक्षेप करने लगता है॥४॥
वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते क्वचित्॥
‘अधिक कुपित हुआ मनुष्य कभी इस बात का विचार नहीं करता कि मुँह से क्या कहना चाहिये और क्या नहीं? क्रोधी के लिये कोई ऐसा बुरा काम नहीं, जिसे वह न कर सके और कोई ऐसी बुरी बात नहीं, जिसे वह मुँह से न निकाल सके॥५॥
यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयैव निरस्यति।
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते॥६॥
‘जो हृदय में उत्पन्न हुए क्रोध को क्षमा के द्वारा उसी तरह निकाल देता है, जैसे साँप अपनी पुरानी केंचुल को छोड़ देता है, वही पुरुष कहलाता है॥६॥
धिगस्तु मां सुदुर्बुद्धिं निर्लज्जं पापकृत्तमम्।
अचिन्तयित्वा तां सीतामग्निदं स्वामिघातकम्॥७॥
‘मेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, मैं निर्लज्ज और महान् पापाचारी हूँ। मैंने सीता की रक्षा का कोई विचार न करके लङ्का में आग लगा दी और इस तरह अपने स्वामी की ही हत्या कर डाली। मुझे धिक्कार है॥७॥
यदि दग्धा त्वियं सर्वा नूनमार्यापि जानकी।
दग्धा तेन मया भर्तुर्हतं कार्यमजानता॥८॥
‘यदि यह सारी लङ्का जल गयी तो आर्या जानकी भी निश्चय ही उसमें दग्ध हो गयी होंगी। ऐसा करके मैंने अनजान में अपने स्वामी का सारा काम ही चौपट कर डाला॥८॥
यदर्थमयमारम्भस्तत्कार्यमवसादितम्।
मया हि दहता लङ्कां न सीता परिरक्षिता॥९॥
‘जिस कार्य की सिद्धि के लिये यह सारा उद्योग किया गया था, वह कार्य ही मैंने नष्ट कर दिया; क्योंकि लङ्का जलाते समय मैंने सीता की रक्षा नहीं की॥९॥
ईषत्कार्यमिदं कार्यं कृतमासीन्न संशयः।
तस्य क्रोधाभिभूतेन मया मूलक्षयः कृतः॥१०॥
‘इसमें संदेह नहीं कि यह लङ्का-दहन एक छोटा सा कार्य शेष रह गया था, जिसे मैंने पूर्ण किया; परंतु क्रोध से पागल होने के कारण मैंने श्रीरामचन्द्रजी के कार्य की तो जड़ ही काट डाली॥ १०॥
विनष्टा जानकी व्यक्तं न ह्यदग्धः प्रदृश्यते।
लङ्कायाः कश्चिदुद्देशः सर्वा भस्मीकृता पुरी॥११॥
‘लङ्का का कोई भी भाग ऐसा नहीं दिखायी देता, जहाँ आग न लगी हो। सारी पुरी ही मैंने भस्म कर डाली है, अतः जानकी नष्ट हो गयी, यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है॥११॥
यदि तद्विहतं कार्यं मया प्रज्ञाविपर्ययात्।
इहैव प्राणसंन्यासो ममापि ह्यद्य रोचते॥१२॥
‘यदि अपनी विपरीत बुद्धि के कारण मैंने सारा काम चौपट कर दिया तो यहीं आज मेरे प्राणों का भी विसर्जन हो जाना चाहिये। यही मुझे अच्छा जान पड़ता है॥ १२॥
किमग्नौ निपताम्यद्य आहोस्विद् वडवामुखे।
शरीरमिह सत्त्वानां दद्मि सागरवासिनाम्॥१३॥
‘क्या मैं अब जलती आग में कूद पड़ें या वडवानल के मुख में? अथवा समुद्र में निवास करने वाले जल-जन्तुओं को ही यहाँ अपना शरीर समर्पित कर दूँ॥ १३॥
कथं नु जीवता शक्यो मया द्रष्टुं हरीश्वरः।
तौ वा पुरुषशार्दूलौ कार्यसर्वस्वघातिना॥१४॥
‘जब मैंने सारा कार्य ही नष्ट कर दिया, तब अब जीते-जी कैसे वानरराज सुग्रीव अथवा उन दोनों पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण का दर्शन कर सकता हूँ या उन्हें अपना मुँह दिखा सकता हूँ? ॥ १४ ॥
मया खलु तदेवेदं रोषदोषात् प्रदर्शितम्।
प्रथितं त्रिषु लोकेषु कपित्वमनवस्थितम्॥१५॥
‘मैंने रोष के दोष से तीनों लोकों में विख्यात इस वानरोचित चपलता का ही यहाँ प्रदर्शन किया है। १५॥
धिगस्तु राजसं भावमनीशमनवस्थितम्।
ईश्वरेणापि यद् रागान्मया सीता न रक्षिता॥१६॥
‘यह राजस भाव कार्य-साधन में असमर्थ और अव्यवस्थित है, इसे धिक्कार है; क्योंकि इस रजोगुणमूलक क्रोध के ही कारण समर्थ होते हुए भी मैंने सीता की रक्षा नहीं की॥१६॥
विनष्टायां तु सीतायां तावुभौ विनशिष्यतः।
तयोर्विनाशे सुग्रीवः सबन्धुर्विनशिष्यति॥१७॥
‘सीता के नष्ट हो जाने से वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण भी नष्ट हो जायँगे। उन दोनों का नाश होने पर बन्धु-बान्धवोंसहित सुग्रीव भी जीवित नहीं रहेंगे। १७॥
एतदेव वचः श्रुत्वा भरतो भ्रातृवत्सलः।
धर्मात्मा सहशत्रुघ्नः कथं शक्ष्यति जीवितुम्॥१८॥
‘फिर इसी समाचार को सुन लेने पर भ्रातृवत्सल धर्मात्मा भरत और शत्रुघ्न भी कैसे जीवन धारण कर सकेंगे?॥ १८॥
इक्ष्वाकुवंशे धर्मिष्ठे गते नाशमसंशयम्।
भविष्यन्ति प्रजाः सर्वाः शोकसंतापपीडिताः॥१९॥
‘इस प्रकार धर्मनिष्ठ इक्ष्वाकुवंश के नष्ट हो जाने पर सारी प्रजा भी शोक-संताप से पीड़ित हो जायगी, इसमें संशय नहीं है॥ १९॥
तदहं भाग्यरहितो लुप्तधर्मार्थसंग्रहः।
रोषदोषपरीतात्मा व्यक्तं लोकविनाशनः॥२०॥
‘अतः सीता की रक्षा न करने के कारण मैंने धर्म और अर्थ के संग्रह को नष्ट कर दिया, अतएव मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ। मेरा हृदय रोषदोष के वशीभूत हो गया है, इसलिये मैं अवश्य ही समस्त लोक का विनाशक हो गया हूँ—मुझे सम्पूर्ण जगत् के विनाश के पाप का भागी होना पड़ेगा’॥ २०॥
इति चिन्तयतस्तस्य निमित्तान्युपपेदिरे।
पूर्वमप्युपलब्धानि साक्षात् पुनरचिन्तयत्॥ २१॥
इस प्रकार चिन्ता में पड़े हुए हनुमान जी को कई शुभ शकुन दिखायी पड़े, जिनके अच्छे फलों का वे पहले भी प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके थे; अतः वे फिर इस प्रकार सोचने लगे— ॥२१॥
अथ वा चारुसर्वाङ्गी रक्षिता स्वेन तेजसा।
न नशिष्यति कल्याणी नाग्निरग्नौ प्रवर्तते॥२२॥
‘अथवा सम्भव है सर्वाङ्गसुन्दरी सीता अपने ही तेज से सुरक्षित हों। कल्याणी जनकनन्दिनी का नाश कदापि नहीं होगा; क्योंकि आग आग को नहीं जलाती है॥ २२॥
नहि धर्मात्मनस्तस्य भार्याममिततेजसः।
स्वचरित्राभिगुप्तां तां स्पष्टमर्हति पावकः॥२३॥
‘सीता अमित तेजस्वी धर्मात्मा भगवान् श्रीराम की पत्नी हैं। वे अपने चरित्र के बल से—पातिव्रत्य के प्रभाव से सुरक्षित हैं। आग उन्हें छू भी नहीं सकती। २३॥
नूनं रामप्रभावेण वैदेह्याः सुकृतेन च।
यन्मां दहनकायं नादहद्धव्यवाहनः॥२४॥
‘अवश्य श्रीराम के प्रभाव तथा विदेहनन्दिनी सीता के पुण्यबल से ही यह दाहक अग्नि मुझे नहीं जला सकी है॥२४॥
त्रयाणां भरतादीनां भ्रातॄणां देवता च या।
रामस्य च मनःकान्ता सा कथं विनशिष्यति॥२५॥
‘फिर जो भरत आदि तीनों भाइयों की आराध्य देवी और श्रीरामचन्द्रजी की हृदयवल्लभा हैं, वे आग से कैसे नष्ट हो सकेंगी॥२५॥
यद् वा दहनकर्मायं सर्वत्र प्रभुरव्ययः।
न मे दहति लाङ्गलं कथमार्यां प्रधक्ष्यति ॥२६॥
‘यह दाहक एवं अविनाशी अग्नि सर्वत्र अपना प्रभाव रखती है, सबको जला सकती है, तो भी यह जिनके प्रभाव से मेरी पूँछ को नहीं जला पाती है, उन्हीं साक्षात् माता जानकी को कैसे जला सकेगी?’ ॥ २६॥
पुनश्चाचिन्तयत् तत्र हनूमान् विस्मितस्तदा।
हिरण्यनाभस्य गिरे लमध्ये प्रदर्शनम्॥२७॥
उस समय हनुमान जी ने वहाँ विस्मित होकर पुनः उस घटना को स्मरण किया, जब कि समुद्र के जल में उन्हें मैनाक पर्वत का दर्शन हुआ था॥ २७॥
तपसा सत्यवाक्येन अनन्यत्वाच्च भर्तरि।
असौ विनिर्दहेदग्निं न तामग्निः प्रधक्ष्यति ॥२८॥
वे सोचने लगे—’तपस्या, सत्यभाषण तथा पति में अनन्य भक्ति के कारण आर्या सीता ही अग्नि को जला सकती हैं, आग उन्हें नहीं जला सकती’ ॥ २८॥
स तथा चिन्तयंस्तत्र देव्या धर्मपरिग्रहम्।
शुश्राव हनुमांस्तत्र चारणानां महात्मनाम्॥२९॥
इस प्रकार भगवती सीता की धर्मपरायणता का विचार करते हुए हनुमान जी ने वहाँ महात्मा चारणों के मुख से निकली हुई ये बातें सुनीं— ॥ २९॥
अहो खलु कृतं कर्म दुर्विगाहं हनूमता।
अग्निं विसृजता तीक्ष्णं भीमं राक्षससद्मनि॥३०॥
‘अहो! हनुमान जी ने राक्षसों के घरों में दुःसह एवं भयंकर आग लगाकर बड़ा ही अद्भुत और दुष्कर कार्य किया है॥
प्रपलायितरक्षःस्त्रीबालवृद्धसमाकुला।
जनकोलाहलाध्माता क्रन्दन्तीवाद्रिकन्दरैः॥३१॥
दग्धेयं नगरी लङ्का साट्टप्राकारतोरणा।
जानकी न च दग्धेति विस्मयोऽद्भुत एव नः॥
‘घर में से भागे हुए राक्षसों, स्त्रियों, बालकों और वृद्धों से भरी हुई सारी लङ्का जन-कोलाहल से परिपूर्ण हो चीत्कार करती हुई-सी जान पड़ती है। पर्वत की कन्दराओं, अटारियों, परकोटों और नगर के फाटकोंसहित यह सारी लङ्का नगरी दग्ध हो गयी; परंतु सीता पर आँच नहीं आयी। यह हमारे लिये बड़ी अद्भुत और आश्चर्य की बात है’ ॥ ३१-३२॥
इति शुश्राव हनुमान् वाचं ताममृतोपमाम्।
बभूव चास्य मनसो हर्षस्तत्कालसम्भवः॥३३॥
हनुमान जी ने जब चारणों के कहे हुए ये अमृत के समान मधुर वचन सुने, तब उनके हृदय में तत्काल हर्षोल्लास छा गया॥ ३३॥
स निमित्तैश्च दृष्टार्थैः कारणैश्च महागुणैः।
ऋषिवाक्यैश्च हनुमानभवत् प्रीतमानसः॥३४॥
अनेक बार के प्रत्यक्ष अनुभव किये हुए शुभ शकुनों, महान् गुणदायक कारणों तथा चारणों के कहे हुए पूर्वोक्त वचनों द्वारा सीताजी के जीवित होने का निश्चय करके हनुमान् जी के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई॥३४॥
ततः कपिः प्राप्तमनोरथार्थस्तामक्षतां राजसुतां विदित्वा।
प्रत्यक्षतस्तां पुनरेव दृष्ट्वा प्रतिप्रयाणाय मतिं चकार ॥ ३५॥
राजकुमारी सीता को कोई क्षति नहीं पहुँची है, यह जानकर कपिवर हनुमान जी ने अपना सम्पूर्ण मनोरथ सफल समझा और पुनः उनका प्रत्यक्ष दर्शन करके लौट जाने का विचार किया॥ ३५ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चपञ्चाशः सर्गः॥५५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५५॥