वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 56 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 56
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षट्पञ्चाशः सर्गः (सर्ग 56)
हनुमान जी का पुनः सीताजी से मिलकर लौटना और समुद्र को लाँघना
ततस्तु शिंशपामूले जानकी पर्यवस्थिताम्।
अभिवाद्याब्रवीद् दिष्ट्या पश्यामि त्वामिहाक्षताम्॥१॥
तदनन्तर हनुमान जी अशोक वृक्ष के नीचे बैठी हुई जानकीजी के पास गये और उन्हें प्रणाम करके बोले —’आर्ये! सौभाग्य की बात है कि इस समय मैं आपको सकुशल देख रहा हूँ’॥१॥
ततस्तं प्रस्थितं सीता वीक्षमाणा पुनः पुनः।
भर्तुः स्नेहान्विता वाक्यं हनूमन्तमभाषत॥२॥
सीता अपने पति के स्नेह में डूबी हुई थीं वे हनुमान् जी को प्रस्थान करने के लिये उद्यत जान उन्हें बारम्बार देखती हुई बोलीं- ॥२॥
यदि त्वं मन्यसे तात वसैकाहमिहानघ।
क्वचित् सुसंवृते देशे विश्रान्तः श्वो गमिष्यसि॥३॥
‘तात! निष्पाप वानरवीर! यदि तुम उचित समझो तो एक दिन और यहाँ किसी गुप्त स्थान में ठहर जाओ, आज विश्राम करके कल चले जाना॥३॥
मम चैवाल्पभाग्यायाः सांनिध्यात् तव वानर।
शोकस्यास्याप्रमेयस्य मुहूर्तं स्यादपि क्षयः॥४॥
‘वानरप्रवर! तुम्हारे निकट रहने से मुझ मन्दभागिनी का अपार शोक भी थोड़ी देर के लिये कम हो जायगा॥४॥
गते हि हरिशार्दूल पुनः सम्प्राप्तये त्वयि।
प्राणेष्वपि न विश्वासो मम वानरपुङ्गव॥५॥
‘कपिश्रेष्ठ! वानरशिरोमणे! जब तुम चले जाओगे, तब फिर तुम्हारे आने तक मेरे प्राण रहेंगे या नहीं, इसका कोई विश्वास नहीं है॥५॥
अदर्शनं च ते वीर भूयो मां दारयिष्यति।
दुःखाद् दुःखतरं प्राप्तां दुर्मनःशोककर्शिताम्॥६॥
‘वीर! मुझ पर दुःख-पर-दुःख पड़ते गये हैं। मैं मानसिक शोक से दिन-दिन दुर्बल होती जा रही हूँ। अब तुम्हारा दर्शन न होना मेरे हृदय को और भी विदीर्ण करता रहेगा॥६॥
अयं च वीर संदेहस्तिष्ठतीव ममाग्रतः।
सुमहत्सु सहायेषु हर्युक्षेषु महाबलः॥७॥
कथं नु खलु दुष्पारं संतरिष्यति सागरम्।
तानि हयृक्षसैन्यानि तौ वा नरवरात्मजौ॥८॥
‘वीर! मेरे सामने यह संदेह अभी तक बना ही हुआ है कि बड़े-बड़े वानरों और रीछों के सहायक होने पर भी महाबली सुग्रीव इस दुर्लङ्घय समुद्र को कैसे पार करेंगे? उनकी सेना के वे वानर और भालू तथा वे दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण भी इस महासागर को कैसे लाँघ सकेंगे?॥
त्रयाणामेव भूतानां सागरस्यापि लङ्घने।
शक्तिः स्याद् वैनतेयस्य तव वा मारुतस्य वा॥९॥
‘तीन ही प्राणियों में इस समुद्र को लाँघने की शक्ति है —तुम में, गरुड़ में अथवा वायु देवता में॥९॥
तदत्र कार्यनिर्बन्धे समुत्पन्ने दुरासदे।
किं पश्यसि समाधानं त्वं हि कार्यविशारदः॥१०॥
‘इस कार्यसम्बन्धी दुष्कर प्रतिबन्ध के उपस्थित होने पर तुम्हें क्या समाधान दिखायी देता है ? बताओ, क्योंकि तुम कार्यकुशल हो॥ १० ॥
काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने।
पर्याप्तः परवीरघ्न यशस्यस्ते फलोदयः॥११॥
‘शत्रुवीरों का संहार करने वाले कपिश्रेष्ठ! इसमें संदेह नहीं कि इस कार्य को सिद्ध करने में तुम अकेले ही पूर्ण समर्थ हो; परंतु तुम्हारे द्वारा जो विजयरूप फल की प्राप्ति होगी, उससे तुम्हारा ही यश बढ़ेगा, भगवान् श्रीराम का नहीं॥ ११॥
बलैस्तु संकुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दनः।
मां नयेद् यदि काकुत्स्थस्तत् तस्य सदृशं भवेत्॥१२॥
‘परंतु शत्रुसेना को पीड़ा देने वाले श्रीरामचन्द्रजी यदि लङ्का को अपनी सेना से पददलित करके मुझे यहाँ से ले चलें तो वह उनके योग्य पराक्रम होगा। १२॥
तद् यथा तस्य विक्रान्तमनुरूपं महात्मनः।
भवत्याहवशूरस्य तथा त्वमुपपादय॥१३॥
‘अतः तुम ऐसा उपाय करो, जिससे युद्धवीर महात्मा श्रीरामचन्द्रजी का उनके योग्य पराक्रम प्रकट हो’॥ १३॥
तदर्थोपहितं वाक्यं प्रश्रितं हेतुसंहितम्।
निशम्य हनुमान् वीरो वाक्यमुत्तरमब्रवीत्॥१४॥
सीताजी की यह बात स्नेहयुक्त तथा विशेष अभिप्राय से भरी हुई थी। इसे सुनकर वीर हनुमान् ने इस प्रकार उत्तर दिया— ॥१४॥
देवि हयृक्षसैन्यानामीश्वरः प्लवतां वरः।
सुग्रीवः सत्त्वसम्पन्नस्तवार्थे कृतनिश्चयः॥१५॥
‘देवि! वानर और भालुओं की सेनाओं के स्वामी कपिश्रेष्ठ सुग्रीव बड़े शक्तिशाली पुरुष हैं। वे तुम्हारे उद्धार के लिये प्रतिज्ञा कर चुके हैं॥ १५॥
स वानरसहस्राणां कोटीभिरभिसंवृतः।
क्षिप्रमेष्यति वैदेहि सुग्रीवः प्लवगाधिपः॥१६॥
‘विदेहनन्दिनि! अतः वे वानरराज सुग्रीव सहस्रों कोटि वानरों से घिरे हुए तुरंत यहाँ आयेंगे॥१६॥
तौ च वीरौ नरवरौ सहितौ रामलक्ष्मणौ।
आगम्य नगरी लङ्कां सायकैर्विधमिष्यतः॥१७॥
‘साथ ही वे दोनों वीर नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण भी एक साथ आकर अपने सायकों से इस लङ्कापुरी का विध्वंस कर डालेंगे॥ १७॥
सगणं राक्षसं हत्वा नचिराद् रघुनन्दनः।
त्वामादाय वरारोहे स्वां पुरीं प्रति यास्यति॥१८॥
‘वरारोहे! राक्षसराज रावण को उसके सैनिकोंसहित काल के गालमें डालकर श्रीरघुनाथजी आपको साथ ले शीघ्र ही अपनी पुरी को पधारेंगे॥ १८॥
समाश्वसिहि भद्रं ते भव त्वं कालकाङ्किणी।
क्षिप्रं द्रक्ष्यसि रामेण निहतं रावणं रणे॥१९॥
‘इसलिये आप धैर्य धारण करें। आपका भला हो आप समय की प्रतीक्षा करें। रावण शीघ्र ही रणभूमि में श्रीराम के हाथ से मारा जायगा, यह आप अपनी आँखों देखेंगी॥
निहते राक्षसेन्द्रे च सपुत्रामात्यबान्धवे।
त्वं समेष्यसि रामेण शशाङ्केनेव रोहिणी॥२०॥
‘पुत्र, मन्त्री और भाई-बन्धुओंसहित राक्षसराज रावण के मारे जाने पर आप श्रीरामचन्द्रजी के साथ उसी प्रकार मिलेंगी, जैसे रोहिणी चन्द्रमा से मिलती है॥२०॥
क्षिप्रमेष्यति काकुत्स्थो हयृक्षप्रवरैर्युतः।
यस्ते युधि विजित्यारीञ्छोकं व्यपनयिष्यति॥२१॥
‘वानरों और भालुओं के प्रमुख वीरों के साथ श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र ही यहाँ पधारेंगे और युद्ध में शत्रुओं को जीतकर आपका सारा शोक दूर कर देंगे’ ॥ २१॥
एवमाश्वास्य वैदेहीं हनूमान् मारुतात्मजः।
गमनाय मतिं कृत्वा वैदेहीमभ्यवादयत्॥२२॥
विदेहनन्दिनी सीता को इस प्रकार आश्वासन दे वहाँ से जाने का विचार करके पवनकुमार हनुमान् ने उन्हें प्रणाम किया॥२२॥
राक्षसान् प्रवरान् हत्वा नाम विश्राव्य चात्मनः।
समाश्वास्य च वैदेहीं दर्शयित्वा परं बलम्॥२३॥
नगरीमाकुलां कृत्वा वञ्चयित्वा च रावणम्।
दर्शयित्वा बलं घोरं वैदेहीमभिवाद्य च॥ २४॥
प्रतिगन्तुं मनश्चक्रे पुनर्मध्येन सागरम्।
वे बड़े-बड़े राक्षसों को मारकर अपने महान् बल का परिचय दे वहाँ ख्याति प्राप्त कर चुके थे। उन्होंने सीता को आश्वासन दे, लङ्कापुरी को व्याकुल करके, रावण को चकमा देकर, उसे अपना भयानक बल दिखा, वैदेही को प्रणाम करके पुनः समुद्र के बीच से होकर लौट जाने का विचार किया॥ २३-२४ १/२ ॥
ततः स कपिशार्दूलः स्वामिसंदर्शनोत्सुकः॥२५॥
आरुरोह गिरिश्रेष्ठमरिष्टमरिमर्दनः।
(अब यहाँ उनके लिये कोई कार्य बाकी नहीं रह गया था; अतः) अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो वे शत्रुमर्दन कपिश्रेष्ठ हनुमान् पर्वतों में उत्तम अरिष्टगिरि पर चढ़ गये॥ २५ १/२॥
तुङ्गपद्मकजुष्टाभिर्नीलाभिर्वनराजिभिः ॥२६॥
सोत्तरीयमिवाम्भोदैः शृङ्गान्तरविलम्बिभिः।
ऊँचे-ऊँचे पद्मकों-पद्म के समान वर्णवाले वृक्षों से सेवित नीली वनश्रेणियाँ मानो उस पर्वत का परिधान वस्त्र थीं। शिखरों पर लटके हुए श्याम मेघ उसके लिये उत्तरीय वस्त्र-(चादर-)से प्रतीत होते थे॥ २६ १/२॥
बोध्यमानमिव प्रीत्या दिवाकरकरैः शुभैः॥२७॥
उन्मिषन्तमिवोधूतैर्लोचनैरिव धातुभिः।
तोयौघनिःस्वनैर्मन्द्रैः प्राधीतमिव पर्वतम्॥२८॥
सूर्य की कल्याणमयी किरणें प्रेमपूर्वक उसे जगाती सी जान पड़ती थीं। नाना प्रकार के धातु मानो उसके खुले हुए नेत्र थे, जिनसे वह सब कुछ देखता हुआ सा स्थित था। पर्वतीय नदियों की जलराशि के गम्भीर घोष से ऐसा लगता था, मानो वह पर्वत सस्वर वेदपाठ कर रहा हो॥२७-२८॥
प्रगीतमिव विस्पष्टं नानाप्रस्रवणस्वनैः।
देवदारुभिरुचूतैरूव॑बाहुमिव स्थितम्॥ २९॥
अनेकानेक झरनों के कलकल नाद से वह अरिष्टगिरि स्पष्टतया गीत-सा गा रहा था। ऊँचे-ऊँचे देवदारुवृक्षों के कारण मानो हाथ ऊपर उठाये खड़ा था॥ २९॥
प्रपातजलनिर्घोषैः प्राक्रुष्टमिव सर्वतः।
वेपमानमिव श्यामैः कम्पमानैः शरदनैः॥३०॥
सब ओर जल-प्रपातों की गम्भीर ध्वनि से व्याप्त होने के कारण चिल्लाता या हल्ला मचाता-सा जान पड़ता था। झूमते हुए सरकंडों के श्याम वनों से वह काँपता-सा प्रतीत होता था॥३०॥
वेणुभिर्मारुतोद्धृतैः कूजन्तमिव कीचकैः।
निःश्वसन्तमिवामर्षाद घोरैराशीविषोत्तमैः॥३१॥
वायु के झोंके खाकर हिलते और मधुरध्वनि करते बाँसों से उपलक्षित होने वाला वह पर्वत मानो बाँसुरी बजा रहा था। भयानक विषधर सो के फुकार से लंबी साँस खींचता-सा जान पड़ता था॥ ३१॥
नीहारकृतगम्भीरैया॑यन्तमिव गह्वरैः।
मेघपादनिभैः पादैः प्रक्रान्तमिव सर्वतः॥३२॥
कुहरे के कारण गहरी प्रतीत होने वाली निश्चल गुफाओं द्वारा वह ध्यान-सा कर रहा था। उठते हुए मेघों के समान शोभा पाने वाले पार्श्ववर्ती पर्वतों द्वारा सब ओर विचरता-सा प्रतीत होता था॥ ३२ ॥
जृम्भमाणमिवाकाशे शिखरैरभ्रमालिभिः।
कूटैश्च बहुधा कीर्णं शोभितं बहुकन्दरैः॥३३॥
मेघमालाओं से अलंकृत शिखरों द्वारा वह आकाश में अंगड़ाई-सी ले रहा था। अनेकानेक शृङ्गों से व्याप्त तथा बहुत-सी कन्दराओं से सुशोभित था॥३३॥
सालतालैश्च कर्णैश्च वंशैश्च बहुभिर्वृतम्।
लतावितानैर्विततैः पुष्पवद्भिरलंकृतम्॥३४॥
साल, ताल, कर्ण और बहुसंख्यक बाँस के वृक्ष उसे सब ओर से घेरे हुए थे। फूलों के भारसे लदे और फैले हुए लता-वितान उस पर्वत के अलंकार थे॥ ३४॥
नानामृगगणैः कीर्णं धातुनिष्यन्दभूषितम्।
बहुप्रस्रवणोपेतं शिलासंचयसंकटम्॥३५॥
नाना प्रकार के पशु वहाँ सब ओर भरे हुए थे। विविध धातुओं के पिघलने से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह पर्वत बहुसंख्यक झरनों से विभूषित तथा राशि-राशि शिलाओं से भरा हुआ था॥ ३५॥
महर्षियक्षगन्धर्वकिंनरोरगसेवितम्।
लतापादपसम्बाधं सिंहाधिष्ठितकन्दरम्॥३६॥
महर्षि, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और नागगण वहाँ निवास करते थे। लताओं और वृक्षों द्वारा वह सब ओर से आच्छादित था। उसकी कन्दराओं में सिंह दहाड़ रहे थे।
व्याघ्रादिभिः समाकीर्णं स्वादुमूलफलद्रुमम्।
आरुरोहानिलसुतः पर्वतं प्लवगोत्तमः॥ ३७॥
रामदर्शनशीघ्रण प्रहर्षेणाभिचोदितः।
व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु भी वहाँ सब ओर फैले हुए थे। स्वादिष्ट फलों से लदे हुए वृक्ष और मधुर कन्द-मूल आदि की वहाँ बहुतायत थी। ऐसे रमणीय पर्वत पर वानरशिरोमणि पवनकुमार हनुमान जी श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की शीघ्रता और अत्यन्त हर्ष से प्रेरित होकर चढ़ गये॥ ३७ १/२॥
तेन पादतलक्रान्ता रम्येषु गिरिसानुषु॥ ३८॥
सघोषाः समशीर्यन्त शिलाश्चूर्णीकृतास्ततः।
उस पर्वत के रमणीय शिखरों पर जो शिलाएँ थीं, वे उनके पैरों के आघात से भारी आवाज के साथ चूर-चूर होकर बिखर जाती थीं॥ ३८ १/२॥
स तमारुह्य शैलेन्द्रं व्यवर्धत महाकपिः॥३९॥
दक्षिणादुत्तरं पारं प्रार्थयँल्लवणाम्भसः।
उस शैलराज अरिष्ट पर आरूढ़ हो महाकपि हनुमान जी ने समुद्र के दक्षिण तट से उत्तर तटपर जाने की इच्छा से अपने शरीर को बहुत बड़ा बना लिया॥ ३९ १/२॥
अधिरुह्य ततो वीरः पर्वतं पवनात्मजः॥४०॥
ददर्श सागरं भीमं भीमोरगनिषेवितम्।
उस पर्वत पर आरूढ़ होने के पश्चात् वीरवर पवनकुमार ने भयानक साँसे सेवित उस भीषण महासागर की ओर दृष्टिपात किया॥ ४० १/२॥
स मारुत इवाकाशं मारुतस्यात्मसम्भवः॥४१॥
प्रपेदे हरिशार्दूलो दक्षिणादुत्तरां दिशम्।
वायुदेवता के औरस पुत्र कपिश्रेष्ठ हनुमान् जैसे वायु आकाश में तीव्रगति से प्रवाहित होती है, उसी प्रकार दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बड़े वेग से (उछलकर) चले॥ ४१ १/२॥
स तदा पीडितस्तेन कपिना पर्वतोत्तमः॥४२॥
ररास विविधैर्भूतैः प्राविशद् वसुधातलम्।
कम्पमानैश्च शिखरैः पतद्भिरपि च द्रुमैः॥४३॥
हनुमान जी के पैरों का दबाव पड़ने के कारण उस श्रेष्ठ पर्वत से बड़ी भयंकर आवाज हुई और वह अपने काँपते हुए शिखरों, टूटकर गिरते हुए वृक्षों तथा भाँति-भाँति के प्राणियों सहित तत्काल धरती में धंस गया॥
तस्योरुवेगोन्मथिताः पादपाः पुष्पशालिनः।
निपेतुर्भूतले भग्नाः शक्रायुधहता इव॥४४॥
उनके महान् वेग से कम्पित हो फूलों से लदे हुए बहुसंख्यक वृक्ष इस प्रकार पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो उन्हें वज्र मार गया हो॥४४॥
कन्दरोदरसंस्थानां पीडितानां महौजसाम्।
सिंहानां निनदो भीमो नभो भिन्दन् हि शुश्रुवे॥४५॥
उस समय उस पर्वत की कन्दराओं में रहकर दबे हुए महाबली सिंहों का भयंकर नाद आकाश को फाड़ता हुआ-सा सुनायी दे रहा था॥ ४५ ॥
त्रस्तव्याविद्धवसना व्याकुलीकृतभूषणाः।
विद्याधर्यः समुत्पेतुः सहसा धरणीधरात्॥४६॥
भयके कारण जिनके वस्त्र ढीले पड़ गये थे और आभूषण उलट-पलट गये थे, वे विद्याधरियाँ सहसा उस पर्वतसे ऊपरकी ओर उड़ चलीं॥ ४६॥
अतिप्रमाणा बलिनो दीप्तजिह्वा महाविषाः।
निपीडितशिरोग्रीवा व्यवेष्टन्त महाहयः॥४७॥
बड़े-बड़े आकार और चमकीली जीभवाले महाविषैले बलवान् सर्प अपने फन तथा गले को दबाकर कुण्डलाकार हो गये॥४७॥
किंनरोरगगन्धर्वयक्षविद्याधरास्तथा।
पीडितं तं नगवरं त्यक्त्वा गगनमास्थिताः॥४८॥
किन्नर, नाग, गन्धर्व, यक्ष और विद्याधर उस धंसते हुए पर्वत को छोड़कर आकाश में स्थित हो गये॥४८॥
स च भूमिधरः श्रीमान् बलिना तेन पीडितः।
सवृक्षशिखरोदनः प्रविवेश रसातलम्॥४९॥
बलवान् हनुमान जी के वेग से दबकर वह शोभाशाली महीधर वृक्षों और ऊँचे शिखरोंसहित रसातल में चला गया॥ ४९॥
दशयोजनविस्तारस्त्रिंशद्योजनमुच्छ्रितः।
धरण्यां समतां यातः स बभूव धराधरः॥५०॥
अरिष्ट पर्वत तीस योजन ऊँचा और दस योजन चौड़ा था। फिर भी उनके पैरों से दबकर भूमि के बराबर हो गया॥५०॥
स लिलयिषुर्भामं सलीलं लवणार्णवम्।
कल्लोलास्फालवेलान्तमुत्पपात नभो हरिः॥५१॥
जिसकी ऊँची-ऊँची तरङ्गे उठकर अपने किनारों का चुम्बन करती थीं, उस खारे पानी के भयानक समुद्र को लीलापूर्वक लाँघ जाने की इच्छा से हनुमान् जी आकाश में उड़ चले॥५१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः ॥५६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५६॥