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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 57 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 57

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
सप्तपञ्चाशः सर्गः (सर्ग 57)

हनुमान जी का समद्र को लाँघकर जाम्बवान् और अङ्गद आदि सुहृदों से मिलना

 

आप्लुत्य च महावेगः पक्षवानिव पर्वतः।
भुजङ्गयक्षगन्धर्वप्रबुद्धकमलोत्पलम्॥१॥
स चन्द्रकुमुदं रम्यं सार्ककारण्डवं शुभम्।
तिष्यश्रवणकादम्बमभ्रशैवलशाद्रलम्॥२॥
पुनर्वसुमहामीनं लोहिताङ्गमहाग्रहम्।
ऐरावतमहाद्वीपं स्वातीहंसविलासितम्॥३॥
वातसंघातजालोमिचन्द्रांशुशिशिराम्बुमत्।
हनूमानपरिश्रान्तः पुप्लुवे गगनार्णवम्॥४॥

पङ्खधारी पर्वत के समान महान् वेगशाली हनुमान् जी बिना थके-माँदे उस सुन्दर एवं रमणीय आकाशरूपी समुद्र को पार करने लगे, जिसमें नाग, यक्ष और गन्धर्व खिले हुए कमल और उत्पल के समान थे। चन्द्रमा कुमुद और सूर्य जलकुक्कुट के समान थे। पुष्य और श्रवण नक्षत्र कलहंस तथा बादल सेवार और घास के तुल्य थे। पुनर्वसु विशाल मत्स्य और मंगल बड़े भारी ग्राह के सदृश थे। ऐरावत हाथी वहाँ महान् द्वीप-सा प्रतीत होता था। वह आकाशरूपी समुद्र स्वाती रूपी हंस के विलास से सुशोभित था तथा वायुसमूहरूप तरङ्गों और चन्द्रमा की किरणरूप शीतल जल से भरा हुआ था॥१ –४॥

ग्रसमान इवाकाशं ताराधिपमिवोल्लिखन्।
हरन्निव सनक्षत्रं गगनं सार्कमण्डलम्॥५॥
अपारमपरिश्रान्तश्चाम्बुधिं समगाहत।
हनूमान् मेघजालानि विकर्षन्निव गच्छति॥६॥

हनुमान जी आकाश को अपना ग्रास बनाते हुए, चन्द्रमण्डल को नखों से खरोंचते हुए, नक्षत्रों तथा सूर्यमण्डलसहित अन्तरिक्ष को समेटते हुए और बादलों के समूह को खींचते हुए-से अनायास ही अपार महासागर के पार चले जा रहे थे॥५-६॥

पाण्डुरारुणवर्णानि नीलमाञ्जिष्ठकानि च।
हरितारुणवर्णानि महाभ्राणि चकाशिरे॥७॥

उस समय आसमान में सफेद, लाल, नीले, मंजीठ के रंगके, हरे और अरुण वर्ण के बड़े-बड़े मेघ शोभा पा रहे थे॥७॥

प्रविशन्नभ्रजालानि निष्क्रमंश्च पुनः पुनः।
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च चन्द्रमा इव दृश्यते॥८॥

वे कभी उन मेघ-समूहों में प्रवेश करते और कभी बाहर निकलते थे। बारम्बार ऐसा करते हुए हनुमान् जी छिपते और प्रकाशित होते हुए चन्द्रमा के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे॥८॥

विविधाभ्रघनापन्नगोचरो धवलाम्बरः।
दृश्यादृश्यतनुर्वीरस्तथा चन्द्रायतेऽम्बरे॥९॥

नाना प्रकार के मेघों की घटाओं के भीतर होकर जाते हुए धवलाम्बरधारी वीरवर हनुमान जी का शरीर कभी दीखता था और कभी अदृश्य हो जाता था; अतः वे आकाश में बादलों की आड़ में छिपते और प्रकाशित होते चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे॥९॥

ताायमाणो गगने स बभौ वायुनन्दनः।
दारयन् मेघवृन्दानि निष्पतंश्च पुनः पुनः॥१०॥

बारम्बार मेघ-समूहों को विदीर्ण करने और उनमें होकर निकलने के कारण वे पवनकुमार हनुमान् आकाश में गरुड़ के समान प्रतीत होते थे॥ १० ॥

नदन् नादेन महता मेघस्वनमहास्वनः।
प्रवरान् राक्षसान् हत्वा नाम विश्राव्य चात्मनः॥११॥
आकुलां नगरीं कृत्वा व्यथयित्वा च रावणम्।
अर्दयित्वा महावीरान् वैदेहीमभिवाद्य च॥१२॥
आजगाम महातेजाः पुनर्मध्येन सागरम्।

इस प्रकार महातेजस्वी हनुमान् अपने महान् सिंहनाद से मेघों की गम्भीर गर्जना को भी मात करते हुए आगे बढ़ रहे थे। वे प्रमुख राक्षसों को मारकर अपना नाम प्रसिद्ध कर चुके थे। बड़े-बड़े वीरों को रौंदकर उन्होंने लङ्कानगरी को व्याकुल तथा रावण को व्यथित कर दिया था। तत्पश्चात् विदेहनन्दिनी सीता को नमस्कार करके वे चले और तीव्र गति से पुनः समुद्र के मध्यभाग में आ पहुँचे॥ ११-१२ १/२॥

पर्वतेन्द्रं सुनाभं च समुपस्पृश्य वीर्यवान्॥१३॥
ज्यामुक्त इव नाराचो महावेगोऽभ्युपागमत्।

वहाँ पर्वतराज सुनाभ (मैनाक)-का स्पर्श करके वे पराक्रमी एवं महान् वेगशाली वानरवीर धनुष से छूटे हुए बाण की भाँति आगे बढ़ गये॥ १३ १/२ ॥

स किंचिदारात् सम्प्राप्तः समालोक्य महागिरिम्॥१४॥
महेन्द्रं मेघसंकाशं ननाद स महाकपिः।

उत्तर तट के कुछ निकट पहुँचने पर महागिरि महेन्द्र पर दृष्टि पड़ते ही उन महाकपि ने मेघ के समान बड़े जोर से गर्जना की॥ १४ १/२॥

स पूरयामास कपिर्दिशो दश समन्ततः॥१५॥
नदन् नादेन महता मेघस्वनमहास्वनः।

उस समय मेघ की भाँति गम्भीर स्वर से बड़ी भारी गर्जना करके उन वानरवीर ने सब ओर से दसों दिशाओं को कोलाहलपूर्ण कर दिया॥ १५ १/२॥

स तं देशमनुप्राप्तः सुहृद्दर्शनलालसः॥१६॥
ननाद सुमहानादं लागलं चाप्यकम्पयत्।

फिर वे अपने मित्रों को देखने के लिये उत्सुक होकर उनके विश्रामस्थान की ओर बढ़े और पूँछ हिलाने एवं जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे॥ १६ १/२॥

तस्य नानद्यमानस्य सुपर्णाचरिते पथि॥१७॥
फलतीवास्य घोषेण गगनं सार्कमण्डलम्।

जहाँ गरुड़ चलते हैं, उसी मार्ग पर बारम्बार सिंहनाद करते हुए हनुमान जी के गम्भीर घोष से सूर्यमण्डलसहित आकाश मानो फटा जा रहा था। १७ १/२॥

ये तु तत्रोत्तरे कूले समुद्रस्य महाबलाः॥१८॥
पूर्वं संविष्ठिताः शूरा वायुपुत्रदिदृक्षवः।
महतो वायुनुन्नस्य तोयदस्येव निःस्वनम्।
शुश्रुवुस्ते तदा घोषमूरुवेगं हनूमतः॥१९॥

उस समय वायुपुत्र हनुमान् के दर्शन की इच्छा से जो शूरवीर महाबली वानर समुद्र के उत्तर तट पर पहले से ही बैठे थे, उन्होंने वायु से टकराये हुए महान् मेघ की गर्जना के समान हनुमान जी का जोर-जोर से सिंहनाद सुना॥ १८-१९॥

ते दीनमनसः सर्वे शुश्रुवुः काननौकसः।
वानरेन्द्रस्य निर्घोषं पर्जन्यनिनदोपमम्॥२०॥

अनिष्ट की आशङ्का से जिनके मन में दीनता छा गयी थी, उन समस्त वनवासी वानरों ने उन वानरश्रेष्ठ हनुमान् का मेघ-गर्जना के समान सिंहनाद सुना। २०॥

निशम्य नदतो नादं वानरास्ते समन्ततः।
बभूवुरुत्सुकाः सर्वे सुहृद्दर्शनकाङ्क्षिणः॥२१॥

गर्जते हुए पवनकुमार का वह सिंहनाद सुनकर सब ओर बैठे हुए वे समस्त वानर अपने सुहृद् हनुमान् जी को देखने की अभिलाषा से उत्कण्ठित हो गये॥ २१॥

जाम्बवान् स हरिश्रेष्ठः प्रीतिसंहृष्टमानसः।
उपामन्त्र्य हरीन् सर्वानिदं वचनमब्रवीत्॥२२॥

वानर-भालुओं में श्रेष्ठ जाम्बवान् के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हर्षसे खिल उठे और सब वानरों को निकट बुलाकर इस प्रकार बोले- ॥ २२॥

सर्वथा कृतकार्योऽसौ हनूमान् नात्र संशयः।
न ह्यस्याकृतकार्यस्य नाद एवंविधो भवेत्॥२३॥

‘इसमें संदेह नहीं कि हनुमान जी सब प्रकार से अपना कार्य सिद्ध करके आ रहे हैं। कृतकार्य हुए बिना इनकी ऐसी गर्जना नहीं हो सकती॥ २३॥

तस्य बाहूरुवेगं च निनादं च महात्मनः।
निशम्य हरयो हृष्टाः समुत्पेतुर्यतस्ततः॥२४॥

महात्मा हनुमान जी की भुजाओं और जाँघों का महान् वेग देख तथा उनका सिंहनाद सुन सभी वानर हर्ष में भरकर इधर-उधर उछलने-कूदने लगे॥ २४ ॥

ते नगाग्रान्नगाग्राणि शिखराच्छिखराणि च।
प्रहृष्टाः समपद्यन्त हनूमन्तं दिदृक्षवः॥२५॥

हनुमान जी को देखने की इच्छा से वे प्रसन्नतापूर्वक एक वृक्ष से दूसरे वृक्षों पर तथा एक शिखर से दूसरे शिखरों पर चढ़ने लगे॥ २५ ॥

ते प्रीताः पादपाग्रेषु गृह्य शाखामवस्थिताः।
वासांसि च प्रकाशानि समाविध्यन्त वानराः॥२६॥

वृक्षों की सबसे ऊँची शाखापर खड़े होकर वे प्रीतियुक्त वानर अपने स्पष्ट दिखायी देने वाले वस्त्र हिलाने लगे॥ २६॥

गिरिगह्वरसंलीनो यथा गर्जति मारुतः।
एवं जगर्ज बलवान् हनूमान् मारुतात्मजः॥२७॥

जैसे पर्वत की गुफाओं में अवरुद्ध हुई वायु बड़े जोर से शब्द करती है, उसी प्रकार बलवान् पवनकुमार हनुमान् ने गर्जना की॥ २७॥

तमभ्रघनसंकाशमापतन्तं महाकपिम्।
दृष्ट्वा ते वानराः सर्वे तस्थुः प्राञ्जलयस्तदा॥२८॥

मेघों की घटा के समान पास आते हुए महाकपि हनुमान् को देखकर वे सब वानर उस समय हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ २८॥

ततस्तु वेगवान् वीरो गिरेर्गिरिनिभः कपिः।
निपपात गिरेस्तस्य शिखरे पादपाकुले॥२९॥

तत्पश्चात् पर्वतके समान विशाल शरीरवाले वेगशाली वीर वानर हनुमान् जो अरिष्ट पर्वतसे उछलकर चले थे, वृक्षोंसे भरे हुए महेन्द्र गिरिके शिखरपर कूद पड़े।

हर्षेणापूर्यमाणोऽसौ रम्ये पर्वतनिर्झरे।
छिन्नपक्ष इवाकाशात् पपात धरणीधरः॥३०॥

हर्ष से भरे हुए हनुमान जी पर्वत के रमणीय झरने के निकट पंख कटे हुए पर्वत के समान आकाश से नीचे आ गये॥ ३०॥

ततस्ते प्रीतमनसः सर्वे वानरपुङ्गवाः।
हनूमन्तं महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे॥३१॥

उस समय वे सभी श्रेष्ठ वानर प्रसन्नचित्त हो महात्मा हनुमान जी को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये॥३१॥

परिवार्य च ते सर्वे परां प्रीतिमुपागताः।
प्रहृष्टवदनाः सर्वे तमागतमुपागमन्॥३२॥
उपायनानि चादाय मूलानि च फलानि च।
प्रत्यर्चयन् हरिश्रेष्ठं हरयो मारुतात्मजम्॥३३॥

उन्हें घेरकर खड़े होने से उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सब वानर प्रसन्नमुख होकर तुरंत के आये हुए पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान् के पास भाँति-भाँति की भेंट-सामग्री तथा फल-मूल लेकर आये और उनका स्वागत-सत्कार करने लगे। ३२-३३॥

विनेदुर्मुदिताः केचित् केचित् किलकिलां तथा।
हृष्टाः पादपशाखाश्च आनिन्युर्वानरर्षभाः॥३४॥

कोई आनन्दमग्न होकर गर्जने लगे, कोई किलकारियाँ भरने लगे और कितने ही श्रेष्ठ वानर हर्ष से भरकर हनुमान जी के बैठने के लिये वृक्षों की शाखाएँ तोड़ लाये॥

हनूमांस्तु गुरून् वृद्धाञ्जाम्बवत्प्रमुखांस्तदा।
कुमारमङ्गदं चैव सोऽवन्दत महाकपिः॥ ३५॥

महाकपि हनुमान जी ने जाम्बवान् आदि वृद्ध गुरुजनों तथा कुमार अङ्गद को प्रणाम किया॥ ३५ ॥ स

ताभ्यां पूजितः पूज्यः कपिभिश्च प्रसादितः।
दृष्टा देवीति विक्रान्तः संक्षेपेण न्यवेदयत्॥३६॥

फिर जाम्बवान् और अङ्गद ने भी आदरणीय हनुमान जी का आदर-सत्कार किया तथा दूसरे-दूसरे वानरों ने भी उनका सम्मान करके उनको संतुष्ट किया। तत्पश्चात् उन पराक्रमी वानरवीर ने संक्षेप में निवेदन किया—’मुझे सीतादेवी का दर्शन हो गया। ३६॥

निषसाद च हस्तेन गृहीत्वा वालिनः सुतम्।
रमणीये वनोद्देशे महेन्द्रस्य गिरेस्तदा ॥ ३७॥
हनूमानब्रवीत् पृष्टस्तदा तान् वानरर्षभान्।
अशोकवनिकासंस्था दृष्टा सा जनकात्मजा॥३८॥

तदनन्तर वालिकुमार अङ्गद का हाथ अपने हाथ में लेकर हनुमान् जी महेन्द्रगिरि के रमणीय वनप्रान्त में जा बैठे और सबके पूछने पर उन वानरशिरोमणियों से इस प्रकार बोले- ‘जनकनन्दिनी सीता लङ्का के अशोकवन में निवास करती हैं। वहीं मैंने उनका दर्शन किया है’।

रक्ष्यमाणा सुघोराभी राक्षसीभिरनिन्दिता।
एकवेणीधरा बाला रामदर्शनलालसा॥३९॥
उपवासपरिश्रान्ता मलिना जटिला कृशा।

‘अत्यन्त भयंकर आकारवाली राक्षसियाँ उनकी रखवाली करती हैं। साध्वी सीता बड़ी भोली-भाली हैं। वे एक वेणी धारण किये वहाँ रहती हैं और श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन के लिये बहुत ही उत्सुक हैं। उपवास के कारण बहुत थक गयी हैं, दुर्बल और मलिन हो रही हैं तथा उनके केश जटा के रूप में परिणत हो गये हैं’॥ ३९ १/२॥

ततो दृष्टेति वचनं महार्थममृतोपमम्॥४०॥
निशम्य मारुतेः सर्वे मुदिता वानराभवन्।

उस समय ‘सीता का दर्शन हो गया’ यह वचन वानरों को अमृत के समान प्रतीत हुआ। यह उनके महान् प्रयोजन की सिद्धि का सूचक था। हनुमान् जी के मुख से यह शुभ संवाद सुनकर सब वानर बड़े प्रसन्न हुए॥

क्ष्वेडन्त्यन्ये नदन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये महाबलाः॥४१॥
चक्रुः किलकिलामन्ये प्रतिगर्जन्ति चापरे।

कोई हर्षनाद और कोई सिंहनाद करने लगे। दूसरे महाबली वानर गर्जने लगे। कितने ही किलकारियाँ भरने लगे और दूसरे वानर एक की गर्जना के उत्तर में स्वयं भी गर्जना करने लगे॥ ४१ १/२॥

केचिदुच्छ्रितलाङ्गलाः प्रहृष्टाः कपिकुञ्जराः॥४२॥
आयताञ्चितदीर्घाणि लाङ्गलानि प्रविव्यधुः।

बहुत-से कपिकुञ्जर हर्ष से उल्लसित हो अपनी पूँछ ऊपर उठाकर नाचने लगे। कितने ही अपनी लम्बी और मोटी पूँछे घुमाने या हिलाने लगे॥ ४२ १/२॥

अपरे तु हनूमन्तं श्रीमन्तं वानरोत्तमम्॥४३॥
आप्लुत्य गिरिशृङ्गेषु संस्पृशन्ति स्म हर्षिताः।

कितने ही वानर हर्षोल्लास से भरकर छलाँगे भरते हुए पर्वत-शिखरों पर वानरशिरोमणि श्रीमान् हनुमान् को छूने लगे॥ ४३ १/२ ॥

उक्तवाक्यं हनूमन्तमङ्गदस्तु तदाब्रवीत्॥४४॥
सर्वेषां हरिवीराणां मध्ये वाचमनुत्तमाम्।

हनुमान जी की उपर्युक्त बात सुनकर अङ्गद ने उस समय समस्त वानरवीरों के बीच में यह परम उत्तम बात कही-|| ४४ १/२॥

सत्त्वे वीर्ये न ते कश्चित् समो वानर विद्यते॥४५॥
यदवप्लुत्य विस्तीर्णं सागरं पुनरागतः।

‘वानरश्रेष्ठ! बल और पराक्रम में तुम्हारे समान कोई नहीं है; क्योंकि तुम इस विशाल समुद्र को लाँघकर फिर इस पार लौट आये॥ ४५ १/२॥

जीवितस्य प्रदाता नस्त्वमेको वानरोत्तम॥४६॥
त्वत्प्रसादात् समेष्यामः सिद्धार्था राघवेण ह।

‘कपिशिरोमणे! एकमात्र तुम्हीं हमलोगों के जीवनदाता हो। तुम्हारे प्रसाद से ही हम सब लोग सफलमनोरथ होकर श्रीरामचन्द्रजी से मिलेंगे॥ ४६ १/२॥

अहो स्वामिनि ते भक्तिरहो वीर्यमहो धृतिः॥४७॥
दिष्ट्या दृष्टा त्वया देवी रामपत्नी यशस्विनी।
दिष्ट्या त्यक्ष्यति काकुत्स्थः शोकं सीतावियोगजम्॥४८॥

‘अपने स्वामी श्रीरघुनाथजी के प्रति तुम्हारी भक्ति अद्भुत है। तुम्हारा पराक्रम और धैर्य भी आश्चर्यजनक है। बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम श्रीरामचन्द्रजी की यशस्विनी पत्नी सीतादेवी का दर्शन कर आये, अब भगवान् श्रीराम सीता के वियोग से उत्पन्न हुए शोक को त्याग देंगे, यह भी सौभाग्य का ही विषय है’ ॥ ४७-४८॥

ततोऽङ्गदं हनूमन्तं जाम्बवन्तं च वानराः।
परिवार्य प्रमुदिता भेजिरे विपुलाः शिलाः॥४९॥
उपविष्टा गिरेस्तस्य शिलासु विपुलासु ते।
श्रोतुकामाः समुद्रस्य लङ्घनं वानरोत्तमाः॥५०॥
दर्शनं चापि लङ्कायाः सीताया रावणस्य च।
तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे हनूमददनोन्मुखाः॥५१॥

तत्पश्चात् सभी श्रेष्ठ वानर समुद्रलङ्घन, लङ्का,रावण एवं सीता के दर्शन का समाचार सुनने के लिये एकत्र हुए तथा अङ्गद, हनुमान् और जाम्बवान् को चारों ओर से घेरकर पर्वत की बड़ी-बड़ी शिलाओं पर आनन्दपूर्वक बैठ गये। वे सब-के-सब हाथ जोड़े हुए थे और उन सबकी आँखें हनुमान् जी के मुख पर लगी थीं॥ ४९-५१॥

तस्थौ तत्राङ्गदः श्रीमान् वानरैर्बहुभिर्वृतः।
उपास्यमानो विबुधैर्दिवि देवपतिर्यथा॥५२॥

जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग में देवताओं द्वारा सेवित होकर बैठते हैं, उसी प्रकार बहुतेरे वानरों से घिरे हुए श्रीमान् अङ्गद वहाँ बीच में विराजमान हुए॥५२॥

हनूमता कीर्तिमता यशस्विना तथाङ्गदेनाङ्गदनद्धबाहुना।
मुदा तदाध्यासितमुन्नतं महन्महीधराग्रं ज्वलितं श्रियाभवत्॥५३॥

कीर्तिमान् एवं यशस्वी हनुमान जी तथा बाँहों में भुजबंद धारण किये अङ्गद के प्रसन्नतापूर्वक बैठने से वह ऊँचा एवं महान् पर्वतशिखर दिव्य कान्ति से प्रकाशित हो उठा॥ ५३॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तपञ्चाशः सर्गः॥५७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ।५७॥


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Shivangi

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