वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 6 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 6
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षष्ठः सर्गः (6)
(हनुमान जी का रावण तथा अन्यान्य राक्षसों के घरों में सीताजी की खोज करना)
स निकामं विमानेषु विचरन् कामरूपधृक् ।
विचचार कपिर्लङ्कां लाघवेन समन्वितः॥१॥
फिर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले कपिवर हनुमान जी बड़ी शीघ्रता के साथ लंका के सतमहले मकानों में यथेच्छ विचरने लगे॥१॥
आससाद च लक्ष्मीवान् राक्षसेन्द्रनिवेशनम्।
प्राकारेणार्कवर्णेन भास्वरेणाभिसंवृतम्॥२॥
अत्यन्त बल-वैभव से सम्पन्न वे पवनकुमार राक्षसराज रावण के महल में पहुँचे, जो चारों ओर से सूर्य के समान चमचमाते हुए सुवर्णमय परकोटों से घिरा हुआ था॥२॥
रक्षितं राक्षसैीमैः सिंहैरिव महद् वनम्।
समीक्षमाणो भवनं चकाशे कपिकुञ्जरः॥३॥
जैसे सिंह विशाल वन की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार बहुतेरे भयानक राक्षस रावण के उस महल की रक्षा कर रहे थे। उस भवन का निरीक्षण करते हुए कपिकुञ्जर हनुमान् जी मन-ही-मन हर्ष का अनुभव करने लगे॥३॥
रूप्यकोपहितैश्चित्रैस्तोरणैर्हेमभूषणैः।
विचित्राभिश्च कक्ष्याभिरैश्च रुचिरैर्वृतम्॥४॥
वह महल चाँदी से मढ़े हुए चित्रों, सोने जड़े हुए दरवाजों और बड़ी अद्भुत ड्योढ़ियों तथा सुन्दर द्वारों से युक्त था॥ ४॥
गजास्थितैर्महामात्रैः शूरैश्च विगतश्रमैः।
उपस्थितमसंहार्हयैः स्यन्दनयायिभिः॥५॥
हाथी पर चढ़े हुए महावत तथा श्रमहीन शूरवीर वहाँ उपस्थित थे। जिनके वेग को कोई रोक नहीं सकता था, ऐसे रथवाहक अश्व भी वहाँ शोभा पा रहे थे॥५॥
सिंहव्याघ्रतनुत्राणैर्दान्तकाञ्चनराजतीः।
घोषवद्भिर्विचित्रैश्च सदा विचरितं रथैः॥६॥
सिंहों और बाघों के चमड़ों के बने हुए कवचों से वे रथ ढके हुए थे, उनमें हाथी-दाँत, सुवर्ण तथा चाँदी की प्रतिमाएँ रखी हुई थीं। उन रथों में लगी हुई छोटी-छोटी घंटिकाओं की मधुर ध्वनि वहाँ होती रहती थी; ऐसे विचित्र रथ उस रावण-भवन में सदा आ-जा रहे थे॥
बहुरत्नसमाकीर्णं पराासनभूषितम्।
महारथसमावापं महारथमहासनम्॥७॥
रावण का वह भवन अनेक प्रकार के रत्नों से व्याप्त था, बहुमूल्य आसन उसकी शोभा बढ़ाते थे। उसमें सब ओर बड़े-बड़े रथों के ठहरने के स्थान बने थे और महारथी वीरों के लिये विशाल वासस्थान बनाये गये थे॥
दृश्यैश्च परमोदारैस्तैस्तैश्च मृगपक्षिभिः।
विविधैर्बहुसाहस्रैः परिपूर्णं समन्ततः॥८॥
दर्शनीय एवं परम सुन्दर नाना प्रकार के सहस्रों पशु और पक्षी वहाँ सब ओर भरे हुए थे॥ ८॥
विनीतैरन्तपालैश्च रक्षोभिश्च सुरक्षितम्।
मुख्याभिश्च वरस्त्रीभिः परिपूर्णं समन्ततः॥९॥
सीमा की रक्षा करने वाले विनयशील राक्षस उस भवन की रक्षा करते थे। वह सब ओर से मुख्य-मुख्य सुन्दरियों से भरा रहता था॥९॥
मुदितप्रमदारलं राक्षसेन्द्रनिवेशनम्।
वराभरणसंहादैः समुद्रस्वननिःस्वनम्॥१०॥
वहाँ की रत्नस्वरूपा युवती रमणियाँ सदा प्रसन्न रहा करती थीं। सुन्दर आभूषणों की झनकारों से झंकृत राक्षसराज का वह महल समुद्र के कल-कलनाद की भाँति मुखरित रहता था॥ १०॥
तद् राजगुणसम्पन्नं मुख्यैश्च वरचन्दनैः।
महाजनसमाकीर्णं सिंहैरिव महद् वनम्॥११॥
वह भवन राजोचित सामग्रीसे पूर्ण था, श्रेष्ठ एवं सुन्दर चन्दनों से चर्चित था तथा सिंहोंसे भरे हुए विशाल वन की भाँति प्रधान-प्रधान पुरुषों से परिपूर्ण था॥ ११॥
भेरीमृदङ्गाभिरुतं शङ्खघोषविनादितम्।
नित्यार्चितं पर्वसुतं पूजितं राक्षसैः सदा॥१२॥
वहाँ भेरी और मृदङ्ग की ध्वनि सब ओर फैली हुई । थी। वहाँ शङ्क की ध्वनि गूंज रही थी। उसकी नित्य पूजा एवं सजावट होती थी। पर्वो के दिन वहाँ होम किया जाता था। राक्षस लोग सदा ही उस राजभवन की पूजा करते थे॥ १२॥
समुद्रमिव गम्भीरं समुद्रसमनिःस्वनम्।
महात्मनो महद् वेश्म महारत्नपरिच्छदम्॥१३॥
वह समुद्र के समान गम्भीर और उसी के समान कोलाहलपूर्ण था। महामना रावण का वह विशाल भवन महान् रत्नमय अलंकारों से अलंकृत था॥१३॥
महारत्नसमाकीर्णं ददर्श स महाकपिः।
विराजमानं वपुषा गजाश्वरथसंकुलम्॥१४॥
उसमें हाथी-घोड़े और रथ भरे हुए थे तथा वह महान् रत्नों से व्याप्त होने के कारण अपने स्वरूप से प्रकाशित हो रहा था। महाकपि हनुमान् ने उसे देखा। १४॥
लंकाभरणमित्येव सोऽमन्यत महाकपिः।
चचार हनुमांस्तत्र रावणस्य समीपतः॥१५॥
देखकर कपिवर हनुमान् ने उस भवन को लंका का आभूषण ही माना। तदनन्तर वे उस रावण-भवन के आस-पास ही विचरने लगे॥ १५ ॥
गृहाद् गृहं राक्षसानामुद्यानानि च सर्वशः।
वीक्षमाणोऽप्यसंत्रस्तः प्रासादांश्च चचार सः॥१६॥
इस प्रकार वे एक घर से दूसरे घर में जाकर राक्षसों के बगीचों के सभी स्थानों को देखते हुए बिना किसी भय से अट्टालिकाओं पर विचरण करने लगे। १६॥
अवप्लुत्य महावेगः प्रहस्तस्य निवेशनम्।
ततोऽन्यत् पुप्लुवे वेश्म महापार्श्वस्य वीर्यवान्॥१७॥
महान् वेगशाली और पराक्रमी वीर हनुमान् वहाँ से कूदकर प्रहस्त के घर में उतर गये। फिर वहाँ से उछले और महापार्श्व के महल में पहुँच गये॥ १७ ॥
अथ मेघप्रतीकाशं कुम्भकर्णनिवेशनम्।
विभीषणस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः॥१८॥
तदनन्तर वे महाकपि हनुमान् मेघ के समान प्रतीत होने वाले कुम्भकर्ण के भवन में और वहाँ से विभीषण के महल में कूद गये॥ १८॥
महोदरस्य च तथा विरूपाक्षस्य चैव हि।
विद्युज्जिह्वस्य भवनं विद्युन्मालेस्तथैव च॥१९॥
इसी तरह क्रमशः ये महोदर, विरूपाक्ष, विद्युज्जिह्व और विद्युन्मालि के घर में गये॥ १९ ॥
वज्रदंष्ट्रस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः।
शुकस्य च महावेगः सारणस्य च धीमतः॥२०॥
इसके बाद महान् वेगशाली महाकपि हनुमान् ने फिर छलाँग मारी और वे वज्रदंष्ट्र, शुक तथा बुद्धिमान् सारण के घरों में जा पहुँचे॥ २० ॥
तथा चेन्द्रजितो वेश्म जगाम हरियूथपः।
जम्बुमालेः सुमालेश्च जगाम हरिसत्तमः॥२१॥
इसके बाद वे वानर-यूथपति कपिश्रेष्ठ इन्द्रजित् के घर में गये और वहाँ से जम्बुमालि तथा सुमालि के घर में पहुँच गये॥ २१॥
रश्मिकेतोश्च भवनं सूर्यशत्रोस्तथैव च।
वज्रकायस्य च तथा पुप्लुवे स महाकपिः॥ २२॥
तदनन्तर वे महाकपि उछलते-कूदते हुए रश्मिकेतु, सूर्यशत्रु और वज्रकाय के महलों में जा पहुँचे॥ २२ ॥
धूम्राक्षस्याथ सम्पातेर्भवनं मारुतात्मजः।
विद्युद्रूपस्य भीमस्य घनस्य विघनस्य च॥२३॥
शुकनाभस्य चक्रस्य शठस्य कपटस्य च।
ह्रस्वकर्णस्य दंष्ट्रस्य लोमशस्य च रक्षसः॥२४॥
युद्धोन्मत्तस्य मत्तस्य ध्वजग्रीवस्य सादिनः।
विद्युज्जिह्वद्विजिह्वानां तथा हस्तिमुखस्य च ॥२५॥
करालस्य पिशाचस्य शोणिताक्षस्य चैव हि।
प्लवमानः क्रमेणैव हनुमान् मारुतात्मजः॥ २६॥
तेषु तेषु महार्हेषु भवनेषु महायशाः।
तेषामृद्धिमतामृद्धिं ददर्श स महाकपिः॥ २७॥
फिर क्रमशः वे कपिवर पवनकुमार धूम्राक्ष, सम्पाति, विद्युद्रूप, भीम, घन, विघन, शुकनाभ, चक्र, शठ, कपट, ह्रस्वकर्ण, द्रंष्ट्र, लोमश, युद्धोन्मत्त, मत्त, ध्वजग्रीव, विद्युज्जिह्व, द्विजिह्व, हस्तिमुख, कराल, पिशाच और शोणिताक्ष आदि के महलों में गये। इस प्रकार क्रमशः कूदते-फाँदते हुए महायशस्वी पवनपुत्र हनुमान् उन-उन बहुमूल्य भवनों में पधारे। वहाँ उन महाकपि ने उन समृद्धिशाली राक्षसों की समृद्धि देखी॥ २३–२७॥
सर्वेषां समतिक्रम्य भवनानि समन्ततः।
आससादाथ लक्ष्मीवान् राक्षसेन्द्रनिवेशनम्॥२८॥
तत्पश्चात् बल-वैभव से सम्पन्न हनुमान् उन सब भवनों को लाँघकर पुनः राक्षसराज रावण के महल पर आ गये॥२८॥
रावणस्योपशायिन्यो ददर्श हरिसत्तमः।
विचरन् हरिशार्दूलो राक्षसीर्विकृतेक्षणाः॥२९॥
वहाँ विचरते हुए उन वानरशिरोमणि कपिश्रेष्ठ ने रावण के निकट सोने वाली (उसके पलंग की रक्षा करने वाली) राक्षसियों को देखा, जिनकी आँखें बड़ी विकराल थीं॥ २९॥
शूलमुद्गरहस्तांश्च शक्तितोमरधारिणः।
ददर्श विविधान्गुल्मांस्तस्य रक्षःपतेर्गृहे ॥३०॥
साथ ही, उन्होंने उस राक्षसराज के भवन में राक्षसियों के बहुत-से समुदाय देखे, जिनके हाथों में शूल, मुद्गर, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे॥ ३०॥
राक्षसांश्च महाकायान् नानाप्रहरणोधतान्।
रक्तान् श्वेतान् सितांश्चापि हरीश्चापि महाजवान्॥३१॥
उनके सिवा, वहाँ बहुत-से विशालकाय राक्षस भी दिखायी दिये, जो नाना प्रकार के हथियारों से लैस थे। इतना ही नहीं, वहाँ लाल और सफेद रंग के बहुत-से अत्यन्त वेगशाली घोड़े भी बँधे हुए थे॥३१॥
कुलीनान् रूपसम्पन्नान् गजान् परगजारुजान्।
शिक्षितान् गजशिक्षायामैरावतसमान् युधि॥३२॥
निहन्तॄन् परसैन्यानां गृहे तस्मिन् ददर्श सः।
क्षरतश्च यथा मेघान् स्रवतश्च यथा गिरीन्॥३३॥
मेघस्तनितनिर्घोषान् दुर्धर्षान् समरे परैः।
साथ ही अच्छी जाति के रूपवान् हाथी भी थे, जो शत्रु-सेना के हाथियों को मार भगाने वाले थे। वे सबके-सब गजशिक्षा में सुशिक्षित, युद्धमें ऐरावत के समान पराक्रमी तथा शत्रुसेनाओं का संहार करने में समर्थ थे। वे बरसते हुए मेघों और झरने बहाते हुए पर्वतों के समान मद की धारा बहा रहे थे। उनकी गर्जना मेघ-गर्जना के समान जान पड़ती थी। वे समराङ्गण में शत्रुओं के लिये दुर्जय थे। हनुमान जी ने रावण के भवन में उन सबको देखा ॥ ३२-३३ १/२॥
सहस्रं वाहिनीस्तत्र जाम्बूनदपरिष्कृताः॥३४॥
हेमजालैरविच्छिन्नास्तरुणादित्यसंनिभाः।
ददर्श राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य निवेशने॥ ३५॥
राक्षसराज रावण के उस महल में उन्होंने सहस्रों ऐसी सेनाएँ देखीं, जो जाम्बूनद के आभूषणों से विभूषित थीं। उनके सारे अंग सोने के गहनों से ढके हुए थे तथा वे प्रातःकाल के सूर्य की भाँति उद्दीप्त हो रही थीं॥
शिबिका विविधाकाराः स कपिर्मारुतात्मजः।
लतागृहाणि चित्राणि चित्रशालागृहाणि च॥३६॥
क्रीडागृहाणि चान्यानि दारुपर्वतकानि च।
कामस्य गृहकं रम्यं दिवागृहकमेव च ॥ ३७॥
ददर्श राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य निवेशने।
पवनपुत्र हनुमान् जी ने राक्षसराज रावण के उस भवन में अनेक प्रकार की पालकियाँ, विचित्र लतागृह, चित्रशालाएँ, क्रीडाभवन, काष्ठमय क्रीडापर्वत, रमणीय विलासगृह और दिन में उपयोग में आने वाले विलासभवन भी देखे॥ ३६-३७ १/२॥
स मन्दरसमप्रख्यं मयूरस्थानसंकुलम्॥३८॥
ध्वजयष्टिभिराकीर्णं ददर्श भवनोत्तमम्।
अनन्तरत्ननिचयं निधिजालं समन्ततः।
धीरनिष्ठितकर्माकं गृहं भूतपतेरिव॥ ३९॥
उन्होंने वह महल मन्दराचल के समान ऊँचा, क्रीडा-मयूरों के रहने के स्थानों से युक्त, ध्वजाओं से व्याप्त, अनन्त रत्नों का भण्डार और सब ओर से निधियों से भरा हुआ देखा। उसमें धीर पुरुषों ने निधिरक्षा के उपयुक्त कर्माङ्गों का अनुष्ठान किया था तथा वह साक्षात् भूतनाथ (महेश्वर या कुबेर)-के भवन के समान जान पड़ता था।
अर्चिभिश्चापि रत्नानां तेजसा रावणस्य च।
विरराज च तद् वेश्म रश्मिवानिव रश्मिभिः॥४०॥
रत्नों की किरणों तथा रावण के तेज के कारण वह घर किरणों से युक्त सूर्य के समान जगमगा रहा था। ४०॥
जाम्बूनदमयान्येव शयनान्यासनानि च।
भाजनानि च शुभ्राणि ददर्श हरियूथपः॥४१॥
वानरयूथपति हनुमान् ने वहाँ के पलंग, चौकी और पात्र सभी अत्यन्त उज्ज्वल तथा जाम्बूनद सुवर्ण के बने हुए ही देखे॥ ४१॥
मध्वासवकृतक्लेदं मणिभाजनसंकुलम्।
मनोरममसम्बाधं कुबेरभवनं यथा॥४२॥
नूपुराणां च घोषेण काञ्चीनां निःस्वनेन च।
मृदङ्गतलनिर्घोषैर्घोषवद्भिर्विनादितम्॥४३॥
उसमें मधु और आसव के गिरने से वहाँ की भूमि गीली हो रही थी। मणिमय पात्रों से भरा हुआ वह सुविस्तृत महल कुबेर-भवन के समान मनोरम जान पड़ता था। नूपुरों की झनकार, करधनियों की खनखनाहट, मृदङ्गों और तालियों की मधुर ध्वनि तथा अन्य गम्भीर घोष करने वाले वाद्यों से वह भवन मुखरित हो रहा था।
प्रासादसंघातयुतं स्त्रीरत्नशतसंकुलम्।
सुव्यूढकक्ष्यं हनुमान् प्रविवेश महागृहम्॥४४॥
उसमें सैकड़ों अट्टालिकाएँ थीं, सैकड़ों रमणीरत्नों से वह व्याप्त था। उसकी ड्योढ़ियाँ बहुत बड़ीबड़ी थीं। ऐसे विशाल भवन में हनुमान जी ने प्रवेश किया॥४४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षष्ठः सर्गः॥६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में छठा सर्ग पूरा हुआ॥६॥
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