वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 60 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 60
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
षष्टितमः सर्गः (सर्ग 60)
अङ्गद का लङ्का को जीतकर सीता को ले आने का उत्साहपूर्ण विचार और जाम्बवान् के द्वारा उसका निवारण
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा वालिसूनुरभाषत।
अश्विपुत्रौ महावेगौ बलवन्तौ प्लवंगमौ॥१॥
हनुमान जी की यह बात सुनकर बालिपुत्र अङ्गद ने कहा—’अश्विनीकुमार के पुत्र ये मैन्द और द्विविद दोनों वानर अत्यन्त वेगशाली और बलवान् हैं॥१॥
पितामहवरोत्सेकात् परमं दर्पमास्थितौ।
अश्विनोर्माननार्थं हि सर्वलोकपितामहः॥२॥
सर्वावध्यत्वमतुलमनयोर्दत्तवान् पुरा।
वरोत्सेकेन मत्तौ च प्रमथ्य महतीं चमूम्॥३॥
सुराणाममृतं वीरौ पीतवन्तौ महाबलौ।
‘पूर्वकाल में ब्रह्माजी का वर मिलने से इनका अभिमान बढ़ गया और ये बड़े घमण्ड में भर गये थे। सम्पूर्णलोकों के पितामह ब्रह्माजी ने अश्विनीकुमारों का मान रखने के लिये पहले इन दोनों को यह अनुपम वरदान दिया था कि तुम्हें कोई भी मार नहीं सकता। उस वर के अभिमान से मत्त हो इन दोनों महाबली वीरों ने देवताओं की विशाल सेना को मथकर अमृत पी लिया था॥२-३ १/२॥
एतावेव हि संक्रुद्धौ सवाजिरथकुञ्जराम्॥४॥
लङ्कां नाशयितुं शक्तौ सर्वे तिष्ठन्तु वानराः।
‘ये ही दोनों यदि क्रोध में भर जायँ तो हाथी, घोड़े और रथोंसहित समूची लङ्का का नाश कर सकते हैं। भले ही और सब वानर बैठे रहें॥ ४ १/२॥
अहमेकोऽपि पर्याप्तः सराक्षसगणां पुरीम्॥५॥
तां लङ्कां तरसा हन्तुं रावणं च महाबलम्।
किं पुनः सहितो वीरैर्बलवद्भिः कृतात्मभिः॥६॥
कृतास्त्रैः प्लवगैः शक्तैर्भवद्भिर्विजयैषिभिः।
“मैं अकेला भी राक्षसगणोंसहित समस्त लङ्कापुरी का वेगपूर्वक विध्वंस करने तथा महाबली रावण को मार डालने के लिये पर्याप्त हूँ। फिर यदि सम्पूर्ण अस्त्रों को जानने वाले आप-जैसे वीर, बलवान्, शुद्धात्मा, शक्तिशाली और विजयाभिलाषी वानरों की सहायता मिल जाय, तब तो कहना ही क्या है? ॥ ५-६ १/२॥
वायुसूनोर्बलेनैव दग्धा लङ्केति नः श्रुतम्॥७॥
दृष्टा देवी न चानीता इति तत्र निवेदितुम्।
न युक्तमिव पश्यामि भवद्भिः ख्यातपौरुषैः॥८॥
‘वायुपुत्र हनुमान जी ने अकेले जाकर अपने पराक्रम से ही लङ्का को फूंक डाला—यह बात हम सबलोगों ने सुन ही ली। आप-जैसे ख्यातनामा पुरुषार्थी वीरों के रहते हुए मुझे भगवान् श्रीराम के सामने यह निवेदन करना उचित नहीं जान पड़ता कि ‘हमने सीतादेवी का दर्शन तो किया, किंतु उन्हें ला नहीं सके’ ॥ ७-८॥
नहि वः प्लवने कश्चिन्नापि कश्चित् पराक्रमे।
तुल्यः सामरदैत्येषु लोकेषु हरिसत्तमाः॥९॥
‘वानरशिरोमणियो! देवताओं और दैत्योंसहित सम्पूर्ण लोकों में कोई भी ऐसा वीर नहीं है, जो दूरतक की छलाँग मारने और पराक्रम दिखाने में आपलोगों की समानता कर सके॥९॥
जित्वा लङ्कां सरक्षौघां हत्वा तं रावणं रणे।
सीतामादाय गच्छामः सिद्धार्था हृष्टमानसाः॥
‘अतः निशाचरसमुदायसहित लङ्का को जीतकर, युद्ध में रावण का वध करके, सीता को साथ ले, सफल-मनोरथ एवं प्रसन्नचित्त होकर हमलोग श्रीरामचन्द्रजी के पास चलें॥ १० ॥
तेष्वेवं हतवीरेषु राक्षसेषु हनूमता।
किमन्यदत्र कर्तव्यं गृहीत्वा याम जानकीम्॥११॥
‘जब हनुमान जी ने राक्षसों के प्रमुख वीरों को मार डाला है, ऐसी परिस्थिति में हमारा इसके सिवा और क्या कर्तव्य हो सकता है कि हम जनकनन्दिनी सीता को साथ लेकर ही चलें॥११॥
रामलक्ष्मणयोर्मध्ये न्यस्याम जनकात्मजाम्।
किं व्यलीकैस्तु तान् सर्वान् वानरान्वानरर्षभान्॥१२॥
वयमेव हि गत्वा तान् हत्वा राक्षसपुङ्गवान्।
राघवं द्रष्टुमर्हामः सुग्रीवं सहलक्ष्मणम्॥१३॥
‘कपिवरो! हम जनककिशोरी को ले चलकर श्रीराम और लक्ष्मण के बीच में खड़ी कर दें। किष्किन्धा में जुटे हुए उन सब वानरों को कष्ट देने की क्या आवश्यकता है। हमलोग ही लङ्का में चलकर वहाँ के मुख्य-मुख्य राक्षसों का वध कर डालें, उसके बाद लौटकर श्रीराम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव का दर्शन करें’॥ १२-१३॥
तमेवं कृतसंकल्पं जाम्बवान् हरिसत्तमः।
उवाच परमप्रीतो वाक्यमर्थवदर्थवित्॥१४॥
अङ्गद का ऐसा संकल्प जानकर वानर-भालुओं में श्रेष्ठ और अर्थतत्त्व के ज्ञाता जाम्बवान् ने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह सार्थक बात कही- ॥ १४ ॥
नैषा बुद्धिर्महाबुद्धे यद् ब्रवीषि महाकपे।
विचेतुं वयमाज्ञप्ता दक्षिणां दिशमुत्तमाम्॥१५॥
नानेतुं कपिराजेन नैव रामेण धीमता।
‘महाकपे! तुम बड़े बुद्धिमान् हो तथापि इस समय जो कुछ कह रहे हो, यह बुद्धिमानी की बात नहीं है; क्योंकि वानरराज सुग्रीव तथा परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम ने हमें उत्तम दक्षिण दिशा में केवल सीता को खोजने की आज्ञा दी है, साथ ले आने की नहीं॥ १५ १/२॥
कथंचिन्निर्जितां सीतामस्माभिर्नाभिरोचयेत्॥१६॥
राघवो नृपशार्दूलः कुलं व्यपदिशन् स्वकम्।
‘यदि हमलोग किसी तरह सीता को जीतकर उनके पास ले भी चलें तो नृपश्रेष्ठ श्रीराम अपने कुल के व्यवहार का स्मरण करते हुए हमारे इस कार्य को पसंद नहीं करेंगे। १६ १/२॥
प्रतिज्ञाय स्वयं राजा सीताविजयमग्रतः॥१७॥
सर्वेषां कपिमुख्यानां कथं मिथ्या करिष्यति।
‘राजा श्रीरामने सभी प्रमुख वानरवीरों के सामने स्वयं ही सीता को जीतकर लाने की प्रतिज्ञा की है, उसे वे मिथ्या कैसे करेंगे? ॥ १७ १/२ ॥
विफलं कर्म च कृतं भवेत् तुष्टिर्न तस्य च॥१८॥
वृथा च दर्शितं वीर्यं भवेद् वानरपुङ्गवाः।
‘अतः वानरशिरोमणियो! ऐसी अवस्था में हमारा किया-कराया कार्य निष्फल हो जायगा। भगवान् श्रीराम को संतोष भी नहीं होगा और हमारा पराक्रम दिखाना भी व्यर्थ सिद्ध होगा॥ १८ १/२ ॥
तस्माद् गच्छाम वै सर्वे यत्र रामः सलक्ष्मणः।
सुग्रीवश्च महातेजाः कार्यस्यास्य निवेदने॥१९॥
‘इसलिये हम सब लोग इस कार्य की सूचना देने के लिये वहीं चलें, जहाँ लक्ष्मणसहित भगवान् श्रीराम और महातेजस्वी सुग्रीव विद्यमान हैं॥ १९ ॥
न तावदेषा मतिरक्षमा नो यथा भवान् पश्यति राजपुत्र।
यथा तु रामस्य मतिर्निविष्टा तथा भवान् पश्यतु कार्यसिद्धिम्॥२०॥
‘राजकुमार! तुम जैसा देखते या सोचते हो, यह विचार हमलोगों के योग्य ही है हम इसे न कर सकें, ऐसी बात नहीं है; तथापि इस विषय में भगवान् श्रीराम का जैसा निश्चय हो, उसी के अनुसार तुम्हें कार्यसिद्धि पर दृष्टि रखनी चाहिये’ ॥ २०॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षष्टितमः सर्गः॥६०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में साठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६०॥