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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 61 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 61

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
एकषष्टितमः सर्गः (सर्ग 61)

वानरों का मधुवन में जाकर वहाँ के मधु एवं फलों का मनमाना उपभोग करना और वनरक्षक को घसीटना

 

ततो जाम्बवतो वाक्यमगृह्णन्त वनौकसः।
अङ्गदप्रमुखा वीरा हनूमांश्च महाकपिः॥१॥

तदनन्तर अङ्गद आदि सभी वीर वानरों और महाकपि हनुमान् ने भी जाम्बवान् की बात मान ली॥१॥

प्रीतिमन्तस्ततः सर्वे वायुपुत्रपुरःसराः।
महेन्द्राग्रात् समुत्पत्य पुप्लुवुः प्लवगर्षभाः॥२॥

फिर वे सब श्रेष्ठ वानर पवनपुत्र हनुमान् को आगे करके मन-ही-मन प्रसन्नता का अनुभव करते हुए महेन्द्रगिरि के शिखर से उछलते-कूदते चल दिये॥२॥

मेरुमन्दरसंकाशा मत्ता इव महागजाः।
छादयन्त इवाकाशं महाकाया महाबलाः॥३॥

वे मेरु पर्वत के समान विशालकाय और बड़े-बड़े मदमत्त गजराजों के समान महाबली वानर आकाश को आच्छादित करते हुए-से जा रहे थे॥३॥

सभाज्यमानं भूतैस्तमात्मवन्तं महाबलम्।
हनूमन्तं महावेगं वहन्त इव दृष्टिभिः॥४॥

उस समय सिद्ध आदि भूतगण अत्यन्त वेगशाली महाबली बुद्धिमान् हनुमान जी की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे और अपलक नेत्रोंसे उनकी ओर इस तरह देख रहे थे, मानो अपनी दृष्टियोंद्वारा ही उन्हें ढो रहे हों।

राघवे चार्थनिर्वृत्तिं कर्तुं च परमं यशः।
समाधाय समृद्धार्थाः कर्मसिद्धिभिरुन्नताः॥५॥
प्रियाख्यानोन्मुखाः सर्वे सर्वे युद्धाभिनन्दिनः।
सर्वे रामप्रतीकारे निश्चितार्था मनस्विनः॥६॥

श्रीरघुनाथजी के कार्य की सिद्धि करने का उत्तम यश पाकर उन वानरों का मनोरथ सफल हो गया था। उस कार्य की सिद्धि हो जाने से उनका उत्साह बढ़ा हुआ था। वे सभी भगवान् श्रीराम को प्रिय संवाद सुनाने के लिये उत्सुक थे। सभी युद्ध का अभिनन्दन करने वाले थे। श्रीरामचन्द्रजी के द्वारा रावण का पराभव हो—ऐसा सबने निश्चय कर लिया था तथा वे सब-के-सब मनस्वी वीर थे॥५-६॥

प्लवमानाः खमाप्लुत्य ततस्ते काननौकसः।
नन्दनोपममासेदुर्वनं द्रुमशतायुतम्॥७॥

आकाश में छलाँग मारते हुए वे वनवासी वानर सैकड़ों वृक्षों से भरे हुए एक सुन्दर वन में जा पहुँचे, जो नन्दनवन के समान मनोहर था॥७॥

यत् तन्मधुवनं नाम सुग्रीवस्याभिरक्षितम्।
अधृष्यं सर्वभूतानां सर्वभूतमनोहरम्॥८॥

उसका नाम मधुवन था। सुग्रीव का वह मधुवन सर्वथा सुरक्षित था। समस्त प्राणियों में से कोई भी उसको हानि नहीं पहुंचा सकता था। उसे देखकर सभी प्राणियों का मन लुभा जाता था॥ ८॥

यद् रक्षति महावीरः सदा दधिमुखः कपिः।
मातुलः कपिमुख्यस्य सुग्रीवस्य महात्मनः॥९॥

कपिश्रेष्ठ महात्मा सुग्रीव के मामा महावीर दधिमुख नामक वानर सदा उस वन की रक्षा करते थे॥९॥

ते तद् वनमुपागम्य बभूवुः परमोत्कटाः।
वानरा वानरेन्द्रस्य मनःकान्तं महावनम्॥१०॥

वानरराज सुग्रीव के उस मनोरम महावन के पास पहुँचकर वे सभी वानर वहाँ का मधु पीने और फलखाने आदि के लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये। १०॥

ततस्ते वानरा हृष्टा दृष्ट्वा मधुवनं महत्।
कुमारमभ्ययाचन्त मधूनि मधुपिङ्गलाः॥११॥

तब हर्ष से भरे हुए तथा मधु के समान पिङ्गल वर्णवाले उन वानरों ने उस महान् मधुवन को देखकर कुमार अङ्गद से मधुपान करने की आज्ञा माँगी॥११॥

ततः कुमारस्तान् वृद्धाञ्जाम्बवत्प्रमुखान् कपीन्।
अनुमान्य ददौ तेषां निसर्ग मधुभक्षणे॥१२॥

उस समय कुमार अङ्गद ने जाम्बवान् आदि बड़े बूढ़े वानरों की अनुमति लेकर उन सबको मधु पीने की आज्ञा दे दी॥ १२॥

ते निसृष्टाः कुमारेण धीमता वालिसूनुना।
हरयः समपद्यन्त द्रुमान् मधुकराकुलान्॥१३॥

बुद्धिमान् वालिपुत्र राजकुमार अङ्गद की आज्ञा पाकर वे वानर भौंरों के झुंड से भरे हुए वृक्षों पर चढ़ गये॥ १३॥

भक्षयन्तः सुगन्धीनि मूलानि च फलानि च।
जग्मुः प्रहर्षं ते सर्वे बभूवुश्च मदोत्कटाः॥१४॥

वहाँके सुगन्धित फल-मूलों का भक्षण करते हुए उन सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सभी मद से उन्मत्त हो गये॥ १४॥

ततश्चानुमताः सर्वे सुसंहृष्टा वनौकसः।
मुदिताश्च ततस्ते च प्रनृत्यन्ति ततस्ततः॥१५॥

युवराज की अनुमति मिल जाने से सभी वानरों को बड़ा हर्ष हुआ। वे आनन्दमग्न होकर इधर-उधर नाचने लगे॥ १५॥

गायन्ति केचित् प्रहसन्ति केचिन्नृत्यन्ति केचित् प्रणमन्ति केचित्।
पतन्ति केचित् प्रचरन्ति केचित् प्लवन्ति केचित् प्रलपन्ति केचित्॥१६॥

कोई गाते, कोई हँसते, कोई नाचते, कोई नमस्कार करते, कोई गिरते-पड़ते, कोई जोर-जोर से चलते, कोई उछलते-कूदते और कोई प्रलाप करते थे॥१६॥

परस्परं केचिदुपाश्रयन्ति परस्परं केचिदतिब्रुवन्ति।
द्रुमाद् द्रुमं केचिदभिद्रवन्ति क्षितौ नगाग्रान्निपतन्ति केचित्॥१७॥

कोई एक-दूसरे के पास जाकर मिलते, कोई आपस में विवाद करते, कोई एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर दौड़ जाते और कोई वृक्षों की डालियों से पृथ्वी पर कूद पड़ते थे॥

महीतलात् केचिदुदीर्णवेगा महाद्रुमाग्राण्यभिसम्पतन्ति।
गायन्तमन्यः प्रहसन्नुपैति हसन्तमन्यः प्ररुदन्नुपैति॥१८॥

कितने ही प्रचण्ड वेगवाले वानर पृथ्वी से दौड़कर बड़े-बड़े वृक्षों की चोटियों तक पहुँच जाते थे। कोई गाता तो दूसरा उसके पास हँसता हुआ जाता था। कोई हँसते हुए के पास जोर-जोर से रोता हुआ पहुँचता था॥ १८॥

तुदन्तमन्यः प्रणदन्नुपैति समाकुलं तत् कपिसैन्यमासीत्।
न चात्र कश्चिन्न बभूव मत्तो न चात्र कश्चिन्न बभूव दृप्तः॥१९॥

कोई दूसरे को पीड़ा देता तो दूसरा उसके पास बड़े जोर से गर्जना करता हुआ आता था। इस प्रकार वह सारी वानरसेना मदोन्मत्त होकर उसके अनुरूप चेष्टाकर रही थी। वानरों के उस समुदाय में कोई भी ऐसा नहीं था, जो मतवाला न हो गया हो और कोई भी ऐसा नहीं था, जो दर्प से भर न गया हो॥ १९॥

ततो वनं तत् परिभक्ष्यमाणं द्रुमांश्च विध्वंसितपत्रपुष्पान्।
समीक्ष्य कोपाद् दधिवक्त्रनामा निवारयामास कपिः कपीस्तान्॥२०॥

तदनन्तर मधुवन के फल-मूल आदि का भक्षण होता और वहाँ के वृक्षों के पत्तों एवं फूलों को नष्ट किया जाता देख दधिमुख नामक वानर को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन वानरों को वैसा करने से रोका॥२०॥

स तैः प्रवृद्धैः परिभय॑मानो वनस्य गोप्ता हरिवृद्धवीरः।
चकार भूयो मतिमुग्रतेजा वनस्य रक्षां प्रति वानरेभ्यः॥२१॥

जिन पर अधिक नशा चढ़ गया था, उन बड़े-बड़े वानरों ने वन की रक्षा करने वाले उस वृद्ध वानरवीर को उलटे डाँट बतानी शुरू की, तथापि उग्र तेजस्वी दधिमुख ने पुनः उन वानरों से वन की रक्षा करने का विचार किया॥२१॥

उवाच कांश्चित् परुषाण्यभीत मसक्तमन्यांश्च तलैर्जघान।
समेत्य कैश्चित् कलहं चकार तथैव साम्नोपजगाम कांश्चित्॥२२॥

उन्होंने निर्भय होकर किन्हीं-किन्हीं को कड़ी बातें सुनायीं। कितनों को थप्पड़ों से मारा। बहुतों के साथ भिड़कर झगड़ा किया और किन्हीं-किन्हीं के प्रति शान्तिपूर्ण उपाय से ही काम लिया॥ २२ ॥

स तैर्मदादप्रतिवार्यवेगैबलाच्च तेन प्रतिवार्यमाणैः।
प्रधर्षणे त्यक्तभयैः समेत्य प्रकृष्यते चाप्यनवेक्ष्य दोषम्॥२३॥

मद के कारण जिनके वेग को रोकना असम्भव हो गया था, उन वानरों को जब दधिमुख बलपूर्वक रोकने की चेष्टा करने लगे, तब वे सब मिलकर उन्हें बलपूर्वक इधर-उधर घसीटने लगे। वनरक्षक पर आक्रमण करने से राजदण्ड प्राप्त होगा, इसकी ओर उनकी दृष्टि नहीं गयी। अतएव वे सब निर्भय होकर उन्हें इधर-उधर खींचने लगे॥ २३॥

नस्तुदन्तो दशनैर्दशन्तस्तलैश्च पादैश्च समापयन्तः।
मदात् कपिं ते कपयः समन्तान्महावनं निर्विषयं च चक्रुः ॥२४॥

मद के प्रभाव से वे वानर कपिवर दधिमुख को नखों से बकोटने, दाँतों से काटने और थप्पड़ों तथा लातों से मार-मारकर अधमरा करने लगे। इस प्रकार उन्होंने उस विशाल वन को सब ओर से फल आदि से शून्य कर दिया॥२४॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकषष्टितमः सर्गः॥६१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में इकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ॥६१॥


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शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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