वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 62 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 62
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
द्विषष्टितमः सर्गः (सर्ग 62)
वानरों द्वारा मधुवन के रक्षकों और दधिमुख का पराभव तथा सेवकों सहितदधिमुख का सुग्रीव के पास जाना
तानुवाच हरिश्रेष्ठो हनूमान् वानरर्षभः।
अव्यग्रमनसो यूयं मधु सेवत वानराः॥१॥
अहमावर्जयिष्यामि युष्माकं परिपन्थिनः।
उस समय वानरशिरोमणि कपिवर हनुमान् ने अपने साथियों से कहा—’वानरो! तुम सब लोग बेखट के मधु का पान करो। मैं तुम्हारे विरोधियों को रोकूँगा’॥
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं हरीणां प्रवरोऽङ्गदः॥२॥
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा पिबन्तु हरयो मधु।
अवश्यं कृतकार्यस्य वाक्यं हनुमतो मया॥३॥
अकार्यमपि कर्तव्यं किमळं पुनरीदृशम्।।
हनुमान् जी की बात सुनकर वानरप्रवर अङ्गद ने भी प्रसन्नचित्त होकर कहा—’वानरगण अपनी इच्छा के अनुसार मधुपान करें। हनुमान जी इस समय कार्य सिद्ध करके लौटे हैं, अतः इनकी बात स्वीकार करने के योग्य न हो तो भी मुझे अवश्य माननी चाहिये। फिर ऐसी बात के लिये तो कहना ही क्या है?’ ॥ २-३ १/२॥
अङ्गदस्य मुखाच्छ्रुत्वा वचनं वानरर्षभाः॥४॥
साधु साध्विति संहृष्टा वानराः प्रत्यपूजयन्।
अङ्गद के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी श्रेष्ठ वानर हर्ष से खिल उठे और ‘साधु-साधु’ कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे॥ ४ १/२ ॥
पूजयित्वाङ्गदं सर्वे वानरा वानरर्षभम्॥५॥
जग्मुर्मधुवनं यत्र नदीवेग इव द्रुमम्।
वानरशिरोमणि अङ्गद की प्रशंसा करके वे सब वानर जहाँ मधुवन था, उस मार्ग पर उसी तरह दौड़े गये, जैसे नदी के जल का वेग तटवर्ती वृक्ष की ओर जाता है॥ ५ १/२॥
ते प्रविष्टा मधुवनं पालानाक्रम्य शक्तितः॥६॥
अतिसर्गाच्च पटवो दृष्ट्वा श्रुत्वा च मैथिलीम्।
पपुः सर्वे मधु तदा रसवत् फलमाददुः॥७॥
मिथिलेशकुमारी सीता को हनुमान जी तो देखकर आये थे और अन्य वानरों ने उन्हीं के मुख से यह सुन लिया था कि वे लङ्का में हैं, अतः उन सबका उत्साह बढ़ा हुआ था। इधर युवराज अङ्गद का आदेश भी मिल गया था, इसलिये वे सामर्थ्यशाली सभी वानर वनरक्षकों पर पूरी शक्ति से आक्रमण करके मधुवन में घुस गये और वहाँ इच्छानुसार मधु पीने तथा रसीले फल खाने लगे॥६-७॥
उत्पत्य च ततः सर्वे वनपालान् समागतान्।
ते ताडयन्तः शतशः सक्ता मधुवने तदा॥८॥
रोकने के लिये अपने पास आये हुए रक्षकों को वे सब वानर सैकड़ों की संख्या में जुटकर उछलउछलकर मारते थे और मधुवन के मधु पीने एवं फल खाने में लगे हुए थे॥८॥
मधूनि द्रोणमात्राणि बाहुभिः परिगृह्य ते।
पिबन्ति कपयः केचित् सङ्घशस्तत्र हृष्टवत्॥९॥
कितने ही वानर झुंड-के-झुंड एकत्र हो वहाँ अपनी भुजाओं द्वारा एक-एक द्रोण* मधु से भरे हुए छत्तों को पकड़ लेते और सहर्ष पी जाते थे॥९॥
* आठ आढक या बत्तीस सेर के माप को ‘द्रोण’ कहते हैं। यह प्राचीन काल में प्रचलित था।
घ्नन्ति स्म सहिताः सर्वे भक्षयन्ति तथापरे।
केचित् पीत्वापविध्यन्ति मधूनि मधुपिङ्गलाः॥१०॥
मधूच्छिष्टेन केचिच्च जघ्नुरन्योन्यमुत्कटाः।
अपरे वृक्षमूलेषु शाखा गृह्य व्यवस्थिताः॥११॥
मधु के समान पिङ्गल वर्णवाले वे सब वानर एक साथ होकर मधु के छत्तों को पीटते, दूसरे वानर उस मधु को पीते और कितने ही पीकर बचे हुए मधु को फेंक देते थे। कितने ही मदमत्त हो एक-दूसरे को मोम से मारते थे और कितने ही वानर वृक्षों के नीचे डालियाँ पकड़कर खड़े हो गये थे॥ १०-११॥
अत्यर्थं च मदग्लानाः पर्णान्यास्तीर्य शेरते।
उन्मत्तवेगाः प्लवगा मधुमत्ताश्च हृष्टवत्॥१२॥
कितने ही वानर मद के कारण अत्यन्त ग्लानि का अनुभव कर रहे थे। उनका वेग उन्मत्त पुरुषों के समान देखा जाता था। वे मधु पी-पीकर मतवाले हो गये थे, अतः बड़े हर्ष के साथ पत्ते बिछाकर सो गये॥ १२॥
क्षिपन्त्यपि तथान्योन्यं स्खलन्ति च तथापरे।
केचित् क्ष्वेडान् प्रकुर्वन्ति केचित् कूजन्ति हृष्टवत्॥१३॥
कोई एक-दूसरे पर मधु फेंकते, कोई लड़खड़ाकर गिरते, कोई गरजते और कोई हर्ष के साथ पक्षियों की भाँति कलरव करते थे॥१३॥
हरयो मधुना मत्ताः केचित् सुप्ता महीतले।
धृष्टाः केचिद्धसन्त्यन्ये केचित् कुर्वन्ति चेतरत्॥१४॥
मधु से मतवाले हुए कितने ही वानर पृथ्वी पर सो गये थे। कुछ ढीठ वानर हँसते और कुछ रोदन करते थे॥१४॥
कृत्वा केचिद् वदन्त्यन्ये केचिद् बुध्यन्ति चेतरत्।
येऽप्यत्र मधुपालाः स्युः प्रेष्या दधिमुखस्य तु॥१५॥
तेऽपि तैर्वानरै मैः प्रतिषिद्धा दिशो गताः।
जानुभिश्च प्रघृष्टाश्च देवमार्गं च दर्शिताः॥१६॥
कुछ वानर दूसरा काम करके दूसरा बताते थे और कुछ उस बात का दूसरा ही अर्थ समझते थे। उस वन में जो दधिमुख के सेवक मधु की रक्षा में नियुक्त थे, वे भी उन भयंकर वानरों द्वारा रोके या पीटे जाने पर सभी दिशाओं में भाग गये। उनमें से कई रखवालों को अङ्गद के दलवालोंने जमीन पर पटककर घुटनों से खूब रगड़ा और कितनों को पैर पकड़कर आकाश में उछाल दिया था अथवा उन्हें पीठ के बल गिराकर आकाश दिखा दिया था॥१५-१६॥
अब्रुवन् परमोद्विग्ना गत्वा दधिमुखं वचः।
हनूमता दत्तवरैर्हतं मधुवनं बलात्।
वयं च जानुभिर्घष्टा देवमार्गं च दर्शिताः॥१७॥
वे सब सेवक अत्यन्त उद्विग्न हो दधिमुख के पास जाकर बोले—’प्रभो! हनुमान जी के बढ़ावा देने से उनके दल के सभी वानरों ने बलपूर्वक मधुवन का विध्वंस कर डाला, हमलोगों को गिराकर घुटनों से रगड़ा और हमें पीठ के बल पटककर आकाश का दर्शन करा दिया’ ॥ १७॥
तदा दधिमुखः क्रुद्धो वनपस्तत्र वानरः।
हतं मधुवनं श्रुत्वा सान्त्वयामास तान् हरीन्॥१८॥
तब उस वन के प्रधान रक्षक दधिमुख नामक वानर मधुवन के विध्वंस का समाचार सुनकर वहाँ कुपित हो उठे और उन वानरों को सान्त्वना देते हुए बोले-॥
एतागच्छत गच्छामो वानरानतिदर्पितान्।
बलेनावारयिष्यामि प्रभुञ्जानान् मधूत्तमम्॥१९॥
‘आओ-आओ, चलें इन वानरों के पास। इनका घमंड बहुत बढ़ गया है। मधुवन के उत्तम मधु को लूटकर खाने वाले इन सबको मैं बलपूर्वक रोदूंगा’।
श्रुत्वा दधिमुखस्येदं वचनं वानरर्षभाः।
पुनर्वीरा मधुवनं तेनैव सहिता ययुः॥२०॥
दधिमुख का यह वचन सुनकर वे वीर कपिश्रेष्ठ पुनः उन्हीं के साथ मधुवन को गये॥ २० ॥
मध्ये चैषां दधिमुखः सुप्रगृह्य महातरुम्।
समभ्यधावन् वेगेन सर्वे ते च प्लवंगमाः॥२१॥
इनके बीच में खड़े हुए दधिमुख ने एक विशाल वृक्ष हाथ में लेकर बड़े वेग से हनुमान जी के दलपर धावा किया। साथ ही वे सब वानर भी उन मधु पीने वाले वानरों पर टूट पड़े॥२१॥
ते शिलाः पादपांश्चैव पाषाणानपि वानराः।
गृहीत्वाभ्यागमन् क्रुद्धा यत्र ते कपिकुञ्जराः॥२२॥
क्रोध से भरे हुए वे वानर शिला, वृक्ष और पाषाण लिये उस स्थान पर आये, जहाँ वे हनुमान् आदि कपिश्रेष्ठ मधु का सेवन कर रहे थे॥ २२ ॥
बलान्निवारयन्तश्च आसेदुर्हरयो हरीन्।
संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा भर्त्सयन्तो मुहुर्मुहुः॥ २३॥
अपने ओठों को दाँतों से दबाते और क्रोधपूर्वक बारंबार धमकाते हुए ये सब वानर उन वानरों को बलपूर्वक रोकने के लिये उनके पास आ पहुँचे॥२३॥
अथ दृष्ट्वा दधिमुखं क्रुद्धं वानरपुङ्गवाः।
अभ्यधावन्त वेगेन हनुमत्प्रमुखास्तदा ॥२४॥
दधिमुख को कुपित हुआ देख हनुमान् आदि सभी श्रेष्ठ वानर उस समय बड़े वेग से उनकी ओर दौड़े। २४॥
सवृक्षं तं महाबाहुमापतन्तं महाबलम्।
वेगवन्तं विजग्राह बाहुभ्यां कुपितोऽङ्गदः॥२५॥
वृक्ष लेकर आते हुए वेगशाली महाबली महाबाहु दधिमुख को कुपित हुए अङ्गद ने दोनों हाथों से पकड़ लिया॥
मदान्धो न कृपां चक्रे आर्यकोऽयं ममेति सः।
अथैनं निष्पिपेषाशु वेगेन वसुधातले॥२६॥
वे मधु पीकर मदान्ध हो रहे थे, अतः ‘ये मेरे नाना हैं’ ऐसा समझकर उन्होंने उनपर दया नहीं दिखायी। वे तुरंत बड़े वेग से पृथ्वी पर पटककर उन्हें रगड़ने लगे॥२६॥
स भग्नबाहूरुमुखो विह्वलः शोणितोक्षितः।
प्रमुमोह महावीरो मुहूर्तं कपिकुञ्जरः॥ २७॥
उनकी भुजाएँ, जाँघे और मुँह सभी टूट-फूट गये। वे खून से नहा गये और व्याकुल हो उठे। वे महावीर कपिकुञ्जर दधिमुख वहाँ दो घड़ी तक मूर्च्छित पड़े रहे॥ २७॥
स कथंचिद विमुक्तस्तैर्वानरैर्वानरर्षभः।
उवाचैकान्तमागत्य स्वान् भृत्यान् समुपागतान्॥२८॥
उन वानरों के हाथ से किसी तरह छुटकारा मिलने पर वानरश्रेष्ठ दधिमुख एकान्त में आये और वहाँ एकत्र हुए अपने सेवकों से बोले- ॥२८॥
एतागच्छत गच्छामो भर्ता नो यत्र वानरः।
सुग्रीवो विपुलग्रीवः सह रामेण तिष्ठति ॥२९॥
‘आओ-आओ, अब वहाँ चलें, जहाँ हमारे स्वामी मोटी गर्दन वाले सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी के साथ विराजमान हैं॥ २९॥
सर्वं चैवाङ्गदे दोषं श्रावयिष्याम पार्थिवे।
अमर्षी वचनं श्रुत्वा घातयिष्यति वानरान्॥३०॥
‘राजा के पास चलकर सारा दोष अङ्गद के माथे मढ़ देंगे। सुग्रीव बड़े क्रोधी हैं। मेरी बात सुनकर वे इन सभी वानरों को मरवा डालेंगे॥३०॥
इष्टं मधुवनं ह्येतत् सुग्रीवस्य महात्मनः।
पितृपैतामहं दिव्यं देवैरपि दुरासदम्॥३१॥
‘महात्मा सुग्रीव को यह मधुवन बहुत ही प्रिय है। यह उनके बाप-दादों का दिव्य वन है। इसमें प्रवेश करना देवताओं के लिये भी कठिन है॥३१॥
स वानरानिमान् सर्वान् मधुलुब्धान् गतायुषः।
घातयिष्यति दण्डेन सुग्रीवः ससुहृज्जनान्॥३२॥
‘मधु के लोभी इन सभी वानरों की आयु समाप्त हो चली है। सुग्रीव इन्हें कठोर दण्ड देकर इनके सुहृदोंसहित इन सबको मरवा डालेंगे॥ ३२ ॥
वध्या ह्येते दुरात्मानो नृपाज्ञापरिपन्थिनः।
अमर्षप्रभवो रोषः सफलो मे भविष्यति॥३३॥
‘राजा की आज्ञाका उल्लङ्घन करने वाले ये दुरात्मा राजद्रोही वानर वध के ही योग्य हैं। इनका वध होने पर ही मेरा अमर्षजनित रोष सफल होगा’॥३३॥
एवमुक्त्वा दधिमुखो वनपालान् महाबलः।
जगाम सहसोत्पत्य वनपालैः समन्वितः॥३४॥
वनके रक्षकों से ऐसा कहकर उन्हें साथ ले महाबली दधिमुख सहसा उछलकर आकाशमार्ग से चले॥ ३४॥
निमेषान्तरमात्रेण स हि प्राप्तो वनालयः।
सहस्रांशुसुतो धीमान् सुग्रीवो यत्र वानरः॥ ३५॥
और पलक मारते-मारते वे उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ बुद्धिमान् सूर्यपुत्र वानरराज सुग्रीव विराजमान थे॥ ३५॥
रामं च लक्ष्मणं चैव दृष्ट्वा सुग्रीवमेव च।
समप्रतिष्ठां जगतीमाकाशान्निपपात ह॥३६॥
श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव को दूर से ही देखकर वे आकाश से समतल भूमि पर कूद पड़े ॥ ३६॥
स निपत्य महावीरः सर्वैस्तैः परिवारितः।
हरिर्दधिमुखः पालैः पालानां परमेश्वरः॥३७॥
स दीनवदनो भूत्वा कृत्वा शिरसि चाञ्जलिम्।
सुग्रीवस्याशु तौ मूर्जा चरणौ प्रत्यपीडयत्॥३८॥
वनरक्षकों के स्वामी महावीर वानर दधिमुख पृथ्वी पर उतरकर उन रक्षकों से घिरे हुए उदास मुख किये सुग्रीव के पास गये और सिरपर अञ्जलि बाँधे उनके चरणों में मस्तक झुकाकर उन्होंने प्रणाम किया॥ ३७-३८॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे द्विषष्टितमः सर्गः॥६२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में बासठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६२॥