वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 63 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 63
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
त्रिषष्टितमः सर्गः (सर्ग 63)
दधिमुख से मधुवन के विध्वंस का समाचार सुनकर सुग्रीव का हनुमान् आदि वानरों की सफलता के विषय में अनुमान
ततो मूर्जा निपतितं वानरं वानरर्षभः।
दृष्ट्वैवोद्रिग्नहृदयो वाक्यमेतदुवाच ह॥१॥
वानर दधिमुखको माथा टेक प्रणाम करते देख वानरशिरोमणि सुग्रीव का हृदय उद्विग्न हो उठा। वे उनसे इस प्रकार बोले- ॥१॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कस्मात् त्वं पादयोः पतितो मम।
अभयं ते प्रदास्यामि सत्यमेवाभिधीयताम्॥२॥
‘उठो-उठो! तुम मेरे पैरों पर कैसे पड़े हो? मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ। तुम सच्ची बात बताओ॥२॥
किं सम्भ्रमाद्धितं कृत्स्नं ब्रूहि यद् वक्तुमर्हसि।
कच्चिन्मधुवने स्वस्ति श्रोतुमिच्छामि वानर ॥३॥
‘कहो, किसके भयसे यहाँ आये हो। जो पूर्णतः हितकर बात हो, उसे बताओ; क्योंकि तुम सब कुछ कहने के योग्य हो। मधुवन में कुशल तो है न? वानर! मैं तुम्हारे मुखसे यह सब सुनना चाहता हूँ’॥३॥
स समाश्वासितस्तेन सुग्रीवेण महात्मना।
उत्थाय स महाप्राज्ञो वाक्यं दधिमुखोऽब्रवीत्॥४॥
महात्मा सुग्रीव के इस प्रकार आश्वासन देने पर महाबुद्धिमान् दधिमुख खड़े होकर बोले- ॥४॥
नैवर्लरजसा राजन् न त्वया न च वालिना।
वनं निसृष्टपूर्वं ते नाशितं तत्तु वानरैः॥५॥
‘राजन्! आपके पिता ऋक्षरजाने, वाली ने और आपने भी पहले कभी जिस वन के मनमाने उपभोग के लिये किसी को आज्ञा नहीं दी थी, उसीका हनुमान् आदि वानरों ने आज नाश कर दिया॥५॥
न्यवारयमहं सर्वान् सहैभिर्वनचारिभिः।
अचिन्तयित्वा मां हृष्टा भक्षयन्ति पिबन्ति च॥६॥
‘मैंने इन वनरक्षक वानरों के साथ उन सबको रोकने की बहुत चेष्टा की, परंतु वे मुझे कुछ भी न समझकर बड़े हर्ष के साथ फल खाते और मधु पीते हैं।
एभिः प्रधर्षणायां च वारितं वनपालकैः।।
मामप्यचिन्तयन् देव भक्षयन्ति वनौकसः॥७॥
‘देव! इन हनुमान् आदि वानरोंने जब मधुवन में लूट मचाना आरम्भ किया, तब हमारे इन वनरक्षकों ने उन सबको रोकने की चेष्टा की; परंतु वे वानर इनको और मुझे भी कुछ नहीं गिनते हुए वहाँ के फल आदि का भक्षण कर रहे हैं॥७॥
शिष्टमत्रापविध्यन्ति भक्षयन्ति तथापरे।
निवार्यमाणास्ते सर्वे भ्रकुटिं दर्शयन्ति हि॥८॥
‘दूसरे, वानर वहाँ खाते-पीते तो हैं ही, उनके सामने जो कुछ बच जाता है, उसे उठाकर फेंक देते हैं और जब हमलोग रोकते हैं, तब वे सब हमें टेढ़ी भौंहें दिखाते हैं॥ ८॥
इमे हि संरब्धतरास्तदा तैः सम्प्रधर्षिताः।।
निवार्यन्ते वनात् तस्मात् क्रुद्धैर्वानरपुङ्गवैः॥९॥
‘जब ये रक्षक उनपर अधिक कुपित हुए, तब उन्होंने इन पर आक्रमण कर दिया। इतना ही नहीं, क्रोध से भरे हुए उन वानरपुङ्गवों ने इन रक्षकों को उस वन से बाहर निकाल दिया॥९॥
ततस्तैर्बहुभिर्वीरैर्वानरैर्वानरर्षभाः।
संरक्तनयनैः क्रोधाद्धरयः सम्प्रधर्षिताः॥१०॥
‘बाहर निकालकर उन बहुसंख्यक वीर वानरों ने क्रोध से लाल आँखें करके वन की रक्षा करने वाले इन श्रेष्ठ वानरों को धर दबाया॥१०॥
पाणिभिर्निहताः केचित् केचिज्जानुभिराहताः।
प्रकृष्टाश्च तदा कामं देवमार्गं च दर्शिताः॥११॥
‘किन्हीं को थप्पड़ों से मारा, किन्हीं को घुटनों से रगड़ दिया, बहुतों को इच्छानुसार घसीटा और कितनों को पीठ के बल पटककर आकाश दिखा दिया॥११॥
एवमेते हताः शूरास्त्वयि तिष्ठति भर्तरि।
कृत्स्नं मधुवनं चैव प्रकामं तैश्च भक्ष्यते॥१२॥
‘प्रभो! आप-जैसे स्वामी के रहते हुए ये शूरवीर वनरक्षक उनके द्वारा इस तरह मारे-पीटे गये हैं और वे अपराधी वानर अपनी इच्छा के अनुसार सारे मधुवन का उपभोग कर रहे हैं ॥ १२॥
एवं विज्ञाप्यमानं तं सुग्रीवं वानरर्षभम्।
अपृच्छत् तं महाप्राज्ञो लक्ष्मणः परवीरहा॥१३॥
वानरशिरोमणि सुग्रीव को जब इस प्रकार मधुवन के लूटे जाने का वृत्तान्त बताया जा रहा था, उस समय शत्रुवीरों का संहार करने वाले परम बुद्धिमान् लक्ष्मण ने उनसे पूछा- ॥१३॥
किमयं वानरो राजन् वनपः प्रत्युपस्थितः।
किं चार्थमभिनिर्दिश्य दुःखितो वाक्यमब्रवीत्॥१४॥
‘राजन्! वन की रक्षा करने वाला यह वानर यहाँ किसलिये उपस्थित हुआ है? और किस विषय की ओर संकेत करके इसने दुःखी होकर बात की है?’॥
एवमुक्तस्तु सुग्रीवो लक्ष्मणेन महात्मना।
लक्ष्मणं प्रत्युवाचेदं वाक्यं वाक्यविशारदः॥१५॥
महात्मा लक्ष्मण के इस प्रकार पूछने पर बातचीत करने में कुशल सुग्रीव ने यों उत्तर दिया- ॥ १५ ॥
आर्य लक्ष्मण सम्प्राह वीरो दधिमुखः कपिः।
अङ्गदप्रमुखैवीरैर्भक्षितं मधु वानरैः॥१६॥
‘आर्य लक्ष्मण! वीर वानर दधिमुख ने मुझसे यह कहा है कि ‘अङ्गद आदि वीर वानरों ने मधुवन का सारा मधु खा-पी लिया है’ ॥ १६॥
नैषामकृतकार्याणामीदृशः स्याद् व्यतिक्रमः।
वनं यदभिपन्नास्ते साधितं कर्म तद् ध्रुवम्॥१७॥
‘इसकी बात सुनकर मुझे यह अनुमान होता है कि वे जिस कार्य के लिये गये थे, उसे अवश्य ही उन्होंने पूरा कर लिया है। तभी उन्होंने मधुवन पर आक्रमण किया है। यदि वे अपना कार्य सिद्ध करके न आये होते तो उनके द्वारा ऐसा अपराध नहीं बना होता—वे मेरे मधुवन को लूटने का साहस नहीं कर सकते थे। १७॥
वारयन्तो भृशं प्राप्ताः पाला जानुभिराहताः।
तथा न गणितश्चायं कपिर्दधिमुखो बली॥१८॥
पतिर्मम वनस्यायमस्माभिः स्थापितः स्वयम्।
दृष्टा देवी न संदेहो न चान्येन हनूमता॥१९॥
‘जब रक्षक उन्हें बारंबार रोकने के लिये आये, तब उन्होंने इन सबको पटककर घुटनों से रगड़ा है तथा इन बलवान् वानर दधिमुख को भी कुछ नहीं समझा है। ये ही मेरे उस वन के मालिक या प्रधान रक्षक हैं। मैंने स्वयं ही इन्हें इस कार्य में नियुक्त किया है (फिर भी उन्होंने इनकी बात नहीं मानी है)। इससे जान पड़ता है, उन्होंने देवी सीता का दर्शन अवश्य कर लिया। इसमें कोई संदेह नहीं है। यह काम और किसी का नहीं, हनुमान जी का ही है (उन्होंने ही सीता का दर्शन किया है)।
न ह्यन्यः साधने हेतुः कर्मणोऽस्य हनूमतः।
कार्यसिद्धिहनुमति मतिश्च हरिपुङ्गवे॥२०॥
व्यवसायश्च वीर्यं च श्रुतं चापि प्रतिष्ठितम्।
‘इस कार्य को सिद्ध करने में हनुमान जी के सिवा और कोई कारण बना हो, ऐसा सम्भव नहीं है। वानरशिरोमणि हनुमान् में ही कार्य-सिद्धि की शक्ति और बुद्धि है। उन्हीं में उद्योग, पराक्रम और शास्त्रज्ञान भी प्रतिष्ठित है॥
जाम्बवान् यत्र नेता स्यादङ्गदश्च महाबलः॥२१॥
हनूमांश्चाप्यधिष्ठाता न तत्र गतिरन्यथा।
‘जिस दल के नेता जाम्बवान् और महाबली अङ्गद हों तथा अधिष्ठाता हनुमान् हों, उस दल को विपरीत परिणाम- असफलता मिले, यह सम्भव नहीं है। २१ १/२॥
अङ्गदप्रमुखैरैिर्हतं मधुवनं किल ॥२२॥
विचित्य दक्षिणामाशामागतैर्हरिपुङ्गवैः।
आगतैश्चाप्रधृष्यं तद्धतं मधुवनं हि तैः॥२३॥
धर्षितं च वनं कृत्स्नमुपयुक्तं तु वानरैः।
पातिता वनपालास्ते तदा जानुभिराहताः॥२४॥
एतदर्थमयं प्राप्तो वक्तुं मधुरवागिह।
नाम्ना दधिमुखो नाम हरिः प्रख्यातविक्रमः॥२५॥
‘दक्षिण दिशा से सीताजी का पता लगाकर लौटे हुए अङ्गद आदि वीर वानरपुङ्गवों ने उस मधुवन पर प्रहार किया है, जिसे पददलित करना किसी के लिये भी असम्भव था। उन्होंने मधुवन को नष्ट किया, उजाड़ा और सब वानरों ने मिलकर समूचे वन का मनमाने ढंग से उपभोग किया। इतना ही नहीं, उन्होंने वन के रक्षकों को भी दे मारा और उन्हें अपने घुटनों से मारमारकर घायल किया। इसी बात को बताने के लिये ये विख्यात पराक्रमी वानर दधिमुख, जो बड़े मधुरभाषी हैं यहाँ आये हैं।। २२–२५ ॥
दृष्टा सीता महाबाहो सौमित्रे पश्य तत्त्वतः।
अभिगम्य यथा सर्वे पिबन्ति मधु वानराः॥२६॥
‘महाबाहु सुमित्रानन्दन! इस बात को आप ठीक समझें कि अब सीता का पता लग गया; क्योंकि वे सभी वानर उस वन में जाकर मधु पी रहे हैं॥२६॥
न चाप्यदृष्ट्वा वैदेहीं विश्रुताः पुरुषर्षभ।
वनं दत्तवरं दिव्यं धर्षयेयुर्वनौकसः॥ २७॥
‘पुरुषप्रवर! विदेहनन्दिनी का दर्शन किये बिना उस दिव्य वन का, जो देवताओं से मेरे पूर्वज को वरदान के रूप में प्राप्त हुआ है, वे विख्यात वानर कभी विध्वंस नहीं कर सकते थे’॥ २७॥
ततः प्रहृष्टो धर्मात्मा लक्ष्मणः सहराघवः।
श्रुत्वा कर्णसुखां वाणीं सुग्रीववदनाच्च्युताम्॥२८॥
प्राहृष्यत भृशं रामो लक्ष्मणश्च महायशाः।
सुग्रीव के मुख से निकली हुई कानों को सुख देने वाली यह बात सुनकर धर्मात्मा लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रजी के साथ बहुत प्रसन्न हुए। श्रीराम के हर्ष की सीमा न रही और महायशस्वी लक्ष्मण भी हर्ष से खिल उठे॥ २८ १/२॥
श्रुत्वा दधिमुखस्यैवं सुग्रीवस्तु प्रहृष्य च॥२९॥
वनपालं पुनर्वाक्यं सुग्रीवः प्रत्यभाषत।
दधिमुख की उपर्युक्त बात सुनकर सुग्रीव को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने अपने वनरक्षक को फिर इस प्रकार उत्तर दिया- ॥ २९ १/२ ॥
प्रीतोऽस्मि सोऽहं यद्भक्तं वनं तैः कृतकर्मभिः॥३०॥
धर्षितं मर्षणीयं च चेष्टितं कृतकर्मणाम्।
गच्छ शीघ्रं मधुवनं संरक्षस्व त्वमेव हि।
शीघ्रं प्रेषय सर्वांस्तान् हनूमत्प्रमुखान् कपीन्॥३१॥
‘मामा! अपना कार्य सिद्ध करके लौटे हुए उन वानरों ने जो मेरे मधुवन का उपभोग किया है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हुआ हूँ; अतः तुम्हें भी कृतकृत्य होकर आये हुए उन कपियों की ढिठाई तथा उद्दण्डतापूर्ण चेष्टाओं को क्षमा कर देना चाहिये। अब शीघ्र जाओ और तुम्हीं उस मधुवन की रक्षा करो। साथ ही हनुमान् आदि सब वानरों को जल्दी यहाँ भेजो॥ ३०-३१॥
इच्छामि शीघ्रं हनुमत्प्रधानान्शाखामृगांस्तान् मृगराजदोन्।
प्रष्टुं कृतार्थान् सह राघवाभ्यां श्रोतुं च सीताधिगमे प्रयत्नम्॥३२॥
‘मैं सिंह के समान दर्प से भरे हुए उन हनुमान् आदि वानरों से शीघ्र मिलना चाहता हूँ और इन दोनों रघुवंशी बन्धुओं के साथ मैं उन कृतार्थ होकर लौटे हुए वीरों से यह पूछना तथा सुनना चाहता हूँ कि सीता की प्राप्ति के लिये क्या प्रयत्न किया जाय॥ ३२॥
प्रीतिस्फीताक्षौ सम्प्रहृष्टौ कुमारौ दृष्ट्वा सिद्धार्थौ वानराणां च राजा।
अङ्गैः प्रहृष्टैः कार्यसिद्धिं विदित्वा बाह्वोरासन्नामतिमात्रं ननन्द ॥३३॥
वे दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण पूर्वोक्त समाचार से अपने को सफलमनोरथ मानकर हर्ष से पुलकित हो गये थे। उनकी आँखें प्रसन्नता से खिल उठी थीं। उन्हें इस तरह प्रसन्न देख तथा अपने हर्षोत्फुल्ल अङ्गों से कार्यसिद्धि को हाथों में आयी हुई जान वानरराज सुग्रीव अत्यन्त आनन्द में निमग्न हो गये॥३३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः॥६३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६३॥