वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 64 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 64
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
चतुःषष्टितमः सर्गः (सर्ग 64)
दधिमुख से सुग्रीव का संदेश सुनकर अङ्गद-हनुमान् आदि वानरों का किष्किन्धा में पहुँचना और हनमान जी का श्रीराम को प्रणाम करके सीता देवी के दर्शन का समाचार बताना
सुग्रीवेणैवमुक्तस्तु हृष्टो दधिमुखः कपिः।
राघवं लक्ष्मणं चैव सुग्रीवं चाभ्यवादयत्॥१॥
सुग्रीव के ऐसा कहने पर प्रसन्नचित्त वानर दधिमुख ने श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव को प्रणाम किया॥१॥
स प्रणम्य च सुग्रीवं राघवौ च महाबलौ।
वानरैः सहितः शूरैर्दिवमेवोत्पपात ह॥२॥
सुग्रीव तथा उन महाबली रघुवंशी बन्धुओं को प्रणाम करके वे शूरवीर वानरों के साथ आकाशमार्ग से उड़ चले॥
स यथैवागतः पूर्वं तथैव त्वरितं गतः।
निपत्य गगनाद् भूमौ तद् वनं प्रविवेश ह॥३॥
जैसे पहले आये थे, उतनी ही शीघ्रता से वे वहाँ जा पहुँचे और आकाश से पृथ्वी पर उतरकर उन्होंने उस मधुवन में प्रवेश किया॥३॥
स प्रविष्टो मधुवनं ददर्श हरियूथपान्।
विमदानुद्धतान् सर्वान् मेहमानान् मधूदकम्॥४॥
मधुवन में प्रविष्ट होकर उन्होंने देखा कि समस्त वानर-यूथपति जो पहले उद्दण्ड हो रहे थे, अब मदरहित हो गये हैं—इनका नशा उतर गया है और ये मधुमिश्रित जल का मेहन (मूत्रेन्द्रिय द्वारा त्याग) कर रहे हैं॥४॥
स तानुपागमद् वीरो बद्ध्वा करपुटाञ्जलिम्।
उवाच वचनं श्लक्ष्णमिदं हृष्टवदङ्गदम्॥५॥
वीर दधिमुख उनके पास गये और दोनों हाथों की अञ्जलि बाँध अङ्गद से हर्षयुक्त मधुर वाणी में इस प्रकार बोले- ॥५॥
सौम्य रोषो न कर्तव्यो यदेभिः परिवारणम्।
अज्ञानाद् रक्षिभिः क्रोधाद् भवन्तः प्रतिषेधिताः॥६॥
‘सौम्य ! इन रक्षकों ने जो अज्ञानवश आपको रोका था, क्रोधपूर्वक आपलोगों को मधु पीने से मना किया था, इसके लिये आप अपने मन में क्रोध न करें॥६॥
श्रान्तो दूरादनुप्राप्तो भक्षयस्व स्वकं मधु।
युवराजस्त्वमीशश्च वनस्यास्य महाबल॥७॥
‘आपलोग दूर से थके-माँदे आये हैं, अतः फल खाइये और मधु पीजिये। यह सब आपकी ही सम्पत्ति है। महाबली वीर! आप हमारे युवराज और इस वन के स्वामी हैं॥७॥
मौात् पूर्वं कृतो रोषस्तद् भवान् क्षन्तुमर्हति।
यथैव हि पिता तेऽभूत् पूर्वं हरिगणेश्वरः॥८॥
तथा त्वमपि सुग्रीवो नान्यस्तु हरिसत्तम।
‘कपिश्रेष्ठ! मैंने पहले मूर्खतावश जो रोष प्रकट किया था, उसे आप क्षमा करें; क्योंकि पूर्वकाल में जैसे आपके पिता वानरों के राजा थे, उसी प्रकार आप और सुग्रीव भी हैं। आपलोगों के सिवा दूसरा कोई हमारा स्वामी नहीं है। ८ १/२ ॥
आख्यातं हि मया गत्वा पितृव्यस्य तवानघ॥९॥
इहोपयानं सर्वेषामेतेषां वनचारिणाम्।
भवदागमनं श्रुत्वा सहैभिर्वनचारिभिः॥१०॥
प्रहृष्टो न तु रुष्टोऽसौ वनं श्रुत्वा प्रधर्षितम्।
‘निष्पाप युवराज! मैंने यहाँ से जाकर आपके चाचा सुग्रीव से इन सब वानरों के यहाँ पधारने का हाल कहा था। इन वानरों के साथ आपका आगमन सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए। इस वनके विध्वंस का समाचार सुनकर भी उन्हें रोष नहीं हुआ॥९-१० १/२॥
प्रहृष्टो मां पितृव्यस्ते सुग्रीवो वानरेश्वरः॥११॥
शीघ्रं प्रेषय सर्वांस्तानिति होवाच पार्थिवः।
‘आपके चाचा वानरराज सुग्रीव ने बड़े हर्ष के साथ मुझसे कहा है कि उन सबको शीघ्र यहाँ भेजो’ ॥ ११ १/२॥
श्रुत्वा दधिमुखस्यैतद् वचनं श्लक्ष्णमङ्गदः॥१२॥
अब्रवीत् तान् हरिश्रेष्ठो वाक्यं वाक्यविशारदः।
दधिमुख की यह बात सुनकर बातचीत करने में कुशल कपिश्रेष्ठ अङ्गद ने उन सबसे मधुर वाणी में कहा-॥
शङ्के श्रुतोऽयं वृत्तान्तो रामेण हरियूथपाः॥१३॥
अयं च हर्षादाख्याति तेन जानामि हेतुना।
तत् क्षमं नेह नः स्थातुं कृते कार्ये परंतपाः॥१४॥
‘वानरयूथपतियो! जान पड़ता है भगवान् श्रीराम ने हमलोगों के लौटने का समाचार सुन लिया; क्योंकि ये बहुत प्रसन्न होकर वहाँ की बात सुना रहे हैं। इसी से मुझे ऐसा ज्ञात होता है। अतः शत्रुओं को संताप देने वाले वीरो! कार्य पूरा हो जाने पर अब हमलोगों को यहाँ अधिक नहीं ठहरना चाहिये॥१३-१४ ॥
पीत्वा मधु यथाकामं विक्रान्ता वनचारिणः।
किं शेषं गमनं तत्र सुग्रीवो यत्र वानरः॥१५॥
‘पराक्रमी वानर इच्छानुसार मधु पी चुके। अब यहाँ कौन-सा कार्य शेष है। इसलिये वहीं चलना चाहिये, जहाँ वानरराज सुग्रीव हैं॥ १५ ॥
सर्वे यथा मां वक्ष्यन्ति समेत्य हरिपुङ्गवाः।
तथास्मि कर्ता कर्तव्ये भवद्भिः परवानहम्॥
‘वानरपुङ्गवो! आप सब लोग मिलकर मुझसे जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगा; क्योंकि कर्तव्य के विषय में मैं आपलोगों के अधीन हूँ॥१६॥
नाज्ञापयितुमीशोऽहं युवराजोऽस्मि यद्यपि।
अयुक्तं कृतकर्माणो यूयं धर्षयितुं बलात्॥१७॥
‘यद्यपि मैं युवराज हूँ तो भी आपलोगों पर हुक्म नहीं चला सकता। आपलोग बहुत बड़ा कार्य पूरा करके आये हैं, अतः बलपूर्वक आप पर शासन चलाना कदापि उचित नहीं है’ ॥ १७॥
ब्रुवतश्चाङ्गदस्यैवं श्रुत्वा वचनमुत्तमम्।
प्रहृष्टमनसो वाक्यमिदमूचुर्वनौकसः॥१८॥
उस समय इस तरह बोलते हुए अङ्गद का उत्तम वचन सुनकर सब वानरों का चित्त प्रसन्न हो गया और वे इस प्रकार बोले- ॥१८॥
एवं वक्ष्यति को राजन् प्रभुः सन् वानरर्षभ।
ऐश्वर्यमदमत्तो हि सर्वोऽहमिति मन्यते॥१९॥
‘राजन् ! कपिश्रेष्ठ ! स्वामी होकर भी अपने अधीन रहने वाले लोगों से कौन इस तरह की बात करेगा? प्रायः सब लोग ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो अहंकारवश अपने को ही सर्वोपरि मानने लगते हैं। १९॥
तव चेदं सुसदृशं वाक्यं नान्यस्य कस्यचित्।
सन्नतिर्हि तवाख्याति भविष्यच्छुभयोग्यताम्॥२०॥
‘आपकी यह बात आपके ही योग्य है। दूसरे किसी के मुँह से प्रायः ऐसी बात नहीं निकलती। यह नम्रता आपकी भावी शुभयोग्यता का परिचय दे रही है॥ २० ॥
सर्वे वयमपि प्राप्तास्तत्र गन्तुं कृतक्षणाः।
स यत्र हरिवीराणां सुग्रीवः पतिरव्ययः॥२१॥
‘हम सब लोग भी जहाँ वानरवीरों के अविनाशी पति सुग्रीव विराजमान हैं, वहाँ चलने के लिये उत्साहित हो यहाँ आपके समीप आये हैं ॥ २१॥
त्वया ह्यनुक्तैर्हरिभि व शक्यं पदात् पदम्।
क्वचिद् गन्तुं हरिश्रेष्ठ ब्रूमः सत्यमिदं तु ते॥२२॥
‘वानरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञा प्राप्त हुए बिना हम वानरगण कहीं एक पग भी नहीं जा सकते, यह आपसे सच्ची बात कहते हैं’॥ २२॥
एवं तु वदतां तेषामङ्गदः प्रत्यभाषत।
साधु गच्छाम इत्युक्त्वा खमुत्पेतुर्महाबलाः॥२३॥
वे वानरगण जब ऐसी बातें कहने लगे, तब अङ्गद बोले—’बहुत अच्छा, अब हमलोग चलें।’ इतना कहकर वे महाबली वानर आकाश में उड़ चले॥ २३॥
उत्पतन्तमनूत्पेतुः सर्वे ते हरियूथपाः।
कृत्वाऽऽकाशं निराकाशं यन्त्रोत्क्षिप्ता इवोपलाः॥२४॥
आगे-आगे अङ्गद और उनके पीछे वे समस्त वानरयूथपति उड़ने लगे। वे आकाश को आच्छादित करके गुलेल से फेंके गये पत्थरों की भाँति तीव्रगति से जा रहे थे॥२४॥
अङ्गदं पुरतः कृत्वा हनूमन्तं च वानरम्।
तेऽम्बरं सहसोत्पत्य वेगवन्तः प्लवङ्गमाः॥२५॥
विनदन्तो महानादं घना वातेरिता यथा।
अङ्गद और वानरवीर हनुमान् को आगे करके सभी वेगवान् वानर सहसा आकाश में उछलकर वायु से उड़ाये गये बादलों की भाँति बड़े जोर-जोर से गर्जना करते हुए किष्किन्धा के निकट जा पहुँचे॥ २५ १/२॥
अङ्गदे समनुप्राप्ते सुग्रीवो वानरेश्वरः॥२६॥
उवाच शोकसंतप्तं रामं कमललोचनम्।
अङ्गद के निकट पहुँचते ही वानरराज सुग्रीव ने शोकसंतप्त कमलनयन श्रीराम से कहा- ॥ २६ १/२॥
समाश्वसिहि भद्रं ते दृष्टा देवी न संशयः॥२७॥
नागन्तुमिह शक्यं तैरतीतसमयैरिह।
‘प्रभो! धैर्य धारण कीजिये। आपका कल्याण हो। सीता देवी का पता लग गया है, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि कृतकार्य हुए बिना दिये हुए समय की अवधि को बिताकर ये वानर कदापि यहाँ नहीं आ सकते थे॥
अङ्गदस्य प्रहर्षाच्च जानामि शुभदर्शन॥२८॥
न मत्सकाशमागच्छेत् कृत्ये हि विनिपातिते।
युवराजो महाबाहुः प्लवतामङ्गदो वरः॥२९॥
‘शुभदर्शन श्रीराम! अङ्गद की अत्यन्त प्रसन्नता से भी मुझे इसी बात की सूचना मिल रही है। यदि काम बिगाड़ दिया गया होता तो वानरों में श्रेष्ठ युवराज महाबाहु अङ्गद मेरे पास कदापि लौटकर नहीं आते॥ २८-२९॥
यद्यप्यकृतकृत्यानामीदृशः स्यादुपक्रमः।
भवेत् तु दीनवदनो भ्रान्तविप्लुतमानसः॥३०॥
‘यद्यपि कार्य सिद्ध न होने पर भी इस तरह लोगों का अपने घर लौटना देखा गया है, तथापि उस दशा में अङ्गद के मुखपर उदासी छायी होती और उनके चित्त में घबराहट के कारण उथल-पुथल मची होती॥
३०॥
पितृपैतामहं चैतत् पूर्वकैरभिरक्षितम्।
न मे मधुवनं हन्याददृष्ट्वा जनकात्मजाम्॥३१॥
‘मेरे बाप-दादों के इस मधुवन का, जिसकी पूर्वजों ने भी सदा रक्षा की है, कोई जनककिशोरी का दर्शन किये बिना विध्वंस नहीं कर सकता था॥ ३१॥
कौसल्या सुप्रजा राम समाश्वसिहि सुव्रत।
दृष्टा देवी न संदेहो न चान्येन हनूमता॥३२॥
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रीराम! आपको पाकर माता कौसल्या उत्तम संतान की जननी हुई हैं। आप धैर्य धारण कीजिये। इसमें कोई संदेह नहीं कि देवी सीता का दर्शन हो गया किसी और ने नहीं, हनुमान जी ने ही उनका दर्शन किया है॥ ३२ ॥
नान्यः कर्मणो हेतुः साधनेऽस्य हनूमतः।
हनूमतीह सिद्धिश्च मतिश्च मतिसत्तम॥३३॥
व्यवसायश्च शौर्यं च श्रुतं चापि प्रतिष्ठितम्।
जाम्बवान् यत्र नेता स्यादङ्गदश्च हरीश्वरः॥३४॥
हनूमांश्चाप्यधिष्ठाता न तत्र गतिरन्यथा।
‘मतिमानों में श्रेष्ठ रघुनन्दन! इस कार्य को सिद्ध करने में हनुमान जी के सिवा और कोई कारण बना हो, ऐसा सम्भव नहीं है। वानरशिरोमणि हनुमान् में ही कार्यसिद्धि की शक्ति और बुद्धि है। उन्हीं में उद्योग, पराक्रम और शास्त्रज्ञान भी प्रतिष्ठित है। जिस दल के नेता जाम्बवान् और महाबली अङ्गद हों तथा अधिष्ठाता हनुमान् हों, उस दल को विपरीत परिणाम -असफलता मिले, यह सम्भव नहीं है।
मा भूश्चिन्तासमायुक्तः सम्प्रत्यमितविक्रम॥३५॥
यदा हि दर्पितोदग्राः संगताः काननौकसः।
नैषामकृतकार्याणामीदृशः स्यादुपक्रमः॥३६॥
वनभङ्गेन जानामि मधूनां भक्षणेन च।
‘अमित पराक्रमी श्रीराम! अब आप चिन्ता न करें। ये वनवासी वानर जो इतने अहंकार में भरे हुए आ रहे हैं, कार्य सिद्ध हुए बिना इनका इस तरह आना सम्भव नहीं था। इनके मधु पीने और वन उजाड़ने से भी मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है’ ॥ ३५-३६ १/२॥
ततः किलकिलाशब्दं शुश्रावासन्नमम्बरे॥ ३७॥
हनूमत्कर्मदृप्तानां नदतां काननौकसाम्।
किष्किन्धामुपयातानां सिद्धिं कथयतामिव॥३८॥
वे इस प्रकार कह ही रहे थे कि उन्हें आकाश में निकट से वानरों की किलकारियाँ सुनायी दीं। हनुमान् जी के पराक्रमपर गर्व करके किष्किन्धा के पास आ गर्जना करने वाले वे वनवासी वानर मानो सिद्धि की सूचना दे रहे थे॥ ३७-३८॥
ततः श्रुत्वा निनादं तं कपीनां कपिसत्तमः।
आयताञ्चितलाङ्गलः सोऽभवद्हृष्टमानसः॥३९॥
उन वानरोंका वह सिंहनाद सुनकर कपिश्रेष्ठ सुग्रीव का हृदय हर्ष से खिल उठा। उन्होंने अपनी पूँछ लंबी एवं ऊँची कर दी॥ ३९॥
आजग्मुस्तेऽपि हरयो रामदर्शनकाङ्गिणः।
अङ्गदं पुरतः कृत्वा हनूमन्तं च वानरम्॥४०॥
इतने में ही श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन की इच्छा से अङ्गद और वानरवीर हनुमान् को आगे करके वे सब वानर वहाँ आ पहुँचे॥ ४०॥
तेऽङ्गदप्रमुखा वीराः प्रहृष्टाश्च मुदान्विताः।
निपेतुर्हरिराजस्य समीपे राघवस्य च॥४१॥
वे अङ्गद आदि वीर आनन्द और उत्साह से भरकर वानरराज सुग्रीव तथा रघुनाथजी के समीप आकाश से नीचे उतरे॥४१॥
हनूमांश्च महाबाहुः प्रणम्य शिरसा ततः।
नियतामक्षतां देवीं राघवाय न्यवेदयत्॥४२॥
महाबाहु हनुमान् ने श्रीरघुनाथजी के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और उन्हें यह बताया कि ‘देवी सीता पातिव्रत्य के कठोर नियमों का पालन करती हुई शरीर से सकुशल हैं’॥४२॥
दृष्टा देवीति हनुमददनादमृतोपमम्।
आकर्ण्य वचनं रामो हर्षमाप सलक्ष्मणः॥४३॥
‘मैंने देवी सीता का दर्शन किया है’ हनुमान जी के मुख से यह अमृत के समान मधुर वचन सुनकर लक्ष्मणसहित श्रीराम को बड़ी प्रसन्नता हुई॥४३॥
निश्चितार्थं ततस्तस्मिन् सुग्रीवं पवनात्मजे।
लक्ष्मणः प्रीतिमान् प्रीतं बहुमानादवैक्षत॥४४॥
पवनपुत्र हनुमान् के विषय में सुग्रीव ने पहले से ही निश्चय कर लिया था कि उन्हीं के द्वारा कार्य सिद्ध हुआ है। इसलिये प्रसन्न हुए लक्ष्मण ने प्रीतियुक्त सुग्रीव की ओर बड़े आदर से देखा॥४४॥
प्रीत्या च परयोपेतो राघवः परवीरहा।
बहुमानेन महता हनूमन्तमवैक्षत॥४५॥
शत्रुवीरों का संहार करनेवाले श्रीरघुनाथजी ने परम प्रीति और महान् सम्मान के साथ हनुमान जी की ओर देखा॥४५॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः॥६४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६४॥