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वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 65 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 65

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
पञ्चषष्टितमः सर्गः (सर्ग 65)

हनुमान जी का श्रीराम को सीता का समाचार सुनाना

 

ततः प्रस्रवणं शैलं ते गत्वा चित्रकाननम्।
प्रणम्य शिरसा रामं लक्ष्मणं च महाबलम्॥१॥
युवराजं पुरस्कृत्य सुग्रीवमभिवाद्य च।
प्रवृत्तिमथ सीतायाः प्रवक्तुमुपचक्रमुः॥२॥

तदनन्तर विचित्र काननों से सुशोभित प्रस्रवण पर्वत पर जाकर युवराज अङ्गद को आगे करके श्रीराम, महाबली लक्ष्मण तथा सुग्रीव को मस्तक झुकाकर प्रणाम करने के अनन्तर सब वानरों ने सीता का समाचार बताना आरम्भ किया- ॥ १-२॥

रावणान्तःपुरे रोधं राक्षसीभिश्च तर्जनम्।
रामे समनुरागं च यथा च नियमः कृतः॥३॥
एतदाख्याय ते सर्वं हरयो रामसंनिधौ।
वैदेहीमक्षतां श्रुत्वा रामस्तूत्तरमब्रवीत्॥४॥

‘सीता देवी रावण के अन्तःपुर में रोक रखी गयी हैं। राक्षसियाँ उन्हें धमकाती रहती हैं। श्रीराम के प्रति उनका अनन्य अनुराग है। रावण ने सीता के जीवित रहने के लिये केवल दो मास की अवधि दे रखी है।इस समय विदेह-कुमारी को कोई क्षति नहीं पहुँची है –वे सकुशल हैं।’ श्रीरामचन्द्रजी के निकट ये सब बातें बताकर वे वानर चुप हो गये। विदेहकुमारी के सकुशल होने का वृत्तान्त सुनकर श्रीराम ने आगे की बात पूछते हुए कहा— ॥३-४॥

क्व सीता वर्तते देवी कथं च मयि वर्तते।
एतन्मे सर्वमाख्यात वैदेहीं प्रति वानराः॥५॥

‘वानरो! देवी सीता कहाँ हैं? मेरे प्रति उनका कैसा भाव है ? विदेहकुमारी के विषय में ये सारी बातें मुझसे कहो’ ॥ ५॥

रामस्य गदितं श्रुत्वा हरयो रामसंनिधौ।
चोदयन्ति हनूमन्तं सीतावृत्तान्तकोविदम्॥६॥

श्रीरामचन्द्रजी का यह कथन सुनकर वे वानर श्रीराम के निकट सीता के वृत्तान्त को अच्छी तरह जानने वाले हनुमान जी को उत्तर देने के लिये प्रेरित करने लगे॥६॥

श्रुत्वा तु वचनं तेषां हनूमान् मारुतात्मजः।
प्रणम्य शिरसा देव्यै सीतायै तां दिशं प्रति॥७॥

उन वानरों की बात सुनकर पवनपुत्र हनुमान जी ने पहले देवी सीता के उद्देश्य से दक्षिण दिशा की ओर मस्तक झुकाकर प्रणाम किया॥७॥

उवाच वाक्यं वाक्यज्ञः सीताया दर्शनं यथा।
तं मणिं काञ्चनं दिव्यं दीप्यमानं स्वतेजसा॥८॥
दत्त्वा रामाय हनुमांस्ततः प्राञ्जलिरब्रवीत्।

फिर बातचीतकी कला को जानने वाले उन वानरवीर ने सीताजी का दर्शन जिस प्रकार हुआ था, वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तत्पश्चात् अपने तेज से प्रकाशित होने वाली उस दिव्य काञ्चनमणि को भगवान् श्रीराम के हाथ में देकर हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले- ॥ ८ १/२॥

समुद्रं लवयित्वाहं शतयोजनमायतम्॥९॥
अगच्छं जानकी सीतां मार्गमाणो दिदृक्षया।

‘प्रभो! मैं जनकनन्दिनी सीता के दर्शन की इच्छा से उनका पता लगाता हुआ सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघकर उसके दक्षिण किनारे पर जा पहुँचा॥ ९ १/२॥

तत्र लङ्केति नगरी रावणस्य दुरात्मनः॥१०॥
दक्षिणस्य समुद्रस्य तीरे वसति दक्षिणे।

‘वहीं दुरात्मा रावण की नगरी लङ्का है। वह समुद्र के दक्षिण तट पर ही बसी हुई है॥ १० १/२॥

तत्र सीता मया दृष्टा रावणान्तःपुरे सती॥११॥
त्वयि संन्यस्य जीवन्ती रामा राम मनोरथम्।
दृष्टा मे राक्षसीमध्ये तय॑माना मुहुर्मुहुः॥१२॥
राक्षसीभिर्विरूपाभी रक्षिता प्रमदावने।

‘श्रीराम! लङ्का में पहुँचकर मैंने रावण के अन्तःपुर में प्रमदावन के भीतर राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सतीसाध्वी सुन्दरी देवी सीता का दर्शन किया। वे अपनी सारी अभिलाषाओं को आप में ही केन्द्रित करके किसी तरह जीवन धारण कर रही हैं। विकराल रूपवाली राक्षसियाँ उनकी रखवाली करती हैं और बारंबार उन्हें डाँटती-फटकारती रहती हैं॥ ११-१२ १/२॥

दुःखमापद्यते देवी त्वया वीर सुखोचिता॥१३॥
रावणान्तःपुरे रुद्वा राक्षसीभिः सुरक्षिता।
एकवेणीधरा दीना त्वयि चिन्तापरायणा॥१४॥

‘वीरवर! देवी सीता आपके साथ सुख भोगनेके योग्य हैं, परंतु इस समय बड़े दुःखसे दिन बिता रही हैं। उन्हें रावणके अन्तःपुरमें रोक रखा गया है और वे राक्षसियोंके पहरेमें रहती हैं। सिरपर एक वेणी धारण किये दुःखी हो सदा आपकी चिन्तामें डूबी रहती हैं॥ १३-१४॥

अधःशय्या विवर्णाङ्गी पद्मिनीव हिमागमे।
रावणाद् विनिवृत्तार्था मर्तव्यकृतनिश्चया॥१५॥

‘वे नीचे भूमि पर सोती हैं जैसे जाड़े के दिनों में पाला पड़ने के कारण कमलिनी सूख जाती है, उसी प्रकार उनके अङ्गों की कान्ति फीकी पड़ गयी है। रावण से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। उन्होंने प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया है॥ १५ ॥

देवी कथंचित् काकुत्स्थ त्वन्मना मार्गिता मया।
इक्ष्वाकुवंशविख्यातिं शनैः कीर्तयतानघ॥१६॥
सा मया नरशार्दूल शनैर्विश्वासिता तदा।
ततः सम्भाषिता देवी सर्वमर्थं च दर्शिता॥१७॥

‘ककुत्स्थकुलभूषण! उनका मन निरन्तर आप में ही लगा रहता है। निष्पाप नरश्रेष्ठ ! मैंने बड़ा प्रयत्न करके किसी तरह महारानी सीता का पता लगाया और धीरे-धीरे इक्ष्वाकुवंश की कीर्ति का वर्णन करते हुए किसी प्रकार उनके हृदय में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न किया। तत्पश्चात् देवी से वार्तालाप करके मैंने यहाँ की सब बातें उन्हें बतलायीं॥ १६-१७॥

रामसुग्रीवसख्यं च श्रुत्वा हर्षमुपागता।
नियतः समुदाचारो भक्तिश्चास्याः सदा त्वयि॥१८॥

‘आपकी सुग्रीव के साथ मित्रता का समाचार सुनकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। उनका उच्चकोटि का आचार-विचार (पातिव्रत्य) सुदृढ़ है। वे सदा आप में ही भक्ति रखती हैं॥ १८॥

एवं मया महाभाग दृष्टा जनकनन्दिनी।
उग्रेण तपसा युक्ता त्वद्भक्त्या पुरुषर्षभ॥१९॥

‘महाभाग! पुरुषोत्तम! इस प्रकार जनकनन्दिनी को मैंने आपकी भक्ति से प्रेरित होकर कठोर तपस्या करते देखा है॥ १९॥

अभिज्ञानं च मे दत्तं यथावृत्तं तवान्तिके।
चित्रकूटे महाप्राज्ञ वायसं प्रति राघव॥२०॥

‘महामते! रघुनन्दन! चित्रकूटमें आपके पास देवी के रहते समय एक कौए को लेकर जो घटना घटित हुई थी, उस वृत्तान्त को उन्होंने पहचान के रूप में मुझसे कहा था॥ २० ॥

विज्ञाप्यः पुनरप्येष रामो वायुसुत त्वया।
अखिलेन यथा दृष्टमिति मामाह जानकी॥२१॥
अयं चास्मै प्रदातव्यो यत्नात् सुपरिरक्षितः।

‘जानकीजी ने आते समय मुझसे कहा —’वायुनन्दन! तुम यहाँ जैसी मेरी हालत देख चुके हो, वह सब भगवान् श्रीराम को बताना और इस मणि को बड़े यत्न से सुरक्षित रूप में ले जाकर उनके हाथ में देना ॥ २१ १/२॥

ब्रुवता वचनान्येवं सुग्रीवस्योपशृण्वतः॥२२॥
एष चूडामणिः श्रीमान् मया ते यत्नरक्षितः।
मनःशिलायास्तिलकं तत् स्मरस्वेति चाब्रवीत्॥२३॥
एष निर्यातितः श्रीमान् मया ते वारिसम्भवः।
एनं दृष्ट्वा प्रमोदिष्ये व्यसने त्वामिवानघ॥२४॥

‘ऐसे समय में देना, जब कि सुग्रीव भी निकट बैठकर तुम्हारी कही हुई बातें सुन रहे हों। साथ ही मेरी ये बातें भी उनसे निवेदन करना—’प्रभो! आपकी दी हुई यह कान्तिमती चूड़ामणि मैंने बड़े यत्न से सुरक्षित रखी थी। जल से प्रकट हुए इस दीप्तिमान् रत्न को मैंने आपकी सेवा में लौटाया है। निष्पाप रघुनन्दन! संकट के समय इसे देखकर मैं उसी प्रकार आनन्दमग्न हो जाती थी, जैसे आपके दर्शन से आनन्दित होती हूँ। आपने मेरे ललाट में जो मैनसिल का तिलक लगाया था, इसको स्मरण कीजिये’ ये बातें जानकीजी ने कही थीं॥ २२–२४॥

जीवितं धारयिष्यामि मासं दशरथात्मज।
ऊर्ध्वं मासान्न जीवेयं रक्षसां वशमागता॥२५॥

‘उन्होंने यह भी कहा—’दशरथनन्दन! मैं एक मास और जीवन धारण करूँगी। उसके बाद राक्षसों के वश में पड़कर प्राण त्याग दूंगी—किसी तरह जीवित नहीं रह सकूँगी’ ॥ २५ ॥

इति मामब्रवीत् सीता कृशाङ्गी धर्मचारिणी।
रावणान्तःपुरे रुद्धा मृगीवोत्फुल्ललोचना॥२६॥

‘इस प्रकार दुबले-पतले शरीरवाली धर्मपरायणा सीता ने मुझे आपसे कहने के लिये यह संदेश दिया था। वे रावण के अन्तःपुर में कैद हैं और भय के मारे आँख फाड़-फाड़कर इधर-उधर देखने वाली हरिणी के समान वे सशङ्क दृष्टि से सब ओर देखा करती हैं। २६॥

एतदेव मयाऽऽख्यातं सर्वं राघव यद् यथा।
सर्वथा सागरजले संतारः प्रविधीयताम्॥२७॥

‘रघुनन्दन! यही वहाँका वृत्तान्त है, जो सब-का सब मैंने आपकी सेवा में निवेदन कर दिया। अब सब प्रकार से समुद्र को पार करने का प्रयत्न कीजिये।२७॥

तौ जाताश्वासौ राजपुत्रौ विदित्वा तच्चाभिज्ञानं राघवाय प्रदाय।
देव्या चाख्यातं सर्वमेवानुपूर्व्याद् वाचा सम्पूर्णं वायुपुत्रः शशंस॥२८॥

राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण को कुछ आश्वासन मिल गया, ऐसा जानकर तथा वह पहचान श्रीरघुनाथजी के हाथ में देकर वायुपुत्र हनुमान् ने देवी सीता की कही हुई सारी बातें क्रमशः अपनी वाणी द्वारा पूर्ण रूप से कह सुनायीं॥ २८॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चषष्टितमः सर्गः॥६५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें पैंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ।६५॥


Spread the Glory of Sri SitaRam!

Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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