वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 7 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 7
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
सप्तमः सर्गः (7)
(रावण के भवन एवं पुष्पक विमान का वर्णन)
स वेश्मजालं बलवान् ददर्श व्यासक्तवैदूर्यसुवर्णजालम्।
यथा महत्प्रावृषि मेघजालं विद्युत्पिनद्धं सविहङ्गजालम्॥१॥
बलवान् वीर हनुमान् जी ने नीलम से जड़ी हुई सोने की खिड़कियों से सुशोभित तथा पक्षिसमूहों से युक्त भवनों का समुदाय देखा, जो वर्षाकाल में बिजली से युक्त महती मेघमाला के समान मनोहर जान पड़ता था॥१॥
निवेशनानां विविधाश्च शालाः प्रधानशङ्खायुधचापशालाः।
मनोहराश्चापि पुनर्विशाला ददर्श वेश्माद्रिषु चन्द्रशालाः॥२॥
उसमें नाना प्रकार की बैठकें, शङ्ख, आयुध और धनुषों की मुख्य-मुख्य शालाएँ तथा पर्वतों के समान ऊँचे महलों के ऊपर मनोहर एवं विशाल चन्द्रशालाएँ (अट्टालिकाएँ) देखीं॥२॥
गृहाणि नानावसुराजितानि देवासुरैश्चापि सुपूजितानि।
सर्वैश्च दोषैः परिवर्जितानि कपिर्ददर्श स्वबलार्जितानि॥३॥
कपिवर हनुमान् ने वहाँ नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित ऐसे-ऐसे घर देखे, जिनकी देवता और असुर भी प्रशंसा करते थे। वे गृह सम्पूर्ण दोषों से रहित थे तथा रावण ने उन्हें अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया था॥३॥
तानि प्रयत्नाभिसमाहितानि मयेन साक्षादिव निर्मितानि।
महीतले सर्वगुणोत्तराणि ददर्श लंकाधिपतेर्गृहाणि॥४॥
वे भवन बड़े प्रयत्न से बनाये गये थे और ऐसे अद्भुत लगते थे, मानो साक्षात् मयदानव ने ही उनका निर्माण किया हो। हनुमान जी ने उन्हें देखा, लंकापति रावण के वे घर इस भूतल पर सभी गुणों में सबसे बढ़चढ़कर थे॥ ४॥
ततो ददर्शोच्छ्रितमेघरूपं मनोहरं काञ्चनचारुरूपम्।
रक्षोऽधिपस्यात्मबलानुरूपं गृहोत्तमं ह्यप्रतिरूपरूपम्॥५॥
फिर उन्होंने राक्षसराज रावण का उसकी शक्ति के अनुरूप अत्यन्त उत्तम और अनुपम भवन (पुष्पक विमान) देखा, जो मेघ के समान ऊँचा, सुवर्ण के समान सुन्दर कान्तिवाला तथा मनोहर था॥ ५॥
महीतले स्वर्गमिव प्रकीर्ण श्रिया ज्वलन्तं बहुरत्नकीर्णम्।
नानातरूणां कुसुमावकीर्णं गिरेरिवाग्रं रजसावकीर्णम्॥६॥
वह इस भूतल पर बिखरे हुए स्वर्ण के समान जान पड़ता था। अपनी कान्ति से प्रज्वलित-सा हो रहा था। अनेकानेक रत्नों से व्याप्त, भाँति-भाँति के वृक्षों के फूलों से आच्छादित तथा पुष्पों के पराग से भरे हुए पर्वत-शिखर के समान शोभा पाता था॥ ६॥
नारीप्रवेकैरिव दीप्यमानं तडिद्भिरम्भोधरमय॑मानम्।
हंसप्रवेकैरिव वाह्यमानं श्रिया युतं खे सुकृतं विमानम्॥७॥
वह विमानरूप भवन विद्युन्मालाओं से पूजित मेघ के समान रमणी-रत्नों से देदीप्यमान हो रहा थाऔर श्रेष्ठ हंसों द्वारा आकाश में ढोये जाते हुए विमान की भाँति जान पड़ता था। उस दिव्य विमान को बहुत सुन्दर ढंग से बनाया गया था। वह अद्भुत शोभा से सम्पन्न दिखायी देता था।
यथा नगाग्रं बहुधातुचित्रं यथा नभश्च ग्रहचन्द्रचित्रम्।
ददर्श युक्तीकृतचारुमेघ चित्रं विमानं बहुरत्नचित्रम्॥८॥
जैसे अनेक धातुओं के कारण पर्वतशिखर, ग्रहों और चन्द्रमा के कारण आकाश तथा अनेक वर्णों से युक्त होने के कारण मनोहर मेघ विचित्र शोभा धारण करते हैं, उसी तरह नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित होने के कारण वह विमान भी विचित्र शोभा से सम्पन्न दिखायी देता था॥ ८॥
मही कृता पर्वतराजिपूर्णा शैलाः कृता वृक्षवितानपूर्णाः।
वृक्षाः कृताः पुष्पवितानपूर्णाः पुष्पं कृतं केसरपत्रपूर्णम्॥९॥
उस विमान की आधारभूमि (आरोहियों के खड़े होने का स्थान) सोने और मणियों के द्वारा निर्मित कृत्रिम पर्वत-मालाओं से पूर्ण बनायी गयी थी। वे पर्वत वृक्षों की विस्तृत पंक्तियों से हरे-भरे रचे गये थे। वे वृक्ष फूलों के बाहुल्य से व्याप्त बनाये गये थे तथा वे पुष्प भी केसर एवं पंखुड़ियों से पूर्ण निर्मित हुए थे* ॥९॥
* जहाँ पूर्वकथित वस्तुओं के प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तओं का विशेषण-भाव से स्थापन किया जाय, वहाँ ‘एकावली’ अलंकार माना गया है। इस लक्षण के अनुसार इस श्लोक में एकावली अलंकार है। यहाँ ‘मही’ का विशेषण पर्वत, पर्वत का वृक्ष और वृक्ष का विशेषण पुष्प आदि समझना चाहिये। गोविन्दराज ने यहाँ ‘अधिक’ नामक अलंकार माना है, परंतु जहाँ आधार से आधेय की विशेषता बतायी गयी हो वही इसका विषय है; यहाँ ऐसी बात नहीं है।
कृतानि वेश्मानि च पाण्डुराणि तथा सुपुष्पाण्यपि पुष्कराणि।
पुनश्च पद्मानि सकेसराणि वनानि चित्राणि सरोवराणि॥१०॥
उस विमान में श्वेतभवन बने हुए थे। सुन्दर फूलों से सुशोभित पोखरे बनाये गये थे। केसरयुक्त कमल, विचित्र वन और अद्भुत सरोवरों का भी निर्माण किया गया था॥ १० ॥
पुष्पाह्वयं नाम विराजमानं रत्नप्रभाभिश्च विघूर्णमानम्।
वेश्मोत्तमानामपि चोच्चमानं महाकपिस्तत्र महाविमानम्॥११॥
महाकपि हनुमान् ने जिस सुन्दर विमान को वहाँ देखा, उसका नाम पुष्पक था। वह रत्नों की प्रभा से प्रकाशमान था और इधर-उधर भ्रमण करता था। देवताओं के गृहाकार उत्तम विमानों में सबसे अधिक आदर उस महाविमान पुष्पक का ही होता था॥११॥
कृताश्च वैदूर्यमया विहङ्गा रूप्यप्रवालैश्च तथा विहङ्गाः।
चित्राश्च नानावसुभिर्भुजङ्गा जात्यानुरूपास्तुरगाः शुभाङ्गाः॥१२॥
उसमें नीलम, चाँदी और मँगों के आकाशचारी पक्षी बनाये गये थे। नाना प्रकार के रत्नों से विचित्र वर्ण के सो का निर्माण किया गया था और अच्छी जाति के घोड़ों के समान ही सुन्दर अंगवाले अश्व भी बनाये गये थे॥ १२॥
प्रवालजाम्बूनदपुष्पपक्षाः सलीलमावर्जितजिह्मपक्षाः।
कामस्य साक्षादिव भान्ति पक्षाः कृता विहङ्गाः सुमुखाः सुपक्षाः॥१३॥
उस विमान पर सुन्दर मुख और मनोहर पंख वाले बहुत-से ऐसे विहङ्गम निर्मित हुए थे, जो साक्षात् कामदेव के सहायक जान पड़ते थे। उनकी पाँखें मूंगे और सुवर्ण के बने हुए फूलों से युक्त थीं तथा उन्होंने लीलापूर्वक अपने बाँके पंखों को समेट रखा था। १३॥
नियुज्यमानाश्च गजाः सुहस्ताः सकेसराश्चोत्पलपत्रहस्ताः।
बभूव देवी च कृतासुहस्ता लक्ष्मीस्तथा पद्मिनि पद्महस्ता॥१४॥
उस विमान के कमलमण्डित सरोवर में ऐसे हाथी बनाये गये थे, जो लक्ष्मी के अभिषेक-कार्य में नियुक्त थे। उनकी सैंड बड़ी सुन्दर थी। उनके अंगों में कमलों के केसर लगे हुए थे तथा उन्होंने अपनी डों में कमल-पुष्प धारण किये थे। उनके साथ ही वहाँ तेजस्विनी लक्ष्मी देवी की प्रतिमा भी विराजमान थी, जिनका उन हाथियों के द्वारा अभिषेक हो रहा था। उनके हाथ बड़े सुन्दर थे। उन्होंने अपने हाथ में कमल-पुष्प धारण कर रखा था॥ १४॥
इतीव तद्गृहमभिगम्य शोभनं सविस्मयो नगमिव चारुकन्दरम्।
पुनश्च तत्परमसुगन्धि सुन्दरं हिमात्यये नगमिव चारुकन्दरम्॥१५॥
इस प्रकार सुन्दर कन्दराओं वाले पर्वत के समान तथा वसन्त-ऋतु में सुन्दर कोटरों वाले परम सुगन्धयुक्त वृक्ष के समान उस शोभायमान मनोहर भवन (विमान) में पहुँचकर हनुमान जी बड़े विस्मित हुए॥ १५॥
ततः स तां कपिरभिपत्य पूजितां चरन् पुरीं दशमुखबाहुपालिताम्।
अदृश्य तां जनकसुतां सुपूजितां सुदुःखितां पतिगुणवेगनिर्जिताम्॥१६॥
तदनन्तर दशमुख रावण के बाहुबल से पालित उस प्रशंसित पुरी में जाकर चारों ओर घूमने पर भी पति के गुणों के वेग से पराजित (विमुग्ध) अत्यन्त दुःखिनी और परम पूजनीया जनककिशोरी सीता को न देखकर कपिवर हनुमान् बड़ी चिन्ता में पड़ गये॥१६॥
ततस्तदा बहुविधभावितात्मनः कृतात्मनो जनकसुतां सुवर्त्मनः।
अपश्यतोऽभवदतिदुःखितं मनः सचक्षुषः प्रविचरतो महात्मनः ॥ १७॥
महात्मा हनुमान जी अनेक प्रकार से परमार्थचिन्तन में तत्पर रहने वाले कृतात्मा (पवित्र अन्तःकरण वाले) सन्मार्गगामी तथा उत्तम दृष्टि रखने वाले थे। इधर-उधर बहुत घूमने पर भी जब उन महात्मा को जानकीजी का पता न लगा, तब उनका मन बहुत दुःखी हो गया।
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ॥७॥
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