वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 8 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 8
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
अष्टमः सर्गः (8)
(हनुमान् जी के द्वारा पुनः पुष्पक विमान का दर्शन)
स तस्य मध्ये भवनस्य संस्थितो महद्विमानं मणिरत्नचित्रितम्।
प्रतप्तजाम्बूनदजालकृत्रिमं ददर्श धीमान् पवनात्मजः कपिः॥१॥
रावण के भवन के मध्यभाग में खड़े हुए बुद्धिमान् पवनकुमार कपिवर हनुमान् जी ने मणि तथा रत्नों से जटित एवं तपे हुए सुवर्णमय गवाक्षों की रचना से युक्त उस विशाल विमान को पुनः देखा॥१॥
तदप्रमेयप्रतिकारकृत्रिमं कृतं स्वयं साध्विति विश्वकर्मणा।
दिवं गते वायुपथे प्रतिष्ठितं व्यराजतादित्यपथस्य लक्ष्म तत्॥२॥
उसकी रचना को सौन्दर्य आदि की दृष्टि से मापा नहीं जा सकता था। उसका निर्माण अनुपम रीति से किया गया था। स्वयं विश्वकर्मा ने ही उसे बनाया था और बहुत उत्तम कहकर उसकी प्रशंसा की थी। जब वह आकाश में उठकर वायुमार्ग में स्थित होता था, तब सौर मार्ग के चिह्न-सा सुशोभित होता था॥२॥
न तत्र किंचिन्न कृतं प्रयत्नतो न तत्र किंचिन्न महार्घरत्नवत्।
न ते विशेषा नियताः सुरेष्वपि न तत्र किंचिन्न महाविशेषवत्॥३॥
उसमें कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो अत्यन्त प्रयत्न से न बनायी गयी हो तथा वहाँ कोई भी ऐसा स्थान या विमान का अंग नहीं था, जो बहुमूल्य रत्नों से जटित न हो। उसमें जो विशेषताएँ थीं, वे देवताओं के विमानों में भी नहीं थीं। उसमें कोई ऐसी चीज नहीं थी, जो बड़ी भारी विशेषता से युक्त न हो॥।३॥
तपः समाधानपराक्रमार्जितं मनःसमाधानविचारचारिणम्।
अनेकसंस्थानविशेषनिर्मितं ततस्ततस्तुल्यविशेषनिर्मितम्॥४॥
रावण ने जो निराहार रहकर तप किया था और भगवान् के चिन्तन में चित्त को एकाग्र किया था, इससे मिले हुए पराक्रम के द्वारा उसने उस विमान पर अधिकार प्राप्त किया था। मनमें जहाँ भी जाने का संकल्प उठता, वहीं वह विमान पहुँच जाता था। अनेक प्रकार की विशिष्ट निर्माण-कलाओं द्वारा उस विमान की रचना हुई थी तथा जहाँ-तहाँ से प्राप्त की गयी दिव्य विमान-निर्माणोचित विशेषताओं से उसका निर्माण हुआ था॥४॥
मनः समाधाय तु शीघ्रगामिनं दुरासदं मारुततुल्यगामिनम्।
महात्मनां पुण्यकृतां महर्द्धिनां यशस्विनामग्यमुदामिवालयम्॥५॥
वह स्वामी के मन का अनुसरण करते हुए बड़ी शीघ्रता से चलने वाला, दूसरों के लिये दुर्लभ और वायु के समान वेगपूर्वक आगे बढ़ने वाला था तथा श्रेष्ठ आनन्द (महान् सुख)के भागी, बढ़े-चढ़े तपवाले, पुण्यकारी महात्माओं का ही वह आश्रय था॥ ५॥
विशेषमालम्ब्य विशेषसंस्थितं विचित्रकूटं बहुकूटमण्डितम्।
मनोऽभिरामं शरदिन्दुनिर्मलं विचित्रकूटं शिखरं गिरेर्यथा॥६॥
वह विमान गतिविशेष का आश्रय ले व्योम रूप देश-विशेष में स्थित था। आश्चर्यजनक विचित्र वस्तुओं का समुदाय उसमें एकत्र किया गया था। बहुत-सी शालाओं के कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान निर्मल और मन को आनन्द प्रदान करने वाला था। विचित्र छोटे-छोटे शिखरों से युक्त किसी पर्वत के प्रधान शिखर की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार अद्भुत शिखर वाले उस पुष्पक विमान की भी शोभा हो रही थी॥६॥
वहन्ति यत्कुण्डलशोभितानना महाशना व्योमचरानिशाचराः।
विवृत्तविध्वस्तविशाललोचना महाजवा भूतगणाः सहस्रशः॥७॥
वसन्तपुष्पोत्करचारुदर्शनं वसन्तमासादपि चारुदर्शनम्।
स पुष्पकं तत्र विमानमुत्तमं ददर्श तद् वानरवीरसत्तमः॥८॥
जिनके मुखमण्डल कुण्डलों से सुशोभित और नेत्र घूमते या घूरते रहनेवाले, निमेषरहित तथा बड़े-बड़े थे, वे अपरिमित भोजन करने वाले, महान् वेगशाली, आकाश में विचरने वाले तथा रात में भी दिन के समान ही चलने वाले सहस्रों भूतगण जिसका भार वहन करते थे, जो वसन्त-कालिक पुष्प-पुञ्ज के समान रमणीय दिखायी देता था और वसन्त मास से भी अधिक सुहावना दृष्टिगोचर होता था, उस उत्तम पुष्पक विमान को वानरशिरोमणि हनुमान जी ने वहाँ देखा ॥ ७-८॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में आठवाँ सर्ग पूरा हुआ।८॥
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