वाल्मीकि रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग 9 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Sundarakanda Chapter 9
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
सुन्दरकाण्डम्
नवमः सर्गः (9)
(हनुमान जी का रावण के श्रेष्ठ भवन पुष्पक विमान तथा रावण के रहने की सुन्दर हवेली को देखकर उसके भीतर सोयी हुई सहस्रों सुन्दरी स्त्रियों का अवलोकन करना)
तस्यालयवरिष्ठस्य मध्ये विमलमायतम्।
ददर्श भवनश्रेष्ठं हनुमान् मारुतात्मजः॥१॥
अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं महत्।
भवनं राक्षसेन्द्रस्य बहुप्रासादसंकुलम्॥२॥
लंकावर्ती सर्वश्रेष्ठ महान् गृह के मध्यभाग में पवनपुत्र हनुमान जी ने देखा—एक उत्तम भवन शोभा पा रहा है। वह बहुत ही निर्मल एवं विस्तृत था। उसकी लंबाई एक योजन की और चौड़ाई आधे योजन की थी। राक्षसराज रावण का वह विशाल भवन बहुत-सी अट्टालिकाओं से व्याप्त था॥ १-२॥
मार्गमाणस्तु वैदेहीं सीतामायतलोचनाम्।
सर्वतः परिचक्राम हनूमानरिसूदनः॥३॥
विशाललोचना विदेहनन्दिनी सीता की खोज करते हुए शत्रुसूदन हनुमान जी उस भवन में सब ओर चक्कर लगाते फिरे॥३॥
उत्तमं राक्षसावासं हनुमानवलोकयन्।
आससादाथ लक्ष्मीवान् राक्षसेन्द्रनिवेशनम्॥४॥
बल-वैभव से सम्पन्न हनुमान् राक्षसों के उस उत्तम आवास का अवलोकन करते हुए एक ऐसे सुन्दर गृह में जा पहुँचे, जो राक्षसराज रावणका निजी निवासस्थान था॥ ४॥
चतुर्विषाणैर्द्विरदस्त्रिविषाणैस्तथैव च।
परिक्षिप्तमसम्बाधं रक्ष्यमाणमुदायुधैः ॥५॥
चार दाँत तथा तीन दाँतों वाले हाथी इस विस्तृत भवन को चारों ओर से घेरकर खड़े थे और हाथों में हथियार लिये बहुत-से राक्षस उसकी रक्षा करते थे। ५॥
राक्षसीभिश्च पत्नीभी रावणस्य निवेशनम्।
आहृताभिश्च विक्रम्य राजकन्याभिरावृतम्॥६॥
रावण का वह महल उसकी राक्षसजातीय पत्नियों तथा पराक्रमपूर्वक हरकर लायी हुई राजकन्याओं से भरा हुआ था॥ ६॥
तन्नक्रमकराकीर्ण तिमिंगिलझषाकुलम्।
वायुवेगसमाधूतं पन्नगैरिव सागरम्॥७॥
इस प्रकार नर-नारियों से भरा हुआ वह कोलाहलपूर्ण भवन नाक और मगरों से व्याप्त, तिमिंगलों और मत्स्यों से पूर्ण, वायुवेग से विक्षुब्ध तथा साँसे आवृत महासागर के समान प्रतीत होता था। ७॥
या हि वैश्रवणे लक्ष्मीर्या चन्द्रे हरिवाहने।
सा रावणगृहे रम्या नित्यमेवानपायिनी॥८॥
जो लक्ष्मी कुबेर, चन्द्रमा और इन्द्र के यहाँ निवास करती हैं, वे ही और भी सुरम्य रूप से रावण के घर में नित्य ही निश्चल होकर रहती थीं॥ ८॥
या च राज्ञः कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च।
तादृशी तद्विशिष्टा वा ऋद्धी रक्षोगृहेष्विह ॥९॥
जो समृद्धि महाराज कुबेर, यम और वरुणके यहाँ दृष्टिगोचर होती है, वही अथवा उससे भी बढ़कर राक्षसों के घरों मे देखी जाती थी॥९॥
तस्य हर्म्यस्य मध्यस्थवेश्म चान्यत् सुनिर्मितम्।
बहुनिफूहसंयुक्तं ददर्श पवनात्मजः॥१०॥
उस (एक योजन लंबे और आधे योजन चौड़े) महल के मध्यभाग में एक दूसरा भवन (पुष्पक विमान) था, जिसका निर्माण बड़े सुन्दर ढंग से किया गया था। वह भवन बहुसंख्यक मतवाले हाथियों से युक्त था। पवनकुमार हनुमान जी ने फिर उसे देखा। १०॥
ब्रह्मणोऽर्थे कृतं दिव्यं दिवि यद विश्वकर्मणा।
विमानं पुष्पकं नाम सर्वरत्नविभूषितम्॥११॥
वह सब प्रकार के रत्नों से विभूषित पुष्पक नामक दिव्य विमान स्वर्गलोक में विश्वकर्मा ने ब्रह्माजी के लिये बनाया था॥ ११॥
परेण तपसा लेभे यत् कुबेरः पितामहात्।
कुबेरमोजसा जित्वा लेभे तद् राक्षसेश्वरः॥१२॥
कुबेर ने बड़ी भारी तपस्या करके उसे ब्रह्माजी से प्राप्त किया और फिर कुबेर को बलपूर्वक परास्त करके राक्षसराज रावण ने उसे अपने हाथ में कर लिया॥ १२॥
ईहामृगसमायुक्तैः कार्तस्वरहिरण्मयैः।
सुकृतैराचितं स्तम्भैः प्रदीप्तमिव च श्रिया॥१३॥
उसमें भेड़ियों की मूर्तियों से युक्त सोने-चाँदी के सुन्दर खम्भे बनाये गये थे, जिनके कारण वह भवन अद्भुत कान्ति से उद्दीप्त-सा हो रहा था॥१३॥
मेरुमन्दरसंकाशैरुल्लिखद्भिरिवाम्बरम्।
कूटागारैः शुभागारैः सर्वतः समलंकृतम्॥१४॥
उसमें सुमेरु और मन्दराचल के समान ऊँचे अनेकानेक गुप्त गृह और मङ्गल भवन बने थे, जो अपनी ऊँचाई से आकाश में रेखा-सी खींचते हुए जान पड़ते थे। उनके द्वारा वह विमान सब ओर से सुशोभित होता था॥ १४॥
ज्वलनार्कप्रतीकाशैः सुकृतं विश्वकर्मणा।
हेमसोपानयुक्तं च चारुप्रवरवेदिकम्॥१५॥
उनका प्रकाश अग्नि और सूर्य के समान था। विश्वकर्मा ने बड़ी कारीगरी से उसका निर्माण किया था। उसमें सोने की सीढ़ियाँ और अत्यन्त मनोहर उत्तम वेदियाँ बनायी गयी थीं॥ १५ ॥
जालवातायनैर्युक्तं काञ्चनैः स्फाटिकैरपि।
इन्द्रनीलमहानीलमणिप्रवरवेदिकम्॥१६॥
सोने और स्फटिक के झरोखे और खिडकियाँ लगायी गयी थीं। इन्द्रनील और महानील मणियों की श्रेष्ठतम वेदियाँ रची गयी थीं॥ १६॥
विद्रमेण विचित्रेण मणिभिश्च महाधनैः।
निस्तुलाभिश्च मुक्ताभिस्तलेनाभिविराजितम्॥१७॥
उसकी फर्श विचित्र मँगे, बहमूल्य मणियों तथा अनुपम गोल-गोल मोतियों से जड़ी गयी थी, जिससे उस विमान की बड़ी शोभा हो रही थी॥ १७ ॥
चन्दनेन च रक्तेन तपनीयनिभेन च।
सुपुण्यगन्धिना युक्तमादित्यतरुणोपमम्॥१८॥
सुवर्ण के समान लाल रंग के सुगन्धयुक्त चन्दन से संयुक्त होने के कारण वह बालसूर्य के समान जान पड़ता था॥ १८॥
कूटागारैर्वराकारैर्विविधैः समलंकृतम्।
विमानं पुष्पकं दिव्यमारुरोह महाकपिः।
तत्रस्थः सर्वतो गन्धं पानभक्ष्यान्नसम्भवम्॥१९॥
दिव्यं सम्मूर्च्छितं जिघ्रन् रूपवन्तमिवानिलम्।
महाकपि हनुमान जी उस दिव्य पुष्पक विमान पर चढ़ गये, जो नाना प्रकार के सुन्दर कूटागारों (अट्टालिकाओं) से अलंकृत था। वहाँ बैठकर वे सब ओर फैली हुई नाना प्रकार के पेय, भक्ष्य और अन्न की दिव्य गन्ध सूंघने लगे। वह गन्ध मूर्तिमान् पवन-सी प्रतीत होती थी॥ १९ १/२ ॥
स गन्धस्तं महासत्त्वं बन्धुर्बन्धुमिवोत्तमम्॥२०॥
इत एहीत्युवाचेव तत्र यत्र स रावणः।
जैसे कोई बन्धु-बान्धव अपने उत्तम बन्धु को अपने पास बुलाता है, उसी प्रकार वह सुगन्ध उन महाबली हनुमान जी को मानो यह कहकर कि ‘इधर चले आओ’ जहाँ रावण था, वहाँ बुला रही थी॥ २० १/२॥
ततस्तां प्रस्थितः शालां ददर्श महतीं शिवाम्॥२१॥
रावणस्य महाकान्तां कान्तामिव वरस्त्रियम्।
तदनन्तर हनुमान् जी उस ओर प्रस्थित हुए। आगे बढ़ने पर उन्होंने एक बहुत बड़ी हवेली देखी, जो बहुत ही सुन्दर और सुखद थी। वह हवेली रावण को बहुत ही प्रिय थी, ठीक वैसे ही जैसे पति को कान्तिमयी सुन्दरी पत्नी अधिक प्रिय होती है॥ २१ १/२॥
मणिसोपानविकृतां हेमजालविराजिताम्॥ २२॥
स्फाटिकैरावृततलां दन्तान्तरितरूपिकाम्।
मुक्तावज्रप्रवालैश्च रूप्यचामीकरैरपि॥२३॥
उसमें मणियों की सीढ़ियाँ बनी थीं और सोने की खिड़कियाँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं। उसकी फर्श स्फटिक मणि से बनायी गयी थी, जहाँ बीच-बीच में हाथी के दाँत के द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ
बनी हुई थीं। मोती, हीरे, चाँदी और सोने के द्वारा भी उसमें अनेक प्रकार के आकार अङ्कित किये गये थे॥
विभूषितां मणिस्तम्भैः सुबहुस्तम्भभूषिताम्।
समैर्ऋजुभिरत्युच्चैः समन्तात् सुविभूषितैः॥२४॥
मणियों के बने हुए बहुत-से खम्भे, जो समान, सीधे, बहुत ही ऊँचे और सब ओर से विभूषित थे, आभूषण की भाँति उस हवेली की शोभा बढ़ा रहे थे।
स्तम्भैः पक्षैरिवात्युच्चैर्दिवं सम्प्रस्थितामिव।
महत्या कुथयाऽऽस्तीर्णां पृथिवीलक्षणाङ्कया।२५॥
अपने अत्यन्त ऊँचे स्तम्भरूपी पंखों से मानो वह आकाश को उड़ती हुई-सी जान पड़ती थी। उसके भीतर पृथ्वी के वन-पर्वत आदि चिह्नों से अङ्कित एक बहुत बड़ा कालीन बिछा हुआ था॥ २५ ॥
पृथिवीमिव विस्तीर्णा सराष्ट्रगृहशालिनीम्।
नादितां मत्तविहगैर्दिव्यगन्धाधिवासिताम्॥ २६॥
राष्ट्र और गृह आदि के चित्रों से सुशोभित वह शाला पृथ्वी के समान विस्तीर्ण जान पड़ती थी। वहाँ मतवाले विहङ्गमों के कलरव गूंजते रहते थे तथा वह दिव्य सुगन्ध से सुवासित थी॥ २६ ॥
परास्तरणोपेतां रक्षोऽधिपनिषेविताम्।
धूम्रामगुरुधूपेन विमलां हंसपाण्डुराम्॥२७॥
उस हवेली में बहुमूल्य बिछौने बिछे हुए थे तथा स्वयं राक्षसराज रावण उसमें निवास करता था। वह अगुरु नामक धूप के धूएँ से धूमिल दिखायी देती थी, किंतु वास्तव में हंस के समान श्वेत एवं निर्मल थी॥ २७॥
पत्रपुष्पोपहारेण कल्माषीमिव सुप्रभाम्।
मनसो मोदजननीं वर्णस्यापि प्रसाधिनीम्॥२८॥
पत्र-पुष्प के उपहार से वह शाला चितकबरी-सी जान पड़ती थी। अथवा वसिष्ठ मुनि की शबला गौ की भाँति सम्पूर्ण कामनाओं की देने वाली थी। उसकी कान्ति बड़ी ही सुन्दर थी। वह मन को आनन्द देने वाली तथा शोभा को भी सुशोभित करने वाली थी॥ २८॥
तां शोकनाशिनी दिव्यां श्रियः संजननीमिव।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थैस्तु पञ्च पञ्चभिरुत्तमैः॥२९॥
तर्पयामास मातेव तदा रावणपालिता।
वह दिव्य शाला शोक का नाश करने वाली तथा सम्पत्ति की जननी-सी जान पड़ती थी। हनुमान जी ने उसे देखा। उस रावणपालित शाला ने उस समय माता की भाँति शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषयों से हनुमान जी की श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियों को तृप्त कर दिया॥ २९ १/२॥
स्वर्गोऽयं देवलोकोऽयमिन्द्रस्यापि पुरी भवेत्।
सिद्धिर्वेयं परा हि स्यादित्यमन्यत मारुतिः॥३०॥
उसे देखकर हनुमान जी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि सम्भव है, यही स्वर्गलोक या देवलोक हो। यह इन्द्र की पुरी भी हो सकती है अथवा यह परमसिद्धि (ब्रह्मलोक की प्राप्ति) है॥ ३० ॥
प्रध्यायत इवापश्यत् प्रदीपस्तित्र काञ्चनान्।
धूर्तानिव महाधूतैर्देवनेन पराजितान्॥ ३१॥
हनुमान जी ने उस शाला में सुवर्णमय दीपकों को एकतार जलते देखा, मानो वे ध्यानमग्न हो रहे हों; ठीक उसी तरह जैसे किसी बड़े जुआरी से जुए में हारे हुए छोटे जुआरी धननाश की चिन्ता के कारण ध्यान में डूबे हुए-से दिखायी देते हैं॥३१॥
दीपानां च प्रकाशेन तेजसा रावणस्य च।
अर्चिभिर्भूषणानां च प्रदीप्तेत्यभ्यमन्यत॥३२॥
दीपकों के प्रकाश, रावण के तेज और आभूषणों की कान्ति से वह सारी हवेली जलती हुई-सी जान पड़ती थी॥
ततोऽपश्यत् कुथासीनं नानावर्णाम्बरस्रजम्।
सहस्रं वरनारीणां नानावेषबिभूषितम्॥३३॥
तदनन्तर हनुमान जी ने कालीन पर बैठी हुई सहस्रों सुन्दरी स्त्रियाँ देखीं, जो रंग-बिरंगे वस्त्र और पुष्पमाला धारण किये अनेक प्रकार की वेशभूषाओं से विभूषित थीं॥ ३३॥
परिवृत्तेऽर्धरात्रे तु पाननिद्रावसंगतम्।
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ प्रसुप्तं बलवत् तदा॥३४॥
आधी रात बीत जानेपर वे क्रीड़ा से उपरत हो मधुपान के मद और निद्रा के वशीभूत हो उस समय गाढ़ी नींद में सो गयी थीं॥ ३४॥
तत् प्रसुप्तं विरुरुचे निःशब्दान्तरभूषितम्।
निःशब्दहंसभ्रमरं यथा पद्मवनं महत्॥ ३५॥
उन सोयी हुई सहस्रों नारियों के कटिभाग में अब करधनी की खनखनाहटका शब्द नहीं हो रहा था। हंसों के कलरव तथा भ्रमरों के गुञ्जारव से रहित विशाल कमल-वन के समान उन सुप्त सुन्दरियों का समुदाय बड़ी शोभा पा रहा था॥ ३५॥
तासां संवृतदान्तानि मीलिताक्षीणि मारुतिः।
अपश्यत् पद्मगन्धीनि वदनानि सुयोषिताम्॥
पवनकुमार हनुमान जी ने उन सुन्दरी युवतियों के मुख देखे, जिनसे कमलों की-सी सुगन्ध फैल रही थी। उनके दाँत ढंके हुए थे और आँखें मूंद गयी थीं॥३६॥
प्रबुद्धानीव पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये।
पुनः संवृतपत्राणि रात्राविव बभुस्तदा ॥ ३७॥
रात्रि के अन्त में खिले हुए कमलों के समान उन सुन्दरियों के जो मुखारविन्द हर्ष से उत्फुल्ल दिखायी देते थे, वे ही फिर रात आने पर सो जाने के कारण मुँदे हुए दलवाले कमलों के समान शोभा पा रहे थे।॥ ३७॥
इमानि मुखपद्मानि नियतं मत्तषट्पदाः।
अम्बुजानीव फुल्लानि प्रार्थयन्ति पुनः पुनः॥३८॥
इति वामन्यत श्रीमानुपपत्त्या महाकपिः।
मेने हि गुणतस्तानि समानि सलिलोद्भवैः॥ ३९॥
उन्हें देखकर श्रीमान् महाकपि हनुमान् यह सम्भावना करने लगे कि ‘मतवाले भ्रमर प्रफुल्ल कमलों के समान इन मुखारविन्दों की प्राप्ति के लिये नित्य ही बारंबार प्रार्थना करते होंगे—उनपर सदा स्थान पाने के लिये तरसते होंगे’; क्योंकि वे गुण की दृष्टि से उन मुखारविन्दों को पानी से उत्पन्न होने वाले कमलों के समान ही समझते थे॥ ३८-३९॥
सा तस्य शुशुभे शाला ताभिः स्त्रीभिर्विराजिता।
शरदीव प्रसन्ना द्यौस्ताराभिरभिशोभिता॥४०॥
रावण की वह हवेली उन स्त्रियों से प्रकाशित होकर वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे शरत्काल में निर्मल आकाश ताराओं से प्रकाशित एवं सुशोभित होता है।४०॥
स च ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः।
यथा ह्यडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरिव संवृतः॥४१॥
उन स्त्रियों से घिरा हुआ राक्षसराज रावण ताराओं से घिरे हुए कान्तिमान् नक्षत्रपति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था॥४१॥
याश्च्यवन्तेऽम्बरात् ताराः पुण्यशेषसमावृताः।
इमास्ताः संगताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा॥४२॥
उस समय हनुमान जी को ऐसा मालूम हुआ कि आकाश (स्वर्ग)-से भोगावशिष्ट पुण्य के साथ जो ताराएँ नीचे गिरती हैं, वे सब-की-सब मानो यहाँ इन सुन्दरियों के रूपमें एकत्र हो गयी हैं* ॥ ४२ ॥
* इस श्लोक में ‘अत्युक्ति’ अलंकार है।
ताराणामिव सुव्यक्तं महतीनां शुभार्चिषाम्।
प्रभावर्णप्रसादाश्च विरेजुस्तत्र योषिताम्॥४३॥
क्योंकि वहाँ उन युवतियों के तेज, वर्ण और प्रसाद स्पष्टतः सुन्दर प्रभावाले महान् तारों के समान ही सुशोभित होते थे॥४३॥
व्यावृत्तकचपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः।
पानव्यायामकालेषु निद्रोपहतचेतसः॥४४॥
मधुपान के अनन्तर व्यायाम (नृत्य, गान, क्रीड़ा आदि)-के समय जिनके केश खुलकर बिखर गये थे, पुष्पमालाएँ मर्दित होकर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं और सुन्दर आभूषण भी शिथिल होकर इधर-उधर खिसक गये थे, वे सभी सुन्दरियाँ वहाँ निद्रा से अचेत-सी होकर सो रही थीं। ४४॥
व्यावृत्ततिलकाः काश्चित् काश्चिदुदभ्रान्तनूपुराः।
पार्वे गलितहाराश्च काश्चित् परमयोषितः॥
किन्हीं के मस्तक की (सिंदूर-कस्तूरी आदि की) वेदियाँ पुछ गयी थीं, किन्हींके नूपुर पैरों से निकलकर दूर जा पड़े थे तथा किन्हीं सुन्दरी युवतियों के हार टूटकर उनके बगल में ही पड़े थे॥ ४५ ॥
मुक्ताहारवृताश्चान्याः काश्चित् प्रसस्तवाससः।
व्याविद्धरशनादामाः किशोर्य इव वाहिताः॥४६॥
कोई मोतियों के हार टूट जाने से उनके बिखरे दानों से आवृत थीं, किन्हींके वस्त्र खिसक गये थे और किन्हीं की करधनी की लड़ें टूट गयी थीं। वे युवतियाँ बोझ ढोकर थकी हुई अश्वजाति की नयी बछेड़ियों के समान जान पड़ती थीं॥ ४६॥
अकुण्डलधराश्चान्या विच्छिन्नमृदितस्रजः।
गजेन्द्रमृदिताः फुल्ला लता इव महावने॥४७॥
किन्हीं के कानों के कुण्डल गिर गये थे, किन्हीं की पुष्पमालाएँ मसली जाकर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं। इससे वे महान् वन में गजराज द्वारा दली-मली गयी फूली लताओं के समान प्रतीत होती थीं॥४७॥
चन्द्रांशुकिरणाभाश्च हाराः कासांचिदुद्गताः।
हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम्॥४८॥
किन्हीं के चन्द्रमा और सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान हार उनके वक्षःस्थल पर पड़कर उभरे हुए प्रतीत होते थे। वे उन युवतियों के स्तनमण्डल पर ऐसे जान पड़ते थे मानो वहाँ हंस सो रहे हों॥४८॥
अपरासां च वैदूर्याः कादम्बा इव पक्षिणः।
हेमसूत्राणि चान्यासां चक्रवाका इवाभवन्॥४९॥
दूसरी स्त्रियों के स्तनों पर नीलम के हार पड़े थे, जो कादम्ब (जलकाक) नामक पक्षी के समान शोभा पाते थे तथा अन्य स्त्रियों के उरोजों पर जो सोने के हार थे, वे चक्रवाक (पुरखाव) नामक पक्षियों के समान जान पड़ते थे॥४९॥
हंसकारण्डवोपेताश्चक्रवाकोपशोभिताः।
आपगा इव ता रेजुर्जघनैः पुलिनैरिव॥५०॥
इस प्रकार वे हंस, कारण्डव (जलकाक) तथा चक्रवाकों से सुशोभित नदियों के समान शोभा पाती थीं। उनके जघनप्रदेश उन नदियों के तटों के समान जान पड़ते थे॥५०॥
किङ्किणीजालसंकाशास्ता हेमविपुलाम्बुजाः।
भावग्राहा यशस्तीराः सुप्ता नद्य इवाबभुः॥५१॥
वे सोयी हुई सुन्दरियाँ वहाँ सरिताओं के समान सुशोभित होती थीं। किङ्किणियों (घुघुरुओं)-के समूह उनमें मुकुल के समान प्रतीत होते थे। सोने के विभिन्न आभूषण ही वहाँ बहुसंख्यक स्वर्णकमलों की शोभा धारण करते थे। भाव (सुप्तावस्था में भी वासनावश होने वाली शृंगारचेष्टाएँ) ही मानो ग्राह थे तथा यश (कान्ति) ही तट के समान जान पड़ते थे॥५१॥
मृदुष्वंगेषु कासांचित् कुचाग्रेषु च संस्थिताः।
बभूवुर्भूषणानीव शुभा भूषणराजयः॥५२॥
किन्हीं सुन्दरियों के कोमल अंगों में तथा कुचों के अग्रभागपर उभरी हुई आभूषणों की सुन्दर रेखाएँ नये गहनों के समान ही शोभा पाती थीं॥५२॥
अंशुकान्ताश्च कासांचिन्मुखमारुतकम्पिताः।
उपर्युपरि वक्त्राणां व्याधूयन्ते पुनः पुनः॥५३॥
किन्हीं के मुख पर पड़े हुए उनकी झीनी साड़ी के अञ्चल उनकी नासिका से निकली हुई साँस से कम्पित हो बारंबार हिल रहे थे॥५३॥
ताः पताका इवोधूताः पत्नीनां रुचिरप्रभाः।
नानावर्णसुवर्णानां वक्त्रमूलेषु रेजिरे॥५४॥
नाना प्रकार के सुन्दर रूप-रंगवाली उन रावणपत्नियों के मुखों पर हिलते हुए वे अञ्चल सुन्दर कान्तिवाली फहराती हुई पताकाओं के समान शोभा पा रहे थे॥ ५४॥
ववल्गुश्चात्र कासांचित् कुण्डलानि शुभार्चिषाम्।
मखमारुतसंकम्पैर्मन्दं मन्दं च योषिताम्॥५५॥
वहाँ किन्हीं-किन्हीं सुन्दर कान्तिमती कामिनियों के कानों के कुण्डल उनके निःश्वासजनित कम्पन से धीरे-धीरे हिल रहे थे॥ ५५ ॥
शर्करासवगन्धः स प्रकृत्या सुरभिः सुखः।
तासां वदननिःश्वासः सिषेवे रावणं तदा॥५६॥
उन सुन्दरियों के मुख से निकली हुई स्वभाव से ही सुगन्धित श्वासवायु शर्करा निर्मित आसव की मनोहर गन्ध से युक्त हो और भी सुखद बनकर उस समय रावण की सेवा करती थी॥५६॥
रावणाननशंकाश्च काश्चिद् रावणयोषितः।
मुखानि च सपत्नीनामुपाजिघ्रन् पुनः पुनः॥५७॥
रावण की कितनी ही तरुणी पत्नियाँ रावण का ही मुख समझकर बारंबार अपनी सौतों के ही मुखों को सूंघ रही थीं। ५७॥
अत्यर्थं सक्तमनसो रावणे ता वरस्त्रियः।
अस्वतन्त्राः सपत्नीनां प्रियमेवाचरंस्तदा॥५८॥
उन सुन्दरियों का मन रावण में अत्यन्त आसक्त था, इसलिये वे आसक्ति तथा मदिरा के मद से परवश हो उस समय रावण के मुख के भ्रम से अपनी सौतों का मुख सूंघकर उनका प्रिय ही करती थीं (अर्थात् वे भी उस समय अपने मुख-संलग्न हुए उन सौतों के मुखों को रावण का ही मुख समझकर उसे सूंघने का सुख उठाती थीं)॥ ५८॥
बाहूनुपनिधायान्याः पारिहार्यविभूषितान्।
अंशुकानि च रम्याणि प्रमदास्तत्र शिश्यिरे॥५९॥
अन्य मदमत्त युवतियाँ अपनी वलयविभूषित भुजाओं का ही तकिया लगाकर तथा कोई-कोई । सिर के नीचे अपने सुरम्य वस्त्रों को ही रखकर वहाँ सो रही थीं॥ ५९॥
अन्या वक्षसि चान्यस्यास्तस्याः काचित् पुनर्भुजम्।
अपरा त्वङ्कमन्यस्यास्तस्याश्चाप्यपरा कुचौ॥ ६०॥
एक स्त्री दूसरी की छाती पर सिर रखकर सोयी थी तो कोई दूसरी स्त्री उसकी भी एक बाँह को ही तकिया बनाकर सो गयी थी। इसी तरह एक अन्य स्त्री दूसरी की गोद में सिर रखकर सोयी थी तो कोई दूसरी उसके भी कुचों का ही तकिया लगाकर सो गयी थी॥
ऊरुपार्श्वकटीपृष्ठमन्योन्यस्य समाश्रिताः।
परस्परनिविष्टांगयो मदस्नेहवशानुगाः॥६१॥
इस तरह रावण विषयक स्नेह और मदिराजनित मदके वशीभूत हुई वे सुन्दरियाँ एक-दूसरी के ऊरु, पार्श्वभाग, कटिप्रदेश तथा पृष्ठभागका सहारा ले आपस में अंगों-से-अंग मिलाये वहाँ बेसुध पड़ी थीं। ६१॥
अन्योन्यस्यांगसंस्पर्शात् प्रीयमाणाः सुमध्यमाः।
एकीकृतभुजाः सर्वाः सुषुपुस्तत्र योषितः॥६२॥
वे सुन्दर कटिप्रदेशवाली समस्त युवतियाँ एकदूसरी के अंगस्पर्श को प्रियतम का स्पर्श मानकर उससे मन-ही-मन आनन्द का अनुभव करती हुई परस्पर बाँह-से-बाँह मिलाये सो रही थीं॥ ६२॥
अन्योन्यभुजसूत्रेण स्त्रीमाला ग्रथिता हि सा।
मालेव ग्रथिता सूत्रे शुशुभे मत्तषट्पदा॥६३॥
एक-दूसरी के बाहुरूपी सूत्र में गुंथी हुई काले-काले केशोंवाली स्त्रियों की वह माला सूत में पिरोयी हुई मतवाले भ्रमरों से युक्त पुष्पमाला की भाँति शोभा पा रही थी॥ ६३॥
लतानां माधवे मासि फुल्लानां वायुसेवनात्।
अन्योन्यमालाग्रथितं संसक्तकुसुमोच्चयम्॥६४॥
प्रतिवेष्टितसुस्कन्धमन्योन्यभ्रमराकुलम्।
आसीद् वनमिवोधूतं स्त्रीवनं रावणस्य तत्॥६५॥
माधवमास (वसन्त)-में मलयानिल के सेवन से जैसे खिली हुई लताओं का वन कम्पित होता रहता है, उसी प्रकार रावण की स्त्रियों का वह समुदाय निःश्वासवायु के चलने से अञ्चलों के हिलने के कारण कम्पित होता-सा जान पड़ता था। जैसे लताएँ परस्पर मिलकर माला की भाँति आबद्ध हो जाती हैं, उनकी सुन्दर शाखाएँ परस्पर लिपट जाती हैं और इसीलिये उनके पुष्पसमूह भी आपस में मिले हुए-से प्रतीत होते हैं तथा उनपर बैठे हुए भ्रमर भी परस्पर मिल जाते हैं, उसी प्रकार वे सुन्दरियाँ एक-दूसरी से मिलकर माला की भाँति गुँथ गयी थीं। उनकी भुजाएँ और कंधे परस्पर सटे हुए थे। उनकी वेणी में गुंथे हुए फूल भी आपस में मिल गये थे तथा उन सबके केशकलाप भी एक-दूसरे से जुड़ गये थे॥६४-६५ ॥
उचितेष्वपि सुव्यक्तं न तासां योषितां तदा।
विवेकः शक्य आधातुं भूषणांगाम्बरस्रजाम्॥६६॥
यद्यपि उन युवतियों के वस्त्र, अंग, आभूषण और हार उचित स्थानों पर ही प्रतिष्ठित थे, यह बात स्पष्ट दिखायी दे रही थी, तथापि उन सबके परस्पर गुंथ जाने के कारण यह विवेक होना असम्भव हो गया था कि कौन वस्त्र, आभूषण, अंग अथवा हार किसके हैं
* इस श्लोक में ‘भ्रान्तिमान्’ नामक अलंकार है।
रावणे सुखसंविष्टे ताः स्त्रियो विविधप्रभाः।
ज्वलन्तः काञ्चना दीपाः प्रेक्षन्तो निमिषा इव॥६७॥
रावण के सुखपूर्वक सो जाने पर वहाँ जलते हुए सुवर्णमय प्रदीप उन अनेक प्रकार की कान्तिवाली कामिनियों को मानो एकटक दृष्टि से देख रहे थे। ६७॥
राजर्षिविप्रदैत्यानां गन्धर्वाणां च योषितः।
रक्षसां चाभवन् कन्यास्तस्य कामवशंगताः॥६८॥
राजर्षियों, ब्रह्मर्षियों, दैत्यों, गन्धर्वो तथा राक्षसों की कन्याएँ काम के वशीभूत होकर रावण की पत्नियाँ बन गयी थीं॥ ६८॥
युद्धकामेन ताः सर्वा रावणेन हृताः स्त्रियः।
समदा मदनेनैव मोहिताः काश्चिदागताः॥६९॥
उन सब स्त्रियों का रावण ने युद्ध की इच्छा से अपहरण किया था और कुछ मदमत्त रमणियाँ कामदेव से मोहित होकर स्वयं ही उसकी सेवा में उपस्थित हो गयी थीं॥ ६९॥
न तत्र काश्चित् प्रमदाः प्रसह्य वीर्योपपन्नेन गुणेन लब्धाः।
न चान्यकामापि न चान्यपूर्वा विना वराहाँ जनकात्मजां तु॥ ७० ॥
वहाँ ऐसी कोई स्त्रियाँ नहीं थीं, जिन्हें बलपराक्रम से सम्पन्न होने पर भी रावण उनकी इच्छा के विरुद्ध बलात् हर लाया हो। वे सब-की-सब उसे अपने अलौकिक गुण से ही उपलब्ध हुई थीं। जो श्रेष्ठतम पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी के ही योग्य थीं, उन जनककिशोरी सीता को छोड़कर दूसरी कोई ऐसी स्त्री वहाँ नहीं थी, जो रावण के सिवा किसी दूसरे की इच्छा रखने वाली हो अथवा जिसका पहले कोई दूसरा पति रहा हो॥ ७० ॥
न चाकुलीना न च हीनरूपा नादक्षिणा नानुपचारयुक्ता।
भार्याभवत् तस्य न हीनसत्त्वा न चापि कान्तस्य न कामनीया॥७१॥
रावण की कोई भार्या ऐसी नहीं थी, जो उत्तम कुल में उत्पन्न न हुई हो अथवा जो कुरूप, अनुदार या कौशलरहित, उत्तम वस्त्राभूषण एवं माला आदि से वञ्चित, शक्तिहीन तथा प्रियतम को अप्रिय हो॥७१॥
बभूव बुद्धिस्तु हरीश्वरस्य यदीदृशी राघवधर्मपत्नी।
इमा महाराक्षसराजभार्याः सुजातमस्येति हि साधुबुद्धेः ॥७२॥
उस समय श्रेष्ठ बुद्धिवाले वानरराज हनुमान जी के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि ये महान् राक्षसराज रावण की भार्याएँ जिस तरह अपने पति के साथ रहकर सुखी हैं, उसी प्रकार यदि रघुनाथजी की धर्मपत्नी सीताजी भी इन्हीं की भाँति अपने पति के साथ रहकर सुख का अनुभव करतीं अर्थात् यदि रावण शीघ्र ही उन्हें श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में समर्पित कर देता तो यह इसके लिये परम मंगलकारी होता॥ ७२॥
पुनश्च सोऽचिन्तयदात्तरूपो ध्रुवं विशिष्टा गुणतो हि सीता।
अथायमस्यां कृतवान् महात्मा लंकेश्वरः कष्टमनार्यकर्म॥७३॥
फिर उन्होंने सोचा, निश्चय ही सीता गुणों की दृष्टि से इन सबकी अपेक्षा बहुत ही बढ़-चढ़कर हैं। इस महाबली लंकापति ने मायामय रूप धारण करके सीता को धोखा देकर इनके प्रति यह अपहरणरूप महान् कष्टप्रद नीच कर्म किया है॥ ७३ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे नवमः सर्गः॥९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ॥९॥
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