वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 11 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 11
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
एकादशः सर्गः (सर्ग 11)
रावण का संदेश सुनकर पिताकी आज्ञा से कुबेर का लङ्का को छोड़कर कैलास पर जाना, लङ्का में रावण का राज्याभिषेक तथा राक्षसों का निवास
सुमाली वरलब्धांस्तु ज्ञात्वा चैतान् निशाचरान्।
उदतिष्ठद् भयं त्यक्त्वा सानुगः स रसातलात्॥
रावण आदि निशाचरों को वर प्राप्त हुआ है, यह जानकर सुमाली नामक राक्षस अपने अनुचरोंसहित भय छोड़कर रसातल से निकला॥१॥
मारीचश्च प्रहस्तश्च विरूपाक्षो महोदरः।
उदतिष्ठन् सुसंरब्धाः सचिवास्तस्य रक्षसः॥२॥
साथ ही मारीच, प्रहस्त, विरूपाक्ष और महोदर ये उस राक्षस के चार मन्त्री भी रसातल से ऊपर को उठे। वे सब-के-सब रोषावेष से भरे हुए थे॥२॥
सुमाली सचिवैः सार्धं वृतो राक्षसपुङ्गवैः।
अभिगम्य दशग्रीवं परिष्वज्येदमब्रवीत्॥३॥
श्रेष्ठ राक्षसों से घिरा हुआ सुमाली अपने सचिवों के साथ दशग्रीव के पास गया और उसे छाती से लगाकर इस प्रकार बोला— ॥३॥
दिष्ट्या ते वत्स सम्प्राप्तश्चिन्तितोऽयं मनोरथः।
यस्त्वं त्रिभुवनश्रेष्ठाल्लब्धवान् वरमुत्तमम्॥४॥
‘वत्स! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने त्रिभुवनश्रेष्ठ ब्रह्माजी से उत्तम वर प्राप्त किया, जिससे तुम्हें यह चिरकाल से चिन्तित मनोरथ उपलब्ध हो गया॥
यत्कृते च वयं लङ्कां त्यक्त्वा याता रसातलम्।
तद्गतं नो महाबाहो महद्विष्णुकृतं भयम्॥५॥
‘महाबाहो! जिसके कारण हम सब राक्षस लङ्का छोड़कर रसातल में चले गये थे, भगवान् विष्णु से प्राप्त होने वाला हमारा यह महान् भय दूर हो गया।
असकृत् तद्भयाद् भग्नाः परित्यज्य स्वमालयम्।
विद्रुताः सहिताः सर्वे प्रविष्टाः स्म रसातलम्॥
‘हम सब लोग बारम्बार भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित होने के कारण अपना घर छोड़ भाग निकले और सब-के-सब एक साथ ही रसातल में प्रविष्ट हो गये॥
अस्मदीया च लङ्केयं नगरी राक्षसोषिता।
निवेशिता तव भ्रात्रा धनाध्यक्षेण धीमता॥७॥
‘यह लङ्कानगरी जिसमें तुम्हारे बुद्धिमान् भाई धनाध्यक्ष कुबेर निवास करते हैं, हमलोगों की है। पहले इसमें राक्षस ही रहा करते थे॥७॥
यदि नामात्र शक्यं स्यात् साम्ना दानेन वानघ।
तरसा वा महाबाहो प्रत्यानेतुं कृतं भवेत्॥८॥
‘निष्पाप महाबाहो! यदि साम, दान अथवा बलप्रयोग के द्वारा भी पुनः लङ्का को वापस लिया जा सके तो हमलोगों का काम बन जाय॥८॥
त्वं च लङ्केश्वरस्तात भविष्यसि न संशयः।
त्वया राक्षसवंशोऽयं निमग्नोऽपि समुद्धृतः॥९॥
‘तात! तुम्हीं लङ्का के स्वामी हो ओगे, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि तुमने इस राक्षसवंश का जो रसातल में डूब गया था, उद्धार किया है॥९॥
सर्वेषां नः प्रभुश्चैव भविष्यसि महाबल।
अथाब्रवीद् दशग्रीवो मातामहमुपस्थितम्॥१०॥
वित्तेशो गुरुरस्माकं नार्हसे वक्तुमीदृशम्।
‘महाबली वीर! तुम्हीं हम सबके राजा होओगे।’ यह सुनकर दशग्रीव ने पास खड़े हुए अपने मातामह से कहा—’नानाजी! धनाध्यक्ष कुबेर हमारे बड़े भाई हैं, अतः उनके सम्बन्ध में आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये’ ॥ १० १/२॥
साम्ना हि राक्षसेन्द्रेण प्रत्याख्यातो गरीयसा॥
किंचिन्नाह तदा रक्षो ज्ञात्वा तस्य चिकीर्षितम्।
उस श्रेष्ठ राक्षसराज के द्वारा शान्तभाव से ही ऐसा कोरा उत्तर पाकर सुमाली समझ गया कि रावण क्या करना चाहता है, इसलिये वह राक्षस चुप हो गया। फिर कुछ कहने का साहस न कर सका॥ ११ १/२॥
कस्यचित् त्वथ कालस्य वसन्तं रावणं ततः॥१२॥
उक्तवन्तं तथा वाक्यं दशग्रीवं निशाचरः।
प्रहस्तः प्रश्रितं वाक्यमिदमाह सकारणम्॥१३॥
तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होने पर अपने स्थान पर निवास करते हुए दशग्रीव रावण से जो सुमाली को पहले पूर्वोक्त उत्तर दे चुका था, निशाचर प्रहस्त ने विनयपूर्वक यह युक्तियुक्त बात कही— ॥ १२-१३॥
दशग्रीव महाबाहो नार्हसे वक्तुमीदृशम्।
सौभ्रानं नास्ति शूराणां शृणु चेदं वचो मम॥१४॥
‘महाबाहु दशग्रीव! आपने अपने नाना से जो कुछ कहा है, वैसा नहीं कहना चाहिये; क्योंकि वीरों में इस तरह भ्रातृभाव का निर्वाह होता नहीं देखा जाता। आप मेरी यह बात सुनिये॥ १४ ॥
अदितिश्च दितिश्चैव भगिन्यौ सहिते हि ते।
भार्ये परमरूपिण्यौ कश्यपस्य प्रजापतेः॥१५॥
‘अदिति और दिति दोनों सगी बहनें हैं। वे दोनों ही प्रजापति कश्यप की परम सुन्दरी पत्नियाँ हैं॥ १५॥
अदितिर्जनयामास देवांस्त्रिभुवनेश्वरान्।
दितिस्त्वजनयद् दैत्यान् कश्यपस्यात्मसम्भवान्॥१६॥
‘अदिति ने देवताओं को जन्म दिया है, जो इस समय त्रिभुवन के स्वामी हैं और दितिने दैत्यों को उत्पन्न किया है। देवता और दैत्य दोनों ही महर्षि कश्यप के औरस पुत्र हैं॥१६॥
दैत्यानां किल धर्मज्ञ पुरेयं सवनार्णवा।
सपर्वता मही वीर तेऽभवन् प्रभविष्णवः॥१७॥
‘धर्मज्ञ वीर! पहले पर्वत, वन और समुद्रोंसहित यह सारी पृथ्वी दैत्यों के ही अधिकार में थी; क्योंकि वे बड़े प्रभावशाली थे॥ १७॥
निहत्य तांस्तु समरे विष्णुना प्रभविष्णुना।
देवानां वशमानीतं त्रैलोक्यमिदमव्ययम्॥१८॥
‘किंतु सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु ने युद्ध में दैत्यों को मारकर त्रिलोकी का यह अक्षय राज्य देवताओं के अधिकार में दे दिया॥ १८ ॥
नैतदेको भवानेव करिष्यति विपर्ययम्।
सुरासुरैराचरितं तत् कुरुष्व वचो मम॥१९॥
‘इस तरहका विपरीत आचरण केवल आप ही नहीं करेंगे। देवताओं और असुरों ने भी पहले इस नीति से काम लिया है; अतः आप मेरी बात मान लें’॥ १९॥
एवमुक्तो दशग्रीवः प्रहृष्टेनान्तरात्मना।
चिन्तयित्वा मुहूर्तं वै बाढमित्येव सोऽब्रवीत्॥२०॥
प्रहस्त के ऐसा कहने पर दशग्रीव का चित्त प्रसन्न हो गया। उसने दो घड़ी तक सोच-विचारकर कहा —’बहुत अच्छा (तुम जैसा कहते हो, वैसा ही करूँगा)’ ॥२०॥
स तु तेनैव हर्षेण तस्मिन्नहनि वीर्यवान्।
वनं गतो दशग्रीवः सह तैः क्षणदाचरैः॥ २१॥
तदनन्तर उसी दिन उसी हर्ष के साथ पराक्रमी दशग्रीव उन निशाचरों को साथ ले लङ्का के निकटवर्ती वन में गया॥२१॥
त्रिकूटस्थः स तु तदा दशग्रीवो निशाचरः।
प्रेषयामास दौत्येन प्रहस्तं वाक्यकोविदम्॥ २२॥
उस समय त्रिकूटपर्वत पर जाकर निशाचर दशग्रीव ठहर गया और बातचीत करने में कुशल प्रहस्त को उसने दूत बनाकर भेजा॥ २२॥
प्रहस्त शीघ्रं गच्छ त्वं ब्रूहि नैर्ऋतपुङ्गवम्।
वचसा मम वित्तेशं सामपूर्वमिदं वचः॥२३॥
वह बोला—’प्रहस्त! तुम शीघ्र जाओ और मेरे कथनानुसार धन के स्वामी राक्षसराज कुबेर से शान्तिपूर्वक यह बात कहो॥२३॥
इयं लङ्का पुरी राजन् राक्षसानां महात्मनाम्।
त्वया निवेशिता सौम्य नैतद् युक्तं तवानघ॥२४॥
‘राजन्! यह लङ्कापुरी महामना राक्षसों की है, जिसमें आप निवास कर रहे हैं। सौम्य! निष्पाप यक्षराज! यह आपके लिये उचित नहीं है॥२४॥
तद् भवान् यदि नो ह्यद्य दद्यादतुलविक्रम।
कृता भवेन्मम प्रीतिधर्मश्चैवानुपालितः॥ २५॥
‘अतुल पराक्रमी धनेश्वर! यदि आप हमें यह लङ्कापुरी लौटा दें तो इससे हमें बड़ी प्रसन्नता होगी
और आपके द्वारा धर्म का पालन हुआ समझा जायगा’॥
स तु गत्वा पुरीं लङ्कां धनदेन सुरक्षिताम्।
अब्रवीत् परमोदारं वित्तपालमिदं वचः॥२६॥
तब प्रहस्त कुबेर के द्वारा सुरक्षित लङ्कापुरी में गया और उन वित्तपाल से बड़ी उदारतापूर्ण वाणी में बोला
प्रेषितोऽहं तव भ्रात्रा दशग्रीवेण सुव्रत।
त्वत्समीपं महाबाहो सर्वशस्त्रभृतां वर ॥२७॥
तच्छ्रयतां महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
वचनं मम वित्तेश यद् ब्रवीति दशाननः॥२८॥
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, सर्वशास्त्रविशारद, महाबाहु, महाप्राज्ञ धनेश्वर! आपके भाई दशग्रीव ने मुझे आपके पास भेजा है। दशमुख रावण आपसे जो कुछ कहना चाहते हैं, वह बता रहा हूँ। आप मेरी बात सुनिये॥ २७-२८॥
इयं किल पुरी रम्या सुमालिप्रमुखैः पुरा।
भुक्तपूर्वा विशालाक्ष राक्षसैर्भीमविक्रमैः॥२९॥
तेन विज्ञाप्यते सोऽयं साम्प्रतं विश्रवात्मज।
तदेषा दीयतां तात याचतस्तस्य सामतः॥३०॥
‘विशाललोचन वैश्रवण! यह रमणीय लङ्कापुरी पहले भयानक पराक्रमी सुमाली आदि राक्षसों के अधिकार में रही है। उन्होंने बहुत समय तक इसका उपभोग किया है। अतः वे दशग्रीव इस समय यह सूचित कर रहे हैं कि ‘यह लङ्का जिनकी वस्तु है, उन्हें लौटा दी जाय।’ तात! शान्तिपूर्वक याचना करने वाले दशग्रीव को आप यह पुरी लौटा दें॥ २९-३०॥
प्रहस्तादपि संश्रुत्य देवो वैश्रवणो वचः।
प्रत्युवाच प्रहस्तं तं वाक्यं वाक्यविदां वरः॥३१॥
प्रहस्त के मुख से यह बात सुनकर वाणी का मर्म समझने वालों में श्रेष्ठ भगवान् वैश्रवण ने प्रहस्त को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥३१॥
दत्ता ममेयं पित्रा तु लङ्का शून्या निशाचरैः।
निवेशिता च मे रक्षो दानमानादिभिर्गुणैः॥३२॥
‘राक्षस! यह लङ्का पहले निशाचरों से सूनी थी। उस समय पिताजीने मुझे इसमें रहने की आज्ञा दी और मैंने इसमें दान, मान आदि गुणों द्वारा प्रजाजनों को बसाया॥
ब्रूहि गच्छ दशग्रीवं पुरी राज्यं च यन्मम।
तत्राप्येतन्महाबाहो भुक्ष्व राज्यमकण्टकम्॥३३॥
‘दूत ! तुम जाकर दशग्रीव से कहो—महाबाहो! यह पुरी तथा यह निष्कण्टक राज्य जो कुछ भी मेरे पास है, वह सब तुम्हारा भी है। तुम इसका उपभोग करो॥ ३३॥
अविभक्तं त्वया सार्धं राज्यं यच्चापि मे वसु।
एवमुक्त्वा धनाध्यक्षो जगाम पितुरन्तिकम्॥३४॥
‘मेरा राज्य तथा सारा धन तुमसे बँटा हुआ नहीं है’ ऐसा कहकर धनाध्यक्ष कुबेर अपने पिता विश्रवा मुनि के पास चले गये॥३४॥
अभिवाद्य गुरुं प्राह रावणस्य यदीप्सितम्।
एष तात दशग्रीवो दूतं प्रेषितवान् मम॥ ३५॥
दीयतां नगरी लङ्का पूर्वं रक्षोगणोषिता।
मयात्र यदनुष्ठेयं तन्ममाचक्ष्व सुव्रत॥३६॥
वहाँ पिता को प्रणाम करके उन्होंने रावण की जो इच्छा थी, उसे इस प्रकार बताया—’तात! आज दशग्रीव ने मेरे पास दूत भेजा और कहलाया है कि इस लङ्का नगरी में पहले राक्षस रहा करते थे, अतः इसे राक्षसों को लौटा दीजिये। सुव्रत! अब मुझे इस विषय में क्या करना चाहिये, बताने की कृपा करें॥ ३५-३६॥
ब्रह्मर्षिस्त्वेवमुक्तोऽसौ विश्रवा मुनिपुङ्गवः।
प्राञ्जलिं धनदं प्राह शृणु पुत्र वचो मम॥३७॥
उनके ऐसा कहने पर ब्रह्मर्षि मुनिवर विश्रवा हाथ जोड़कर खड़े हुए धनद कुबेर से बोले—’बेटा! मेरी बात सुनो॥ ३७॥
दशग्रीवो महाबाहुरुक्तवान् मम संनिधौ।
मया निर्भर्त्सतश्चासीद् बहुशोक्तः सुदुर्मतिः॥३८॥
स क्रोधेन मया चोक्तो ध्वंससे च पुनः पुनः।
महाबाहु दशग्रीव ने मेरे निकट भी यह बात कही थी। इसके लिये मैंने उस दुर्बुद्धि को बहुत फटकारा, डाँट बतायी और बारम्बार क्रोधपूर्वक कहा—’अरे! ऐसा करने से तेरा पतन हो जायगा’ किंतु इसका कुछ फल नहीं हुआ॥ ३८ १/२॥
श्रेयोऽभियुक्तं धन॑ च शृणु पुत्र वचो मम॥३९॥
वरप्रदानसम्मूढो मान्यामान्यं सुदुर्मतिः।
न वेत्ति मम शापाच्च प्रकृतिं दारुणां गतः॥४०॥
‘बेटा! अब तुम्हीं मेरे धर्मानुकूल एवं कल्याणकारी वचन को ध्यान देकर सुनो। रावण की बुद्धि बहुत ही खोटी है। वह वर पाकर मदमत्त हो उठा है—विवेक खो बैठा है। मेरे शाप के कारण भी उसकी प्रकृति क्रूर हो गयी है॥ ३९-४०॥
तस्माद् गच्छ महाबाहो कैलासं धरणीधरम्।
निवेशय निवासार्थं त्यक्त्वा लङ्कां सहानुगः॥४१॥
‘इसलिये महाबाहो! अब तुम अनुचरोंसहित लङ्का छोड़कर कैलास पर्वत पर चले जाओ और अपने रहने के लिये वहीं दूसरा नगर बसाओ॥४१॥
तत्र मन्दाकिनी रम्या नदीनामुत्तमा नदी।
काञ्चनैः सूर्यसंकाशैः पङ्कजैः संवृतोदका॥४२॥
कुमुदैरुत्पलैश्चैव अन्यैश्चैव सुगन्धिभिः।
‘वहाँ नदियों में श्रेष्ठ रमणीय मन्दाकिनी नदी बहती है, जिसका जल सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले सुवर्णमय कमलों, कुमुदों, उत्पलों और दूसरे-दूसरे सुगन्धित कुसुमों से आच्छादित है॥ ४२ १/२॥
तत्र देवाः सगन्धर्वाः साप्सरोरगकिंनराः॥४३॥
विहारशीलाः सततं रमन्ते सर्वदाश्रिताः।
नहि क्षमं तवानेन वैरं धनद रक्षसा॥४४॥
जानीषे हि यथानेन लब्धः परमको वरः॥४५॥
‘उस पर्वत पर देवता, गन्धर्व, अप्सरा, नाग और किन्नर आदि दिव्य प्राणी, जिन्हें स्वभाव से ही घूमना फिरना अधिक प्रिय है, सदा रहते हुए निरन्तर आनन्द का अनुभव करते हैं। धनद! इस राक्षस के साथ तुम्हारा वैर करना उचित नहीं है। तुम तो जानते ही हो कि इसने ब्रह्माजी से कैसा उत्कृष्ट वर प्राप्त किया है’। ४३–४५॥
एवमुक्तो गृहीत्वा तु तद्वचः पितृगौरवात्।
सदारपुत्रः सामात्यः सवाहनधनो गतः॥४६॥
मुनि के ऐसा कहने पर कुबेर ने पिता का मान रखते हुए उनकी बात मान ली और स्त्री, पुत्र, मन्त्री, वाहन तथा धन साथ लेकर वे लङ्का से कैलास को चले गये॥
प्रहस्तोऽथ दशग्रीवं गत्वा वचनमब्रवीत्।
प्रहृष्टात्मा महात्मानं सहामात्यं सहानुजम्॥४७॥
तदनन्तर प्रहस्त प्रसन्न होकर मन्त्री और भाइयों के साथ बैठे हुए महामना दशग्रीव के पास जाकर बोला
शून्या सा नगरी लङ्का त्यक्त्वैनां धनदो गतः।
प्रविश्य तां सहास्माभिः स्वधर्मं तत्र पालय॥४८॥
‘लङ्का नगरी खाली हो गयी। कुबेर उसे छोड़कर चले गये। अब आप हमलोगों के साथ उसमें प्रवेश करके अपने धर्म का पालन कीजिये’ ॥ ४८॥
एवमुक्तो दशग्रीवः प्रहस्तेन महाबलः।
विवेश नगरी लङ्कां भ्रातृभिः सबलानुगैः॥४९॥
धनदेन परित्यक्तां सुविभक्तमहापथाम्।
आरुरोह स देवारिः स्वर्गं देवाधिपो यथा॥५०॥
प्रहस्त के ऐसा कहने पर महाबली दशग्रीव ने अपनी सेना, अनुचर तथा भाइयोंसहित कुबेर द्वारा त्यागी हुई लङ्कापुरी में प्रवेश किया। उस नगरी में सुन्दर विभागपूर्वक बड़ी-बड़ी सड़कें बनी थीं। जैसे देवराज इन्द्र स्वर्ग के सिंहासन पर आरूढ़ हुए थे, उसी प्रकार देवद्रोही रावण ने लङ्का में पदार्पण किया॥ ४९-५०॥
स चाभिषिक्तः क्षणदाचरैस्तदा निवेशयामास पुरीं दशाननः।
निकामपूर्णा च बभूव सा पुरी निशाचरैर्नीलबलाहकोपमैः॥५१॥
उस समय निशाचरों ने दशमुख रावण का राज्याभिषेक किया। फिर रावण ने उस पुरी को बसाया। देखते-देखते समूची लङ्कापुरी नील मेघ के समान वर्णवाले राक्षसों से पूर्णतः भर गयी॥५१॥
धनेश्वरस्त्वथ पितृवाक्यगौरवान्यवेशयच्छशिविमले गिरौ पुरीम्।
स्वलंकृतैर्भवनवरैर्विभूषितां पुरंदरस्येव तदाऽमरावतीम्॥५२॥
धन के स्वामी कुबेर ने पिताकी आज्ञा को आदर देकर चन्द्रमा के समान निर्मल कान्तिवाले कैलास पर्वत पर शोभाशाली श्रेष्ठ भवनों से विभूषित अलकापुरी बसायी, ठीक वैसे ही जैसे देवराज इन्द्र ने स्वर्गलोक में अमरावती पुरी बसायी थी॥५२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे एकादशः सर्गः॥११॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥११॥