वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 12 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 12
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
द्वादशः सर्गः (सर्ग 12)
शूर्पणखा तथा रावण आदि तीनों भाइयों का विवाह और मेघनाद का जन्म
राक्षसेन्द्रोऽभिषिक्तस्तु भ्रातृभिः सहितस्तदा।
ततः प्रदानं राक्षस्या भगिन्याः समचिन्तयत्॥
(अगस्त्यजी कहते हैं— श्रीराम!) अपना अभिषेक हो जाने पर जब राक्षसराज रावण भाइयोंसहित लङ्कापुरी में रहने लगा, तब उसे अपनी बहिन राक्षसी शूर्पणखा के ब्याह की चिन्ता हुई॥१॥
स्वसारं कालकेयाय दानवेन्द्राय राक्षसीम्।
ददौ शूर्पणखां नाम विद्युज्जिह्वाय राक्षसः॥२॥
उस राक्षस ने दानवराज विद्युज्जिह्व को, जो कालका का पुत्र था, अपनी बहिन शूर्पणखा ब्याह दी॥२॥
अथ दत्त्वा स्वयं रक्षो मृगयामटते स्म तत्।
तत्रापश्यत् ततो राम मयं नाम दितेः सुतम्॥३॥
कन्यासहायं तं दृष्ट्वा दशग्रीवो निशाचरः।
अपृच्छत् को भवानेको निर्मनुष्यमृगे वने॥४॥
अनया मृगशावाक्ष्या कमर्थं सह तिष्ठसि।
श्रीराम! बहिन का ब्याह करके राक्षस रावण एक दिन स्वयं शिकार खेलने के लिये वन में घूम रहा था। वहाँ उसने दिति के पुत्र मय को देखा। उसके साथ एक सुन्दरी कन्या भी थी। उसे देखकर निशाचर दशग्रीव ने पूछा-‘आप कौन हैं, जो मनुष्यों और पशुओं से रहित इस सूने वन में अकेले घूम रहे हैं? इस मृगनयनी कन्या के साथ आप यहाँ किस उद्देश्य से निवास करते हैं?’ ॥ ३-४ १/२॥
मयस्तदाब्रवीद् राम पृच्छन्तं तं निशाचरम्॥५॥
श्रूयतां सर्वमाख्यास्ये यथावृत्तमिदं तव।
श्रीराम ! इस प्रकार पूछने वाले उस निशाचर से मय बोला—’सुनो, मैं अपना सारा वृत्तान्त तुम्हें यथार्थरूप से बता रहा हूँ॥ ५ १/२॥
हेमा नामाप्सरास्तात श्रुतपूर्वा यदि त्वया॥६॥
दैवतैर्मम सा दत्ता पौलोमीव शतक्रतोः।
तस्यां सक्तमना ह्यासं दशवर्षशतान्यहम्॥७॥
सा च दैवतकार्येण गता वर्षाश्चतुर्दश।
तस्याः कृते च हेमायाः सर्वं हेममयं पुरम्॥८॥
वज्रवैदूर्यचित्रं च मायया निर्मितं मया।
तत्राहमवसं दीनस्तया हीनः सुदुःखितः॥९॥
‘तात! तुमने पहले कभी सुना होगा, स्वर्ग में हेमा नाम से प्रसिद्ध एक अप्सरा रहती है। उसे देवताओं ने उसी प्रकार मुझे अर्पित कर दिया था, जैसे पुलोम दानव की कन्या शची देवराज इन्द्र को दी गयी थीं। मैं उसी में आसक्त होकर एक सहस्र वर्षों तक उसके साथ रहा हूँ। एक दिन वह देवताओं के कार्य से स्वर्गलोक को चली गयी, तब से चौदह वर्ष बीत गये। मैंने उस हेमा के लिये माया से एक नगर का निर्माण किया था, जो सम्पूर्णतः सोने का बना है। हीरे और नीलम के संयोग से वह विचित्र शोभा धारण करता है। उसीमें मैं अबतक उसके वियोग से अत्यन्त दुःखी एवं दीन होकर रहता था॥६-९॥
तस्माद् पुराद् दुहितरं गृहीत्वा वनमागतः।
इयं ममात्मजा राजंस्तस्याः कुक्षौ विवर्धिता॥१०॥
‘उसी नगर से इस कन्या को साथ लेकर मैं वन में आया हूँ। राजन् ! यह मेरी पुत्री है, जो हेमा के गर्भ में ही पली है और उससे उत्पन्न होकर मेरे द्वारा पालित हो बड़ी हुई है॥ १०॥
भर्तारमनया सार्धमस्याः प्राप्तोऽस्मि मार्गितुम्।
कन्यापितृत्वं दुःखं हि सर्वेषां मानकांक्षिणाम्॥११॥
कन्या हि द्वे कुले नित्यं संशये स्थाप्य तिष्ठति।
‘इसके साथ मैं इसके योग्य पति की खोज करने के लिये आया हूँ। मान की अभिलाषा रखने वाले प्रायः सभी लोगों के लिये कन्या का पिता होना कष्टकारक होता है। (क्योंकि इसके लिये कन्या के पिताको दूसरों के सामने झुकना पड़ता है।) कन्या सदा दो कुलों को संशय में डाले रहती है॥ ११ १/२ ॥
पुत्रद्रयं ममाप्यस्यां भार्यायां सम्बभूव ह॥१२॥
मायावी प्रथमस्तात दुन्दुभिस्तदनन्तरः।
‘तात! मेरी इस भार्या हेमा के गर्भ से दो पुत्र भी हुए हैं, जिनमें प्रथम पुत्र का नाम मायावी और दूसरे का दुन्दुभि है॥ १२ १/२॥
एवं ते सर्वमाख्यातं याथातथ्येन पृच्छतः॥१३॥
त्वामिदानीं कथं तात जानीयां को भवानिति।
तात! तुमने पूछा था, इसलिये मैंने इस तरह अपनी सारी बातें तुम्हें यथार्थरूप से बता दी। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम कौन हो? यह मुझे किस तरह ज्ञात हो सकेगा?’॥ १३ १/२॥
एवमुक्तं तु तद् रक्षो विनीतमिदमब्रवीत्॥१४॥
अहं पौलस्त्यतनयो दशग्रीवश्च नामतः।
मुनेर्विश्रवसो यस्तु तृतीयो ब्रह्मणोऽभवत्॥१५॥
मयासुर के इस प्रकार कहने पर राक्षस रावण विनीतभावसे यों बोला—’मैं पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा का बेटा हूँ। मेरा नाम दशग्रीव है। मैं जिन विश्रवा मुनि से उत्पन्न हुआ हूँ, वे ब्रह्माजी से तीसरी पीढ़ी में पैदा हुए हैं’। १४-१५ ॥
एवमुक्तस्तदा राम राक्षसेन्द्रेण दानवः।
महर्षेस्तनयं ज्ञात्वा मयो हर्षमुपागतः॥१६॥
दातुं दुहितरं तस्मै रोचयामास तत्र वै।
श्रीराम! राक्षसराज के ऐसा कहने पर दानव मय महर्षि विश्रवा के उस पुत्र का परिचय पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसके साथ वहाँ उसने अपनी पुत्री का विवाह कर देने की इच्छा की॥ १६ १/२॥
करेण तु करं तस्या ग्राहयित्वा मयस्तदा॥१७॥
प्रहसन् प्राह दैत्येन्द्रो राक्षसेन्द्रमिदं वचः।
इसके बाद दैत्यराज मय अपनी बेटी का हाथ रावण के हाथ में देकर हँसता हुआ उस राक्षसराज से इस प्रकार बोला— ॥ १७ १/२॥
इयं ममात्मजा राजन् हेमयाप्सरसा धृता॥१८॥
कन्या मन्दोदरी नाम पत्न्यर्थं प्रतिगृह्यताम्।
‘राजन्! यह मेरी बेटी है, जिसे हेमा अप्सरा ने अपने गर्भ में धारण किया था। इसका नाम मन्दोदरी है। इसे तुम अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करो’॥ १८१/२॥
बाढमित्येव तं राम दशग्रीवोऽभ्यभाषत ॥१९॥
प्रज्वाल्य तत्र चैवाग्निमकरोत् पाणिसंग्रहम्।
श्रीराम! तब दशग्रीव ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर मयासुर की बात मान ली। फिर वहाँ उसने अग्नि को प्रज्वलित करके मन्दोदरी का पाणिग्रहण किया॥ १९ १/२॥
स हि तस्य मयो राम शापाभिज्ञस्तपोधनात्॥२०॥
विदित्वा तेन सा दत्ता तस्य पैतामहं कुलम्।
रघुनन्दन! यद्यपि तपोधन विश्रवा से रावण को जो क्रूर-प्रकृति होने का शाप मिला था, उसे मयासुर जानता था; तथापि रावण को ब्रह्माजी के कुल का बालक समझकर उसने उसको अपनी कन्या दे दी। २० १/२॥
अमोघां तस्य शक्तिं च प्रददौ परमाद्भुताम्॥२१॥
परेण तपसा लब्धां जनिवाँल्लक्ष्मणं यया।
साथ ही उत्कृष्ट तपस्या से प्राप्त हुई एक परम अद्भुत अमोघ शक्ति भी प्रदान की, जिसके द्वारा रावण ने लक्ष्मण को घायल किया था॥ २१ १/२॥
एवं स कृत्वा दारान् वै लङ्काया ईश्वरः प्रभुः॥२२॥
गत्वा तु नगरी भार्ये भ्रातृभ्यां समुपाहरत्।
इस प्रकार दारपरिग्रह (विवाह) करके प्रभावशाली लङ्केश्वर रावण लङ्कापुरी में गया और अपने दोनों भाइयों के लिये भी दो भार्याएँ उनका विवाह कराकर ले आया॥
वैरोचनस्य दौहित्रीं वज्रज्वालेति नामतः॥२३॥
तां भार्यां कुम्भकर्णस्य रावणः समकल्पयत्।
विरोचनकुमार बलि की दौहित्री को, जिसका नाम वज्रज्वाला था, रावण ने कुम्भकर्ण की पत्नी बनाया॥ २३ १/२॥
गन्धर्वराजस्य सुतां शैलूषस्य महात्मनः॥२४॥
सरमां नाम धर्मज्ञां लेभे भार्यां विभीषणः।
गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा को, जो धर्म के तत्त्व को जानने वाली थी, विभीषण ने अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त किया॥ २४ १/२॥
तीरे तु सरसो वै तु संजज्ञे मानसस्य हि॥२५॥
सरस्तदा मानसं तु ववृधे जलदागमे।
मात्रा तु तस्याः कन्यायाः स्नेहेनाक्रन्दितं वचः॥२६॥
सरो मा वर्धयस्वेति ततः सा सरमाभवत्।
वह मानसरोवर के तट पर उत्पन्न हुई थी। जब उसका जन्म हुआ, उस समय वर्षा-ऋतु का आगमन होने से मान-सरोवर बढ़ने लगा। तब उस कन्या की माता ने पुत्री के स्नेह से करुणक्रन्दन करते हुए उस सरोवर से कहा—’सरो मा वर्धयस्व’ (हे सरोवर! तुम अपने जल को बढ़ने न दो)। उसने घबराहट में ‘सरः मा’ ऐसा कहा था; इसलिये उस कन्या का नाम सरमा हो गया॥ २५-२६ १/२॥
एवं ते कृतदारा वै रेमिरे तत्र राक्षसाः॥२७॥
स्वां स्वां भार्यामुपादाय गन्धर्वा इव नन्दने।
इस प्रकार वे तीनों राक्षस विवाहित होकर अपनी-अपनी स्त्री को साथ ले नन्दनवन में विहार करने वाले गन्धर्वो के समान लङ्का में सुखपूर्वक रमण करने लगे।
ततो मन्दोदरी पुत्रं मेघनादमजीजनत्॥२८॥
स एष इन्द्रजिन्नाम युष्माभिरभिधीयते।
तदनन्तर कुछ काल के बाद मन्दोदरी ने अपने पुत्र मेघनाद को जन्म दिया, जिसे आपलोग इन्द्रजित् के नाम से पुकारते थे॥ २८ १/२॥
जातमात्रेण हि पुरा तेन रावणसूनुना॥ २९॥
रुदता सुमहान् मुक्तो नादो जलधरोपमः।
पूर्वकाल में उस रावणपुत्र ने पैदा होते ही रोते-रोते मेघ के समान गम्भीर नाद किया था॥ २९ १/२ ॥
जडीकृता च सा लङ्का तस्य नादेन राघव॥३०॥
पिता तस्याकरोन्नाम मेघनाद इति स्वयम्।
रघुनन्दन! उस मेघतुल्य नाद से सारी लङ्का जडवत् स्तब्ध रह गयी थी; इसलिये पिता रावण ने स्वयं ही उसका नाम मेघनाद रखा ॥ ३० १/२॥
सोऽवर्धत तदा राम रावणान्तःपुरे शुभे॥३१॥
रक्ष्यमाणो वरस्त्रीभिश्छन्नः काष्ठरिवानलः।
मातापित्रोर्महाहर्षं जनयन् रावणात्मजः॥३२॥
श्रीराम! उस समय वह रावणकुमार रावण के सुन्दर अन्तःपुर में माता-पिता को महान् हर्ष प्रदान करता हुआ श्रेष्ठ नारियों से सुरक्षित हो काष्ठ से आच्छादित हुई अग्नि के समान बढ़ने लगा। ३१-३२॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे द्वादशः सर्गः॥१२॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१२॥