वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 13 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 13
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
त्रयोदशः सर्गः (सर्ग 13)
रावण द्वारा बनवाये गये शयनागार में कुम्भकर्ण का सोना, रावण का अत्याचार, कुबेर का दूत भेजना तथा रावण का उस दूत को मार डालना
अथ लोकेश्वरोत्सृष्टा तत्र कालेन केनचित्।
निद्रा समभवत् तीव्रा कुम्भकर्णस्य रूपिणी॥
(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) तदनन्तर कुछ काल बीतने पर लोकेश्वर ब्रह्माजी की भेजी हुई निद्रा जंभाई आदि के रूप में मूर्तिमती हो कुम्भकर्ण के भीतर तीव्र वेग से प्रकट हुई॥१॥
ततो भ्रातरमासीनं कुम्भकर्णोऽब्रवीद् वचः।
निद्रा मां बाधते राजन् कारयस्व ममालयम्॥२॥
तब कुम्भकर्ण ने पास ही बैठे हुए अपने भाई रावण से कहा—’राजन् ! मुझे नींद सता रही है; अतः मेरे लिये शयन करने के योग्य घर बनवा दें’॥ २॥
विनियक्तास्ततो राज्ञा शिल्पिनो विश्वकर्मवत्।
विस्तीर्णं योजनं स्निग्धं ततो द्विगुणमायतम्॥
दर्शनीयं निराबाधं कुम्भकर्णस्य चक्रिरे।
स्फाटिकैः काञ्चनैश्चित्रैः स्तम्भैः सर्वत्र शोभितम्॥४॥
यह सुनकर राक्षसराज ने विश्वकर्मा के समान सुयोग्य शिल्पियों को घर बनाने के लिये आज्ञा दे दी। उन शिल्पियों ने दो योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा चिकना घर बनाया, जो देखने ही योग्य था। उसमें किसी प्रकार की बाधा का अनुभव नहीं होता था। उसमें सर्वत्र स्फटिकमणि एवं सुवर्ण के बने हुए खम्भे लगे थे, जो उस भवन की शोभा बढ़ा रहे थे। ३-४॥
वैदूर्यकृतसोपानं किङ्किणीजालकं तथा।
दान्ततोरणविन्यस्तं वज्रस्फटिकवेदिकम्॥५॥
उसमें नीलम की सीढ़ियाँ बनी थीं। सब ओर घुघुरूदार झालरें लगायी गयी थीं। उसका सदरफाटक हाथी-दाँतका बना हुआ था और हीरे तथा स्फटिक-मणि की वेदी एवं चबूतरे शोभा दे रहे थे। ५॥
मनोहरं सर्वसुखं कारयामास राक्षसः।।
सर्वत्र सुखदं नित्यं मेरोः पुण्यां गुहामिव॥६॥
वह भवन सब प्रकार से सुखद एवं मनोहर था। मेरु की पुण्यमयी गुफा के समान सदा सर्वत्र सुख प्रदान करने वाला था। राक्षसराज रावण ने कुम्भकर्ण के लिये ऐसा सुन्दर एवं सुविधाजनक शयनागार बनवाया॥६॥
तत्र निद्रां समाविष्टः कुम्भकर्णो महाबलः।
बहून्यब्दसहस्राणि शयानो न च बुध्यते॥७॥
महाबली कुम्भकर्ण उस घर में जाकर निद्रा के वशीभूत हो कई हजार वर्षां तक सोता रहा जाग नहीं पाता था॥ ७॥
निद्राभिभूते तु तदा कुम्भकर्णे दशाननः।
देवर्षियक्षगन्धर्वान् संजने हि निरङ्कशः॥८॥
जब कुम्भकर्ण निद्रा से अभिभूत होकर सो गया, तब दशमुख रावण उच्छृङ्खल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वो के समूहों को मारने तथा पीड़ा देने लगा॥ ८॥
उद्यानानि विचित्राणि नन्दनादीनि यानि च।
तानि गत्वा सुसंक्रुद्धो भिनत्ति स्म दशाननः॥९॥
देवताओं के नन्दनवन आदि जो विचित्र उद्यान थे, उनमें जाकर दशानन अत्यन्त कुपित हो उन सबको उजाड़ देता था॥९॥
नदीं गज इव क्रीडन् वृक्षान् वायुरिव क्षिपन्।
नगान् वज्र इवोत्सृष्टो विध्वंसयति राक्षसः॥१०॥
वह राक्षस नदी में हाथी की भाँति क्रीडा करता हुआ उसकी धाराओं को छिन्न-भिन्न कर देता था। वृक्षों को वायु की भाँति झकझोरता हुआ उखाड़ फेंकता था और पर्वतों को इन्द्र के हाथ से छूटे हुए वज्र की भाँति तोड़-फोड़ डालता था॥ १०॥
तथावृत्तं तु विज्ञाय दशग्रीवं धनेश्वरः।
कुलानुरूपं धर्मज्ञो वृत्तं संस्मृत्य चात्मनः॥११॥
सौभ्रात्रदर्शनार्थं तु दूतं वैश्रवणस्तदा।
लङ्कां सम्प्रेषयामास दशग्रीवस्य वै हितम्॥१२॥
दशग्रीव के इस निरंकुश बर्ताव का समाचार पाकर धन के स्वामी धर्मज्ञ कुबेर ने अपने कुल के अनुरूप आचार-व्यवहार का विचार करके उत्तम भ्रातृप्रेम का परिचय देने के लिये लङ्का में एक दूत भेजा। उनका उद्देश्य यह था कि मैं रावण को उसके हित की बात बताकर राहपर लाऊँ॥ ११-१२ ॥
स गत्वा नगरीं लङ्कामाससाद विभीषणम्।
मानितस्तेन धर्मेण पृष्टश्चागमनं प्रति॥१३॥
वह दूत लङ्कापुरी में जाकर पहले विभीषण से मिला। विभीषण ने धर्म के अनुसार उसका सत्कार किया और लङ्का में आने का कारण पूछा ॥ १३॥
पृष्ट्वा च कुशलं राज्ञो ज्ञातीनां च विभीषणः।
सभायां दर्शयामास तमासीनं दशाननम्॥१४॥
फिर बन्धु-बान्धवों का कुशल-समाचार पूछकर विभीषण ने उस दूत को ले जाकर राजसभा में बैठे हुए रावण से मिलाया॥१४॥
स दृष्ट्वा तत्र राजानं दीप्यमानं स्वतेजसा।
जयेति वाचा सम्पूज्य तूष्णीं समभिवर्तत ॥१५॥
राजा रावण सभा में अपने तेज से उद्दीप्त हो रहा था, उसे देखकर दूतने ‘महाराज की जय हो’ ऐसा कहकर वाणी द्वारा उसका सत्कार किया और फिर वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा ॥ १५ ॥
स तत्रोत्तमपर्यङ्के वरास्तरणशोभिते।
उपविष्टं दशग्रीवं दूतो वाक्यमथाब्रवीत्॥१६॥
तत्पश्चात् उत्तम बिछौने से सुशोभित एक श्रेष्ठ पलङ्ग पर बैठे हुए दशग्रीव से उस दूत ने इस प्रकार कहा- ॥१६॥
राजन् वदामि ते सर्वं भ्राता तव यदब्रवीत्।
उभयोः सदृशं वीर वृत्तस्य च कुलस्य च॥१७॥
‘वीर महाराज! आपके भाई धनाध्यक्ष कुबेरने आपके पास जो संदेश भेजा है, वह माता-पिता दोनों के कुल तथा सदाचार के अनुरूप है, मैं उसे पूर्णरूप से आपको बता रहा हूँ; सुनिये- ॥ १७॥
साधु पर्याप्तमेतावत् कृत्यश्चारित्रसंग्रहः।
साधु धर्मे व्यवस्थानं क्रियतां यदि शक्यते॥१८॥
‘दशग्रीव! तुमने अब तक जो कुछ कुकृत्य किया है, इतना ही बहुत है। अब तो तुम्हें भलीभाँति सदाचार का संग्रह करना चाहिये। यदि हो सके तो धर्म के मार्ग पर स्थित रहो; यही तुम्हारे लिये अच्छा होगा॥१८॥
दृष्टं मे नन्दनं भग्नमृषयो निहताः श्रुताः।
देवतानां समुद्योगस्त्वत्तो राजन् मया श्रुतः॥१९॥
‘तुमने नन्दनवन को उजाड़ दिया—यह मैंने अपनी आँखों देखा है। तुम्हारे द्वारा बहुत-से ऋषियों का वध हुआ है, यह भी मेरे सुनने में आया है। राजन्! (इससे तंग आकर देवता तुमसे बदला लेना चाहते हैं) मैंने सुना है कि तुम्हारे विरुद्ध देवताओं का उद्योग आरम्भ हो गया है।
निराकृतश्च बहुशस्त्वयाहं राक्षसाधिप।
सापराधोऽपि बालो हि रक्षितव्यः स्वबान्धवैः॥२०॥
‘राक्षसराज! तुमने कई बार मेरा भी तिरस्कार किया है; तथापि यदि बालक अपराध कर दे तो भी अपने बन्धु-बान्धवों को तो उसकी रक्षा ही करनी चाहिये (इसीलिये तुम्हें हितकारक सलाह दे रहा हूँ॥२०॥
अहं तु हिमवत्पृष्ठं गतो धर्ममुपासितुम्।
रौद्रं व्रतं समास्थाय नियतो नियतेन्द्रियः ॥२१॥
‘मैं शौच-संतोषादि नियमों के पालन और इन्द्रियसंयमपूर्वक ‘रौद्र-व्रत’ का आश्रय ले धर्म का अनुष्ठान करने के लिये हिमालय के एक शिखर पर गया था। २१॥
तत्र देवो मया दृष्ट उमया सहितः प्रभुः।
सव्यं चक्षुर्मया दैवात् तत्र देव्यां निपातितम्॥२२॥
का न्वेषेति महाराज न खल्वन्येन हेतुना।
रूपं चानुपमं कृत्वा रुद्राणी तत्र तिष्ठति ॥२३॥
‘वहाँ मुझे उमासहित भगवान् महादेवजी का दर्शन हुआ। महाराज! उस समय मैंने केवल यह जानने के लिये कि देखू ये कौन हैं? दैववश देवी पार्वती पर अपनी बायीं दृष्टि डाली थी। निश्चय ही मैंने दूसरे किसी हेतु से (विकारयुक्त भावना से) उनकी ओर नहीं देखा था। उस वेला में देवी रुद्राणी अनुपम रूप धारण करके वहाँ खड़ी थीं॥ २२-२३॥
देव्या दिव्यप्रभावेण दग्धं सव्यं ममेक्षणम्।
रेणुध्वस्तामिव ज्योतिः पिङ्गलत्वमुपागतम्॥२४॥
‘देवी के दिव्य प्रभाव से उस समय मेरी बायीं आँख जल गयी और दूसरी (दायीं आँख) भी धूल से भरी हुई-सी पिङ्गल वर्ण की हो गयी॥ २४ ॥
ततोऽहमन्यद् विस्तीर्णं गत्वा तस्य गिरेस्तटम्।
तूष्णीं वर्षशतान्यष्टौ समधारं महाव्रतम्॥ २५॥
‘तदनन्तर मैंने पर्वत के दूसरे विस्तृत तट पर जाकर आठ सौ वर्षों तक मौनभाव से उस महान् व्रत को धारण किया॥ २५ ॥
समाप्ते नियमे तस्मिंस्तत्र देवो महेश्वरः।
ततः प्रीतेन मनसा प्राह वाक्यमिदं प्रभुः॥२६॥
‘उस नियम के समाप्त होने पर भगवान् महेश्वरदेव ने मुझे दर्शन दिया और प्रसन्न मन से कहा- ॥ २६ ॥
प्रीतोऽस्मि तव धर्मज्ञ तपसानेन सुव्रत।
मया चैतद व्रतं चीर्णं त्वया चैव धनाधिप॥२७॥
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले धर्मज्ञ धनेश्वर ! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। एक तो मैंने इस व्रत का आचरण किया है और दूसरे तुमने॥२७॥
तृतीयः पुरुषो नास्ति यश्चरेद् व्रतमीदृशम्।
व्रतं सुदुष्करं ह्येतन्मयैवोत्पादितं पुरा॥२८॥
‘तीसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो ऐसे कठोर व्रत का पालन कर सके। इस अत्यन्त दुष्कर व्रत को पूर्वकाल में मैंने ही प्रकट किया था॥ २८ ॥
तत्सखित्वं मया सौम्य रोचयस्व धनेश्वर।
तपसा निर्जितश्चैव सखा भव ममानघ॥२९॥
“अतः सौम्य धनेश्वर! अब तुम मेरे साथ मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करो, यह सम्बन्ध तुम्हें पसंद आना चाहिये। अनघ! तुमने अपने तप से मुझे जीत लिया है; अतः मेरा मित्र बनकर रहो॥ २९ ॥
देव्या दग्धं प्रभावेण यच्च सव्यं तवेक्षणम्।
पैङ्गल्यं यदवाप्तं हि देव्या रूपनिरीक्षणात्॥३०॥
एकाक्षपिङ्गलीत्येव नाम स्थास्यति शाश्वतम्।
एवं तेन सखित्वं च प्राप्यानुज्ञां च शङ्करात्॥३१॥
आगतेन मया चैवं श्रुतस्ते पापनिश्चयः।
‘देवी पार्वती के रूप पर दृष्टिपात करने से देवी के प्रभाव से जो तुम्हारा बायाँ नेत्र जल गया और दूसरा नेत्र भी पिङ्गलवर्ण का हो गया, इससे सदा स्थिर रहने वाला तुम्हारा ‘एकाक्षपिङ्गली’ यह नाम चिरस्थायी होगा।’ इस प्रकार भगवान् शङ्कर के साथ मैत्री स्थापित करके उनकी आज्ञा लेकर जब मैं घर लौटा हूँ, तब मैंने तुम्हारे पापपूर्ण निश्चय की बात सुनी है।। ३०-३१ १/२॥
तदधर्मिष्ठसंयोगान्निवर्त कुलदूषणात्॥३२॥
चिन्त्यते हि वधोपायः सर्षिसङ्घः सुरैस्तव।
‘अतः अब तुम अपने कुल में कलंक लगाने वाले पापकर्म के संसर्ग से दूर हट जाओ; क्योंकि ऋषिसमुदायसहित देवता तुम्हारे वध का उपाय सोच रहे
एवमुक्तो दशग्रीवः कोपसंरक्तलोचनः॥३३॥
हस्तान् दन्तांश्च सम्पिष्य वाक्यमेतदुवाच ह।
दूत के मुँह से ऐसी बात सुनकर दशग्रीव रावण के नेत्र क्रोध से लाल हो गये। वह हाथ मलता हुआ दाँत पीसकर बोला— ॥ ३३ १/२ ॥
विज्ञातं ते मया दूत वाक्यं यत् त्वं प्रभाषसे॥३४॥
नैव त्वमसि नैवासौ भ्रात्रा येनासि चोदितः।
‘दूत! तू जो कुछ कह रहा है, उसका अभिप्राय मैंने समझ लिया। अब तो न तू जीवित रह सकता हैऔर न वह भाई ही, जिसने तुझे यहाँ भेजा है॥ ३४ १/२॥
हितं नैष ममैतद्धि ब्रवीति धनरक्षकः॥ ३५॥
महेश्वरसखित्वं तु मूढः श्रावयते किल।
‘धनरक्षक कुबेर ने जो संदेश दिया है, वह मेरे लिये हितकर नहीं है। वह मूढ़ मुझे (डराने के लिये) महादेवजी के साथ अपनी मित्रता की कथा सुना रहा है? ॥ ३५ १/२॥
नैवेदं क्षमणीयं मे यदेतद् भाषितं त्वया॥३६॥
यदेतावन्मया कालं दूत तस्य तु मर्षितम्।
न हन्तव्यो गुरुयेष्ठो मयायमिति मन्यते॥३७॥
‘दूत! तूने जो बात यहाँ कही है, यह मेरे लिये सहन करने योग्य नहीं है। कुबेर मेरे बड़े भाई हैं, अतः उनका वध करना उचित नहीं है—ऐसा समझकर ही मैंने आजतक उन्हें क्षमा किया है। ३६-३७॥
तस्य त्विदानीं श्रुत्वा मे वाक्यमेषा कृता मतिः।
त्रील्लोकानपि जेष्यामि बाहवीर्यमुपाश्रितः॥३८॥
‘किंतु इस समय उनकी बात सुनकर मैंने यह निश्चय किया है कि मैं अपने बाहुबल का भरोसा करके तीनों लोकों को जीतूंगा॥ ३८॥
एतन्मुहूर्तमेवाहं तस्यैकस्य तु वै कृते।
चतुरो लोकपालांस्तान् नयिष्यामि यमक्षयम्॥३९॥
‘इसी मुहूर्त में मैं एक के ही अपराध से उन चारों लोकपालों को यमलोक पहँचाऊँगा’ ॥ ३९॥
एवमुक्त्वा तु लङ्केशो दूतं खड्गेन जनिवान्।
ददौ भक्षयितुं ह्येनं राक्षसानां दुरात्मनाम्॥४०॥
ऐसा कहकर लङ्केश रावण ने तलवार से उस दूत के दो टुकड़े कर डाले और उसकी लाश उसने दुरात्मा राक्षसों को खाने के लिये दे दी॥ ४० ॥
ततः कृतस्वस्त्ययनो रथमारुह्य रावणः।
त्रैलोक्यविजयाकांक्षी ययौ यत्र धनेश्वरः॥४१॥
तत्पश्चात् रावण स्वस्तिवाचन करके रथ पर चढ़ा और तीनों लोकों पर विजय पाने की इच्छा से उस स्थान पर गया, जहाँ धनपति कुबेर रहते थे॥४१॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे त्रयोदशः सर्गः॥१३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥१३॥