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इंटरनेट पर श्रीरामजी का सबसे बड़ा विश्वकोश | RamCharitManas Ramayana in Hindi English | रामचरितमानस रामायण हिंदी अनुवाद अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 16 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 16

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
षोडशः सर्गः (सर्ग 16)

नन्दीश्वर का रावण को शाप, भगवान् शङ्कर द्वारा रावण का मान-भङ्ग तथा उनसे चन्द्रहास नामक खड्ग की प्राप्ति

 

स जित्वा धनदं राम भ्रातरं राक्षसाधिपः।
महासेनप्रसूतिं तद् ययौ शरवणं महत्॥१॥

(अगस्त्यजी कहते हैं-) रघुकुलनन्दन राम ! अपने भाई कुबेर को जीतकर राक्षसराज दशग्रीव ‘शरवण’ नाम से प्रसिद्ध सरकंडों के विशाल वन में गया, जहाँ महासेन कार्तिकेयजी की उत्पत्ति हुई थी।१॥

अथापश्यद् दशग्रीवो रौक्मं शरवणं महत्।
गभस्तिजालसंवीतं द्वितीयमिव भास्करम्॥२॥

वहाँ पहुँचकर दशग्रीव ने सुवर्णमयी कान्ति से युक्त उस विशाल शरवण (सरकंडों के जंगल)-को देखा, जो किरण-समूहों से व्याप्त होने के कारण दूसरे सूर्यदेव के समान प्रकाशित हो रहा था॥२॥

स पर्वतं समारुह्य कंचिद् रम्यवनान्तरम्।
प्रेक्षते पुष्पकं तत्र राम विष्टम्भितं तदा॥३॥

उसके पास ही कोई पर्वत था, जहाँ की वनस्थली बड़ी रमणीय थी। श्रीराम! जब वह उसपर चढ़ने लगा, तब देखता है कि पुष्पकविमान की गति रुक गयी॥३॥

विष्टब्धं किमिदं कस्मान्नागमत् कामगं कृतम्।
अचिन्तयद राक्षसेन्द्रः सचिवैस्तैः समावृतः॥४॥
किंनिमित्तमिच्छया मे नेदं गच्छति पुष्पकम्।
पर्वतस्योपरिष्ठस्य कर्मेदं कस्यचिद् भवेत्॥५॥

तब वह राक्षसराज अपने उन मन्त्रियों के साथ मिलकर विचार करने लगा—’क्या कारण है कि यह पुष्पकविमान रुक गया? यह तो स्वामी की इच्छा के अनुसार चलने वाला बनाया गया है। फिर आगे क्यों नहीं बढ़ता? कौन-सा ऐसा कारण बन गया, जिससे यह पुष्पकविमान मेरी इच्छा के अनुसार नहीं चल । रहा है ? सम्भव है, इस पर्वत के ऊपर कोई रहता हो, उसीका यह कर्म हो सकता है?’॥ ४-५॥

ततोऽब्रवीत् तदा राम मारीचो बुद्धिकोविदः।
नेदं निष्कारणं राजन् पुष्पकं यन्न गच्छति॥६॥

श्रीराम! तब बुद्धिकुशल मारीच ने कहा—’राजन् ! यह पुष्पकविमान जो आगे नहीं बढ़ रहा है, इसमें कुछ-न-कुछ कारण अवश्य है। अकारण ही ऐसी घटना घटित हो गयी हो, यह बात नहीं है॥६॥

अथवा पुष्पकमिदं धनदान्नान्यवाहनम्।
अतो निस्पन्दमभवद् धनाध्यक्षविनाकृतम्॥७॥

‘अथवा यह पुष्पकविमान कुबेर के सिवा दूसरे का वाहन नहीं हो सकता, इसीलिये उनके बिना यह निश्चेष्ट हो गया है’ ।। ७॥

इति वाक्यान्तरे तस्य करालः कृष्णपिङ्गलः।
वामनो विकटो मुण्डी नन्दी ह्रस्वभुजो बली॥८॥
ततः पार्श्वमुपागम्य भवस्यानुचरोऽब्रवीत् ।
नन्दीश्वरो वचश्चेदं राक्षसेन्द्रमशङ्कितः॥९॥

उसकी इस बात के बीच में ही भगवान् शङ्कर के पार्षद नन्दीश्वर रावण के पास आ पहुँचे, जो देखने में बड़े विकराल थे। उनकी अङ्गकान्ति काले एवं पिङ्गल वर्ण की थी। वे नाटे कद के विकट रूपवाले थे। उनका मस्तक मुण्डित और भुजाएँ छोटी-छोटी थीं। वे बड़े बलवान् थे। नन्दी ने निःशङ्क होकर राक्षसराज दशग्रीव से इस प्रकार कहा- ॥ ८-९॥

निवर्तस्व दशग्रीव शैले क्रीडति शंकरः।
सुपर्णनागयक्षाणां देवगन्धर्वरक्षसाम्॥१०॥
सर्वेषामेव भूतानामगम्यः पर्वतः कृतः।

‘दशग्रीव! लौट जाओ। इस पर्वत पर भगवान् शङ्कर क्रीडा करते हैं। यहाँ सुपर्ण, नाग, यक्ष, देवता, गन्धर्व और राक्षस सभी प्राणियों का आना-जाना बंद कर दिया गया है’ ।। १० १/२॥

इति नन्दिवचः श्रुत्वा क्रोधात् कम्पितकुण्डलः॥११॥
रोषात् तु ताम्रनयनः पुष्पकादवरुह्य सः।
कोऽयं शङ्कर इत्युक्त्वा शैलमूलमुपागतः॥१२॥

नन्दी की यह बात सुनकर दशग्रीव कुपित हो उठा। उसके कानों के कुण्डल हिलने लगे। आँखें रोष से लाल हो गयीं और वह पुष्पक से उतरकर बोला —’कौन है यह शङ्कर?’ ऐसा कहकर वह पर्वत के मूलभाग में आ गया॥ ११-१२॥

सोऽपश्यन्नन्दिनं तत्र देवस्यादूरतः स्थितम्।
दीप्तं शूलमवष्टभ्य द्वितीयमिव शङ्करम्॥१३॥

वहाँ पहुँचकर उसने देखा, भगवान् शङ्कर से थोड़ी ही दूर पर चमचमाता हुआ शूल हाथ में लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हैं॥ १३॥

तं दृष्ट्वा वानरमुखमवज्ञाय स राक्षसः।
प्रहासं मुमुचे तत्र सतोय इव तोयदः॥१४॥

उनका मुँह वानर के समान था। उन्हें देखकर वह निशाचर उनका तिरस्कार करता हुआ सजल जलधर के समान गम्भीर स्वर में ठहाका मारकर हँसने लगा॥ १४ ॥

तं क्रुद्धो भगवान् नन्दी शङ्करस्यापरा तनुः।
अब्रवीत् तत्र तद् रक्षो दशाननमुपस्थितम्॥१५॥

यह देख शिव के दूसरे स्वरूप भगवान् नन्दी कुपित हो वहाँ पास ही खड़े हुए निशाचर दशमुख से इस प्रकार बोले- ॥ १५॥

यस्माद् वानररूपं मामवज्ञाय दशानन।
अशनीपातसंकाशमपहासं प्रमुक्तवान्॥१६॥
तस्मान्मबीर्यसंयुक्ता मद्रूपसमतेजसः।
उत्पत्स्यन्ति वधार्थं हि कुलस्य तव वानराः॥१७॥

‘दशानन! तुमने वानररूप में मुझे देखकर मेरी अवहेलना की है और वज्रपात के समान भयानक अट्टहास किया है; अतः तुम्हारे कुल का विनाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रम, रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे॥ १६-१७॥

नखदंष्ट्रायुधाः क्रूर मनःसम्पातरंहसः।
युद्धोन्मत्ता बलोद्रिक्ताः शैला इव विसर्पिणः॥१८॥

‘क्रूर निशाचर! नख और दाँत ही उन वानरों के अस्त्र होंगे तथा मन के समान उनका तीव्र वेग होगा। वे युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाले और अतिशय बलशाली होंगे तथा चलते-फिरते पर्वतों के समान जान पड़ेंगे॥

ते तव प्रबलं दर्पमुत्सेधं च पृथग्विधम्।
व्यपनेष्यन्ति सम्भूय सहामात्यसुतस्य च॥१९॥

‘वे एकत्र होकर मन्त्री और पुत्रोंसहित तुम्हारे प्रबल अभिमान को और विशालकाय होने के गर्व को चूर-चूर कर देंगे॥ १९॥

किं त्विदानीं मया शक्यं हन्तुं त्वां हे निशाचर।
न हन्तव्यो हतस्त्वं हि पूर्वमेव स्वकर्मभिः ॥ २०॥

‘ओ निशाचर ! मैं तुम्हें अभी मार डालने की शक्ति रखता हूँ, तथापि तुम्हें मारना नहीं है; क्योंकि अपने कुत्सित कर्मो द्वारा तुम पहले से ही मारे जा चुके हो (अतः मरे हुए को मारने से क्या लाभ?)’ ॥ २० ॥

इत्युदीरितवाक्ये तु देवे तस्मिन् महात्मनि।
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिश्च खाच्युता॥ २१॥

महामना भगवान् नन्दी के इतना कहते ही देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी॥ २१ ॥

अचिन्तयित्वा स तदा नन्दिवाक्यं महाबलः।
पर्वतं तु समासाद्य वाक्यमाह दशाननः॥ २२॥

परंतु महाबली दशानन ने उस समय नन्दी के उन वचनों की कोई परवा नहीं की और उस पर्वत के निकट जाकर कहा- ॥ २२॥

पुष्पकस्य गतिश्छिन्ना यत्कृते मम गच्छतः।
तमिमं शैलमुन्मूलं करोमि तव गोपते॥२३॥

‘पशुपते! जिसके कारण यात्रा करते समय मेरे पुष्पकविमान की गति रुक गयी, तुम्हारे उस पर्वतको, जो यह मेरे सामने खड़ा है, मैं जड़से उखाड़ फेंकता

केन प्रभावेण भवो नित्यं क्रीडति राजवत्।
विज्ञातव्यं न जानीते भयस्थानमुपस्थितम्॥ २४॥

‘किस प्रभाव से शङ्कर प्रतिदिन यहाँ राजा की भाँति क्रीडा करते हैं? इन्हें इस जानने योग्य बात का भी पता नहीं है कि इनके समक्ष भय का स्थान उपस्थित है’ ॥ २४॥

एवमुक्त्वा ततो राम भुजान् विक्षिप्य पर्वते।
तोलयामास तं शीघ्रं स शैलः समकम्पत ॥२५॥

श्रीराम! ऐसा कहकर दशग्रीव ने पर्वत के निचले भाग में अपनी भुजाएँ लगायीं और उसे शीघ्र उठा लेने का प्रयत्न किया। वह पर्वत हिलने लगा॥ २५ ॥

चालनात् पर्वतस्यैव गणा देवस्य कम्पिताः।
चचाल पार्वती चापि तदाश्लिष्टा महेश्वरम्॥२६॥

पर्वत के हिलने से भगवान् शङ्कर के सारे गण काँप उठे। पार्वती देवी भी विचलित हो उठीं और भगवान् शङ्कर से लिपट गयीं॥ २६॥

ततो राम महादेवो देवानां प्रवरो हरः।
पादाङ्गष्ठेन तं शैलं पीडयामास लीलया॥२७॥

श्रीराम! तब देवताओं में श्रेष्ठ पापहारी महादेव ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से खिलवाड़ में ही दबा दिया॥ २७॥

पीडितास्तु ततस्तस्य शैलस्तम्भोपमा भुजाः।
विस्मिताश्चाभवंस्तत्र सचिवास्तस्य रक्षसः॥२८॥

फिर तो दशग्रीव की वे भुजाएँ, जो पर्वत के खंभों के समान जान पड़ती थीं, उस पहाड़ के नीचे दब गयीं। यह देख वहाँ खड़े हुए उस राक्षस के मन्त्री बड़े आश्चर्य में पड़ गये॥२८॥

रक्षसा तेन रोषाच्च भुजानां पीडनात् तथा।
मुक्तो विरावः सहसा त्रैलोक्यं येन कम्पतम्॥२९॥

उस राक्षस ने रोष तथा अपनी बाँहों की पीडा के कारण सहसा बड़े जोर से विराव-रोदन अथवा आर्तनाद किया, जिससे तीनों लोकों के प्राणी काँप उठे॥२९॥

मेनिरे वज्रनिष्पेषं तस्यामात्या युगक्षये।
तदा वर्त्मसु चलिता देवा इन्द्रपुरोगमाः॥३०॥

उसके मन्त्रियों ने समझा, अब प्रलयकाल आ गया और विनाशकारी वज्रपात होने लगा है। उस समय इन्द्र आदि देवता मार्ग में विचलित हो उठे॥ ३० ॥

समुद्राश्चापि संक्षुब्धाश्चलिताश्चापि पर्वताः।
यक्षा विद्याधराः सिद्धाः किमेतदिति चाब्रुवन्॥३१॥

समुद्रों में ज्वार आ गया। पर्वत हिलने लगे और यक्ष, विद्याधर तथा सिद्ध एक-दूसरे से पूछने लगे —’यह क्या हो गया?’ ॥ ३१॥

तोषयस्व महादेवं नीलकण्ठमुमापतिम्।
तमृते शरणं नान्यं पश्यामोऽत्र दशानन॥३२॥

तदनन्तर दशग्रीवके मन्त्रियों ने उससे कहा —’महाराज दशानन! अब आप नीलकण्ठ उमावल्लभ महादेवजी को संतुष्ट कीजिये। उनके सिवा दूसरे किसी को हम ऐसा नहीं देखते, जो यहाँ आपको शरण दे सके॥३२॥

स्तुतिभिः प्रणतो भूत्वा तमेव शरणं व्रज।
कृपालुः शङ्करस्तुष्टः प्रसादं ते विधास्यति॥३३॥

‘आप स्तुतियों द्वारा उन्हें प्रणाम करके उन्हीं की शरण में जाइये। भगवान् शङ्कर बड़े दयालु हैं। वे संतुष्ट होकर आप पर कृपा करेंगे’ ॥ ३३॥

एवमुक्तस्तदामात्यैस्तुष्टाव वृषभध्वजम्।
सामभिर्विविधैः स्तोत्रैः प्रणम्य स दशाननः।
संवत्सरसहस्रं तु रुदतो रक्षसो गतम्॥३४॥

मन्त्रियों के ऐसा कहने पर दशमुख रावण ने भगवान् वृषभध्वज को प्रणाम करके नाना प्रकार के स्तोत्रों तथा सामवेदोक्त मन्त्रों द्वारा उनका स्तवन किया। इस प्रकार हाथों की पीड़ा से रोते और स्तुति करते हुए उस राक्षस के एक हजार वर्ष बीत गये॥ ३४ ॥

ततः प्रीतो महादेवः शैलाग्रे विष्ठितः प्रभुः।
मुक्त्वा चास्य भुजान् राम प्राह वाक्यं दशाननम्॥३५॥

श्रीराम! तत्पश्चात् उस पर्वत के शिखर पर स्थित हुए भगवान् महादेव प्रसन्न हो गये। उन्होंने दशग्रीव की भुजाओं को उस संकट से मुक्त करके उससे कहा-

प्रीतोऽस्मि तव वीरस्य शौटीर्याच्च दशानन।
शैलाक्रान्तेन यो मुक्तस्त्वया रावः सुदारुणः॥३६॥
यस्माल्लोकत्रयं चैतद् रावितं भयमागतम्।
तस्मात् त्वं रावणो नाम नाम्ना राजन् भविष्यसि॥३७॥

‘दशानन ! तुम वीर हो। तुम्हारे पराक्रम से मैं प्रसन्न हूँ। तुमने पर्वत से दब जाने के कारण जो अत्यन्तभयानक राव (आर्तनाद) किया था, उससे भयभीत होकर तीनों लोकों के प्राणी रो उठे थे, इसलिये राक्षसराज! अब तुम रावण के नाम से प्रसिद्ध हो ओगे॥३६-३७॥

देवता मानुषा यक्षा ये चान्ये जगतीतले।
एवं त्वामभिधास्यन्ति रावणं लोकरावणम्॥३८॥

‘देवता, मनुष्य, यक्ष तथा दूसरे जो लोग भूतल पर निवास करते हैं, वे सब इस प्रकार समस्त लोकों को रुलाने वाले तुझ दशग्रीव को रावण कहेंगे॥ ३८॥

गच्छ पौलस्त्य विस्रब्धं पथा येन त्वमिच्छसि।
मया चैवाभ्यनुज्ञातो राक्षसाधिप गम्यताम्॥३९॥

‘पुलस्त्यनन्दन ! अब तुम जिस मार्ग से जाना चाहो, बेखट के जा सकते हो। राक्षसपते ! मैं भी तुम्हें अपनी ओर से जाने की आज्ञा देता हूँ, जाओ’ ॥ ३९॥

एवमुक्तस्तु लङ्केशः शम्भुना स्वयमब्रवीत्।
प्रीतो यदि महादेव वरं मे देहि याचतः॥४०॥

भगवान् शङ्कर के ऐसा कहने पर लङ्केश्वर बोला —’महादेव! यदि आप प्रसन्न हैं तो वर दीजिये। मैं आपसे वर की याचना करता हूँ॥ ४०॥

अवध्यत्वं मया प्राप्तं देवगन्धर्वदानवैः।
राक्षसैर्गुह्यकै गैर्ये चान्ये बलवत्तराः॥४१॥

‘मैंने देवता, गन्धर्व, दानव, राक्षस, गुह्यक, नाग तथा अन्य महाबलशाली प्राणियों से अवध्य होने का वर प्राप्त किया है॥४१॥

मानुषान् न गणे देव स्वल्पास्ते मम सम्मताः।
दीर्घमायुश्च मे प्राप्तं ब्रह्मणस्त्रिपुरान्तक॥४२॥
वाञ्छितं चायुषः शेषं शस्त्रं त्वं च प्रयच्छ मे।

‘देव! मनुष्यों को तो मैं कुछ गिनता ही नहीं। मेरी मान्यता के अनुसार उनकी शक्ति बहुत थोड़ी है। । त्रिपुरान्तक! मुझे ब्रह्माजी के द्वारा दीर्घ आयु भी प्राप्त हुई है। ब्रह्माजी की दी हुई आयु का जितना अंश बच गया है, वह भी पूरा-का-पूरा प्राप्त हो जाय (उसमें किसी कारण से कमी न हो)। ऐसी मेरी इच्छा है। इसे आप पूर्ण कीजिये। साथ ही अपनी ओर से मुझे एक शस्त्र भी दीजिये’॥ ४२ १/२॥

एवमुक्तस्ततस्तेन रावणेन स शङ्करः॥४३॥
ददौ खड्गं महादीप्तं चन्द्रहासमिति श्रुतम्।
आयुषश्चावशेषं च ददौ भूतपतिस्तदा॥४४॥

रावण के ऐसा कहने पर भूतनाथ भगवान् शङ्कर ने उसे एक अत्यन्त दीप्तिमान् चन्द्रहास नामक खड्ग दिया और उसकी आयु का जो अंश बीत गया था, उसको भी पूर्ण कर दिया॥ ४३-४४॥

दत्त्वोवाच ततः शम्भु वज्ञेयमिदं त्वया।
अवज्ञातं यदि हि ते मामेवैष्यत्यसंशयः॥४५॥

उस खड्ग को देकर भगवान् शिव ने कहा—’तुम्हें कभी इसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये। यदि तुम्हारे द्वारा कभी इसका तिरस्कार हुआ तो यह फिर मेरे ही पास लौट आयेगा; इसमें संशय नहीं है’। ४५॥

एवं महेश्वरेणैव कृतनामा स रावणः।
अभिवाद्य महादेवमारुरोहाथ पुष्पकम्॥ ४६॥

इस प्रकार भगवान् शङ्कर से नूतन नाम पाकर रावण ने उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् वह पुष्पकविमान पर आरूढ़ हुआ॥ ४६॥

ततो महीतलं राम पर्यक्रामत रावणः।
क्षत्रियान् सुमहावीर्यान् बाधमानस्ततस्ततः॥४७॥

श्रीराम! इसके बाद रावण समूची पृथ्वी पर दिग्विजयके लिये भ्रमण करने लगा। उसने इधर उधर जाकर बहुत-से महापराक्रमी क्षत्रियों को पीड़ा पहुँचायी॥४७॥

केचित् तेजस्विनः शूराः क्षत्रिया युद्धदुर्मदाः।
तच्छासनमकुर्वन्तो विनेशुः सपरिच्छदाः॥४८॥

कितने ही तेजस्वी क्षत्रिय जो बड़े ही शूरवीर और रणोन्मत्त थे, रावण की आज्ञा न मानने के कारण सेना और परिवारसहित नष्ट हो गये॥४८॥

अपरे दुर्जयं रक्षो जानन्तः प्राज्ञसम्मताः।
जिताः स्म इत्यभाषन्त राक्षसं बलदर्पितम्॥४९॥

दूसरे क्षत्रियों ने, जो बुद्धिमान् माने जाते थे और उस राक्षस को अजेय समझते थे, उस बलाभिमानी निशाचर के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।४९॥

इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे षोडशः सर्गः॥१६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१६॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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