वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 17 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 17
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
सप्तदशः सर्गः (सर्ग 17)
रावण से तिरस्कृत ब्रह्मर्षि कन्या वेदवती का उसे शाप देकर अग्नि में प्रवेश करना और दूसरे जन्म में सीता के रूप में प्रादुर्भूत होना
अथ राजन् महाबाहुर्विचरन् पृथिवीतले।
हिमवदनमासाद्य परिचक्राम रावणः॥१॥
(अगस्त्यजी कहते हैं-) राजन्! तत्पश्चात् महाबाहु रावण भूतल पर विचरता हुआ हिमालय के वन में आकर वहाँ सब ओर चक्कर लगाने लगा॥१॥
तत्रापश्यत् स वै कन्यां कृष्णाजिनजटाधराम्।
आर्षेण विधिना चैनां दीप्यन्ती देवतामिव॥२॥
वहाँ उसने एक तपस्विनी कन्या को देखा, जो अपने अङ्गों में काले रंग का मृगचर्म तथा सिर पर जटा धारण किये हुए थी। वह ऋषिप्रोक्त विधि से तपस्या में संलग्न हो देवाङ्गना के समान उद्दीप्त हो रही थी॥२॥
स दृष्ट्वा रूपसम्पन्नां कन्यां तां सुमहाव्रताम्।
काममोहपरीतात्मा पप्रच्छ प्रहसन्निव॥३॥
उत्तम एवं महान् व्रत का पालन करने वाली तथा रूप-सौन्दर्य से सुशोभित उस कन्याको देखकर रावण का चित्त कामजनित मोह के वशीभूत हो गया। उसने अट्टहास करते हुए-से पूछा- ॥३॥
किमिदं वर्तसे भद्रे विरुद्धं यौवनस्य ते।
नहि युक्ता तवैतस्य रूपस्यैवं प्रतिक्रिया॥४॥
‘भद्रे! तुम अपनी इस युवावस्था के विपरीत यह कैसा बर्ताव कर रही हो? तुम्हारे इस दिव्य रूप के लिये ऐसा आचरण कदापि उचित नहीं है॥४॥
रूपं तेऽनुपमं भीरु कामोन्मादकरं नृणाम्।
न युक्तं तपसि स्थातुं निर्गतो ह्येष निर्णयः॥५॥
‘भीरु ! तुम्हारे इस रूप की कहीं तुलना नहीं है। यह पुरुषों के हृदय में कामजनित उन्माद पैदा करने वाला है। अतः तुम्हारा तप में संलग्न होना उचित नहीं है। तुम्हारे लिये हमारे हृदय से यही निर्णय प्रकट हुआ है॥५॥
कस्यासि किमिदं भद्रे कश्च भर्ता वरानने।
येन सम्भुज्यसे भीरु स नरः पुण्यभाग् भुवि॥
पृच्छतः शंस मे सर्वं कस्य हेतोः परिश्रमः।
‘भद्रे! तुम किसकी पुत्री हो? यह कौन-सा व्रत कर रही हो? सुमुखि! तुम्हारा पति कौन है? भीरु ! जिसके साथ तुम्हारा सम्बन्ध है, वह मनुष्य इस भूलोक में महान् पुण्यात्मा है। मैं जो कुछ पूछता हूँ, वह सब मुझे बताओ। किस फल के लिये यह परिश्रम किया जा रहा है ?’ ॥ ६ १/२॥
एवमुक्ता तु सा कन्या रावणेन यशस्विनी॥७॥
अब्रवीद् विधिवत् कृत्वा तस्यातिथ्यं तपोधना।
रावण के इस प्रकार पूछने पर वह यशस्विनी तपोधनाकन्या उसका विधिवत् आतिथ्य-सत्कार करके बोली- ॥ ७ १/२॥
कुशध्वजो नाम पिता ब्रह्मर्षिरमितप्रभः॥८॥
बृहस्पतिसुतः श्रीमान् बुद्ध्या तुल्यो बृहस्पतेः।
‘अमिततेजस्वी ब्रह्मर्षि श्रीमान् कुशध्वज मेरे पिता थे, जो बृहस्पति के पुत्र थे और बुद्धि में भी उन्हीं के समान माने जाते थे। ८ १/२॥
तस्याहं कुर्वतो नित्यं वेदाभ्यासं महात्मनः॥९॥
सम्भूता वाङ्मयी कन्या नाम्ना वेदवती स्मृता।
‘प्रतिदिन वेदाभ्यास करने वाले उन महात्मा पिता से वाङ्मयी कन्या के रूप में मेरा प्रादुर्भाव हुआ था। मेरा नाम वेदवती है॥९ १/२॥
ततो देवाः सगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः॥१०॥
ते चापि गत्वा पितरं वरणं रोचयन्ति मे।
‘जब मैं बड़ी हुई, तब देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी पिताजी के पास जा-जाकर उनसे मुझे माँगने लगे॥ १० १/२ ॥
न च मां स पिता तेभ्यो दत्तवान् राक्षसेश्वर ॥११॥
कारणं तद् वदिष्यामि निशामय महाभुज।
‘महाबाहु राक्षसेश्वर! पिताजी ने उनके हाथ में मुझे नहीं सौंपा। इसका क्या कारण था, मैं बता रही हूँ, सुनिये॥ ११ १/२॥
पितुस्तु मम जामाता विष्णुः किल सुरेश्वरः॥१२॥
अभिप्रेतस्त्रिलोकेशस्तस्मान्नान्यस्य मे पिता।
दातुमिच्छति तस्मै तु तच्छ्रुत्वा बलदर्पितः॥१३॥
शम्भुर्नाम ततो राजा दैत्यानां कुपितोऽभवत्।
तेन रात्रौ शयानो मे पिता पापेन हिंसितः॥१४॥
‘पिताजी की इच्छा थी कि तीनों लोकों के स्वामी देवेश्वर भगवान् विष्णु मेरे दामाद हों। इसीलिये वे दूसरे किसी के हाथ में मुझे नहीं देना चाहते थे। उनके इस अभिप्राय को सुनकर बलाभिमानी दैत्यराज शम्भु उन पर कुपित हो उठा और उस पापी ने रात में सोते समय मेरे पिताजी की हत्या कर डाली॥ १२–१४ ॥
ततो मे जननी दीना तच्छरीरं पितुर्मम।
परिष्वज्य महाभागा प्रविष्टा हव्यवाहनम्॥१५॥
‘इससे मेरी महाभागा माता को बड़ा दुःख हुआ और वे पिताजी के शव को हृदय से लगाकर चिता की आग में प्रविष्ट हो गयीं॥ १५ ॥
ततो मनोरथं सत्यं पितुर्नारायणं प्रति।
करोमीति तमेवाहं हृदयेन समुद्रहे ॥१६॥
‘तब से मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि भगवान् नारायण के प्रति पिताजी का जो मनोरथ था, उसे मैं सफल करूँगी। इसलिये मैं उन्हीं को अपने हृदयमन्दिर में धारण करती हूँ॥ १६॥
इति प्रतिज्ञामारुह्य चरामि विपुलं तपः।
एतत् ते सर्वमाख्यातं मया राक्षसपुङ्गव॥१७॥
‘यही प्रतिज्ञा करके मैं यह महान् तप कर रही हूँ। राक्षसराज! आपके प्रश्न के अनुसार यह सब बात मैंने आपको बता दी॥ १७॥
नारायणो मम पतिर्न त्वन्यः पुरुषोत्तमात्।
आश्रये नियमं घोरं नारायणपरीप्सया॥१८॥
‘नारायण ही मेरे पति हैं। उन पुरुषोत्तम के सिवा दूसरा कोई मेरा पति नहीं हो सकता। उन नारायणदेव को प्राप्त करने के लिये ही मैंने इस कठोर व्रत का आश्रय लिया है।॥ १८ ॥
विज्ञातस्त्वं हि मे राजन् गच्छ पौलस्त्यनन्दन।
जानामि तपसा सर्वं त्रैलोक्ये यद्धि वर्तते॥१९॥
‘राजन्! पौलस्त्यनन्दन! मैंने आपको पहचान लिया है। आप जाइये त्रिलोकी में जो कोई भी वस्तु विद्यमान है, वह सब मैं तपस्या द्वारा जानती हूँ’॥ १९॥
सोऽब्रवीद् रावणो भूयस्तां कन्यां सुमहाव्रताम्।
अवरुह्य विमानाग्रात् कन्दर्पशरपीडितः॥२०॥
यह सुनकर रावण कामबाण से पीड़ित हो विमान से उतर गया और उस उत्तम एवं महान् व्रत का पालन करने वाली कन्या से फिर बोला— ॥२०॥
अवलिप्तासि सुश्रोणि यस्यास्ते मतिरीदृशी।
वृद्धानां मृगशावाक्षि भ्राजते पुण्यसंचयः॥२१॥
‘सुश्रोणि! तुम गर्वीली जान पड़ती हो, तभी तो तुम्हारी बुद्धि ऐसी हो गयी है। मृगशावकलोचने! इस तरह पुण्य का संग्रह बूढ़ी स्त्रियों को ही शोभा देता है, तुम-जैसे युवती को नहीं ॥ २१॥
त्वं सर्वगुणसम्पन्ना नार्हसे वक्तुमीदृशम्।
त्रैलोक्यसुन्दरी भीरु यौवनं तेऽतिवर्तते ॥ २२॥
‘तुम तो सर्वगुणसम्पन्न एवं त्रिलोकी की अद्वितीय सुन्दरी हो। तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। भीरु ! तुम्हारी जवानी बीती जा रही है॥२२॥
अहं लङ्कापतिर्भद्रे दशग्रीव इति श्रुतः।
तस्य मे भव भार्या त्वं भुक्ष्व भोगान् यथासुखम्॥२३॥
‘भद्रे! मैं लङ्का का राजा हूँ। मेरा नाम दशग्रीव है। तुम मेरी भार्या हो जाओ और सुखपूर्वक उत्तम भोग भोगो॥ २३॥
कश्च तावदसौ यं त्वं विष्णुरित्यभिभाषसे।
वीर्येण तपसा चैव भोगेन च बलेन च॥२४॥
स मया नो समो भद्रे यं त्वं कामयसेऽङ्गने।
‘पहले यह तो बताओ, तुम जिसे विष्णु कहती है, वह कौन है ? अङ्गने! भद्रे! तुम जिसे चाहती हो, वह बल, पराक्रम, तप और भोग-वैभव के द्वारा मेरी समानता नहीं कर सकता’ ॥ २४ १/२ ॥
इत्युक्तवति तस्मिंस्तु वेदवत्यथ साब्रवीत्॥२५॥
मा मैवमिति सा कन्या तमुवाच निशाचरम्।
उसके ऐसा कहने पर कुमारी वेदवती उस निशाचर से बोली—’नहीं, नहीं, ऐसा न कहो॥ २५ १/२॥
त्रैलोक्याधिपतिं विष्णुं सर्वलोकनमस्कृतम्॥२६॥
त्वदृते राक्षसेन्द्रान्यः कोऽवमन्येत बुद्धिमान्।
‘राक्षसराज! भगवान् विष्णु तीनों लोकों के अधिपति हैं। सारा संसार उनके चरणों में मस्तक झुकाता है। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान् होकर भी उनकी अवहेलना करेगा’ ॥ २६ १/२॥
एवमुक्तस्तया तत्र वेदवत्या निशाचरः॥२७॥
मूर्धजेषु तदा कन्यां कराग्रेण परामृशत्।
वेदवती के ऐसा कहने पर उस राक्षस ने अपने हाथ से उस कन्या के केश पकड़ लिये॥ २७ १/२॥
ततो वेदवती क्रुद्धा केशान् हस्तेन साच्छिनत्॥२८॥
असिर्भूत्वा करस्तस्याः केशांश्छिन्नांस्तदाकरोत्।
इससे वेदवती को बड़ा क्रोध हुआ। उसने अपने हाथ से उन केशों को काट दिया। उसके हाथ ने तलवार बनकर तत्काल उसके केशों को मस्तक से अलग कर दिया। २८ १/२॥
सा ज्वलन्तीव रोषेण दहन्तीव निशाचरम्॥२९॥
उवाचाग्निं समाधाय मरणाय कृतत्वरा।
वेदवती रोष से प्रज्वलित-सी हो उठी। वह जल मरने के लिये उतावली हो अग्नि की स्थापना करके उस निशाचर को दग्ध करती हुई-सी बोली— ॥ २९ १/२॥
धर्षितायास्त्वयानार्य न मे जीवितमिष्यते॥३०॥
रक्षस्तस्मात् प्रवेक्ष्यामि पश्यतस्ते हुताशनम्।
‘नीच राक्षस! तूने मेरा तिरस्कार किया है; अतः अब इस जीवन को सुरक्षित रखना मुझे अभीष्ट नहीं है। इसलिये तेरे देखते-देखते मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी॥
यस्मात् तु धर्षिता चाहं त्वया पापात्मना वने॥३१॥
तस्मात् तव वधार्थं हि समुत्पत्स्ये ह्यहं पुनः।
“तुझ पापात्मा ने इस वन में मेरा अपमान किया है। इसलिये मैं तेरे वध के लिये फिर उत्पन्न होऊँगी॥ ३११/२॥
नहि शक्यः स्त्रिया हन्तुं पुरुषः पापनिश्चयः॥३२॥
शापे त्वयि मयोत्सृष्टे तपसश्च व्ययो भवेत्।
‘स्त्री अपनी शारीरिक शक्ति से किसी पापाचारी पुरुष का वध नहीं कर सकती। यदि मैं तुझे शाप दूँ तो मेरी तपस्या क्षीण हो जायगी॥ ३२ १/२॥
यदि त्वस्ति मया किंचित् कृतं दत्तं हुतं तथा॥३३॥
तस्मात् त्वयोनिजा साध्वी भवेयं धर्मिणः सुता।
‘यदि मैंने कुछ भी सत्कर्म, दान और होम किये हों तो अगले जन्म में मैं सती-साध्वी अयोनिजा कन्या के रूप में प्रकट होऊँ तथा किसी धर्मात्मा पिता की पुत्री बनूँ॥
एवमुक्त्वा प्रविष्टा सा ज्वलितं जातवेदसम्॥३४॥
पपात च दिवो दिव्या पुष्पवृष्टिः समन्ततः।
ऐसा कहकर वह प्रज्वलित अग्नि में समा गयी। उस समय उसके चारों ओर आकाश से दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी॥ ३४ १/२ ॥
पुनरेव समुद्भूता पद्मे पद्मसमप्रभा॥३५॥
तस्मादपि पुनः प्राप्ता पूर्ववत् तेन रक्षसा।
तदनन्तर दूसरे जन्म में वह कन्या पुनः एक कमल से प्रकट हुई। उस समय उसकी कान्ति कमल के समान ही सुन्दर थी। उस राक्षस ने पहले की ही भाँति फिर वहाँ से भी उस कन्या को प्राप्त कर लिया॥ ३५ १/२॥
कन्यां कमलगर्भाभां प्रगृह्य स्वगृहं ययौ॥३६॥
प्रगृह्य रावणस्त्वेतां दर्शयामास मन्त्रिणे।।
कमल के भीतरी भाग के समान सुन्दर कान्तिवाली उस कन्या को लेकर रावण अपने घर गया। वहाँ उसने मन्त्री को वह कन्या दिखायी॥ ३६ १/२॥
लक्षणज्ञो निरीक्ष्यैव रावणं चैवमब्रवीत्॥३७॥
गृहस्थैषा हि सुश्रोणी त्वदधायैव दृश्यते।
मन्त्री बालक-बालिकाओं के लक्षणों को जानने वाला था। उसने उसे अच्छी तरह देखकर रावण से कहा—’राजन्! यह सुन्दरी कन्या यदि घर में रही तो आपके वध का ही कारण होगी, ऐसा लक्षण देखा जाता है’।
एतच्छ्रत्वार्णवे राम तां प्रचिक्षेप रावणः॥३८॥
सा चैव क्षितिमासाद्य यज्ञायतनमध्यगा।
राज्ञो हलमुखोत्कृष्टा पुनरप्युत्थिता सती॥ ३९॥
श्रीराम! यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। तत्पश्चात् वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुंची। वहाँ राजा के हलके मुखभाग से उस भूभाग के जोते जाने पर वह सती साध्वी कन्या फिर प्रकट हो गयी। ३८-३९॥
सैषा जनकराजस्य प्रसूता तनया प्रभो।
तव भार्या महाबाहो विष्णुस्त्वं हि सनातनः॥४०॥
प्रभो! वही यह वेदवती महाराज जनक की पुत्री के रूप में प्रादुर्भूत हो आपकी पत्नी हुई है। महाबाहो! आप ही सनातन विष्णु हैं॥ ४० ॥
पूर्वं क्रोधहतः शत्रुर्ययासौ निहतस्तया।
उपाश्रयित्वा शैलाभस्तव वीर्यममानुषम्॥४१॥
उस वेदवती ने पहले ही अपने रोषजनित शाप के द्वारा आपके उस पर्वताकार शत्रु को मार डाला था, जिसे अब आपने आक्रमण करके मौत के घाट उतारा है। प्रभो! आपका पराक्रम अलौकिक है॥४१॥
एवमेषा महाभागा मर्येषूत्पत्स्यते पुनः।
क्षेत्रे हलमुखोत्कृष्टे वेद्यामग्निशिखोपमा॥४२॥
इस प्रकार यह महाभागा देवी विभिन्न कल्पों में पुनः रावणवध के उद्देश्य से मर्त्यलोक में अवतीर्ण होती रहेगी। यज्ञवेदी पर अग्निशिखा के समान हल से जोते गये क्षेत्र में इसका आविर्भाव हुआ है॥४२॥
एषा वेदवती नाम पूर्वमासीत् कृते युगे।
त्रेतायुगमनुप्राप्य वधार्थं तस्य रक्षसः॥४३॥
उत्पन्ना मैथिलकुले जनकस्य महात्मनः।
सीतोत्पन्ना तु सीतेति मानुषैः पुनरुच्यते॥४४॥
यह वेदवती पहले सत्ययुग में प्रकट हुई थी। फिर त्रेतायुग आने पर उस राक्षस रावण के वध के लिये मिथिलावर्ती राजा जनक के कुल में सीतारूप से अवतीर्ण हुई। सीता (हल जोतने से भूमि पर बनी हुई रेखा)-से उत्पन्न होने के कारण मनुष्य इस देवी को सीता कहते हैं।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे सप्तदशः सर्गः॥१७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१७॥