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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 18 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 18

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
अष्टादशः सर्गः (सर्ग 18)

रावण द्वारा मरुत्त की पराजय तथा इन्द्र आदि देवताओं का मयूर आदि पक्षियों को वरदान देना

 

प्रविष्टायां हुताशं तु वेदवत्यां स रावणः।
पुष्पकं तु समारुह्य परिचक्राम मेदिनीम्॥१॥

अगस्त्यजी कहते हैं रघुनन्दन! वेदवती के अग्नि में प्रवेश कर जाने पर रावण पुष्पकविमान पर आरूढ़ हो पृथ्वी पर सब ओर भ्रमण करने लगा।१॥

ततो मरुत्तं नृपतिं यजन्तं सह दैवतैः।
उशीरबीजमासाद्य ददर्श स तु रावणः॥२॥

उसी यात्रा में उशीर बीज नामक देश में पहुंचकर रावण ने देखा, राजा मरुत्त देवताओं के साथ बैठकर यज्ञ कर रहे हैं॥२॥

संवर्तो नाम ब्रह्मर्षिः साक्षाद् भ्राता बृहस्पतेः।
याजयामास धर्मज्ञः सर्वैर्देवगणैर्वृतः॥३॥

उस समय साक्षात् बृहस्पति के भाई तथा धर्मके मर्म को जानने वाले ब्रह्मर्षि संवर्त सम्पूर्ण देवताओं से घिरे रहकर वह यज्ञ करा रहे थे॥३॥

दृष्ट्वा देवास्तु तद् रक्षो वरदानेन दुर्जयम्।
तिर्यग्योनिं समाविष्टास्तस्य धर्षणभीरवः॥४॥

ब्रह्माजी के वरदान से जिसको जीतना कठिन हो गया था, उस राक्षस रावण को वहाँ देखकर उसके आक्रमण से भयभीत हो देवता लोग तिर्यग्-योनि में प्रवेश कर गये॥४॥

इन्द्रो मयूरः संवृत्तो धर्मराजस्तु वायसः।
कृकलासो धनाध्यक्षो हंसश्च वरुणोऽभवत्॥

इन्द्र मोर, धर्मराज कौआ, कुबेर गिरगिट और वरुण हंस हो गये॥५॥

अन्वेष्वपि गतेष्वेवं देवेष्वरिनिषूदन।
रावणः प्राविशद् यज्ञं सारमेय इवाशुचिः॥६॥

शत्रुसूदन श्रीराम! इसी तरह दूसरे-दूसरे देवता भी जब विभिन्न रूपों में स्थित हो गये, तब रावण ने उस यज्ञमण्डप में प्रवेश किया, मानो कोई अपवित्र कुत्ता वहाँ आ गया हो॥६॥

तं च राजानमासाद्य रावणो राक्षसाधिपः।
प्राह युद्धं प्रयच्छेति निर्जितोऽस्मीति वा वद॥७॥

राजा मरुत्त के पास पहुँचकर राक्षसराज रावण ने कहा—’मुझसे युद्ध करो या अपने मुँह से यह कह दो कि मैं पराजित हो गया’॥७॥

ततो मरुत्तो नृपतिः को भवानित्युवाच तम्।
अवहासं ततो मुक्त्वा रावणो वाक्यमब्रवीत्॥८॥

तब राजा मरुत्त ने पूछा—’आप कौन हैं?’ उनका प्रश्न सुनकर रावण हँस पड़ा और बोला- ॥८॥

अकुतूहलभावेन प्रीतोऽस्मि तव पार्थिव।
धनदस्यानुजं यो मां नावगच्छसि रावणम्॥९॥

‘भूपाल ! मैं कुबेर का छोटा भाई रावण हूँ। फिर भी तुम मुझे नहीं जानते और मुझे देखकर भी तुम्हारे मन में न तो कौतूहल हुआ, न भय ही; इससे मैं तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ॥९॥

त्रिषु लोकेषु कोऽन्योऽस्ति यो न जानाति मे बलम्।
भ्रातरं येन निर्जित्य विमानमिदमाहृतम्॥१०॥

‘तीनों लोकों में तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा राजा होगा, जो मेरे बलको न जानता हो। मैं वह रावण हूँ, जिसने अपने भाई कुबेर को जीतकर यह विमान छीन लिया है’ ॥ १०॥

ततो मरुत्तः स नृपस्तं रावणमथाब्रवीत्।
धन्यः खलु भवान् येन ज्येष्ठो भ्राता रणे जितः॥११॥

तब राजा मरुत्त ने रावण से कहा—’तुम धन्य हो, जिसने अपने बड़े भाई को रणभूमि में पराजित कर दिया॥११॥

न त्वया सदृशः श्लाघ्यस्त्रिषु लोकेषु विद्यते।
कं त्वं प्राक् केवलं धर्मं चरित्वा लब्धवान् वरम्॥१२॥

‘तुम्हारे-जैसा स्पृहणीय पुरुष तीनों लोकों में दूसरा कोई नहीं है। तुमने पूर्वकाल में किस शुद्ध धर्म का आचरण करके वर प्राप्त किया है॥ १२॥

श्रुतपूर्वं हि न मया भाषसे यादृशं स्वयम्।
तिष्ठेदानीं न मे जीवन् प्रतियास्यसि दुर्मते॥१३॥
अद्य त्वां निशितैर्बाणैः प्रेषयामि यमक्षयम्।

‘तुम स्वयं जो कुछ कह रहे हो, ऐसी बात मैंने पहले कभी नहीं सुनी है। दुर्बुद्धे ! इस समय खड़े तो रहो। मेरे हाथ से जीवित बचकर नहीं जा सकोगे। आज अपने पैने बाणों से मारकर तुम्हें यमलोक पहुँचाये देता हूँ’॥ १३ १/२॥

ततः शरासनं गृह्य सायकांश्च नराधिपः॥१४॥
रणाय निर्ययौ क्रुद्धः संवर्तो मार्गमावृणोत्।

तदनन्तर राजा मरुत्त धनुष-बाण लेकर बड़े रोष के साथ युद्ध के लिये निकले, परंतु महर्षि संवर्त ने उनका रास्ता रोक लिया॥१४ १/२॥

सोऽब्रवीत् स्नेहसंयुक्तं मरुत्तं तं महानृषिः॥१५॥
श्रोतव्यं यदि मद्वाक्यं सम्प्रहारो न ते क्षमः।

उन महर्षि ने महाराज मरुत्त से स्नेहपूर्वक कहा —’राजन् ! यदि मेरी बात सुनना और उसपर ध्यान देना उचित समझो तो सुनो। तुम्हारे लिये युद्ध करना उचित नहीं है। १५ १/२॥

माहेश्वरमिदं सत्रमसमाप्तं कुलं दहेत्॥१६॥
दीक्षितस्य कुतो युद्धं क्रोधित्वं दीक्षिते कुतः।

‘यह माहेश्वर यज्ञ आरम्भ किया गया है। यदि पूरा न हुआ तो तुम्हारे समस्त कुल को दग्ध कर डालेगा। जो यज्ञ की दीक्षा ले चुका है, उसके लिये युद्ध का अवसर ही कहाँ है? यज्ञदीक्षित पुरुष में क्रोध के लिये स्थान ही कहाँ है? ॥ १६ १/२॥

संशयश्च जये नित्यं राक्षसश्च सुदुर्जयः॥१७॥
स निवृत्तो गुरोर्वाक्यान्मरुत्तः पृथिवीपतिः।
विसृज्य सशरं चापं स्वस्थो मखमुखोऽभवत्॥१८॥

‘युद्ध में किसकी विजय होगी, इस प्रश्न को लेकर सदा संशय ही बना रहता है। उधर वह राक्षस अत्यन्त दुर्जय है।’ अपने आचार्य के इस कथन से पृथ्वीपति मरुत्त युद्ध से निवृत्त हो गये। उन्होंने धनुषबाण त्याग दिया और स्वस्थभाव से वे यज्ञ के लिये उन्मुख हो गये॥

ततस्तं निर्जितं मत्वा घोषयामास वै शुकः।
रावणो जयतीत्युच्चैर्हर्षान्नादं विमुक्तवान्॥१९॥

तब उन्हें पराजित हुआ मानकर शुक ने यह घोषणा कर दी कि महाराज रावण की विजय हुई और वह बड़े हर्ष के साथ उच्चस्वर से सिंहनाद करने लगा। १९॥

तान् भक्षयित्वा तत्रस्थान् महर्षीन् यज्ञमागतान्।
वितृप्तो रुधिरैस्तेषां पुनः सम्प्रययौ महीम्॥२०॥

उस यज्ञमें आकर बैठे हुए महर्षियोंको खाकर उनके रक्तसे पूर्णतः तृप्त हो रावण फिर पृथ्वीपर विचरने लगा॥ २०॥

रावणे तु गते देवाः सेन्द्राश्चैव दिवौकसः।
ततः स्वां योनिमासाद्य तानि सत्त्वानि चाब्रुवन्॥२१॥

रावणके चले जानेपर इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता पुनः अपने स्वरूपमें प्रकट हो उन-उन प्राणियोंको (जिनके रूपमें वे स्वयं प्रकट हुए थे) वरदान देते हुए बोले ॥२१॥

हर्षात् तदाब्रवीदिन्द्रो मयूरं नीलबर्हिणम्।
प्रीतोऽस्मि तव धर्मज्ञ भुजङ्गाद्धि न ते भयम्॥२२॥

सबसे पहले इन्द्रने हर्षपूर्वक नीले पंखवाले मोर से कहा—’धर्मज्ञ ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें सर्प से भय नहीं होगा॥ २२॥

इदं नेत्रसहस्रं तु यत् तद् बर्हे भविष्यति।
वर्षमाणे मयि मुदं प्राप्स्यसे प्रीतिलक्षणाम्॥२३॥
एवमिन्द्रो वरं प्रादान्मयूरस्य सुरेश्वरः॥२४॥

‘मेरे जो ये सहस्र नेत्र हैं, इनके समान चिह्न तुम्हारी पाँख में प्रकट होंगे। जब मैं मेघरूप होकर वर्षा करूँगा, उस समय तुम्हें बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होगी। वह प्रसन्नता मेरी प्राप्ति को लक्षित कराने वाली होगी।’ इस प्रकार देवराज इन्द्र ने मोर को वरदान दिया॥ २३-२४॥

नीलाः किल पुरा बर्हा मयूराणां नराधिप।
सुराधिपाद वरं प्राप्य गताः सर्वेऽपि बर्हिणः॥२५॥

नरेश्वर श्रीराम! इस वरदान के पहले मोरों के पंख केवल नीले रंग के ही होते थे। देवराजसे उक्त वर पाकर सब मयूर वहाँ से चले गये॥२५॥

धर्मराजोऽब्रवीद् राम प्राग्वंशे वायसं प्रति।
पक्षिस्तवास्मि सुप्रीतः प्रीतस्य वचनं शृणु॥२६॥

श्रीराम! तदनन्तर धर्मराज ने प्राग्वंश की* छतपर बैठे हुए कौए से कहा—’पक्षी! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। प्रसन्न होकर जो कुछ कहता हूँ, मेरे इस वचन को सुनो॥२६॥
* यज्ञशाला के पूर्वभाग में यजमान और उसकी पत्नी आदि के ठहरने के लिये वने हुए गृह को प्राग्वंश कहते हैं। यह घर हविर्गृह के पूर्व ओर होता है।

यथान्ये विविधै रोगैः पीड्यन्ते प्राणिनो मया।
ते न ते प्रभविष्यन्ति मयि प्रीते न संशयः॥ २७॥

‘जैसे दूसरे प्राणियों को मैं नाना प्रकार के रोगों द्वारा पीड़ित करता हूँ, वे रोग मेरी प्रसन्नता के कारण तुमपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे इसमें संशय नहीं है।॥ २७॥

मृत्युतस्ते भयं नास्ति वरान् मम विहङ्गम।
यावत् त्वां न वधिष्यन्ति नरास्तावद् भविष्यसि॥२८॥

‘विहङ्गम! मेरे वरदान से तुम्हें मृत्यु का भय नहीं होगा। जबतक मनुष्य आदि प्राणी तुम्हारा वध नहीं करेंगे, तबतक तुम जीवित रहोगे॥ २८॥

ये च मद्विषयस्था वै मानवाः क्षुधयार्दिताः।
त्वयि भुक्ते सुतृप्तास्ते भविष्यन्ति सबान्धवाः॥२९॥

‘मेरे राज्य–यमलोक में स्थित रहकर जो मानव भूख से पीड़ित हैं, उनके पुत्र आदि इस भूतल पर जबतुम्हें भोजन करावेंगे, तब वे बन्धु-बान्धवोंसहित परम तृप्त होंगे’ ॥ २९॥

वरुणस्त्वब्रवीद्धंसं गङ्गातोयविचारिणम्।
श्रूयतां प्रीतिसंयुक्तं वचः पत्ररथेश्वर ॥३०॥

तत्पश्चात् वरुण ने गङ्गाजी के जल में विचरने वाले हंस को सम्बोधित करके कहा—’पक्षिराज! मेरा प्रेमपूर्ण वचन सुनो— ॥ ३० ॥

वर्णो मनोरमः सौम्यश्चन्द्रमण्डलसंनिभः।
भविष्यति तवोदग्रः शुद्धफेनसमप्रभः॥३१॥

‘तुम्हारे शरीर का रंग चन्द्रमण्डल तथा शुद्ध फेन के समान परम उज्ज्वल, सौम्य एवं मनोरम होगा॥३१॥

मच्छरीरं समासाद्य कान्तो नित्यं भविष्यसि।
प्राप्स्यसे चातुलां प्रीतिमेतन्मे प्रीतिलक्षणम्॥३२॥

‘मेरे अङ्गभूत जल का आश्रय लेकर तुम सदा कान्तिमान् बने रहोगे और तुम्हें अनुपम प्रसन्नता प्राप्त होगी। यही मेरे प्रेम का परिचायक चिह्न होगा’ ॥ ३२॥

हंसानां हि पुरा राम न वर्णः सर्वपाण्डुरः।
पक्षा नीलाग्रसंवीताः क्रोडाः शष्पाग्रनिर्मलाः॥३३॥

श्रीराम! पूर्वकाल में हंसों का रंग पूर्णतः श्वेत नहीं था। उनकी पाँखों का अग्रभाग नीला और दोनों भुजाओं के बीच का भाग नूतन दूर्वादल के अग्रभाग-सा कोमल एवं श्याम वर्ण से युक्त होता था॥ ३३॥

अथाब्रवीद् वैश्रवणः कृकलासं गिरौ स्थितम्।
हैरण्यं सम्प्रयच्छामि वर्णं प्रीतस्तवाप्यहम्॥३४॥

तदनन्तर विश्रवा के पुत्र कुबेर ने पर्वतशिखर पर बैठे हुए कृकलास (गिरगिट)-से कहा—’मैं प्रसन्न होकर तुम्हें सुवर्ण के समान सुन्दर रंग प्रदान करता हूँ॥ ३४॥

सद्रव्यं च शिरो नित्यं भविष्यति तवाक्षयम्।
एष काञ्चनको वर्णो मत्प्रीत्या ते भविष्यति॥३५॥

‘तुम्हारा सिर सदा ही सुवर्ण के समान रंग का एवं अक्षय होगा। मेरी प्रसन्नता से तुम्हारा यह (काला) रंग सुनहरे रंग में परिवर्तित हो जायगा’ ॥ ३५ ॥

एवं दत्त्वा वरांस्तेभ्यस्तस्मिन् यज्ञोत्सवे सुराः।
निवृत्ते सह राज्ञा ते पुनः स्वभवनं गताः॥३६॥

इस प्रकार उन्हें उत्तम वर देकर वे सब देवता वह यज्ञोत्सव समाप्त होने पर राजा मरुत्त के साथ पुनः अपने भवन–स्वर्गलोक को चले गये॥ ३६॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डेऽष्टादशः सर्गः॥१८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।१८॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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