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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 19 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 19

Spread the Glory of Sri SitaRam!

॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
एकोनविंशः सर्गः (सर्ग 19)

रावण के द्वारा अनरण्य का वध तथा उनके द्वारा उसे शाप की प्राप्ति

 

अथ जित्वा मरुत्तं स प्रययौ राक्षसाधिपः।
नगराणि नरेन्द्राणां युद्धकाङ्क्षी दशाननः॥१॥

(अगस्त्यजी कहते हैं रघुनन्दन!) पूर्वोक्त रूप से राजा मरुत्त को जीतने के पश्चात् राक्षसराज दशग्रीव क्रमशः अन्य नरेशों के नगरों में भी युद्ध की इच्छा से गया॥१॥

समासाद्य तु राजेन्द्रान् महेन्द्रवरुणोपमान्।
अब्रवीद् राक्षसेन्द्रस्तु युद्धं मे दीयतामिति॥२॥
निर्जिताः स्मेति वा ब्रूत एष मे हि सुनिश्चयः।
अन्यथा कुर्वतामेवं मोक्षो नैवोपपद्यते॥३॥

महेन्द्र और वरुण के समान पराक्रमी उन महाराजों के पास जाकर वह राक्षसराज उनसे कहता —’राजाओ! तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा यह कह दो कि ‘हम हार गये।’ यही मेरा अच्छी तरह किया हुआ निश्चय है। इसके विपरीत करने से तुम्हें छुटकारा नहीं मिलेगा’॥२-३॥

ततस्त्वभीरवः प्राज्ञाः पार्थिवा धर्मनिश्चयाः।
मन्त्रयित्वा ततोऽन्योन्यं राजानः सुमहाबलाः॥४॥
निर्जिताः स्मेत्यभाषन्त ज्ञात्वा वरबलं रिपोः।

तब निर्भय, बुद्धिमान् तथा धर्मपूर्ण विचार रखने वाले बहुत-से महाबली राजा परस्पर सलाह करके शत्रु की प्रबलता को समझकर बोले —’राक्षसराज! हम तुमसे हार मान लेते हैं’॥ ४ १/२॥

दुष्यन्तः सुरथो गाधिर्गयो राजा पुरूरवाः॥५॥
एते सर्वेऽब्रुवंस्तात निर्जिताः स्मेति पार्थिवाः।

दुष्यन्त, सुरथ, गाधि, गय, राजा पुरूरवा—इन सभी भूपालों ने अपने-अपने राजत्वकाल में रावण के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर ली॥ ५ १/२॥

अथायोध्यां समासाद्य रावणो राक्षसाधिपः॥६॥
सुगुप्तामनरण्येन शक्रेणेवामरावतीम्।
स तं पुरुषशार्दूलं पुरंदरसमं बले॥७॥
प्राह राजानमासाद्य युद्धं देहीति रावणः।
निर्जितोऽस्मीति वा ब्रूहि त्वमेवं मम शासनम्॥८॥

इसके बाद राक्षसों का राजा रावण इन्द्र द्वारा सुरक्षित अमरावती की भाँति महाराज अनरण्य द्वारा पालित अयोध्यापुरी में आया। वहाँ पुरन्दर (इन्द्र)-के समान पराक्रमी पुरुषसिंह राजा अनरण्य से मिलकर बोला’राजन् ! तुम मुझसे युद्ध करने का वचन दो अथवा कह दो कि ‘मैं हार गया।’ यही मेरा आदेश है’॥६ -८॥

अयोध्याधिपतिस्तस्य श्रुत्वा पापात्मनो वचः।
अनरण्यस्तु संक्रुद्धो राक्षसेन्द्रमथाब्रवीत्॥९॥

उस पापात्मा की वह बात सुनकर अयोध्यानरेश अनरण्य को बड़ा क्रोध हुआ और वे उस राक्षसराज से बोले- ॥९॥

दीयते इन्द्रयुद्धं ते राक्षसाधिपते मया।
संतिष्ठ क्षिप्रमायत्तो भव चैवं भवाम्यहम्॥१०॥

‘निशाचरपते ! मैं तुम्हें द्वन्द्वयुद्ध का अवसर देता हूँ। ठहरो, शीघ्र युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। मैं भी तैयार हो रहा हूँ’॥ १०॥

अथ पूर्वं श्रुतार्थेन निर्जितं सुमहद् बलम्।
निष्क्रामत् तन्नरेन्द्रस्य बलं रक्षोवधोद्यतम्॥

राजा ने रावण की दिग्विजय की बात पहले से ही सुन रखी थी, इसलिये उन्होंने बहुत बड़ी सेना इकट्ठी कर ली थी। नरेश की वह सारी सेना उस समय राक्षस के वध के लिये उत्साहित हो नगर से बाहर निकली। ११॥

नागानां दशसाहस्रं वाजिनां नियुतं तथा।
रथानां बहुसाहस्रं पत्तीनां च नरोत्तम॥१२॥
महीं संछाद्य निष्क्रान्तं सपदातिरथं रणे।

नरश्रेष्ठ श्रीराम! दस हजार हाथीसवार, एक लाख घुड़सवार, कई हजार रथी और पैदल सैनिक पृथ्वी को आच्छादित करके युद्ध के लिये आगे बढ़े। रथों और पैदलोंसहित सारी सेना रणक्षेत्र में जा पहुँची॥ १२ १/२॥

ततः प्रवृत्तं सुमहद् युद्धं युद्धविशारद ॥१३॥
अनरण्यस्य नृपते राक्षसेन्द्रस्य चाद्भुतम्।

युद्धविशारद रघुवीर! फिर तो राजा अनरण्य और निशाचर रावण में बड़ा अद्भुत संग्राम होने लगा॥ १३ १/२॥

तद् रावणबलं प्राप्य बलं तस्य महीपतेः॥१४॥
प्राणश्यत तदा सर्वं हव्यं हुतमिवानले।

उस समय राजा की सारी सेना रावण की सेना के साथ टक्कर लेकर उसी तरह नष्ट होने लगी, जैसे अग्नि में दी हुई आहुति पूर्णतः भस्म हो जाती है॥ १४ १/२॥

युद्ध्वा च सुचिरं कालं कृत्वा विक्रममुत्तमम्॥१५॥
प्रज्वलन्तं तमासाद्य क्षिप्रमेवावशेषितम्।
प्राविशत् संकुलं तत्र शलभा इव पावकम्॥१६॥

उस सेना ने बहुत देरतक युद्ध किया, बड़ा पराक्रम दिखाया; परंतु तेजस्वी रावण का सामना करके वह बहुत थोड़ी संख्या में शेष रह गयी और अन्ततोगत्वा जैसे पतिङ् गे आग में जलकर भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार काल के गाल में चली गयी॥ १५-१६॥

सोऽपश्यत् तन्नरेन्द्रस्तु नश्यमानं महाबलम्।
महार्णवं समासाद्य वनापगशतं यथा॥१७॥

राजा ने देखा, मेरी विशाल सेना उसी प्रकार नष्ट होती चली जा रही है, जैसे जल से भरी हुई सैकड़ों नदियाँ महासागर के पास पहुँचकर उसी में विलीन हो जाती हैं।॥ १७॥

ततः शक्रधनुःप्रख्यं धनुर्विस्फारयन् स्वयम्।
आससाद नरेन्द्रस्तं रावणं क्रोधमूर्च्छितः॥१८॥

तब महाराज अनरण्य क्रोध से मूर्छित हो अपने इन्द्रधनुष के समान महान् शरासन को टंकारते हुए रावण का सामना करने के लिये आये॥ १८॥

अनरण्येन तेऽमात्या मारीचशुकसारणाः।
प्रहस्तसहिता भग्ना व्यद्रवन्त मृगा इव॥१९॥

फिर तो जैसे सिंह को देखकर मृग भाग जाते हैं, उसी प्रकार मारीच, शुक, सारण तथा प्रहस्त—ये चारों राक्षस मन्त्री राजा अनरण्य से परास्त होकर भाग खड़े हुए॥१९॥

ततो बाणशतान्यष्टौ पातयामास मूर्धनि।
तस्य राक्षसराजस्य इक्ष्वाकुकुलनन्दनः॥२०॥

तत्पश्चात् इक्ष्वाकुवंश को आनन्दित करने वाले राजा अनरण्य ने राक्षसराज रावण के मस्तक पर आठ सौ बाण मारे॥ २०॥

तस्य बाणाः पतन्तस्ते चक्रिरे न क्षतं क्वचित्।
वारिधारा इवाभ्रेभ्यः पतन्त्यो गिरिमूर्धनि॥२१॥

परंतु जैसे बादलों से पर्वतशिखर पर गिरती हुई जलधाराएँ उसे क्षति नहीं पहुँचातीं, उसी प्रकार वे बरसते हुए बाण उस निशाचर के शरीर पर कहीं घाव न कर सके॥२१॥

ततो राक्षसराजेन क्रुद्धेन नृपतिस्तदा।
तलेनाभिहतो मूर्ध्नि स रथान्निपपात ह॥२२॥

इसके बाद राक्षसराज ने कुपित होकर राजा के मस्तक पर एक तमाचा मारा। इससे आहत होकर राजा रथ से नीचे गिर पड़े ॥ २२॥

स राजा पतितो भूमौ विह्वलः प्रविवेपितः।
वज्रदग्ध इवारण्ये सालो निपतितो यथा॥२३॥

जैसे वनमें वज्रपात से दग्ध हुआ साखू का वृक्ष धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार राजा अनरण्य व्याकुल हो भूमि पर गिरे और थर-थर काँपने लगे। २३॥

तं प्रहस्याब्रवीद् रक्ष इक्ष्वाकुं पृथिवीपतिम्।
किमिदानीं फलं प्राप्तं त्वया मां प्रति युध्यता॥२४॥

यह देख रावण जोर-जोर से हँस पड़ा और उन इक्ष्वाकुवंशी नरेश से बोला—’इस समय मेरे साथ परंतु जैसे बादलों से पर्वतशिखर पर गिरती हुई जलधाराएँ उसे क्षति नहीं पहुँचातीं, उसी प्रकार वे बरसते हुए बाण उस निशाचर के शरीर पर कहीं घाव न कर सके॥२१॥

ततो राक्षसराजेन क्रुद्धेन नृपतिस्तदा।
तलेनाभिहतो मूर्ध्नि स रथान्निपपात ह॥२२॥

इसके बाद राक्षसराज ने कुपित होकर राजा के मस्तक पर एक तमाचा मारा। इससे आहत होकर राजा रथ से नीचे गिर पड़े ॥ २२॥

स राजा पतितो भूमौ विह्वलः प्रविवेपितः।
वज्रदग्ध इवारण्ये सालो निपतितो यथा॥२३॥

जैसे वन में वज्रपात से दग्ध हुआ साखू का वृक्ष धराशायी हो जाता है, उसी प्रकार राजा अनरण्य व्याकुल हो भूमि पर गिरे और थर-थर काँपने लगे। २३॥

तं प्रहस्याब्रवीद् रक्ष इक्ष्वाकुं पृथिवीपतिम्।
किमिदानीं फलं प्राप्तं त्वया मां प्रति युध्यता॥२४॥

यह देख रावण जोर-जोर से हँस पड़ा और उन इक्ष्वाकुवंशी नरेश से बोला—’इस समय मेरे साथ युद्ध करके तुमने क्या फल प्राप्त किया है ? ॥ २४ ॥

त्रैलोक्ये नास्ति यो द्वन्द्वं मम दद्यान्नराधिप।
शङ्के प्रसक्तो भोगेषु न शृणोषि बलं मम॥२५॥

‘नरेश्वर! तीनों लोकों में कोई ऐसा वीर नहीं है, जो मुझे द्वन्द्वयुद्ध दे सके। जान पड़ता है तुमने भोगों में अधिक आसक्त रहने के कारण मेरे बल-पराक्रम को नहीं सुना था’ ॥ २५ ॥

तस्यैवं ब्रुवतो राजा मन्दासुर्वाक्यमब्रवीत्।
किं शक्यमिह कर्तुं वै कालो हि दुरतिक्रमः॥२६॥

राजा की प्राणशक्ति क्षीण हो रही थी। उन्होंने इस प्रकार बातें करने वाले रावण का वचन सुनकर कहा’राक्षसराज! अब यहाँ क्या किया जा सकता है ? क्योंकि काल का उल्लङ्घन करना अत्यन्त दुष्कर है।२६॥

नह्यहं निर्जितो रक्षस्त्वया चात्मप्रशंसिना।
कालेनैव विपन्नोऽहं हेतुभूतस्तु मे भवान्॥२७॥

‘राक्षस! तू अपने मुँह से अपनी प्रशंसा कर रहा है किंतु तूने जो आज मुझे पराजित किया है, इसमें काल ही कारण है। वास्तव में काल ने ही मुझे मारा है तू तो मेरी मृत्यु में निमित्तमात्र बन गया है॥ २७॥

किं त्विदानी मया शक्यं कर्तुं प्राणपरिक्षये।
नह्यहं विमुखी रक्षो युद्ध्यमानस्त्वया हतः॥२८॥

‘मेरे प्राण जा रहे हैं, अतः इस समय मैं क्या कर सकता हूँ? निशाचर! मुझे संतोष है कि मैंने युद्ध से मुँह नहीं मोड़ा। युद्ध करता हुआ ही मैं तेरे हाथ से मारा गया हूँ॥ २८॥

इक्ष्वाकुपरिभावित्वाद् वचो वक्ष्यामि राक्षस।
यदि दत्तं यदि हुतं यदि मे सुकृतं तपः।
यदि गुप्ताः प्रजाः सम्यक् तदा सत्यं वचोऽस्तु मे॥२९॥

‘परंतु राक्षस! तूने अपने व्यङ्ग्यपूर्ण वचन से इक्ष्वाकुकुल का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझेशाप दूंगा तेरे लिये अमङ्गलजनक बात कहूँगा। । यदि मैंने दान, पुण्य, होम और तप किये हों, यदि
मेरे द्वारा धर्म के अनुसार प्रजाजनों का ठीक-ठीक पालन हुआ हो तो मेरी बात सत्य होकर रहे ॥२९॥

उत्पत्स्यते कुले ह्यस्मिन्निक्ष्वाकूणां महात्मनाम्।
रामो दाशरथि म स ते प्राणान् हरिष्यति॥३०॥

‘महात्मा इक्ष्वाकुवंशी नरेशों के इस वंश में ही दशरथनन्दन श्रीराम प्रकट होंगे, जो तेरे प्राणों का अपहरण करेंगे’ ॥ ३०॥

ततो जलधरोदग्रस्ताडितो देवदुन्दुभिः।
तस्मिन्नुदाहृते शापे पुष्पवृष्टिश्च खाच्च्युता॥३१॥

राजा के इस प्रकार शाप देते ही मेघ के समान गम्भीर स्वर में देवताओं की दुन्दुभि बज उठी और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी॥ ३१॥

ततः स राजा राजेन्द्र गतः स्थानं त्रिविष्टपम्।
स्वर्गते च नृपे तस्मिन् राक्षसः सोऽपसर्पत॥३२॥

राजाधिराज श्रीराम! तदनन्तर राजा अनरण्य स्वर्गलोक को सिधारे। उनके स्वर्गगामी हो जाने पर राक्षस रावण वहाँ से अन्यत्र चला गया॥ ३२ ॥

इत्या श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे एकोनविंशः सर्गः॥१९॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आपरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।१९॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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