वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 20 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 20
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
विंशः सर्गः (सर्ग 20)
नारदजी का रावण को समझाना, रावण का युद्ध के लिये यमलोक को जाना तथा नारदजी का इस युद्ध के विषय में विचार करना
ततो वित्रासयन् मान् पृथिव्यां राक्षसाधिपः।
आससाद घने तस्मिन् नारदं मुनिपुङ्गवम्॥१॥
(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) इसके बाद राक्षसराज रावण मनुष्यों को भयभीत करता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा। एक दिन पुष्पकविमान से यात्रा करते समय उसे बादलों के बीच में मुनिश्रेष्ठ देवर्षि नारदजी मिले॥१॥
तस्याभिवादनं कृत्वा दशग्रीवो निशाचरः।
अब्रवीत् कुशलं पृष्ट्वा हेतुमागमनस्य च ॥२॥
निशाचर दशग्रीव ने उनका अभिवादन करके कुशल-समाचार की जिज्ञासा की और उनके आगमन का कारण पूछा- ॥२॥
नारदस्तु महातेजा देवर्षिरमितप्रभः।
अब्रवीन्मेघपृष्ठस्थो रावणं पुष्पके स्थितम्॥३॥
तब बादलों की पीठ पर खड़े हुए अमित कान्तिमान् महातेजस्वी देवर्षि नारद ने पुष्पकविमान पर बैठे हुए रावण से कहा- ॥६॥
राक्षसाधिपते सौम्य तिष्ठ विश्रवसः सुत।
प्रीतोऽस्म्यभिजनोपेत विक्रमैरूर्जितैस्तव॥४॥
‘उत्तम कुल में उत्पन्न विश्रवणकुमार राक्षसराज रावण! सौम्य! ठहरो, मैं तुम्हारे बढ़े हुए बलविक्रम से बहुत प्रसन्न हूँ॥ ४॥
विष्णुना दैत्यघातैश्च गन्धर्वोरगधर्षणैः।
त्वया समं विमर्दैश्च भृशं हि परितोषितः॥५॥
‘दैत्यों का विनाश करने वाले अनेक संग्राम करके भगवान् विष्णु ने तथा गन्धर्वो और नागों को पददलित करने वाले युद्धों द्वारा तुमने मुझे समानरूप से संतुष्ट किया है॥५॥
किंचिद् वक्ष्यामि तावत् तु श्रोतव्यं श्रोष्यसे यदि।
तन्मे निगदतस्तात समाधिं श्रवणे कुरु॥६॥
‘इस समय यदि तुम सुनोगे तो मैं तुमसे कुछ सुनने योग्य बात कहूँगा। तात! मेरे मुँह से निकली हुई उस बात को सुनने के लिये तुम अपने चित्त को एकाग्र करो॥६॥
किमयं वध्यते तात त्वयावध्येन दैवतैः।
हत एव ह्ययं लोको यदा मृत्युवशं गतः॥७॥
‘तात! तुम देवताओं के लिये भी अवध्य होकर इस भूलोक के निवासियों का वध क्यों कर रहे हो? यहाँ के प्राणी तो मृत्यु के अधीन होने के कारण स्वयं ही मरे हुए हैं; फिर तुम भी इन मरे हुओं को क्यों मार रहे हो? ॥ ७॥
देवदानवदैत्यानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम्।
अवध्येन त्वया लोकः क्लेष्टुं योग्यो न मानुषः॥८॥
‘देवता, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस भी जिसे नहीं मार सकते, ऐसे विख्यात वीर होकर भी तुम इस मनुष्यलोक को क्लेश पहुँचाओ, यह कदापि तुम्हारे योग्य नहीं है॥ ८॥
नित्यं श्रेयसि सम्मूढ़ महद्भिर्व्यसनैर्वृतम्।
हन्यात् कस्तादृशं लोकं जराव्याधिशतैर्युतम्॥
‘जो सदा अपने कल्याण-साधन में मूढ़ हैं, बड़ी-बड़ी विपत्तियों से घिरे हुए हैं और बुढ़ापा तथा सैकड़ों रोगों से युक्त हैं, ऐसे लोगों को कोई भी वीर पुरुष कैसे मार सकता है? ॥९॥
तैस्तैरनिष्टोपगमैरजस्रं यत्र कुत्र कः।
मतिमान् मानुषे लोके युद्धेन प्रणयी भवेत्॥१०॥
‘जो नाना प्रकार के अनिष्टों की प्राप्ति से जहाँ कहीं भी पीड़ित है, उस मनुष्यलोक में आकर कौन बुद्धिमान् वीर पुरुष युद्ध के द्वारा मनुष्यों के वध में अनुरक्त होगा?॥
क्षीयमाणं दैवहतं क्षुत्पिपासाजरादिभिः।
विषादशोकसम्मूढं लोकं त्वं क्षपयस्व मा॥११॥
‘यह लोक तो यों ही भूख, प्यास और जरा आदि से क्षीण हो रहा है तथा विषाद और शोक में डूबकर अपनी विवेक-शक्ति खो बैठा है। दैव के मारे हुए इस मर्त्यलोक का तुम विनाश न करो॥११॥
पश्य तावन्महाबाहो राक्षसेश्वर मानुषम्।
मूढमेवं विचित्रार्थं यस्य न ज्ञायते गतिः॥१२॥
‘महाबाहु राक्षसराज! देखो तो सही, यह मनुष्यलोक ज्ञानशून्य होने के कारण मूढ़ होने पर भी किस तरह नाना प्रकार के क्षुद्र पुरुषार्थों में आसक्त है? इसे इस बात का भी पता नहीं है कि कब दुःख और सुख आदि भोगने का अवसर आयेगा? ॥ १२॥
क्वचिद् वादित्रनृत्यादि सेव्यते मुदितैर्जनैः।
रुद्यते चापरैराÉर्धाराश्रुनयनाननैः॥१३॥
‘यहाँ कहीं कुछ मनुष्य तो आनन्दमग्न होकर गाजे-बाजे और नाच आदि का सेवन करते हैं उनके द्वारा मन बहलाते हैं तथा कहीं कितने ही लोग दुःख से पीड़ित हो नेत्रों से आँसू बहाते हुए रोते रहते हैं।। १३॥
मातापितृसुतस्नेहभाबन्धुमनोरमैः।
मोहितोऽयं जनो ध्वस्तः क्लेशं स्वं नावबुध्यते॥१४॥
‘माता, पिता तथा पुत्र के स्नेह से और पत्नी तथा भाई के सम्बन्ध में नाना प्रकार के मनसूबे बाँधने के कारण यह मनुष्यलोक मोहग्रस्त हो परमार्थ से भ्रष्ट हो रहा है। इसे अपने बन्धनजनित क्लेश का अनुभव ही नहीं होता है॥ १४ ॥
तत्किमेवं परिक्लिश्य लोकं मोहनिराकृतम्।
जित एव त्वया सौम्य मर्त्यलोको न संशयः॥
‘इस प्रकार जो मोह (अज्ञान)-के कारण परम पुरुषार्थ से वञ्चित हो गया है, ऐसे मनुष्य-लोक को क्लेश पहुँचाकर तुम्हें क्या मिलेगा? सौम्य! तुमने मनुष्य-लोक को तो जीत ही लिया है, इसमें कोई भी संशय नहीं है॥ १५ ॥
अवश्यमेभिः सर्वैश्च गन्तव्यं यमसादनम्।
तन्निगृह्णीष्व पौलस्त्य यमं परपुरंजय॥१६॥
तस्मिञ्जिते जितं सर्वं भवत्येव न संशयः।
‘शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले पुलस्त्यनन्दन! इन । सब मनुष्यों को यमलोक में अवश्य जाना पड़ता है।अतः यदि शक्ति हो तो तुम यमराज को अपने काबू में करो। उन्हें जीत लेने पर तुम सबको जीत सकते हो; इसमें संशय नहीं है’ ॥ १६ १/२ ॥
एवमुक्तस्तु लङ्केशो दीप्यमानं स्वतेजसा॥१७॥
अब्रवीन्नारदं तत्र सम्प्रहस्याभिवाद्य च।
नारदजी के ऐसा कहने पर लङ्कापति रावण अपने तेज से उद्दीप्त होने वाले उन देवर्षि को प्रणाम करके हँसता हुआ बोला- ॥ १७ १/२ ॥
महर्षे देवगन्धर्वविहार समरप्रिय॥१८॥
अहं समुद्यतो गन्तुं विजयार्थं रसातलम्।
‘महर्षे! आप देवताओं और गन्धर्वो के लोक में विहार करने वाले हैं। युद्ध के दृश्य देखना आपको बहुत ही प्रिय है। मैं इस समय दिग्विजय के लिये रसातल में जाने को उद्यत हूँ॥ १८ १/२॥
ततो लोकत्रयं जित्वा स्थाप्य नागान् सुरान् वशे॥१९॥
समुद्रममृतार्थं च मथिष्यामि रसालयम्।
‘फिर तीनों लोकों को जीतकर नागों और देवताओं को अपने वश में करके अमृत की प्राप्ति के लिये रसनिधि समुद्र का मन्थन करूँगा’ ॥ १९ १/२ ॥
अथाब्रवीद् दशग्रीवं नारदो भगवानृषिः॥२०॥
क्व खल्विदानी मार्गेण त्वयेहान्येन गम्यते।
अयं खलु सुदुर्गम्यः प्रेतराजपुरं प्रति॥२१॥
मार्गो गच्छति दुर्धर्ष यमस्यामित्रकर्शन।
यह सुनकर देवर्षि भगवान् नारद ने कहा ‘शत्रुसूदन! यदि तुम रसातल को जाना चाहते हो तो इस समय उसका मार्ग छोड़कर दूसरे रास्ते से हँसता हुआ बोला- ॥ १७ १/२ ॥
महर्षे देवगन्धर्वविहार समरप्रिय॥१८॥
अहं समुद्यतो गन्तुं विजयार्थं रसातलम्।
‘महर्षे! आप देवताओं और गन्धर्वो के लोक में विहार करने वाले हैं। युद्ध के दृश्य देखना आपको बहुत ही प्रिय है। मैं इस समय दिग्विजय के लिये रसातल में जाने को उद्यत हूँ॥ १८ १/२॥
ततो लोकत्रयं जित्वा स्थाप्य नागान् सुरान् वशे॥१९॥
समुद्रममृतार्थं च मथिष्यामि रसालयम्।
‘फिर तीनों लोकों को जीतकर नागों और देवताओं को अपने वश में करके अमृत की प्राप्ति के लिये रसनिधि समुद्र का मन्थन करूँगा’ ॥ १९ १/२ ॥
अथाब्रवीद् दशग्रीवं नारदो भगवानृषिः॥२०॥
क्व खल्विदानी मार्गेण त्वयेहान्येन गम्यते।
अयं खलु सुदुर्गम्यः प्रेतराजपुरं प्रति॥२१॥
मार्गो गच्छति दुर्धर्ष यमस्यामित्रकर्शन।
यह सुनकर देवर्षि भगवान् नारद ने कहा ‘शत्रुसूदन! यदि तुम रसातल को जाना चाहते हो तो इस समय उसका मार्ग छोड़कर दूसरे रास्ते से
तदिह प्रस्थितोऽहं वै पितृराजपुरं प्रति॥ २५॥
प्राणिसंक्लेशकर्तारं योजयिष्यामि मृत्युना।
‘अतः मैं यहाँ से यमपुरी को प्रस्थान कर रहा हूँ। संसार के प्राणियों को मौत का कष्ट देने वाले सूर्यपुत्र यम को स्वयं ही मृत्यु से संयुक्त कर दूंगा’ ॥ २५ १/२ ॥
एवमुक्त्वा दशग्रीवो मुनिं तमभिवाद्य च॥२६॥
प्रययौ दक्षिणामाशां प्रविष्टः सह मन्त्रिभिः।
ऐसा कहकर दशग्रीव ने मुनि को प्रणाम किया और मन्त्रियों के साथ वह दक्षिण दिशा की ओर चल दिया॥
नारदस्तु महातेजा मुहूर्तं ध्यानमास्थितः॥२७॥
चिन्तयामास विप्रेन्द्रो विधूम इव पावकः।
उसके चले जाने पर धूमरहित अग्नि के समान महातेजस्वी विप्रवर नारदजी दो घड़ी तक ध्यानमग्न हो इस प्रकार विचार करने लगे- ॥२७ १/२ ।।
येन लोकास्त्रयः सेन्द्राः क्लिश्यन्ते सचराचराः॥२८॥
क्षीणे चायुषि धर्मेण स कालो जेष्यते कथम्।
‘आयु क्षीण होने पर जिनके द्वारा धर्मपूर्वक इन्द्रसहित तीनों लोकों के चराचर प्राणी क्लेश में डाले जाते-दण्डित होते हैं, वे कालस्वरूप यमराज इस रावण के द्वारा कैसे जीते जायँगे? ॥ २८२ ॥
स्वदत्तकृतसाक्षी यो द्वितीय इव पावकः॥२९॥
लब्धसंज्ञा विचेष्टन्ते लोका यस्य महात्मनः।
यस्य नित्यं त्रयो लोका विद्रवन्ति भयार्दिताः॥३०॥
तं कथं राक्षसेन्द्रोऽसौ स्वयमेव गमिष्यति।
‘जो जीवों के दान और कर्म के साक्षी हैं, जिनका तेज द्वितीय अग्नि के समान है, जिन महात्मा से चेतना पाकर सम्पूर्ण जीव नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं. जिनके भय से पीड़ित हो तीनों लोकों के प्राणी उनसे दूर भागते हैं, उन्हीं के पास यह राक्षसराज स्वयं ही कैसे जायगा? ॥ २९-३० १/२॥
यो विधाता च धाता च सुकृतं दुष्कृतं तथा॥३१॥
त्रैलोक्यं विजितं येन तं कथं विजयिष्यते।
अपरं किं तु कृत्वैवं विधानं संविधास्यति॥३२॥
‘जो त्रिलोकी को धारण-पोषण करने वाले तथा पुण्य और पाप के फल देने वाले हैं और जिन्होंने तीनों लोकों पर विजय पायी है, उन्हीं कालदेव को यह राक्षस कैसे जीतेगा? काल ही सबका साधन है। यह राक्षस काल के अतिरिक्त दूसरे किस साधन का सम्पादन करके उस काल पर विजय प्राप्त करेगा? ॥ ३१-३२॥
कौतूहलं समुत्पन्नो यास्यामि यमसादनम्।
विमर्द द्रष्टमनयोर्यमराक्षसयोः स्वयम्॥३३॥
‘अब तो मेरे मन में बड़ा कौतूहल उत्पन्न हो गया है, अतः इन यमराज और राक्षसराज का युद्ध देखने के लिये मैं स्वयं भी यमलोक को जाऊँगा’॥ ३३॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे विंशः सर्गः ॥२०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२०॥