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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड हिंदी अर्थ सहित

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 21 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 21

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॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
एकविंशः सर्गः (सर्ग 21)

रावण का यमलोक पर आक्रमण और उसके द्वारा यमराज के सैनिकों का संहार

 

एवं संचिन्त्य विप्रेन्द्रो जगाम लघुविक्रमः।
आख्यातुं तद् यथावृत्तं यमस्य सदनं प्रति॥१॥

(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) ऐसा विचारकर शीघ्र चलने वाले विप्रवर नारदजी रावण के आक्रमण का समाचार बताने के लिये यमलोक में गये॥

अपश्यत् स यमं तत्र देवमग्निपुरस्कृतम्।
विधानमनुतिष्ठन्तं प्राणिनो यस्य यादृशम्॥२॥

वहाँ जाकर उन्होंने देखा, यमदेवता अग्नि को साक्षी के रूप में सामने रखकर बैठे हैं और जिस प्राणी का जैसा कर्म है, उसी के अनुसार फल देने की व्यवस्था कर रहे हैं।

स तु दृष्ट्वा यमः प्राप्तं महर्षिं तत्र नारदम्।
अब्रवीत् सुखमासीनमय॑मावेद्य धर्मतः॥३॥

महर्षि नारद को वहाँ आया देख यमराज ने आतिथ्य-धर्म के अनुसार उनके लिये अर्घ्य आदि निवेदन करके कहा— ॥३॥

कच्चित् क्षेमं नु देवर्षे कच्चिद् धर्मो न नश्यति।
किमागमनकृत्यं ते देवगन्धर्वसेवित॥४॥

‘देवताओं और गन्धर्वो से सेवित देवर्षे ! कुशल तो है न? धर्म का नाश तो नहीं हो रहा है? आज यहाँ आपके शुभागमन का क्या उद्देश्य है ?’ ॥ ४॥

अब्रवीत् तु तदा वाक्यं नारदो भगवानृषिः।
श्रूयतामभिधास्यामि विधानं च विधीयताम्॥५॥
एष नाम्ना दशग्रीवः पितृराज निशाचरः।
उपयाति वशं नेतुं विक्रमैस्त्वां सुदुर्जयम्॥६॥

तब भगवान् नारद मुनि बोले—’पितृराज! सुनिये —मैं एक आवश्यक बात बता रहा हूँ, आप सुनकर उसके प्रतीकार का भी कोई उपाय कर लें। यद्यपि आपको जीतना अत्यन्त कठिन है, तथापि यह दशग्रीव नामक निशाचर अपने पराक्रमों द्वारा आपको वश में करने के लिये यहाँ आ रहा है॥५-६॥

एतेन कारणेनाहं त्वरितो ह्यागतः प्रभो।
दण्डप्रहरणस्याद्य तव किं नु भविष्यति॥७॥

‘प्रभो! इसी कारण से मैं तुरंत यहाँ आया हूँ कि आपको इस सङ्कट की सूचना दे दूँ, परंतु आप तो कालदण्डरूपी आयुध को धारण करने वाले हैं, आपकी उस राक्षस के आक्रमण से क्या हानि होगी?’॥७॥

एतस्मिन्नन्तरे दूरादंशुमन्तमिवोदितम्।
ददृशुर्दीप्तमायान्तं विमानं तस्य रक्षसः॥८॥

इस प्रकार की बातें हो ही रही थीं कि उस राक्षस का उदित हुए सूर्य के समान तेजस्वी विमान दूर से आता दिखायी दिया॥८॥

तं देशं प्रभया तस्य पुष्पकस्य महाबलः।
कृत्वा वितिमिरं सर्वं समीपमभ्यवर्तत॥९॥

महाबली रावण पुष्पक की प्रभा से उस समस्त प्रदेश को अन्धकार शून्य करके अत्यन्त निकट आ गया॥

सोऽपश्यत् स महाबाहुर्दशग्रीवस्ततस्ततः।
प्राणिनः सुकृतं चैव भुञ्जानांश्चैव दुष्कृतम्॥१०॥

महाबाहु दशग्रीव ने यमलोक में आकर देखा कि यहाँ बहुत-से प्राणी अपने-अपने पुण्य तथा पाप का फल भोग रहे हैं॥ १०॥

अपश्यत् सैनिकांश्चास्य यमस्यानुचरैः सह।
यमस्य पुरुषैरुग्रैर्घोररूपैर्भयानकैः॥११॥
ददर्श वध्यमानांश्च क्लिश्यमानांश्च देहिनः।
क्रोशतश्च महानादं तीव्रनिष्टनतत्परान्॥१२॥

उसने यमराज के सेवकों के साथ उनके सैनिकों को भी देखा। उसकी दृष्टि में यमयातना का दृश्य भी आया। घोर रूपधारी उग्र प्रकृति वाले भयानक यमदूत कितने ही प्राणियों को मारते और क्लेश पहुँचाते थे, जिससे वे बड़े जोर-जोरसे चीखते और चिल्लाते थे। ११-१२॥

कृमिभिर्भक्ष्यमाणांश्च सारमेयैश्च दारुणैः।
श्रोत्रायासकरा वाचो वदतश्च भयावहाः॥१३॥

किन्हीं को कीड़े खा रहे थे और कितनों को भयङ्कर कुत्ते नोच रहे थे। वे सब-के-सब दुःखी हो-होकर कानों को पीड़ा देने वाला भयानक चीत्कार करते थे। १३॥

संतार्यमाणान् वैतरणीं बहुशः शोणितोदकाम्।
वालुकासु च तप्तासु तप्यमानान् मुहुर्मुहुः॥१४॥

किन्हीं को बारम्बार रक्त से भरी हुई वैतरणी नदी पार करने के लिये विवश किया जाता था और कितनों को तपायी हुई बालुकाओं पर बार-बार चलाकर संतप्त किया जाता था॥१४॥

असिपत्रवने चैव भिद्यमानानधार्मिकान्।
रौरवे क्षारनद्यां च क्षुरधारासु चैव हि ॥१५॥
पानीयं याचमानांश्च तृषितान् क्षुधितानपि।
शवभूतान् कृशान् दीनान् विवर्णान् मुक्तमूर्धजान्॥१६॥
मलपङ्कधरान् दीनान् रुक्षांश्च परिधावतः।
ददर्श रावणो मार्गे शतशोऽथ सहस्रशः॥१७॥

कुछ पापी असिपत्र-वन में, जिसके पत्ते तलवार की धार के समान तीखे थे, विदीर्ण किये जा रहे थे। किन्हीं को रौरव नरक में डाला जाता था। कितनों को खारे जल से भरी हुई नदियों में डुबाया जाता था और बहुतों को छुरों की धारों पर दौड़ाया जाता था। कई प्राणी भूख और प्यास से तड़प रहे थे और थोड़े-से जल की याचना कर रहे थे। कोई शव के समान कङ्काल, दीन, दुर्बल, उदास और खुले बालों से युक्त दिखायी देते थे। कितने ही प्राणी अपने अङ्गों में मैल और कीचड़ लगाये दयनीय तथा रूखे शरीर से चारों ओर भाग रहे थे। इस तरह के सैकड़ों और हजारों जीवों को रावण ने मार् गमें यातना भोगते देखा ॥ १५– १७॥

कांश्चिच्च गृहमुख्येषु गीतवादित्रनिःस्वनैः।
प्रमोदमानानद्राक्षीद् रावणः सुकृतैः स्वकैः॥१८॥

दूसरी ओर रावण ने देखा कुछ पुण्यात्मा जीव अपने पुण्यकर्मो के प्रभाव से अच्छे-अच्छे घरों में रहकर संगीत और वाद्यों की मनोहर ध्वनि से आनन्दित हो रहे हैं॥ १८॥

गोरसं गोप्रदातारो ह्यन्नं चैवान्नदायिनः।
गृहांश्च गृहदातारः स्वकर्मफलमश्नतः॥१९॥

गोदान करने वाले गोरस को, अन्न देने वाले अन्न को और गृह प्रदान करने वाले लोग गृह को पाकर अपने सत्कर्मों का फल भोग रहे हैं॥ १९॥

सुवर्णमणिमुक्ताभिः प्रमदाभिरलंकृतान्।
धार्मिकानपरांस्तत्र दीप्यमानान् स्वतेजसा॥२०॥

दूसरे धर्मात्मा पुरुष वहाँ सुवर्ण, मणि और मुक्ताओं से अलंकृत हो यौवन के मद से मत्त रहने वाली सुन्दरी स्त्रियों के साथ अपनी अङ्गकान्ति से प्रकाशित हो रहे हैं॥२०॥

ददर्श स महाबाहू रावणो राक्षसाधिपः।
ततस्तान् भिद्यमानांश्च कर्मभिर्दुष्कृतैः स्वकैः॥२१॥
रावणो मोचयामास विक्रमेण बलाद् बली।
प्राणिनो मोक्षितास्तेन दशग्रीवेण रक्षसा॥२२॥

महाबाहु राक्षसराज रावण ने इन सबको देखा। देखकर बलवान् राक्षस दशग्रीव ने अपने पाप-कर्मों के कारण यातना भोगने वाले प्राणियों को पराक्रम द्वारा बलपूर्वक मुक्त कर दिया॥ २१-२२॥

सुखमापुर्मुहूर्तं ते ह्यतर्कितमचिन्तितम्।
प्रेतेषु मुच्यमानेषु राक्षसेन महीयसा॥२३॥
प्रेतगोपाः सुसंक्रुद्धा राक्षसेन्द्रमभिद्रवन्।

इससे थोड़ी देरतक उन पापियों को बड़ा सुख मिला, उसके मिलने की न तो उन्हें सम्भावना थी और न उसके विषय में वे कुछ सोच ही सके थे। उस महान् राक्षस के द्वारा जब सभी प्रेत यातना से मुक्त कर दिये गये, तब उन प्रेतों की रक्षा करने वाले यमदूत अत्यन्त कुपित हो राक्षसराज पर टूट पड़े॥ २३ १/२॥

ततो हलहलाशब्दः सर्वदिग्भ्यः समुत्थितः॥२४॥
धर्मराजस्य योधानां शूराणां सम्प्रधावताम्।

फिर तो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर से धावा करने वाले धर्मराज के शूरवीर योद्धाओं का महान् कोलाहल प्रकट हुआ॥ २४ १/२॥

ते प्रासैः परिघैः शूलैर्मुसलैः शक्तितोमरैः॥ २५॥
पुष्पकं समधर्षन्त शूराः शतसहस्रशः।
तस्यासनानि प्रासादान् वेदिकास्तोरणानि च॥२६॥
पुष्पकस्य बभञ्जुस्ते शीघ्रं मधुकरा इव।

जैसे फूल पर झुंड-के-झुंड भौरे जुट जाते हैं, उसी प्रकार पुष्पकविमान पर सैकड़ों-हजारों शूरवीर यमदूत चढ़ आये और प्रासों, परिघों, शूलों, मूसलों, शक्तियों तथा तोमरों द्वारा उसे तहस-नहस करने लगे। उन्होंने पुष्पकविमान के आसन, प्रासाद, वेदी और फाटक शीघ्र ही तोड़ डाले॥ २५-२६ १/२॥

देवनिष्ठानभूतं तद् विमानं पुष्पकं मृधे॥२७॥
भज्यमानं तथैवासीदक्षयं ब्रह्मतेजसा।

देवताओं का अधिष्ठानभूत वह पुष्पकविमान उस युद्ध में तोड़ा जाने पर भी ब्रह्माजी के प्रभाव से ज्यों-कात्यों हो जाता था; क्योंकि वह नष्ट होने वाला नहीं था। २७ १/२॥

असंख्या सुमहत्यासीत् तस्य सेना महात्मनः॥२८॥
शूराणामग्रयातॄणां सहस्राणि शतानि च।

महामना यम की विशाल सेना असंख्य थी। उसमें सैकड़ों-हजारों शूरवीर आगे बढ़कर युद्ध करने वाले थे॥

ततो वृक्षश्च शैलैश्च प्रासादानां शतैस्तथा॥२९॥
ततस्ते सचिवास्तस्य यथाकामं यथाबलम्।
अयुध्यन्त महावीराः स च राजा दशाननः॥३०॥

यमदूतों के आक्रमण करने पर रावण के वे महावीर मन्त्री तथा स्वयं राजा दशग्रीव भी वृक्षों, पर्वतशिखरों तथा यमलोक के सैकड़ों प्रासादों को उखाड़कर उनके द्वारा पूरी शक्ति लगाकर इच्छानुसार युद्ध करने लगे।

ते तु शोणितदिग्धाङ्गाः सर्वशस्त्रसमाहताः।
अमात्या राक्षसेन्द्रस्य चक्रुरायोधनं महत्॥३१॥

राक्षसराज के मन्त्रियों के सारे अङ्ग रक्त से नहा उठे थे। सम्पूर्ण शस्त्रों के आघात से वे घायल हो चुके थे। फिर भी उन्होंने बड़ा भारी युद्ध किया॥३१॥

अन्योन्यं ते महाभागा जघ्नुः प्रहरणैर्भृशम्।
यमस्य च महाबाहो रावणस्य च मन्त्रिणः॥३२॥

महाबाहु श्रीराम ! यमराज तथा रावण के वे महाभाग मन्त्री एक-दूसरे पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा बड़े जोर से आघात-प्रत्याघात करने लगे॥ ३२॥

अमात्यांस्तांस्तु संत्यज्य यमयोधा महाबलाः।
तमेव चाभ्यधावन्त शूलवर्थैर्दशाननम्॥३३॥

तत्पश्चात् यमराज के महाबली योद्धाओं ने रावण के मन्त्रियों को छोड़कर उस दशग्रीव के ही ऊपर शूलों की वर्षा करते हुए धावा किया॥ ३३॥

ततः शोणितदिग्धाङ्गः प्रहारैर्जर्जरीकृतः।
फुल्लाशोक इवाभाति पुष्पके राक्षसाधिपः॥३४॥

रावणका सारा शरीर शस्त्रों की मार से जर्जर हो गया। वह खून से लथपथ हो गया और पुष्पकविमान के ऊपर फूले हुए अशोक वृक्ष के समान प्रतीत होने लगा॥ ३४॥

स तु शूलगदाप्रासाञ्छक्तितोमरसायकान्।
मुसलानि शिलावृक्षान् मुमोचास्त्रबलाद् बली॥३५॥

तब बलवान् रावण ने अपने अस्त्र-बल से यमराज के सैनिकों पर शूल, गदा, प्रास, शक्ति, तोमर, बाण, मूसल, पत्थर और वृक्षों की वर्षा आरम्भ की॥ ३५ ॥

तरूणां च शिलानां च शस्त्राणां चातिदारुणम्।
यमसैन्येषु तद् वर्षं पपात धरणीतले॥३६॥

वृक्षों, शिलाखण्डों और शस्त्रों की वह अत्यन्त भयंकर वृष्टि भूतल पर खड़े हुए यमराज के सैनिकों पर पड़ने लगी॥ ३६॥

तांस्तु सर्वान् विनिर्भिद्य तदस्त्रमपहत्य च।
जघ्नुस्ते राक्षसं घोरमेकं शतसहस्रशः॥३७॥

वे सैनिक भी सैकड़ों-हजारों की संख्या में एकत्र हो उसके सारे आयुधों को छिन्न-भिन्न करके उसके द्वारा छोड़े हुए दिव्यास्त्र का भी निवारण कर एकमात्र उस भयंकर राक्षस को ही मारने लगे॥३७॥

परिवार्य च तं सर्वे शैलं मेघोत्करा इव।
भिन्दिपालैश्च शूलैश्च निरुछ्वासमपोथयन्॥३८॥

जैसे बादलों के समूह पर्वत पर सब ओर से जल की धाराएँ गिराते हैं, उसी प्रकार यमराज के  समस्त सैनिकों ने रावण को चारों ओर से घेरकर उसे भिन्दिपालों और शूलों से छेदना आरम्भ कर दिया। उसको दम लेने की भी फुरसत नहीं दी॥ ३८॥

विमुक्तकवचः क्रुद्धः सिक्तः शोणितविस्रवैः।
ततः स पुष्पकं त्यक्त्वा पृथिव्यामवतिष्ठत॥३९॥

रावण का कवच कटकर गिर पड़ा। उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी। वह उस रक्त से नहा उठा और कुपित हो पुष्पकविमान छोड़कर पृथ्वी पर खड़ा हो गया॥ ३९॥

ततः स कार्मुकी बाणी समरे चाभिवर्धत।
लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन क्रुद्धस्तस्थौ यथान्तकः॥४०॥

वहाँ दो घड़ी के बाद उसने अपने-आपको सँभाला। फिर तो वह धनुष और बाण हाथ में ले बढ़े हुए उत्साह से सम्पन्न हो समराङ्गण में कुपित हुए यमराज के समान खड़ा हुआ॥ ४०॥

ततः पाशुपतं दिव्यमस्त्रं संधाय कार्मुके।
तिष्ठ तिष्ठेति तानुक्त्वा तच्चापं व्यपकर्षत॥४१॥

उसने अपने धनुष पर पाशुपत नामक दिव्य अस्त्र का संधान किया और उन सैनिकों से ‘ठहरो ठहरो’ कहते हुए उस धनुष को खींचा॥४१॥

आकर्णात् स विकृष्याथ चापमिन्द्रारिराहवे।
मुमोच तं शरं क्रुद्धस्त्रिपुरे शंकरो यथा॥४२॥

जैसे भगवान् शङ्कर ने त्रिपुरासुर पर पाशुपतास्त्र का प्रयोग किया था, उसी प्रकार उस इन्द्रद्रोही रावण ने अपने धनुष को कान तक खींचकर वह बाण छोड़ दिया॥

तस्य रूपं शरस्यासीत् सधूमज्वालमण्डलम्।
वनं दहिष्यतो घर्मे दावाग्नेरिव मूर्च्छतः॥४३॥

उस समय उसके बाण का रूप धूम और ज्वालाओं के मण्डल से युक्त हो ग्रीष्म ऋतु में जंगल को जलाने के लिये चारों ओर फैलते हुए दावानल के समान प्रतीत होने लगा॥४३॥

ज्वालामाली स तु शरः क्रव्यादानुगतो रणे।
मुक्तो गुल्मान् द्रुमांश्चापि भस्म कृत्वा प्रधावति॥४४॥

रणभूमि में ज्वालामालाओं से घिरा हुआ वह बाण धनुष से छूटते ही वृक्षों और झाड़ियों को जलाता हुआ तीव्र गति से  आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे मांसाहारी जीव-जन्तु चलने लगे॥४४॥

ते तस्य तेजसा दग्धाः सैन्या वैवस्वतस्य तु।
रणे तस्मिन् निपतिता माहेन्द्रा इव केतवः॥४५॥

उस युद्धस्थल में यमराज के वे सारे सैनिक पाशुपतास्त्र के तेज से दग्ध हो इन्द्रध्वज के समान नीचे गिर पड़े॥ ४५ ॥

ततस्तु सचिवैः सार्धं राक्षसो भीमविक्रमः।
ननाद सुमहानादं कम्पयन्निव मेदिनीम्॥४६॥

तदनन्तर अपने मन्त्रियों के साथ वह भयानक पराक्रमी राक्षस पृथ्वी को कम्पित करता हुआ-सा बड़े जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा॥ ४६॥

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे एकविंशः सर्गः॥२१॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२१॥


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Shivangi

शिवांगी RamCharit.in को समृद्ध बनाने के लिए जनवरी 2019 से कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं। यह इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी में स्नातक एवं MBA (Gold Medalist) हैं। तकनीकि आधारित संसाधनों के प्रयोग से RamCharit.in पर गुणवत्ता पूर्ण कंटेंट उपलब्ध कराना इनकी जिम्मेदारी है जिसे यह बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रही हैं।

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