वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 23 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 23
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
त्रयोविंशः सर्गः (सर्ग 23)
रावण के द्वारा निवातकवचों से मैत्री, कालकेयों का वध तथा वरुण पुत्रों की पराजय
ततो जित्वा दशग्रीवो यमं त्रिदशपुङ्गवम्।
रावणस्तु रणश्लाघी स्वसहायान् ददर्श ह॥१॥
(अगस्त्यजी कहते हैं-रघुनन्दन!) देवेश्वर यम को पराजित करके युद्ध का हौसला रखने वाला दशग्रीव रावण अपने सहायकों से मिला॥१॥
ततो रुधिरसिक्ताङ्गं प्रहारैर्जर्जरीकृतम्।
रावणं राक्षसा दृष्ट्वा विस्मयं समुपागमन्॥२॥
उसके सारे अङ्ग रक्त से नहा उठे थे और प्रहारों से जर्जर हो गये थे। इस अवस्था में रावण को देखकर उन राक्षसों को बड़ा विस्मय हुआ॥२॥
जयेन वर्धयित्वा च मारीचप्रमुखास्ततः।
पुष्पकं भेजिरे सर्वे सान्त्विता रावणेन तु॥३॥
‘महाराजकी जय हो’ ऐसा कहकर रावण की अभ्युदय-कामना करके वे मारीच आदि सब राक्षस पुष्पकविमान पर बैठे। उस समय रावण ने उन सबको सान्त्वना दी॥३॥
ततो रसातलं रक्षः प्रविष्टः पयसां निधिम्।
दैत्योरगगणाध्युष्टं वरुणेन सुरक्षितम्॥४॥
तदनन्तर वह राक्षस रसातल में जाने की इच्छा से दैत्यों और नागों से सेवित तथा वरुण के द्वारा सुरक्षित जलनिधि समुद्र में प्रविष्ट हुआ॥४॥
स तु भोगवतीं गत्वा पुरीं वासुकिपालिताम्।
कृत्वा नागान् वशे हृष्टो ययौ मणिमयीं पुरीम्॥
नागराज वासुकि द्वारा पालित भोगवती पुरी में प्रवेश करके उसने नागों को अपने वश में कर लिया और वहाँ से हर्षपूर्वक मणिमयीपुरी को प्रस्थान किया॥५॥
निवातकवचास्तत्र दैत्या लब्धवरा वसन्।
राक्षसस्तान् समागम्य युद्धाय समुपाह्वयत्॥६॥
उस पुरी में निवातकवच नामक दैत्य रहते थे, जिन्हें ब्रह्माजी से उत्तम वर प्राप्त थे। उस राक्षस ने वहाँ जाकर उन सबको युद्ध के लिये ललकारा॥६॥
ते तु सर्वे सुविक्रान्ता दैतेया बलशालिनः।
नानाप्रहरणास्तत्र प्रहृष्टा युद्धदुर्मदाः॥७॥
वे सब दैत्य बड़े पराक्रमी और बलशाली थे। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे तथा युद्ध के लिये सदा उत्साहित एवं उन्मत्त रहते थे॥७॥
शूलैस्त्रिशूलैः कुलिशैः पट्टिशासिपरश्वधैः।
अन्योन्यं बिभिदुः क्रुद्धा राक्षसा दानवास्तथा॥८॥
उनका राक्षसों के साथ युद्ध आरम्भ हो गया। वे राक्षस और दानव कुपित हो एक-दूसरे को शूल, त्रिशूल, वज्र, पट्टिश, खड्ग और फरसों से घायल करने लगे॥८॥
तेषां तु युध्यमानानां साग्रः संवत्सरो गतः।
न चान्यतरतस्तत्र विजयो वा क्षयोऽपि वा॥९॥
उनके युद्ध करते हुए एक वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो गया; किंतु उनमें से किसी भी पक्ष की विजय या पराजय नहीं हई॥९॥
ततः पितामहस्तत्र त्रैलोक्यगतिरव्ययः।
आजगाम द्रुतं देवो विमानवरमास्थितः ॥१०॥
तब त्रिभुवन के आश्रयभूत अविनाशी पितामह भगवान् ब्रह्मा एक उत्तम विमान पर बैठकर वहाँ शीघ्र आये॥१०॥
निवातकवचानां तु निवार्य रणकर्म तत्।
वृद्धः पितामहो वाक्यमुवाच विदितार्थवत्॥११॥
बूढ़े पितामह ने निवातकवचों के उस युद्ध-कर्म को रोक दिया और उनसे स्पष्ट शब्दों में यह बात कही –
नह्ययं रावणो युद्धे शक्यो जेतुं सुरासुरैः।
न भवन्तः क्षयं नेतुमपि सामरदानवैः॥१२॥
‘दानवो! समस्त देवता और असुर मिलकर भी युद्ध में इस रावण को परास्त नहीं कर सकते। इसी तरह समस्त देवता और दानव एक साथ आक्रमण करें तो भी वे तुम लोगों का संहार नहीं कर सकते॥ १२॥
राक्षसस्य सखित्वं च भवद्भिः सह रोचते।
अविभक्ताश्च सर्वार्थाः सुहृदां नात्र संशयः॥१३॥
‘(तुम दोनों में वरदानजनित शक्ति एक-सी है) इसलिये मुझे तो यह अच्छा लगता है कि तुमलोगों के साथ इस राक्षस की मैत्री हो जाय; क्योंकि सुहृदों के सभी अर्थ (भोग्य-पदार्थ) एक-दूसरे के लिये समान होते हैं—पृथक्-पृथक् बँटे नहीं रहते हैं। निःसंदेह ऐसी ही बात है’ ॥ १३॥
ततोऽग्निसाक्षिकं सख्यं कृतवांस्तत्र रावणः।
निवातकवचैः सार्धं प्रीतिमानभवत् तदा ॥१४॥
तब वहाँ रावण ने अग्नि को साक्षी बनाकर निवातकवचों के साथ मित्रता कर ली। इससे उसको बड़ी प्रसन्नता हुई॥१४॥
अर्चितस्तैर्यथान्यायं संवत्सरमथोषितः।
स्वपुरान्निर्विशेषं च प्रियं प्राप्तो दशाननः॥१५॥
फिर निवातकवचों से उचित आदर पाकर वह एक वर्ष तक वहीं टिका रहा। उस स्थानपर दशानन को अपने नगर के समान ही प्रिय भोग प्राप्त हुए॥ १५ ॥
तत्रोपधार्य मायानां शतमेकं समाप्तवान्।
सलिलेन्द्रपुरान्वेषी भ्रमति स्म रसातलम्॥१६॥
उसने निवातकवचों से सौ प्रकार की मायाओं का ज्ञान प्राप्त किया। उसके बाद वह वरुण के नगर का पता लगाता हुआ रसातल में सब ओर घूमने लगा॥ १६॥
ततोऽश्मनगरं नाम कालकेयैरधिष्ठितम्।
गत्वा तु कालकेयांश्च हत्वा तत्र बलोत्कटान्॥१७॥
शूर्पणख्याश्च भर्तारमसिना प्राच्छिनत् तदा।
श्यालं च बलवन्तं च विद्युज्जिह्व बलोत्कटम्॥१८॥
जिह्वया संलिहन्तं च राक्षसं समरे तदा।
घूमते-घूमते वह अश्म नामक नगर में जा पहुँचा, जहाँ कालकेय नामक दानव निवास करते थे। कालकेय बड़े बलवान् थे। रावण ने वहाँ उन सबका संहार करके शूर्पणखा के पति उत्कट बलशाली अपने बहनोई महाबली विद्युज्जिह्व को, जो उस राक्षस को समराङ्गण में चाट जाना चाहता था, तलवार से काट डाला॥ १७-१८ १/२॥
तं विजित्य मुहर्तेन जघ्ने दैत्यांश्चतःशतम्॥१९॥
ततः पाण्डुरमेघाभं कैलासमिव भास्वरम्।
वरुणस्यालयं दिव्यमपश्यद् राक्षसाधिपः॥२०॥
उसे परास्त करके रावण ने दो ही घड़ी में चार सौ दैत्यों को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात् उस राक्षसराज ने वरुण का दिव्य भवन देखा, जो श्वेत बादलों के समान उज्ज्वल और कैलास पर्वत के समान प्रकाशमान था॥ १९-२० ॥
क्षरन्तीं च पयस्तत्र सुरभिं गामवस्थिताम्।
यस्याः पयोऽभिनिष्पन्दात् क्षीरोदो नाम सागरः॥२१॥
वहीं सुरभि नाम की गौ भी खड़ी थी, जिसके थनों से दूध झर रहा था। कहते हैं, सुरभि के ही दूध की धारा से क्षीरसागर भरा हुआ है।॥ २१॥
ददर्श रावणस्तत्र गोवृषेन्द्रवरारणिम्।
यस्माच्चन्द्रः प्रभवति शीतरश्मिर्निशाकरः॥२२॥
रावण ने महादेवजी के वाहनभूत महावृषभ की जननी सुरभिदेवी का दर्शन किया, जिससे शीतल किरणों वाले निशाकर चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हुआ है (सुरभि से क्षीरसमुद्र और क्षीरसमुद्र से चन्द्रमा का आविर्भाव हुआ है) ॥ २२॥
यं समाश्रित्य जीवन्ति फेनपाः परमर्षयः।
अमृतं यत्र चोत्पन्नं स्वधा च स्वधभोजिनाम्॥२३॥
उन्हीं चन्द्रदेव के उत्पत्तिस्थान क्षीरसमुद्र का आश्रय लेकर फेन पीने वाले महर्षि जीवन धारण करते हैं। उस क्षीर-सागर से ही सुधा तथा स्वधाभोजी पितरों की स्वधा प्रकट हुई है॥२३॥
यां ब्रुवन्ति नरा लोके सुरभिं नाम नामतः।
प्रदक्षिणं तु तां कृत्वा रावणः परमाद्भुताम्।
प्रविवेश महाघोरं गुप्तं बहुविधैर्बलैः॥२४॥
लोक में जिनको सुरभि नाम से पुकारा जाता है, उन परम अद्भत गोमाता की परिक्रमा करके रावण ने नाना प्रकार की सेनाओं से सुरक्षित महाभयंकर वरुणालय में प्रवेश किया॥२४॥
ततो धाराशताकीर्णं शारदाभ्रनिभं तदा।
नित्यप्रहृष्टं ददृशे वरुणस्य गृहोत्तमम्॥२५॥
वहाँ प्रवेश करके उसने वरुण के उत्तम भवन को देखा, जो सदा ही आनन्दमय उत्सव से परिपूर्ण, अनेक जलधाराओं (फौवारों)-से व्याप्त तथा शरत्काल के बादलों के समान उज्ज्वल था॥ २५ ॥
ततो हत्वा बलाध्यक्षान् समरे तैश्च ताडितः।
अब्रवीच्च ततो योधान् राजा शीघ्रं निवेद्यताम्॥२६॥
तदनन्तर वरुण के सेनापतियों ने समरभूमि में रावण पर प्रहार किया। फिर रावणने भी उन सबको घायल करके वहाँ के योद्धाओं से कहा—’तुमलोग राजा वरुण से शीघ्र जाकर मेरी यह बात कहो—॥ २६॥
युद्धार्थी रावणः प्राप्तस्तस्य युद्धं प्रदीयताम्।
वद वा न भयं तेऽस्ति निर्जितोऽस्मीति साञ्जलिः॥२७॥
‘राजन् ! राक्षसराज रावण युद्ध के लिये आया है, आप चलकर उससे युद्ध कीजिये अथवा हाथ जोड़कर अपनी पराजय स्वीकार कीजिये। फिर आपको कोई भय नहीं रहेगा’ ॥ २७॥
एतस्मिन्नन्तरे क्रुद्धा वरुणस्य महात्मनः।
पुत्राः पौत्राश्च निष्क्रामन् गौश्च पुष्कर एव च॥२८॥
इसी बीच में सूचना पाकर महात्मा वरुण के पुत्र और पौत्र क्रोध से भरे हुए निकले। उनके साथ ‘गौ’ और ‘पुष्कर’ नामक सेनाध्यक्ष भी थे॥२८॥
ते तु तत्र गुणोपेता बलैः परिवृताः स्वकैः।
युक्त्वा रथान् कामगमानुद्यद्भास्करवर्चसः॥२९॥
वे सब-के-सब सर्वगुणसम्पन्न तथा उगते हुए सूर्य के तुल्य तेजस्वी थे। इच्छानुसार चलने वाले रथों पर आरूढ़ हो अपनी सेनाओं से घिरकर वे वहाँ युद्धस्थल में आये॥ २९॥
ततो युद्धं समभवद् दारुणं रोमहर्षणम्।
सलिलेन्द्रस्य पुत्राणां रावणस्य च धीमतः॥३०॥
फिर तो वरुण के पुत्रों और बुद्धिमान् रावण में बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था॥ ३०॥
अमात्यैश्च महावीर्यैर्दशग्रीवस्य रक्षसः।
वारुणं तद् बलं सर्वं क्षणेन विनिपातितम्॥३१॥
राक्षस दशग्रीव के महापराक्रमी मन्त्रियों ने एक ही क्षण में वरुण की सारी सेना को मार गिराया॥३१॥
समीक्ष्य स्वबलं संख्ये वरुणस्य सुतास्तदा।
अर्दिताः शरजालेन निवृत्ता रणकर्मणः॥ ३२॥
युद्ध में अपनी सेना की यह अवस्था देख वरुण के पुत्र उस समय बाण-समूहों से पीड़ित होने के कारण कुछ देर के लिये युद्ध-कर्म से हट गये॥ ३२॥
महीतलगतास्ते तु रावणं दृश्य पुष्पके।
आकाशमाशु विविशुः स्यन्दनैः शीघ्रगामिभिः॥
भूतलपर स्थित होकर उन्होंने जब रावण को पुष्पक विमान पर बैठा देखा, तब वे भी शीघ्रगामी रथों द्वारा तुरंत ही आकाश में जा पहुँचे॥३३॥
महदासीत् ततस्तेषां तुल्यं स्थानमवाप्य तत्।
आकाशयुद्धं तुमुलं देवदानवयोरिव ॥ ३४॥
अब बराबर का स्थान मिल जाने से रावण के साथ उनका भारी युद्ध छिड़ गया। उनका वह आकाशयुद्ध देव-दानव-संग्राम के समान भयंकर जान पड़ता था॥ ३४॥
ततस्ते रावणं युद्धे शरैः पावकसंनिभैः।
विमुखीकृत्य संहृष्टा विनेदुर्विविधान् रवान्॥३५॥
उन वरुण-पुत्रों ने अपने अग्नितुल्य तेजस्वी बाणों द्वारा युद्धस्थल में रावण को विमुख करके बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के स्वरों में महान् सिंहनाद किया॥ ३५॥
ततो महोदरः क्रुद्धो राजानं वीक्ष्य धर्षितम्।
त्यक्त्वा मृत्युभयं वीरो युद्धाकांक्षी व्यलोकयत्॥३६॥
राजा रावण को तिरस्कृत हुआ देख महोदर को बड़ा क्रोध हुआ। उसने मृत्यु का भय छोड़कर युद्धकी इच्छा से वरुण-पुत्रों की ओर देखा॥ ३६ ।।
तेन ते वारुणा युद्धे कामगाः पवनोपमाः।
महोदरेण गदया हयास्ते प्रययुः क्षितिम्॥३७॥
वरुण के घोड़े युद्ध में हवा से बातें करने वाले थे और स्वामी की इच्छा के अनुसार चलते थे। महोदर ने उनपर गदा से आघात किया। गदा की चोट खाकर वे घोड़े धराशायी हो गये॥३७॥
तेषां वरुणसूनूनां हत्वा योधान् हयांश्च तान्।
मुमोचाशु महानादं विरथान् प्रेक्ष्य तान् स्थितान्॥३८॥
वरुण-पुत्रों के योद्धाओं और घोड़ों को मारकर उन्हें रथ हीन हुआ देख महोदर तुरंत ही जोर-जोर से गर्जना करने लगा॥ ३८॥
ते तु तेषां रथाः साश्वाः सह सारथिभिवरैः।
महोदरेण निहताः पतिताः पृथिवीतले॥३९॥
महोदर की गदा के आघात से वरुण-पुत्रों के वे रथ घोड़ों और श्रेष्ठ सारथियोंसहित चूर-चूर हो पृथ्वी पर गिर पड़े॥ ३९॥
ते तु त्यक्त्वा रथान् पुत्रा वरुणस्य महात्मनः।
आकाशे विष्ठिताः शूराः स्वप्रभावान्न विव्यथुः॥४०॥
महात्मा वरुण के वे शूरवीर पुत्र उन रथों को छोड़कर अपने ही प्रभाव से आकाश में खड़े हो गये। उन्हें तनिक भी व्यथा नहीं हुई॥ ४०॥
धनूंषि कृत्वा सज्जानि विनिर्भिद्य महोदरम्।
रावणं समरे क्रुद्धाः सहिताः समवारयन्॥४१॥
उन्होंने धनुषों पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और महोदर को क्षत-विक्षत करके एक साथ कुपित हो रावण को घेर लिया॥४१॥
सायकैश्चापविभ्रष्टैर्वज्रकल्पैः सुदारुणैः।
दारयन्ति स्म संक्रुद्धा मेघा इव महागिरिम्॥४२॥
फिर वे अत्यन्त कुपित हो किसी महान् पर्वत पर जल की धारा गिराने वाले मेघों के समान धनुष से छूटे हुए वज्र-तुल्य भयंकर सायकों द्वारा रावण को विदीर्ण करने लगे॥४२॥
ततः क्रुद्धो दशग्रीवः कालाग्निरिव मूर्च्छितः।
शरवर्षं महाघोरं तेषां मर्मस्वपातयत्॥४३॥
यह देख दशग्रीव प्रलयकाल की अग्नि के समान रोष से प्रज्वलित हो उठा और उन वरुण-पुत्रों के मर्मस्थानों पर महाघोर बाणों की वर्षा करने लगा। ४३॥
मुसलानि विचित्राणि ततो भल्लशतानि च।
पट्टिशांश्चैव शक्तीश्च शतघ्नीमहतीरपि॥४४॥
पातयामास दुर्धर्षस्तेषामुपरि विष्ठितः।
पुष्पकविमान पर बैठे हुए उस दुर्धर्ष वीर ने उन सबके ऊपर विचित्र मूसलों, सैकड़ों भल्लों, पट्टिशों, शक्तियों और बड़ी-बड़ी शतघ्नियों का प्रहार किया। ४४ १/२॥
अपविद्धास्तु ते वीरा विनिष्पेतुः पदातयः ॥ ४५ ॥
ततस्तेनैव सहसा सीदन्ति स्म पदातिनः।
महापङ्कमिवासाद्य कुञ्जराः षष्टिहायनाः॥४६॥
उन अस्त्र-शस्त्रों से घायल हो वे पैदल वीर पुनः युद्ध के लिये आगे बढ़े; परंतु पैदल होने के कारण रावण की उस अस्त्र-वर्षा से ही सहसा संकट में पड़कर बड़ी भारी कीचड़ में फँसे हुए साठ वर्ष के हाथी के समान कष्ट पाने लगे॥ ४५-४६॥
सीदमानान् सुतान् दृष्ट्वा विह्वलान् स महाबलः।
ननाद रावणो हर्षान्महानम्बुधरो यथा॥४७॥
वरुण के पुत्रों को दुःखी एवं व्याकुल देख महाबली रावण महान् मेघ के समान बड़े हर्ष से गर्जना करने लगा॥४७॥
ततो रक्षो महानादान् मुक्त्वा हन्ति स्म वारुणान्।
नानाप्रहरणोपेतैर्धारापातैरिवाम्बुदः॥४८॥
जोर-जोर से सिंहनाद करके वह निशाचर पुनःनाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों द्वारा वरुण-पुत्रों को मारने लगा, मानो बादल अपनी धारावाहिक वृष्टि से वृक्षों को पीड़ित कर रहा हो॥ ४८॥
ततस्ते विमुखाः सर्वे पतिता धरणीतले।
रणात् स्वपुरुषैः शीघ्रं गृहाण्येव प्रवेशिताः॥४९॥
फिर तो वे सभी वरुण-पुत्र युद्ध से विमुख हो पृथ्वी पर गिर पड़े। तत्पश्चात् उनके सेवकों ने उन्हें रणभूमि से हटाकर शीघ्र ही घरों में पहुँचा दिया॥ ४९॥
तानब्रवीत् ततो रक्षो वरुणाय निवेद्यताम्।
रावणं त्वब्रवीन्मन्त्री प्रहासो नाम वारुणः॥५०॥
तदनन्तर उस राक्षस ने वरुण के सेवकों से कहा —’अब वरुण से जाकर कहो कि वे स्वयं युद्ध के लिये आवें’। तब वरुण के मन्त्री प्रभास ने रावण से कहा— ॥५०॥
गतः खलु महाराजो ब्रह्मलोकं जलेश्वरः।
गान्धर्वं वरुणः श्रोतुं यं त्वमाह्वयसे युधि॥५१॥
‘राक्षसराज! जिन्हें तुम युद्ध के लिये बुला रहे हो, वे जल के स्वामी महाराज वरुण संगीत सुनने के लिये ब्रह्मलोक में गये हुए हैं॥५१॥
तत् किं तव यथा वीर परिश्रम्य गते नृपे।
ये तु संनिहिता वीराः कुमारास्ते पराजिताः॥५२॥
‘वीर! राजा वरुण के चले जाने पर यहाँ युद्ध के लिये व्यर्थ परिश्रम करने से तुम्हें क्या लाभ? उनके जो वीर पुत्र यहाँ मौजूद थे, वे तो तुमसे परास्त हो ही गये।
राक्षसेन्द्रस्तु तच्छ्रुत्वा नाम विश्राव्य चात्मनः।
हर्षान्नादं विमुञ्चन् वै निष्क्रान्तो वरुणालयात्॥५३॥
मन्त्री की यह बात सुनकर राक्षसराज रावण वहाँ अपने नाम की घोषणा करके बड़े हर्ष से सिंहनाद करता हुआ वरुणालय से बाहर निकल गया॥ ५३॥
आगतस्तु पथा येन तेनैव विनिवृत्य सः।
लङ्कामभिमुखो रक्षो नभस्तलगतो ययौ॥५४॥
वह जिस मार्ग से आया था, उसी से लौटकर आकाशमार्ग से लङ्का की ओर चल दिया॥५४॥
* * कुछ प्रतियों में तेईसवें सर्ग के बाद पाँच प्रक्षिप्त सर्ग उपलब्ध होते हैं, जिनमें रावण की दिग्विजय-यात्रा का विस्तारपूर्वक वर्णन है। अनावश्यक विस्तार के भय से यहाँ उनको नहीं लिया गया है।
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे त्रयोविंशः सर्गः ॥२३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२३॥