वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 24 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 24
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
चतुर्विंशः सर्गः (सर्ग 24)
रावण द्वारा अपहृत हुई देवता आदि की कन्याओं और स्त्रियों का विलाप एवं शाप, रावण का रोती हुई शूर्पणखा को आश्वासन देना और उसे खर के साथ दण्डकारण्य में भेजना
निवर्तमानः संहृष्टो रावणः स दुरात्मवान्।
जढे पथि नरेन्द्रर्षिदेवदानवकन्यकाः॥१॥
लौटते समय दुरात्मा रावण बड़े हर्ष में भरा था। उसने मार्ग में अनेकानेक नरेशों, ऋषियों, देवताओं और दानवों की कन्याओं का अपहरण किया॥१॥
दर्शनीयां हि यां रक्षः कन्यां स्त्री वाथ पश्यति।
हत्वा बन्धुजनं तस्या विमाने तां रुरोध सः॥२॥
वह राक्षस जिस कन्या अथवा स्त्री को दर्शनीय रूप-सौन्दर्य से युक्त देखता, उसके रक्षक बन्धुजनों का वध करके उसे विमान पर बिठाकर रोक लेता था। २॥
एवं पन्नगकन्याश्च राक्षसासुरमानुषीः।
यक्षदानवकन्याश्च विमाने सोऽध्यरोपयत्॥३॥
इस प्रकार उसने नागों, राक्षसों, असुरों, मनुष्यों, यक्षों और दानवों की भी बहुत-सी कन्याओं को हरकर विमान पर चढ़ा लिया॥३॥
ता हि सर्वाः समं दुःखान्मुमुचुर्बाष्पजं जलम्।
तुल्यमग्नयर्चिषां तत्र शोकाग्निभयसम्भवम्॥४॥
उन सबने एक साथ ही दुःख के कारण नेत्रों से आँसू बहाना आरम्भ किया। शोकाग्नि और भय से प्रकट होने वाले उनके आँसुओं की एक-एक बूंद वहाँ आग की चिनगारी-सी जान पड़ती थी॥ ४॥
ताभिः सर्वानवद्याभिर्नदीभिरिव सागरः।
आपूरितं विमानं तद् भयशोकाशिवाश्रुभिः॥५॥
जैसे नदियाँ सागर को भरती हैं, उसी प्रकार उन समस्त सुन्दरियों ने भय और शोक से उत्पन्न हुए अमङ्गलजनक अश्रुओं से उस विमान को भर दिया।
नागगन्धर्वकन्याश्च महर्षितनयाश्च याः।
दैत्यदानवकन्याश्च विमाने शतशोऽरुदन्॥६॥
नागों, गन्धर्वो, महर्षियों, दैत्यों और दानवों की सैकड़ों कन्याएँ उस विमान पर रो रही थीं॥६॥
दीर्घकेश्यः सुचाङ्ग्यः पूर्णचन्द्रनिभाननाः।
पीनस्तनतटा मध्ये वज्रवेदिसमप्रभाः॥७॥
रथकूबरसंकाशैः श्रोणिदेशैर्मनोहराः।।
स्त्रियः सुराङ्गनाप्रख्या निष्टप्तकनकप्रभाः॥८॥
उनके केश बड़े-बड़े थे। सभी अङ्ग सुन्दर एवं मनोहर थे। उनके मुख की कान्ति पूर्ण चन्द्रमा की छबि को लज्जित करती थी। उरोजों के तटप्रान्त उभरे हुए थे। शरीर का मध्यभाग हीरे के चबूतरे के समान – प्रकाशित होता था। नितम्ब-देश रथ के कूबर-जैसे जान पड़ते थे और उनके कारण उनकी मनोहरता बढ़ रही थी। वे सभी स्त्रियाँ देवाङ्गनाओं के समान कान्तिमती और तपाये हुए सुवर्ण के समान सुनहरी आभा से उद्भासित होती थीं। ७-८॥
शोकदुःखभयत्रस्ता विह्वलाश्च सुमध्यमाः।
तासां निःश्वासवातेन सर्वतः सम्प्रदीपितम्॥९॥
अग्निहोत्रमिवाभाति संनिरुद्धाग्नि पुष्पकम्।
सुन्दर मध्यभाग वाली वे सभी सुन्दरियाँ शोक, दुःख और भय से त्रस्त एवं विह्वल थीं। उनकी गरम-गरम निःश्वासवायु से वह पुष्पकविमान सब ओर से प्रज्वलित-सा हो रहा था और जिसके भीतर अग्नि की स्थापना की गयी हो, उस अग्निहोत्रगृह के समान जान पड़ता था॥ ९ १/२ ॥
दशग्रीववशं प्राप्तास्तास्तु शोकाकुलाः स्त्रियः॥१०॥
दीनवक्त्रेक्षणाः श्यामा मृग्यः सिंहवशा इव।
दशग्रीव के वश में पड़ी हुई वे शोकाकुल अबलाएँ सिंह के पंजे में पड़ी हुई हरिणियों के समान दुःखी हो रही थीं। उनके मुख और नेत्रों में दीनता छा रही थी और उन सबकी अवस्था सोलह वर्ष के लगभग थी॥ १० १/२॥
काचिच्चिन्तयती तत्र किं न मां भक्षयिष्यति॥११॥
काचिद् दध्यौ सुदुःखार्ता अपि मां मारयेदयम्।
कोई सोचती थी, क्या यह राक्षस मुझे खा जायगा? कोई अत्यन्त दुःख से आर्त हो इस चिन्ता में पड़ी थी कि क्या यह निशाचर मुझे मार डालेगा?॥११ १/२॥
इति मातृः पितॄन् स्मृत्वा भर्तृन् भ्रातृस्तथैव च॥१२॥
दुःखशोकसमाविष्टा विलेपुः सहिताः स्त्रियः।
वे स्त्रियाँ माता, पिता, भाई तथा पति की याद करके दुःखशोक में डूब जातीं और एक साथ करुणाजनक विलाप करने लगती थीं। १२ १/२ ॥
कथं नु खलु मे पुत्रो भविष्यति मया विना॥१३॥
कथं माता कथं भ्राता निमग्नाः शोकसागरे।
‘हाय! मेरे बिना मेरा नन्हा-सा बेटा कैसे रहेगा। मेरी माँ की क्या दशा होगी और मेरे भाई कितने चिन्तित होंगे’ ऐसा कहकर वे शोक के सागर में डूब जाती थीं॥
हा कथं नु करिष्यामि भर्तुस्तस्मादहं विना॥१४॥
मृत्यो प्रसादयामि त्वां नय मां दुःखभागिनीम्।
किं नु तद् दुष्कृतं कर्म पुरा देहान्तरे कृतम्॥१५॥
एवं स्म दुःखिताः सर्वाः पतिताः शोकसागरे।
न खल्विदानीं पश्यामो दुःखस्यास्यान्तमात्मनः॥१६॥
‘हाय! अपने उन पतिदेव से बिछुड़कर मैं क्या करूँगी? (कैसे रहूँगी)। हे मृत्युदेव! मेरी प्रार्थना है कि तुम प्रसन्न हो जाओ और मुझ दुखिया को इस लोक से उठा ले चलो। हाय! पूर्व-जन्म में दूसरे शरीर द्वारा हमने कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे हम सब-की-सब दुःख से पीड़ित हो शोक के समुद्र में गिर पड़ी हैं। निश्चय ही इस समय हमें अपने इस दुःख का अन्त होता नहीं दिखायी देता ॥ १४–१६ ॥
अहो धिमानुषं लोकं नास्ति खल्वधमः परः।
यद् दुर्बला बलवता भर्तारो रावणेन नः ॥१७॥
सूर्येणोदयता काले नक्षत्राणीव नाशिताः।
‘अहो! इस मनुष्यलोक को धिक्कार है! इससे बढ़कर अधम दूसरा कोई लोक नहीं होगा; क्योंकि यहाँ इस बलवान् रावण ने हमारे दुर्बल पतियों को उसी तरह नष्ट कर दिया, जैसे सूर्यदेव उदय लेने के साथ ही नक्षत्रों को अदृश्य कर देते हैं। १७ १/२ ॥
अहो सुबलवद् रक्षो वधोपायेषु रज्यते॥१८॥
अहो दुर्वृत्तमास्थाय नात्मानं वै जुगुप्सते।
‘अहो! यह अत्यन्त बलवान् राक्षस वध के उपायों में ही आसक्त रहता है। अहो! यह पापी दुराचार के पथ पर चलकर भी अपने-आपको धिक्कारता नहीं है ॥ १८ १/२॥
सर्वथा सदृशस्तावद् विक्रमोऽस्य दुरात्मनः॥१९॥
इदं त्वसदृशं कर्म परदाराभिमर्शनम्।
‘इस दुरात्मा का पराक्रम इसकी तपस्या के सर्वथा अनुरूप है, परंतु यह परायी स्त्रियों के साथ जो बलात्कार कर रहा है, यह दुष्कर्म इसके योग्य कदापि नहीं है।
यस्मादेष परक्यासु रमते राक्षसाधमः॥२०॥
तस्माद वै स्त्रीकृतेनैव वधं प्राप्स्यति दर्मतिः।
‘यह नीच निशाचर परायी स्त्रियों के साथ रमण करता है, इसलिये स्त्री के कारण ही इस दुर्बुद्धि राक्षस का वध होगा’ ॥ २० १/२॥
सतीभिर्वरनारीभिरेवं वाक्येऽभ्युदीरिते॥२१॥
नेदुर्दुन्दुभयः खस्थाः पुष्पवृष्टिः पपात च।।
उन श्रेष्ठ सती-साध्वी नारियों ने जब ऐसी बातें कह दी, उस समय आकाश में देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और वहाँ फलों की वर्षा होने लगी। २१ १/२॥
शप्तः स्त्रीभिः स तु समं हतौजा इव निष्प्रभः॥२२॥
पतिव्रताभिः साध्वीभिर्बभूव विमना इव।
पतिव्रता साध्वी स्त्रियों के इस तरह शाप देने पर रावण की शक्ति घट गयी, वह निस्तेज-सा हो गया और उसके मन में उद्वेग-सा होने लगा॥ २२ १/२॥
एवं विलपितं तासां शृण्वन् राक्षसपुङ्गवः॥२३॥
प्रविवेश पुरीं लङ्कां पूज्यमानो निशाचरैः।
इस प्रकार उनका विलाप सुनते हुए राक्षसराज रावण ने निशाचरों द्वारा सत्कृत हो लङ्कापुरी में प्रवेश किया॥ २३ १/२॥
एतस्मिन्नन्तरे घोरा राक्षसी कामरूपिणी ॥ २४॥
सहसा पतिता भूमौ भगिनी रावणस्य सा।
इसी समय इच्छानुसार रूप धारण करने वाली भयंकर राक्षसी शूर्पणखा, जो रावण की बहिन थी, सहसा सामने आकर पृथ्वी पर गिर पड़ी॥ २४ १/२।।
तां स्वसारं समुत्थाप्य रावणः परिसान्त्वयन्॥२५॥
अब्रवीत् किमिदं भद्रे वक्तुकामासि मां द्रुतम्।
रावण ने अपनी उस बहिन को उठाकर सान्त्वना दी और पूछा—’भद्रे! तुम अभी मुझसे शीघ्रतापूर्वक कौन-सी बात कहना चाहती थी?’ ॥ २५ १/२ ॥
सा बाष्पपरिरुद्धाक्षी रक्ताक्षी वाक्यमब्रवीत्॥२६॥
कृतास्मि विधवा राजंस्त्वया बलवता बलात्।
शूर्पणखा के नेत्रों में आँसू भरे थे, उसकी आँखें रोते रोते लाल हो गयी थीं। वह बोली-‘राजन्! तुम बलवान् हो, इसीलिये न तुमने मुझे बलपूर्वक विधवा बना दिया है ? ।। २६ १/२॥
एते राजंस्त्वया वीर्याद दैत्या विनिहता रणे॥२७॥
कालकेया इति ख्याताः सहस्राणि चतुर्दश।
‘राक्षसराज! तुमने रणभूमि में अपने बल-पराक्रम से चौदह हजार कालकेय नामक दैत्यों का वध कर दिया है॥ २७ १/२॥
प्राणेभ्योऽपि गरीयान् मे तत्र भर्ता महाबलः॥२८॥
सोऽपि त्वया हतस्तात रिपुणा भ्रातृगन्धिना।
‘तात! उन्हीं में मेरे लिये प्राणों से भी बढ़कर आदरणीय मेरे महाबली पति भी थे। तुमने उन्हें भी मार डाला। तुम नाममात्र के भाई हो। वास्तव में मेरे शत्रु निकले!॥ २८ १/२॥
त्वयास्मि निहता राजन् स्वयमेव हि बन्धुना॥२९॥
राजन् वैधव्यशब्दं च भोक्ष्यामि त्वत्कृतं ह्यहम्।
‘राजन् ! सगे भाई होकर भी तुमने स्वयं ही अपने हाथों मेरा (मेरे पतिदेव का) वध कर डाला। अब तुम्हारे कारण मैं ‘वैधव्य’ शब्द का उपभोग करूँगी -विधवा कहलाऊँगी॥ २९ १/२॥
ननु नाम त्वया रक्ष्यो जामाता समरेष्वपि॥३०॥
स त्वया निहतो युद्ध स्वयमेव न लज्जसे।
‘भैया! तुम मेरे पिता के तुल्य हो मेरे पति तुम्हारे दामाद थे, क्या तुम्हें युद्ध में अपने दामाद या बहनोई की भी रक्षा नहीं करनी चाहिये थी? तुमने स्वयं ही युद्ध में अपने दामाद का वध किया है; क्या अब भी तुम्हें लज्जा नहीं आती?’ ॥ ३० १/२ ॥
एवमुक्तो दशग्रीवो भगिन्या क्रोशमानया॥३१॥
अब्रवीत् सान्त्वयित्वा तां सामपूर्वमिदं वचः।
रोती और कोसती हुई बहिन के ऐसा कहने पर दशग्रीव ने उसे सान्त्वना देकर समझाते हुए मधुर वाणी में कहा- ॥३१ १/२॥
अलं वत्से रुदित्वा ते न भेतव्यं च सर्वशः॥३२॥
दानमानप्रसादैस्त्वां तोषयिष्यामि यत्नतः।
‘बेटी! अब रोना व्यर्थ है, तुम्हें किसी तरह भयभीत नहीं होना चाहिये। मैं दान, मान और अनुग्रह द्वारा यत्नपूर्वक तुम्हें संतुष्ट करूँगा॥ ३२ १/२॥
युद्धप्रमत्तो व्याक्षिप्तो जयाकांक्षी क्षिपन् शरान्॥
नाहमज्ञासिषं युध्यन् स्वान् परान् वापि संयुगे।
जामातरं न जाने स्म प्रहरन् युद्धदुर्मदः॥ ३४॥
‘मैं युद्ध में उन्मत्त हो गया था, मेरा चित्त ठिकाने नहीं था, मुझे केवल विजय पाने की धुन थी, इसलिये लगातार बाण चलाता रहा। समराङ्गण में जूझते समय मुझे अपने-पराये का ज्ञान नहीं रह जाता था। मैं रणोन्मत्त होकर प्रहार कर रहा था, इसलिये ‘दामाद’ को पहचान न सका॥ ३३-३४॥
तेनासौ निहतः संख्ये मया भर्ता तव स्वसः।
अस्मिन् काले तु यत् प्राप्तं तत् करिष्यामि ते हितम्॥३५॥
‘बहिन! यही कारण है जिससे युद्ध में तुम्हारे पति मेरे हाथ से मारे गये। अब इस समय जो कर्तव्य प्राप्त है, उसके अनुसार मैं सदा तुम्हारे हित का ही साधन करूँगा॥ ३५॥
भ्रातुरैश्वर्ययुक्तस्य खरस्य वस पार्श्वतः।
चतुर्दशानां भ्राता ते सहस्राणां भविष्यति॥३६॥
प्रभुः प्रयाणे दाने च राक्षसानां महाबलः।
‘तुम ऐश्वर्यशाली भाई खर के पास चलकर रहो। तुम्हारा भाई महाबली खर चौदह हजार राक्षसों का अधिपति होगा। वह उन सबको जहाँ चाहेगा भेजेगा और उन सबको अन्न, पान एवं वस्त्र देने में समर्थ होगा॥ ३६ १/२॥
तत्र मातृष्वसेयस्ते भ्रातायं वै खरः प्रभुः॥ ३७॥
भविष्यति तवादेशं सदा कुर्वन् निशाचरः।
‘यह तुम्हारा मौसेरा भाई निशाचर खर सब कुछ करने में समर्थ है और आदेश का सदा पालन करता रहेगा॥ ३७ १/२॥
शीघ्रं गच्छत्वयं वीरो दण्डकान् परिरक्षितुम्॥३८॥
दूषणोऽस्य बलाध्यक्षो भविष्यति महाबलः।
‘यह वीर (मेरी आज्ञा से) शीघ्र ही दण्डकारण्य की रक्षा में जाने वाला है; महाबली दूषण इसका सेनापति होगा॥ ३८ १/२॥
तत्र ते वचनं शूरः करिष्यति सदा खरः॥ ३९॥
रक्षसां कामरूपाणां प्रभुरेष भविष्यति।
“वहाँ शूरवीर खर सदा तुम्हारी आज्ञाका पालन करेगा और इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षसों का स्वामी होगा’ ॥ ३९॥
एवमुक्त्वा दशग्रीवः सैन्यमस्यादिदेश ह॥४०॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां वीर्यशालिनाम्।
स तैः परिवृतः सः राक्षसै?रदर्शनैः॥४१॥
आगच्छत खरः शीघ्रं दण्डकानकुतोभयः।
स तत्र कारयामास राज्यं निहतकण्टकम्।
सा च शूर्पणखा तत्र न्यवसद् दण्डके वने।४२॥
ऐसा कहकर दशग्रीव ने चौदह हजार पराक्रमशाली राक्षसों की सेना को खर के साथ जाने की आज्ञा दी।उन भयङ्कर राक्षसों से घिरा हुआ खर शीघ्र ही दण्डकारण्य में आया और निर्भय होकर वहाँ का अकण्टक राज्य भोगने लगा। उसके साथ शूर्पणखा भी वहाँ दण्डक वन में रहने लगी॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे चतुर्विंशः सर्गः ॥२४॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में चौबीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥२४॥