वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 26 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 26
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
षड्विंशः सर्गः (सर्ग 26)
रावण का रम्भा पर बलात्कार करना और नलकूबर का रावण को भयंकर शाप देना
स तु तत्र दशग्रीवः सह सैन्येन वीर्यवान्।
अस्तं प्राप्ते दिनकरे निवासं समरोचयत्॥१॥
जब सूर्य अस्ताचल को चले गये, तब पराक्रमी दशग्रीव ने अपनी सेना के साथ कैलास पर ही रात में ठहर जाना ठीक समझा ॥१॥
उदिते विमले चन्द्रे तुल्यपर्वतवर्चसि।
प्रसुप्तं सुमहत् सैन्यं नानाप्रहरणायुधम्॥२॥
(उसने वहीं छावनी डाल दी) फिर, कैलास के ही समान श्वेत कान्तिवाले निर्मल चन्द्रदेव का उदय हुआ और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित निशाचरों की वह विशाल सेना गाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयी॥२॥
रावणस्तु महावीर्यो निषण्णः शैलमूर्धनि।
स ददर्श गुणांस्तत्र चन्द्रपादपशोभितान्॥३॥
परंतु महापराक्रमी रावण उस पर्वत के शिखर पर चुपचाप बैठकर चन्द्रमा की चाँदनी से सुशोभित होने वाले उस पर्वत के विभिन्न स्थानों की (जो सम्पूर्ण कामभोग के उपयुक्त थे) नैसर्गिक छटा निहारने लगा॥३॥
कर्णिकारवनैर्दीप्तैः कदम्बबकुलैस्तथा।
पद्मिनीभिश्च फुल्लाभिर्मन्दाकिन्या जलैरपि।
चम्पकाशोकपूनागमन्दारतरुभिस्तथा।
चूतपाटललोधैश्च प्रियङ्ग्वर्जुनकेतकैः॥५॥
तगरैर्नारिकेलैश्च प्रियालपनसैस्तथा।
एतैरन्यैश्च तरुभिरुद्भासितवनान्तरे॥६॥
कहीं कनेर के दीप्तिमान् कानन शोभा पाते थे, कहीं कदम्ब और बकुल (मौलसिरी) वृक्षों के समूह अपनी रमणीयता बिखेर रहे थे, कहीं मन्दाकिनी के जल से भरी हुई और प्रफुल्ल कमलों से अलंकृत पुष्करिणियाँ शोभा दे रही थीं, कहीं चम्पा, अशोक, पुंनाग (नागकेसर), मन्दार, आम, पाड़र, लोध, प्रियङ्ग, अर्जुन, केतक, तगर, नारिकेल, प्रियाल और पनस आदि वृक्ष अपने पुष्प आदि की शोभा से उस पर्वत-शिखर के वन्यप्रान्त को उद्भासित कर रहे थे॥ ४
किन्नरा मदनेनार्ता रक्ता मधुरकण्ठिनः।
समं सम्प्रजगुर्यत्र मनस्तुष्टिविवर्धनम्॥७॥
मधुर कण्ठवाले कामार्त किन्नर अपनी कामिनियों के साथ वहाँ रागयुक्त गीत गा रहे थे, जो कानों में पड़कर मन का आनन्द-वर्धन करते थे॥७॥
विद्याधरा मदक्षीबा मदरक्तान्तलोचनाः।।
योषिद्भिः सह संक्रान्ताश्चिक्रीडुर्जहृषुश्च वै॥८॥
जिनके नेत्र-प्रान्त मद से कुछ लाल हो गये थे, वे मदमत्त विद्याधर युवतियों के साथ क्रीडा करते और हर्षमग्न होते थे॥८॥
घण्टानामिव संनादः शुश्रुवे मधुरस्वनः।
अप्सरोगणसङ्घानां गायतां धनदालये॥९॥
वहाँ से कुबेर के भवन में गाती हुई अप्सराओं के गीत की मधुर ध्वनि घण्टानाद के समान सुनायी पड़ती थी॥९॥
पुष्पवर्षाणि मुञ्चन्तो नगाः पवनताडिताः।
शैलं तं वासयन्तीव मधुमाधवगन्धिनः ॥१०॥
वसन्त-ऋतु के सभी पुष्पों की गन्ध से युक्त वृक्ष हवा के थपेड़े खाकर फूलों की वर्षा करते हुए उस समूचे पर्वत को सुवासित-सा कर रहे थे॥ १० ॥
मधुपुष्परजःपृक्तं गन्धमादाय पुष्कलम्।
प्रववौ वर्धयन् कामं रावणस्य सुखोऽनिलः॥११॥
विविध कुसुमों के मधुर मकरन्द तथा पराग से मिश्रित प्रचुर सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द बहती हुई सुखद वायु रावण की काम-वासना को बढ़ा रही थी॥ ११॥
गेयात् पुष्पसमृद्ध्या च शैत्याद् वायोर्गिरेर्गुणात्।
प्रवृत्तायां रजन्यां च चन्द्रस्योदयनेन च ॥१२॥
रावणः स महावीर्यः कामस्य वशमागतः।
विनिःश्वस्य विनिःश्वस्य शशिनं समवैक्षत॥१३॥
सङ्गीत की मीठी तान, भाँति-भाँति के पुष्पों की समृद्धि, शीतल वायु का स्पर्श, पर्वत के (रमणीयता आदि) आकर्षक गुण, रजनी की मधुवेला और चन्द्रमा का उदय-उद्दीपन के इन सभी उपकरणों के कारण वह महापराक्रमी रावण काम के अधीन हो गया और बारम्बार लंबी साँस खींचकर चन्द्रमा की ओर देखने लगा। १२-१३॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र दिव्याभरणभूषिता।
सर्वाप्सरोवरा रम्भा पूर्णचन्द्रनिभानना॥१४॥
इसी बीच में समस्त अप्सराओं में श्रेष्ठ सुन्दरी, पूर्णचन्द्रमुखी रम्भा दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हो उस मार्ग से आ निकली॥ १४॥
दिव्यचन्दनलिप्ताङ्गी मन्दारकृतमूर्धजा।
दिव्योत्सवकृतारम्भा दिव्यपुष्पविभूषिता॥१५॥
उसके अङ्गों में दिव्य चन्दन का अनुलेप लगा था और केशपाश में पारिजात के पुष्प गुंथे हुए थे। दिव्य पुष्पों से अपना शृङ्गार करके वह प्रिय-समागमरूप दिव्य उत्सव के लिये जा रही थी॥१५॥
चक्षुर्मनोहरं पीनं मेखलादामभूषितम्।
समुद्रहन्ती जघनं रतिप्राभृतमुत्तमम्॥१६॥
मनोहर नेत्र तथा काञ्ची की लड़ियों से विभूषित पीन जघन-स्थल को वह रति के उत्तम उपहार के रूप में धारण किये हुए थी॥ १६॥
कृतैर्विशेषकैराः षडतुकुसुमोद्भवैः।
बभावन्यतमेव श्रीः कान्तिश्रीद्युतिकीर्तिभिः॥१७॥
उसके कपोल आदि पर हरिचन्दन से चित्र-रचना की गयी थी। वह छहों ऋतुओं में होने वाले नूतन पुष्पों के आर्द्र हारों से विभूषित थी और अपनी अलौकिक कान्ति, शोभा, द्युति एवं कीर्ति से युक्त हो उस समय दूसरी लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी॥१७॥
नीलं सतोयमेघाभं वस्त्रं समवगुण्ठिता।
यस्या वक्त्रं शशिनिभं भ्रवौ चापनिभे शुभे॥१८॥
उसका मुख चन्द्रमा के समान मनोहर था और दोनों सुन्दर भौंहें कमान-सी दिखायी देती थीं। वह सजल जलधर के समान नील रंग की साड़ी से अपने अङ्गों को ढके हुए थी॥१८॥
ऊरू करिकराकारौ करौ पल्लवकोमलौ।
सैन्यमध्येन गच्छन्ती रावणेनोपलक्षिता॥१९॥
उसकी जाँघों का चढ़ाव-उतार हाथी की सूंड के समान था। दोनों हाथ ऐसे कोमल थे, मानो (देहरूपी रसाल की डाल के) नये-नये पल्लव हों। वह सेना के बीच से होकर जा रही थी, अतः रावण ने उसे देख लिया॥१९॥
तां समुत्थाय गच्छन्तीं कामबाणवशं गतः।
करे गृहीत्वा लज्जन्तीं स्मयमानोऽभ्यभाषत।२०॥
देखते ही वह कामदेव के बाणों का शिकार हो गया और खड़ा होकर उसने अन्यत्र जाती हुई रम्भा का हाथ पकड़ लिया। बेचारी अबला लाज से गड़ गयी; परंतु वह निशाचर मुसकराता हुआ उससे बोला-॥ २०॥
क्व गच्छसि वरारोहे कां सिद्धिं भजसे स्वयम्।
कस्याभ्युदयकालोऽयं यस्त्वां समुपभोक्ष्यते॥२१॥
‘वरारोहे ! कहाँ जा रही हो? किसकी इच्छा पूर्ण करने के लिये स्वयं चल पड़ी हो? किसके भाग्योदय का समय आया है, जो तुम्हारा उपभोग करेगा? ॥ २१॥
त्वदाननरसस्याद्य पद्मोत्पलसुगन्धिनः।
सुधामृतरसस्येव कोऽद्य तृप्तिं गमिष्यति ॥२२॥
‘कमल और उत्पल की सुगन्ध धारण करने वाले तुम्हारे इस मनोहर मुखारविन्द का रस अमृत का भी अमृत है। आज इस अमृत-रस का आस्वादन करके कौन तृप्त होगा? ॥ २२॥
स्वर्णकुम्भनिभौ पीनौ शुभौ भीरु निरन्तरौ।
कस्योरःस्थलसंस्पर्श दास्यतस्ते कुचाविमौ॥२३॥
‘भीरु! परस्पर सटे हुए तुम्हारे ये सुवर्णमय कलशों के सदृश सुन्दर पीन उरोज किसके वक्षःस्थलों को अपना स्पर्श प्रदान करेंगे? ॥ २३॥
सुवर्णचक्रप्रतिमं स्वर्णदामचितं पृथु।
अध्यारोक्ष्यति कस्तेऽद्य जघनं स्वर्गरूपिणम्॥२४॥
‘सोने की लड़ियों से विभूषित तथा सुवर्णमय चक्र के समान विपुल विस्तार से युक्त तुम्हारे पीन जघनस्थल पर जो मूर्तिमान् स्वर्ग-सा जान पड़ता है, आज कौन आरोहण करेगा? ॥ २४ ॥
मद्विशिष्टः पुमान् कोऽद्य शक्रो विष्णुरथाश्विनौ।
मामतीत्य हि यच्च त्वं यासि भीरु न शोभनम्॥२५॥
‘इन्द्र, उपेन्द्र अथवा अश्विनीकुमार ही क्यों न हों, इस समय कौन पुरुष मुझसे बढ़कर है? भीरु! तुममुझे छोड़कर अन्यत्र जा रही हो, यह अच्छा नहीं है।२५॥
विश्रम त्वं पृथुश्रोणि शिलातलमिदं शुभम्।
त्रैलोक्ये यः प्रभुश्चैव मदन्यो नैव विद्यते॥२६॥
‘स्थूल नितम्बवाली सुन्दरी! यह सुन्दर शिला है, इसपर बैठकर विश्राम करो। इस त्रिभुवन का जो स्वामी है, वह मुझसे भिन्न नहीं है—मैं ही सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हूँ॥२६॥
तदेवं प्राञ्जलिः प्रह्वो याचते त्वां दशाननः।
भर्तुर्भर्ता विधाता च त्रैलोक्यस्य भजस्व माम्॥२७॥
‘तीनों लोकों के स्वामी का भी स्वामी तथा विधाता यह दशमुख रावण आज इस प्रकार विनीतभाव से हाथ जोड़कर तुमसे याचना करता है। सुन्दरी! मुझे स्वीकार करो’॥ २७॥
एवमुक्ताब्रवीद् रम्भा वेपमाना कृताञ्जलिः।
प्रसीद नार्हसे वक्तुमीदृशं त्वं हि मे गुरुः ॥२८॥
रावण के ऐसा कहने पर रम्भा काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली—’प्रभो! प्रसन्न होइये—मुझपर कृपा कीजिये। आपको ऐसी बात मुंह से नहीं निकालनी चाहिये; क्योंकि आप मेरे गुरुजन हैं—पिता के तुल्य हैं।॥ २८॥
अन्येभ्योऽपि त्वया रक्ष्या प्राप्नुयां धर्षणं यदि।
तद्धर्मतः स्नुषा तेऽहं तत्त्वमेतद् ब्रवीमि ते॥२९॥
‘यदि दूसरे कोई पुरुष मेरा तिरस्कार करने पर उतारू हों तो उनसे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये। मैं धर्मतः आपकी पुत्रवधू हूँ—यह आपसे सच्ची बात बता रही हूँ’॥ २९॥
अथाब्रवीद् दशग्रीवश्चरणाधोमुखीं स्थिताम्।
रोमहर्षमनुप्राप्तां दृष्टमात्रेण तां तदा॥३०॥
रम्भा अपने चरणों की ओर देखती हुई नीचे मुँह किये खड़ी थी। रावण की दृष्टि पड़ने मात्र से भय के कारण उसके रोंगटे खड़े हो गये थे। उस समय उससे रावण ने कहा- ॥ ३० ॥
सुतस्य यदि मे भार्या ततस्त्वं हि स्नुषा भवेः।
बाढमित्येव सा रम्भा प्राह रावणमुत्तरम्॥३१॥
‘रम्भे ! यदि यह सिद्ध हो जाय कि तुम मेरे बेटेकी बहू हो, तभी मेरी पुत्रवधू हो सकती हो, अन्यथा नहीं।’ तब रम्भा ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर रावण को इस प्रकार उत्तर दिया- ॥३१॥
धर्मतस्ते सुतस्याहं भार्या राक्षसपुङ्गव।
पुत्रः प्रियतरः प्राणैर्धातुर्वैश्रवणस्य ते॥३२॥
‘राक्षसशिरोमणे! धर्म के अनुसार मैं आपके पुत्र की ही भार्या हूँ। आपके बड़े भाई कुबेर के पुत्र मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं॥ ३२॥
विख्यातस्त्रिषु लोकेषु नलकूबर इत्ययम्।
धर्मतो यो भवेद् विप्रः क्षत्रियो वीर्यतो भवेत् ॥
‘वे तीनों लोकों में ‘नलकूबर’ नाम से विख्यात हैं तथा धर्मानुष्ठान की दृष्टि से ब्राह्मण और पराक्रम की दृष्टि से क्षत्रिय हैं॥ ३३॥
क्रोधाद् यश्च भवेदग्निः क्षान्त्या च वसुधासमः।
तस्यास्मि कृतसंकेता लोकपालसुतस्य वै॥३४॥
‘वे क्रोध में अग्नि और क्षमा में पृथ्वी के समान हैं। उन्हीं लोकपालकुमार प्रियतम नलकूबर को आज मैंने मिलने के लिये संकेत दिया है। ३४ ।।
तमुद्दिश्य तु मे सर्वं विभूषणमिदं कृतम्।
यथा तस्य हि नान्यस्य भावो मां प्रति तिष्ठति॥३५॥
‘यह सारा शृङ्गार मैंने उन्हीं के लिये धारण किया है; जैसे उनका मेरे प्रति अनुराग है, उसी प्रकार मेरा भी उन्हीं के प्रति प्रगाढ़ प्रेम है, दूसरे किसी के प्रति नहीं॥ ३५ ॥
तेन सत्येन मां राजन् मोक्तुमर्हस्यरिंदम।
स हि तिष्ठति धर्मात्मा मां प्रतीक्ष्य समुत्सुकः॥३६॥
‘शत्रुओं का दमन करने वाले राक्षसराज! इस सत्य को दृष्टि में रखकर आप इस समय मुझे छोड़ दीजिये; वे मेरे धर्मात्मा प्रियतम उत्सुक होकर मेरी प्रतीक्षा करते होंगे॥३६॥
तत्र विनं तु तस्येह कर्तुं नार्हसि मुञ्च माम्।
सद्भिराचरितं मागं गच्छ राक्षसपुङ्गव॥३७॥
‘उनकी सेवाके इस कार्य में आपको यहाँ विघ्न नहीं डालना चाहिये। मुझे छोड़ दीजिये। राक्षसराज! आप सत्पुरुषों द्वारा आचरित धर्म के मार्ग पर चलिये॥ ३७॥
माननीयो मम त्वं हि पालनीया तथास्मि ते।
एवमुक्तो दशग्रीवः प्रत्युवाच विनीतवत्॥३८॥
‘आप मेरे माननीय गुरुजन हैं, अतः आपको मेरी रक्षा करनी चाहिये।’ यह सुनकर दशग्रीव ने उसे नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- ॥ ३८॥
स्नुषास्मि यदवोचस्त्वमेकपत्नीष्वयं क्रमः।
देवलोकस्थितिरियं सुराणां शाश्वती मता॥३९॥
पतिरप्सरसा नास्ति न चैकस्त्रीपरिग्रहः।
‘रम्भे! तुम अपने को जो मेरी पुत्रवधू बता रही हो, वह ठीक नहीं जान पड़ता। यह नाता-रिश्ता उन स्त्रियों के लिये लागू होता है, जो किसी एक पुरुष की पत्नी हों। तुम्हारे देवलोक की तो स्थिति ही दूसरी है। वहाँ सदा से यही नियम चला आ रहा है कि अप्सराओं का कोई पति नहीं होता। वहाँ कोई एक स्त्री के साथ विवाह करके नहीं रहता है’ ।। ३९ १/२॥
एवमुक्त्वा स तां रक्षो निवेश्य च शिलातले॥४०॥
कामभोगाभिसंरक्तो मैथुनायोपचक्रमे।
ऐसा कहकर उस राक्षस ने रम्भा को बलपूर्वक शिलापर बैठा लिया और कामभोग में आसक्त हो उसके साथ समागम किया॥ ४० १/२॥
सा विमुक्ता ततो रम्भा भ्रष्टमाल्यविभूषणा॥४१॥
गजेन्द्राक्रीडमथिता नदीवाकुलतां गता।
उसके पुष्पहार टूटकर गिर गये, सारे आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये। उपभोग के बाद रावण ने रम्भा को छोड़ दिया। उसकी दशा उस नदी के समान हो गयी जिसे किसी गजराज ने क्रीडा करके मथ डाला हो; वह अत्यन्त व्याकुल हो उठी॥ ४१ १/२ ॥
लुलिताकुलकेशान्ता करवेपितपल्लवा॥४२॥
पवनेनावधूतेव लता कुसुमशालिनी।
वेणी-बन्ध टूट जाने से उसके खुले हुए केश हवा में उड़ने लगे—उसका शृङ्गार बिगड़ गया। कर-पल्लव काँपने लगे। वह ऐसी लगती थी—मानो फूलों से सुशोभित होने वाली किसी लता को हवाने झकझोर दिया हो॥ ४२ १/२॥
सा वेपमाना लज्जन्ती भीता करकृताञ्जलिः॥४३॥
नलकूबरमासाद्य पादयोर्निपपात ह।
लज्जा और भय से काँपती हुई वह नलकूबर के पास गयी और हाथ जोड़कर उनके पैरों पर गिर पड़ी॥ ४३ १/२॥
तदवस्थां च तां दृष्ट्वा महात्मा नलकूबरः॥४४॥
अब्रवीत् किमिदं भद्रे पादयोः पतितासि मे।
रम्भा को इस अवस्था में देखकर महामना नलकूबर ने पूछा-‘भद्रे ! क्या बात है ? तुम इस तरह मेरे पैरों पर क्यों पड़ गयीं?’ ॥ ४४ १/२ ॥
सा वै निःश्वसमाना तु वेपमाना कृताञ्जलिः॥४५॥
तस्मै सर्वं यथातत्त्वमाख्यातुमुपचक्रमे।
वह थर-थर काँप रही थी। उसने लंबी साँस खींचकर हाथ जोड़ लिये और जो कुछ हुआ था, वह सब ठीक-ठीक बताना आरम्भ किया— ॥ ४५ १/२॥
एष देव दशग्रीवः प्राप्तो गन्तुं त्रिविष्टपम्॥४६॥
तेन सैन्यसहायेन निशेयं परिणामिता।
‘देव! यह दशमुख रावण स्वर्गलोक पर आक्रमण करने के लिये आया है। इसके साथ बहुत बड़ी सेना है। उसने आज की रात में यहीं डेरा डाला है॥ ४६ १/२॥
आयान्ती तेन दृष्टास्मि त्वत्सकाशमरिंदम॥४७॥
गृहीता तेन पृष्टास्मि कस्य त्वमिति रक्षसा।
‘शत्रुदमन वीर! मैं आपके पास आ रही थी, किंतु उस राक्षस ने मुझे देख लिया और मेरा हाथ पकड़ लिया। फिर पूछा—’तुम किसकी स्त्री हो?’॥ ४७ १/२॥
मया तु सर्वं यत् सत्यं तस्मै सर्वं निवेदितम्॥४८॥
काममोहाभिभूतात्मा नाश्रौषीत् तद् वचो मम।
‘मैंने उसे सब कुछ सच-सच बता दिया, किंतु उसका हृदय कामजनित मोह से आक्रान्त था, इसलिये मेरी वह बात नहीं सुनी॥ ४८ १/२॥
याच्यमानो मया देव स्नुषा तेऽहमिति प्रभो॥४९॥
तत् सर्वं पृष्ठतः कृत्वा बलात् तेनास्मि धर्षिता।
‘देव! मैं बारम्बार प्रार्थना करती ही रह गयी कि प्रभो ! मैं आपकी पुत्रवधू हूँ, मुझे छोड़ दीजिये; किंतु उसने मेरी सारी बातें अनसुनी कर दी और बलपूर्वक मेरे साथ अत्याचार किया॥ ४९ १/२॥
एवं त्वमपराधं मे क्षन्तुमर्हसि सुव्रत॥५०॥
नहि तुल्यं बलं सौम्य स्त्रियाश्च पुरुषस्य हि।
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले प्रियतम! इस बेबसी की दशा में मुझसे जो अपराध बन गया है, उसे आप क्षमा करें। सौम्य ! नारी अबला होती है, उसमें पुरुष के बराबर शारीरिक बल नहीं होता है (इसीलिये उस दुष्ट से अपनी रक्षा मैं नहीं कर सकी)’ ॥ ५० १/२॥
एतच्छ्रुत्वा तु संक्रुद्धस्तदा वैश्रवणात्मजः॥५१॥
धर्षणां तां परां श्रुत्वा ध्यानं सम्प्रविवेश ह।
यह सुनकर वैश्रवणकुमार नलकूबर को बड़ा क्रोध हुआ। रम्भा पर किये गये उस महान् अत्याचार को सुनकर उन्होंने ध्यान लगाया॥ ५१ १/२॥
तस्य तत् कर्म विज्ञाय तदा वैश्रवणात्मजः॥५२॥
मुहूर्तात् क्रोधताम्राक्षस्तोयं जग्राह पाणिना।
उस समय दो ही घड़ी में रावण की उस करतूतको जानकर वैश्रवणपुत्र नलकूबर के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और उन्होंने अपने हाथ में जल लिया॥ ५२ १/२ ।।
गृहीत्वा सलिलं सर्वमुपस्पृश्य यथाविधि॥५३॥
उत्ससर्ज तदा शापं राक्षसेन्द्राय दारुणम्।
जल लेकर पहले विधिपूर्वक आचमन करके नेत्र आदि सारी इन्द्रियों का स्पर्श करनेके अनन्तर उन्होंने राक्षसराज को बड़ा भयंकर शाप दिया॥ ५३ १/२॥
अकामा तेन यस्मात् त्वं बलात् भद्रे प्रधर्षिता॥५४॥
तस्मात् स युवतीमन्यां नाकामामुपयास्यति।
वे बोले—’भद्रे! तुम्हारी इच्छा न रहने पर भी रावण ने तुम पर बलपूर्वक अत्याचार किया है। अतः वह आज से दूसरी किसी ऐसी युवती से समागम नहीं कर सकेगा जो उसे चाहती न हो॥ ५४ १/२॥
यदा ह्यकामां कामातॊ धर्षयिष्यति योषितम्॥५५॥
मूर्धा तु सप्तधा तस्य शकलीभविता तदा।
‘यदि वह कामपीड़ित होकर उसे न चाहने वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जायँगे’ ।। ५५ १/२॥
तस्मिन्नुदाहृते शापे ज्वलिताग्निसमप्रभे॥५६॥
देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिश्च खाच्च्युता।
नलकूबर के मुख से प्रज्वलित अग्नि के समान दग्धकर देने वाले इस शाप के निकलते ही देवताओं की दुन्दुभियाँ बज उठीं और आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी॥ ५६ १/२॥
पितामहमुखाश्चैव सर्वे देवाः प्रहर्षिताः॥५७॥
ज्ञात्वा लोकगतिं सर्वां तस्य मृत्युं च रक्षसः।
ऋषयः पितरश्चैव प्रीतिमापुरनुत्तमाम्॥५८॥
ब्रह्मा आदि सभी देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। रावण के द्वारा की गयी लोक की सारी दुर्दशा को और उस राक्षस की मृत्यु को भी जानकर ऋषियों तथा पितरों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। ५७-५८॥
श्रुत्वा तु स दशग्रीवस्तं शापं रोमहर्षणम्।
नारीषु मैथुनीभावं नाकामास्वभ्यरोचयत्॥५९॥
उस रोमाञ्चकारी शाप को सुनकर दशग्रीव ने अपने को न चाहने वाली स्त्रियों के साथ बलात्कार करना छोड़ दिया॥ ५९॥
तेन नीताः स्त्रियः प्रीतिमापः सर्वाः पतिव्रताः।
नलकूबरनिर्मुक्तं शापं श्रुत्वा मनःप्रियम्॥६०॥
वह जिन-जिन पतिव्रता स्त्रियों को हरकर ले गया था, उन सबके मन को नलकूबर का दिया वह शाप बड़ा प्रिय लगा। उसे सुनकर वे सब-की-सब बहुत प्रसन्न हुईं। ६०॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे षड्विंशः सर्गः ॥२६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२६॥