वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 27 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 27
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
सप्तविंशः सर्गः (सर्ग 27)
सेनासहित रावण का इन्द्रलोक पर आक्रमण, इन्द्र की भगवान् विष्णु से सहायता के लिये प्रार्थना, वसु के द्वारा सुमाली का वध
कैलासं लवयित्वा तु ससैन्यबलवाहनः।
आससाद महातेजा इन्द्रलोकं दशाननः॥१॥
कैलास-पर्वत को पार करके महातेजस्वी दशमुख रावण सेना और सवारियों के साथ इन्द्रलोक में जा पहुँचा॥
तस्य राक्षससैन्यस्य समन्तादुपयास्यतः।
देवलोके बभौ शब्दो भिद्यमानार्णवोपमः॥२॥
सब ओर से आती हुई राक्षस-सेना का कोलाहल देवलोक में ऐसा जान पड़ता था, मानो महासागर के मथे जाने का शब्द प्रकट हो रहा हो॥२॥
श्रुत्वा तु रावणं प्राप्तमिन्द्रश्चलित आसनात्।
देवानथाब्रवीत् तत्र सर्वानेव समागतान्॥३॥
रावण का आगमन सुनकर इन्द्र अपने आसन से उठ गये और अपने पास आये हुए समस्त देवताओं से बोले- ॥३॥
आदित्यांश्च वसून् रुद्रान् साध्यांश्च समरुद्गणान्।
सज्जा भवत युद्धार्थं रावणस्य दुरात्मनः॥४॥
उन्होंने आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, साध्यों तथा मरुद्गणों से भी कहा—’तुम सब लोग दुरात्मा रावण के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हो जाओ’॥ ४॥
एवमुक्तास्तु शक्रेण देवाः शक्रसमा युधि।
संना सुमहासत्त्वा युद्धश्रद्धासमन्विताः॥५॥
इन्द्र के ऐसा कहने पर युद्ध में उन्हीं के समान पराक्रम प्रकट करने वाले महाबली देवता कवच आदि धारण करके युद्ध के लिये उत्सुक हो गये॥५॥
स तु दीनः परित्रस्तो महेन्द्रो रावणं प्रति।
विष्णोः समीपमागत्य वाक्यमेतदुवाच ह॥६॥
देवराज इन्द्र को रावण से भय हो गया था। अतः वे दुःखी हो भगवान् विष्णु के पास आये और इस प्रकार बोले- ॥६॥
विष्णो कथं करिष्यामि रावणं राक्षसं प्रति।
अहोऽतिबलवद् रक्षो युद्धार्थमभिवर्तते॥७॥
‘विष्णुदेव! मैं राक्षस रावण के लिये क्या करूँ? अहो! वह अत्यन्त बलशाली निशाचर मेरे साथ युद्ध करने के लिये आ रहा है॥७॥
वरप्रदानाद् बलवान् न खल्वन्येन हेतुना।
तत् तु सत्यं वचः कार्यं यदुक्तं पद्मयोनिना॥८॥
‘वह केवल ब्रह्माजी के वरदान के कारण प्रबल हो गया है। दूसरे किसी हेतु से नहीं। कमलयोनि ब्रह्माजी ने जो वर दे दिया है, उसे सत्य करना हम सब लोगों का काम है॥ ८॥
तद् यथा नमुचिर्वृत्रो बलिर्नरकशम्बरौ।
त्वबलं समवष्टभ्य मया दग्धास्तथा कुरु॥९॥
‘अतः जैसे पहले आपके बल का आश्रय लेकर मैंने नमुचि, वृत्रासुर, बलि, नरक और शम्बर आदि । असुरों को दग्ध कर डाला है, उसी प्रकार इस समय भी इस असुरका अन्त हो जाय, ऐसा कोई उपाय आप ही कीजिये॥९॥
नह्यन्यो देवदेवेश त्वदृते मधुसूदन।
गतिः परायणं चापि त्रैलोक्ये सचराचरे॥१०॥
‘मधुसूदन! आप देवताओं के भी देवता एवं ईश्वर हैं। इस चराचर त्रिभुवन में आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो हम देवताओं को सहारा दे सके। आप ही हमारे परम आश्रय हैं॥ १० ॥
त्वं हि नारायणः श्रीमान् पद्मनाभः सनातनः।
त्वयेमे स्थापिता लोकाः शक्रश्चाहं सुरेश्वरः॥११॥
‘आप पद्मनाभ हैं—आपही के नाभिकमल से जगत् की उत्पत्ति हुई है। आप ही सनातनदेव श्रीमान् नारायण हैं। आपने ही इन तीनों लोकों को स्थापित किया है और आपने ही मुझे देवराज इन्द्र बनाया है। ११॥
त्वया सृष्टमिदं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
त्वामेव भगवन् सर्वे प्रविशन्तिं युगक्षये॥१२॥
‘भगवन् ! आपने ही स्थावर-जङ्गम प्राणियोंसहित इस समस्त त्रिलोकी की सृष्टि की है और प्रलयकाल में सम्पूर्ण भूत आपमें ही प्रवेश करते हैं।॥ १२॥
तदाचक्ष्व यथातत्त्वं देवदेव मम स्वयम्।
असिचक्रसहायस्त्वं योत्स्यसे रावणं प्रति॥१३॥
‘इसलिये देवदेव! आप ही मुझे कोई ऐसा अमोघ उपाय बताइये, जिससे मेरी विजय हो। क्या आप स्वयं चक्र और तलवार लेकर रावण से युद्ध करेंगे?’ ॥ १३॥
एवमुक्तः स शक्रेण देवो नारायणः प्रभुः।
अब्रवीन्न परित्रासः कर्तव्यः श्रूयतां च मे ॥१४॥
इन्द्र के ऐसा कहने पर भगवान् नारायणदेव बोले —’देवराज! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये मेरी बात सुनो— ॥ १४ ॥
न तावदेष दुष्टात्मा शक्यो जेतुं सुरासुरैः।
हन्तुं चापि समासाद्य वरदानेन दुर्जयः॥१५॥
‘पहली बात तो यह है इस दुष्टात्मा रावण को सम्पूर्ण देवता और असुर मिलकर भी न तो मार सकते हैं और न परास्त ही कर सकते हैं; क्योंकि वरदान पाने के कारण यह इस समय दुर्जय हो गया है॥ १५॥
सर्वथा तु महत् कर्म करिष्यति बलोत्कटः।
राक्षसः पुत्रसहितो दृष्टमेतन्निसर्गतः॥१६॥
‘अपने पुत्र के साथ आया हुआ यह उत्कट बलशाली राक्षस सब प्रकार से महान् पराक्रम प्रकट करेगा। यह बात मुझे अपनी स्वाभाविक ज्ञानदृष्टि से दिखायी दे रही है॥१६॥
यत् तु मां त्वमभाषिष्ठा युध्यस्वेति सुरेश्वर।
नाहं तं प्रतियोत्स्यामि रावणं राक्षसं युधि॥१७॥
‘सुरेश्वर! दूसरी बात जो मुझे कहनी है, इस प्रकार है-तुम जो मुझसे कह रहे थे कि ‘आप ही उसके साथ युद्ध कीजिये’ उसके उत्तर में निवेदन है कि मैं इस समय युद्धस्थल में राक्षस रावण का सामना करने के लिये नहीं जाऊँगा॥ १७॥
नाहत्वा समरे शत्रु विष्णुः प्रतिनिवर्तते।
दुर्लभश्चैव कामोऽद्य वरगुप्ताद्धि रावणात्॥१८॥
‘मुझ विष्णुका यह स्वभाव है कि मैं संग्राम में शत्रु का वध किये बिना पीछे नहीं लौटता; परंतु इस समय रावण वरदान से सुरक्षित है, इसलिये उसकी ओर से मेरी इस विजय-सम्बन्धिनी इच्छा की पूर्ति होनी कठिन है॥ १८॥
प्रतिजाने च देवेन्द्र त्वत्समीपे शतक्रतो।
भवितास्मि यथास्याहं रक्षसो मृत्युकारणम्॥१९॥
‘परंतु देवेन्द्र! शतक्रतो! मैं तुम्हारे समीप इस बात की प्रतिज्ञा करता हूँ कि समय आने पर मैं ही इस राक्षस की मृत्यु का कारण बनूँगा ॥ १९॥
अहमेव निहन्तास्मि रावणं सपुरःसरम्।
देवता नन्दयिष्यामि ज्ञात्वा कालमुपागतम्॥२०॥
‘मैं ही रावण को उसके अग्रगामी सैनिकोंसहित मारूँगा और देवताओं को आनन्दित करूँगा; परंतु यह तभी होगा जब मैं जान लूँगा कि इसकी मृत्यु का समय आ पहुँचा है॥२०॥
एतत् ते कथितं तत्त्वं देवराज शचीपते।
युद्ध्यस्व विगतत्रासः सुरैः सार्धं महाबल॥२१॥
‘देवराज! ये सब बातें मैंने तुम्हें ठीक-ठीक बता दीं। महाबलशाली शचीवल्लभ! इस समय तो तुम्हीं देवताओंसहित जाकर उस राक्षस के साथ निर्भय हो युद्ध करो’ ॥ २१॥
ततो रुद्राः सहादित्या वसवो मरुतोऽश्विनौ।
संनद्धा निर्ययुस्तूर्णं राक्षसानभितः पुरात्॥ २२॥
तदनन्तर रुद्र, आदित्य, वसु, मरुद्गण और अश्विनीकुमार आदि देवता युद्ध के लिये तैयार होकर तुरंत अमरावतीपुरी से बाहर निकले और राक्षसों का सामना करने के लिये आगे बढ़े॥ २२ ॥
एतस्मिन्नन्तरे नादः शुश्रुवे रजनीक्षये।
तस्य रावणसैन्यस्य प्रयुद्धस्य समन्ततः॥२३॥
इसी बीच में रात बीतते-बीतते सब ओर से युद्ध के लिये उद्यत हुई रावण की सेनाका महान् कोलाहल सुनायी देने लगा॥ २३॥
ते प्रबुद्धा महावीर्या अन्योन्यमभिवीक्ष्य वै।
संग्राममेवाभिमुखा अभ्यवर्तन्त हृष्टवत्॥२४॥
वे महापराक्रमी राक्षससैनिक सबेरे जागने पर एकदूसरे की ओर देखते हुए बड़े हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध के लिये ही आगे बढ़ने लगे॥ २४ ॥
ततो दैवतसैन्यानां संक्षोभः समजायत।
तदक्षयं महासैन्यं दृष्ट्वा समरमूर्धनि॥२५॥
तदनन्तर युद्ध के मुहाने पर राक्षसों की उस अनन्त एवं विशाल सेना को देखकर देवताओं की सेना में बड़ा क्षोभ हुआ॥ २५ ॥
ततो युद्धं समभवद् देवदानवरक्षसाम्।
घोरं तुमुलनिर्हादं नानाप्रहरणोद्यतम्॥२६॥
फिर तो देवताओं का दानवों और राक्षसों के साथ भयंकर युद्ध छिड़ गया। भयंकर कोलाहल होने लगा और दोनों ओरसे नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की बौछार आरम्भ हो गयी॥२६॥
एतस्मिन्नन्तरे शूरा राक्षसा घोरदर्शनाः।
युद्धार्थं समवर्तन्त सचिवा रावणस्य ते॥२७॥
इसी समय रावण के मन्त्री शूरवीर राक्षस, जो बड़े भयंकर दिखायी देते थे, युद्ध के लिये आगे बढ़ आये॥
मारीचश्च प्रहस्तश्च महापार्श्वमहोदरौ।
अकम्पनो निकुम्भश्च शुकः सारण एव च॥२८॥
संह्रादो धूमकेतुश्च महादंष्ट्रो घटोदरः।
जम्बुमाली महाह्रादो विरूपाक्षश्च राक्षसः॥२९॥
सुप्तनो यज्ञकोपश्च दुर्मुखो दूषणः खरः।
त्रिशिराः करवीराक्षः सूर्यशत्रुश्च राक्षसः॥३०॥
महाकायोऽतिकायश्च देवान्तकनरान्तकौ।
एतैः सर्वैः परिवृतो महावीर्यैर्महाबलः॥ ३१॥
रावणस्यार्यकः सैन्यं सुमाली प्रविवेश ह।
मारीच, प्रहस्त, महापार्श्व, महोदर, अकम्पन, निकुम्भ, शुक, शारण, संहाद, धूमकेतु, महादंष्ट्र, घटोदर, जम्बुमाली, महाह्राद, विरूपाक्ष, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, दुर्मुख, दूषण, खर, त्रिशिरा, करवीराक्ष, सूर्यशत्रु, महाकाय, अतिकाय, देवान्तक तथा नरान्तक-इन सभी महापराक्रमी राक्षसों से घिरे हुए महाबली सुमाली ने, जो रावण का नाना था, देवताओं की सेना में प्रवेश किया। २८–३१ १/२॥
स दैवतगणान् सर्वान् नानाप्रहरणैः शितैः॥३२॥
व्यध्वंसयत् समं क्रुद्धो वायुर्जलधरानिव।
उसने कुपित हो नाना प्रकार के पैने अस्त्रशस्त्रों द्वारा समस्त देवताओं को उसी तरह मार भगाया, जैसे वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है॥ ३२ १/२॥
तद् दैवतबलं राम हन्यमानं निशाचरैः ॥ ३३॥
प्रणुन्नं सर्वतो दिग्भ्यः सिंहनुन्ना मृगा इव।
श्रीराम! निशाचरों की मार खाकर देवताओं की वह सेना सिंह द्वारा खदेड़े गये मृगों की भाँति सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चली॥ ३३ १/२ ॥
एतस्मिन्नन्तरे शूरो वसूनामष्टमो वसुः॥३४॥
सावित्र इति विख्यातः प्रविवेश रणाजिरम्।
इसी समय वसुओं में से आठवें वसु ने, जिनका नाम सावित्र है, समराङ्गण में प्रवेश किया॥ ३४ १/२॥
सैन्यैः परिवृतो हृष्टै नाप्रहरणोद्यतैः॥ ३५॥
त्रासयन् शत्रुसैन्यानि प्रविवेश रणाजिरम्।
वे नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित एवं उत्साहित सैनिकों से घिरे हुए थे। उन्होंने शत्रुसेनाओं को संत्रस्त करते हुए रणभूमि में पदार्पण किया॥ ३५ १/२॥
तथादित्यौ महावीर्यौ त्वष्टा पूषा च तौ समम्॥३६॥
निर्भयौ सह सैन्येन तदा प्राविशतां रणे।
इनके सिवा अदिति के दो महापराक्रमी पुत्र त्वष्टा और पूषा ने अपनी सेना के साथ एक ही समय युद्धस्थल में प्रवेश किया, वे दोनों वीर निर्भय थे॥३६ १/२॥
ततो युद्धं समभवत् सुराणां सह राक्षसैः॥३७॥
क्रुद्धानां रक्षसां कीर्तिं समरेष्वनिवर्तिनाम्।
फिर तो देवताओं का राक्षसों के साथ घोर युद्ध होने लगा। युद्ध से पीछे न हटने वाले राक्षसों की बढ़ती हुई कीर्ति देख-सुनकर देवता उनके प्रति बहुत कुपित थे। ३७ १/२॥
ततस्ते राक्षसाः सर्वे विबुधान् समरे स्थितान्॥३८॥
नानाप्रहरणैोरैर्जनुः शतसहस्रशः।
तत्पश्चात् समस्त राक्षस समरभूमि में खड़े हुए लाखों देवताओं को नाना प्रकार के घोर अस्त्रशस्त्रों द्वारा मारने लगे॥ ३८ १/२॥
देवाश्च राक्षसान् घोरान् महाबलपराक्रमान्॥३९॥
समरे विमलैः शस्त्रैरुपनिन्युर्यमक्षयम्।
इसी तरह देवता भी महान् बल-पराक्रम से सम्पन्न घोर राक्षसों को समराङ्गण में चमकीले अस्त्र-शस्त्रों से मार-मारकर यमलोक भेजने लगे॥ ३९ १/२ ॥
एतस्मिन्नन्तरे राम सुमाली नाम राक्षसः॥४०॥
नानाप्रहरणैः क्रुद्धस्तत्सैन्यं सोऽभ्यवर्तत।
स दैवतबलं सर्वं नानाप्रहरणैः शितैः॥४१॥
व्यध्वंसयत संक्रुद्धो वायुर्जलधरं यथा।
श्रीराम! इसी बीच में सुमाली नामक राक्षस ने कुपित होकर नाना प्रकार के आयुधों द्वारा देवसेना पर आक्रमण किया। उसने अत्यन्त क्रोध से भरकर बादलों को छिन्न-भिन्न कर देने वाली वायु के समान अपने भाँति-भाँति के तीखे अस्त्र-शस्त्रों द्वारा समस्त देवसेना को तितर-बितर कर दिया॥ ४०-४१ १/२॥
ते महाबाणवषैश्च शूलप्रासैः सुदारुणैः॥४२॥
हन्यमानाः सुराः सर्वे न व्यतिष्ठन्त संहताः।
उसके महान् बाणों और भयङ्कर शूलों एवं प्रासों की वर्षा से मारे जाते हुए सभी देवता युद्धक्षेत्र में संगठित होकर खड़े न रह सके॥ ४२ १/२ ॥
ततो विद्राव्यमाणेषु दैवतेषु सुमालिना॥४३॥
वसूनामष्टमः क्रुद्धः सावित्रो वै व्यवस्थितः।
संवृतः स्वैरथानीकैः प्रहरन्तं निशाचरम्॥४४॥
सुमाली द्वारा देवताओं के भगाये जाने पर आठवें वसु सावित्र को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी रथसेनाओं के साथ आकर उस प्रहार करने वाले निशाचर के सामने खड़े हो गये॥ ४३-४४॥
स दैवतबलं सर्वं नानाप्रहरणैः शितैः॥४१॥
व्यध्वंसयत संक्रुद्धो वायुर्जलधरं यथा।
श्रीराम! इसी बीच में सुमाली नामक राक्षस ने कुपित होकर नाना प्रकार के आयुधों द्वारा देवसेना पर आक्रमण किया। उसने अत्यन्त क्रोध से भरकर बादलों को छिन्न-भिन्न करदेने वाली वायु के समान अपने भाँति-भाँति के तीखे अस्त्र-शस्त्रों द्वारा समस्त देवसेना को तितर-बितर कर दिया॥ ४०-४१ १/२॥
ते महाबाणवषैश्च शूलप्रासैः सुदारुणैः॥४२॥
हन्यमानाः सुराः सर्वे न व्यतिष्ठन्त संहताः।
उसके महान् बाणों और भयङ्कर शूलों एवं प्रासों की वर्षा से मारे जाते हुए सभी देवता युद्धक्षेत्र में संगठित होकर खड़े न रह सके॥ ४२ १/२ ॥
ततो विद्राव्यमाणेषु दैवतेषु सुमालिना॥४३॥
वसूनामष्टमः क्रुद्धः सावित्रो वै व्यवस्थितः।
संवृतः स्वैरथानीकैः प्रहरन्तं निशाचरम्॥४४॥
सुमाली द्वारा देवताओं के भगाये जाने पर आठवें वसु सावित्र को बड़ा क्रोध हुआ। वे अपनी रथसेनाओं के साथ आकर उस प्रहार करने वाले निशाचर के सामने खड़े हो गये॥ ४३-४४॥
विक्रमेण महातेजा वारयामास संयुगे।
ततस्तयोर्महद् युद्धमभवल्लोमहर्षणम्॥४५॥
सुमालिनो वसोश्चैव समरेष्वनिवर्तिनोः।
महातेजस्वी सावित्र ने युद्धस्थल में अपने पराक्रमद्वारा सुमाली को आगे बढ़ने से रोक दिया। सुमाली और वसु दोनों में से कोई भी युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं था; अतः उन दोनों में महान् एवं रोमाञ्चकारी युद्ध छिड़ गया॥ ४५ १/२ ॥
ततस्तस्य महाबाणैर्वसुना सुमहात्मना॥४६॥
निहतः पन्नगरथः क्षणेन विनिपातितः।
तदनन्तर महात्मा वसु ने अपने विशाल बाणों द्वारा सुमाली के सर्प जुते हुए रथ को क्षणभर में तोड़फोड़कर गिरा दिया॥ ४६ १/२ ॥
हत्वा तु संयुगे तस्य रथं बाणशतैश्चितम्॥४७॥
गदां तस्य वधार्थाय वसुर्जग्राह पाणिना।
ततः प्रगृह्य दीप्ताग्रां कालदण्डोपमां गदाम्॥४८॥
तां मूर्ध्नि पातयामास सावित्रो वै सुमालिनः।
युद्धस्थल में सैकड़ों बाणों से छिदे हुए सुमाली के रथ को नष्ट करके वसु ने उस निशाचर के वध के लिये कालदण्ड के समान एक भयङ्कर गदा हाथ में ली, जिसका अग्रभाग अग्नि के समान प्रज्वलित हो रहा था। उसे लेकर सावित्र ने सुमाली के मस्तक पर दे मारा ॥ ४७-४८ १/२॥
सा तस्योपरि चोल्काभा पतन्ती विबभौ गदा॥४९॥
इन्द्रप्रमुक्ता गर्जन्ती गिराविव महाशनिः।
उसके ऊपर गिरती हुई वह गदा उल्का के समान चमक उठी, मानो इन्द्र के द्वारा छोड़ी गयी विशाल अशनि भारी गड़गड़ाहट के साथ किसी पर्वत के शिखर पर गिर रही हो॥ ४९ १/२॥
तस्य नैवास्थि न शिरो न मांसं ददृशे तदा॥५०॥
गदया भस्मतां नीतं निहतस्य रणाजिरे।
उसकी चोट लगते ही समराङ्गण में सुमाली का काम तमाम हो गया। न उसकी हड्डी का पता लगा, न मस्तक का और न कहीं उसका मांस ही दिखायी दिया। वह सब कुछ उस गदा की आग से भस्म हो गया॥ ५० १/२॥
तं दृष्ट्वा निहतं संख्ये राक्षसास्ते समन्ततः॥५१॥
व्यद्रवन् सहिताः सर्वे क्रोशमानाः परस्परम्।
विद्राव्यमाणा वसुना राक्षसा नावतस्थिरे॥५२॥
युद्ध में सुमाली को मारा गया देख वे सब राक्षस एक-दूसरे को पुकारते हुए एक साथ चारों ओर भाग खड़े हुए। वसु के द्वारा खदेड़े जाने वाले वे राक्षस समरभूमि में खड़े न रह सके। ५१-५२॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे सप्तविंशः सर्गः ॥२७॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२७॥