वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 28 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 28
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
अष्टाविंशः सर्गः (सर्ग 28)
मेघनाद और जयन्त का युद्ध, पुलोमा का जयन्त को अन्यत्र ले जाना, देवराज इन्द्र का युद्धभूमि में पदार्पण, रुद्रों तथा मरुद्गणों द्वारा राक्षससेना का संहार और इन्द्र तथा रावण का युद्ध
सुमालिनं हतं दृष्ट्वा वसुना भस्मसात्कृतम्।
स्वसैन्यं विद्रुतं चापि लक्षयित्वार्दितं सुरैः॥१॥
ततः स बलवान् क्रुद्धो रावणस्य सुतस्तदा।
निवर्त्य राक्षसान् सर्वान् मेघनादो व्यवस्थितः॥२॥
सुमाली मारा गया, वसु ने उसके शरीर को भस्म कर दिया और देवताओं से पीड़ित होकर मेरी सेना भागी जा रही है, यह देख रावण का बलवान् पुत्र मेघनाद कुपित हो समस्त राक्षसों को लौटाकर देवताओं से लोहा लेने के लिये स्वयं खड़ा हुआ॥ १-२॥
स रथेनाग्निवर्णेन कामगेन महारथः।
अभिदुद्राव सेनां तां वनान्यग्निरिव ज्वलन्॥३॥
वह महारथी वीर इच्छानुसार चलने वाले अग्नितुल्य तेजस्वी रथ पर आरूढ़ हो वन में फैलाने वाले प्रज्वलित दावानल के समान उस देवसेना की ओर दौड़ा॥३॥
ततः प्रविशतस्तस्य विविधायुधधारिणः।
विदुद्रुवुर्दिशः सर्वा दर्शनादेव देवताः॥४॥
नाना प्रकार के आयुध धारण करके अपनी सेना में प्रवेश करने वाले उस मेघनाद को देखते ही सब देवता सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग चले॥ ४॥
न बभूव तदा कश्चिद् युयुत्सोरस्य सम्मुखे।
सर्वानाविद्ध्य वित्रस्तांस्ततः शक्रोऽब्रवीत् सुरान्॥
उस समय युद्ध की इच्छा वाले मेघनाद के सामने कोई भी खड़ा न हो सका। तब भयभीत हुए उन समस्त देवताओं को फटकारकर इन्द्र ने उनसे कहा – ॥५॥
न भेतव्यं न गन्तव्यं निवर्तध्वं रणे सुराः।
एष गच्छति पुत्रो मे युद्धार्थमपराजितः॥६॥
‘देवताओ! भय न करो, युद्ध छोड़कर न जाओ और रणक्षेत्र में लौट आओ। यह मेरा पुत्र जयन्त, जो कभी किसी से परास्त नहीं हुआ है, युद्ध के लिये जा रहा है’॥६॥
ततः शक्रसुतो देवो जयन्त इति विश्रुतः।
रथेनाद्भुतकल्पेन संग्रामे सोऽभ्यवर्तत॥७॥
तदनन्तर इन्द्रपुत्र जयन्तदेव अद्भुत सजावट से युक्त रथ पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये आया॥७॥
ततस्ते त्रिदशाः सर्वे परिवार्य शचीसुतम्।
रावणस्य सुतं युद्धे समासाद्य प्रजजिरे॥८॥
फिर तो सब देवता शचीपुत्र जयन्त को चारों ओर से घेरकर युद्धस्थल में आये और रावण के पुत्र पर प्रहार करने लगे॥ ८॥
तेषां युद्धं समभवत् सदृशं देवरक्षसाम्।
महेन्द्रस्य च पुत्रस्य राक्षसेन्द्रसुतस्य च॥९॥
उस समय देवताओं का राक्षसों के साथ और महेन्द्रकुमार का रावणपुत्र के साथ उनके बलपराक्रम के अनुरूप युद्ध होने लगा॥९॥
ततो मातलिपुत्रस्य गोमुखस्य स रावणिः।
सारथेः पातयामास शरान् कनकभूषणान्॥१०॥
रावणकुमार मेघनाद जयन्तके सारथि मातलिपुत्र गोमुखपर सुवर्णभूषित बाणों की वर्षा करने लगा। १०॥
शचीसुतश्चापि तथा जयन्तस्तस्य सारथिम्।
तं चापि रावणिः क्रुद्धः समन्तात् प्रत्यविध्यत॥११॥
शचीपुत्र जयन्त ने भी मेघनाद के सारथि को घायल कर दिया। तब कुपित हुए मेघनाद ने जयन्त को भी सब ओर से क्षत-विक्षत कर दिया॥११॥
स हि क्रोधसमाविष्टो बली विस्फारितेक्षणः।
रावणिः शक्रतनयं शरवर्षैरवाकिरत्॥१२॥
उस समय क्रोध से भरा हुआ बलवान् मेघनाद इन्द्रपुत्र जयन्त को आँखें फाड़-फाड़कर देखने और बाणों की वर्षा से पीड़ित करने लगा॥ १२ ॥
ततो नानाप्रहरणाञ्छितधारान् सहस्रशः।
पातयामास संक्रुद्धः सुरसैन्येषु रावणिः॥१३॥
अत्यन्त कुपित हुए रावणकुमार ने देवताओं की सेना पर भी तीखी धार वाले नाना प्रकार के सहस्रों अस्त्र-शस्त्र बरसाये॥१३॥
शतघ्नीमुसलप्रासगदाखड्गपरश्वधान्।
महान्ति गिरिशृङ्गाणि पातयामास रावणिः॥१४॥
उसने शतघ्नी, मूसल, प्रास, गदा, खड्ग और फरसे गिराये तथा बड़े-बड़े पर्वत-शिखर भी चलाये। १४॥
ततः प्रव्यथिताः लोकाः संजज्ञे च तमस्ततः।
तस्य रावणपुत्रस्य शत्रुसैन्यानि निघ्नतः॥१५॥
शत्रुसेनाओं के संहार में लगे हुए रावणकुमारकी माया से उस समय चारों ओर अन्धकार छा गया; अतः समस्त लोक व्यथित हो उठे॥ १५ ॥
ततस्तद् दैवतबलं समन्तात् तं शचीसुतम्।
बहुप्रकारमस्वस्थमभवच्छरपीडितम्॥१६॥
तब शचीकुमार के चारों ओर खड़ी हुई देवताओं की वह सेना बाणों द्वारा पीड़ित हो अनेक प्रकार से अस्वस्थ हो गयी॥ १६॥
नाभ्यजानन्त चान्योन्यं रक्षो वा देवताथवा।
तत्र तत्र विपर्यस्तं समन्तात् परिधावत॥१७॥
राक्षस और देवता आपस में किसी को पहचान न सके। वे जहाँ-तहाँ बिखरे हुए चारों ओर चक्कर काटने लगे॥१७॥
देवा देवान् निज नुस्ते राक्षसान् राक्षसास्तथा।
सम्मूढास्तमसाच्छन्ना व्यद्रवन्नपरे तथा॥१८॥
अन्धकार से आच्छादित होकर वे विवेकशक्ति खो बैठे थे। अतः देवता देवताओं को और राक्षस राक्षसों को ही मारने लगे तथा बहुतेरे योद्धा युद्ध से भाग खड़े हुए।॥ १८॥
एतस्मिन्नन्तरे वीरः पुलोमा नाम वीर्यवान्।
दैत्येन्द्रस्तेन संगृह्य शचीपुत्रोऽपवाहितः॥१९॥
इसी बीच में पराक्रमी वीर दैत्यराज पुलोमा युद्ध में आया और शचीपुत्र जयन्त को पकड़कर वहाँ से दूर हटा ले गया॥ १९॥
संगृह्य तं तु दौहित्रं प्रविष्टः सागरं तदा।
आर्यकः स हि तस्यासीत् पुलोमा येन सा शची॥२०॥
वह शची का पिता और जयन्त का नाना था, अतः अपने दौहित्र को लेकर समुद्र में घुस गया॥२०॥
ज्ञात्वा प्रणाशं तु तदा जयन्तस्याथ देवताः।
अप्रहृष्टास्ततः सर्वा व्यथिताः सम्प्रदुद्रुवुः ॥२१॥
देवताओं को जब जयन्त के गायब होने की बात मालूम हुई, तब उनकी सारी खुशी छिन गयी और वे दुःखी होकर चारों ओर भागने लगे॥ २१॥
रावणिस्त्वथ संक्रुद्धो बलैः परिवृतः स्वकैः।
अभ्यधावत देवांस्तान् मुमोच च महास्वनम्॥२२॥
उधर अपनी सेनाओं से घिरे हुए रावणकुमार मेघनाद ने अत्यन्त कुपित हो देवताओं पर धावा किया और बड़े जोर से गर्जना की॥ २२॥
दृष्ट्वा प्रणाशं पुत्रस्य दैवतेषु च विद्रुतम्।
मातलिं चाह देवेशो रथः समुपनीयताम्॥२३॥
पुत्र लापता हो गया और देवताओं की सेना में भगदड़ मच गयी है—यह देखकर देवराज इन्द्र ने मातलि से कहा—’मेरा रथ ले आओ’ ॥ २३॥
स तु दिव्यो महाभीमः सज्ज एव महारथः।
उपस्थितो मातलिना वाह्यमानो महाजवः॥२४॥
मातलि ने एक सजा-सजाया महाभयङ्कर, दिव्य एवं विशाल रथ लाकर उपस्थित कर दिया। उसके द्वारा हाँका जाने वाला वह रथ बड़ा ही वेगशाली था॥ २४॥
ततो मेघा रथे तस्मिंस्तडित्त्वन्तो महाबलाः।
अग्रतो वायूचपला नेदः परमनिःस्वनाः॥२५॥
तदनन्तर उस रथ पर बिजली से युक्त महाबली मेघ उसके अग्रभाग में वायु से चञ्चल हो बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे॥ २५ ॥
नानावाद्यानि वाद्यन्त गन्धर्वाश्च समाहिताः।
ननृतुश्चाप्सरःसङ्घा निर्याते त्रिदशेश्वरे ॥२६॥
देवेश्वर इन्द्र के निकलते ही नाना प्रकार के बाजे बज उठे, गन्धर्व एकाग्र हो गये और अप्सराओं के समूह नृत्य करने लगे॥२६॥
रुद्रैर्वसुभिरादित्यैरश्विभ्यां समरुद्गणैः।
वृतो नानाप्रहरणैर्निर्ययौ त्रिदशाधिपः॥२७॥
तत्पश्चात् रुद्रों, वसुओं, आदित्यों, अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों से घिरे हुए देवराज इन्द्र नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र साथ लिये पुरी से बाहर निकले॥२७॥
निर्गच्छतस्तु शक्रस्य परुषः पवनो ववौ।
भास्करो निष्प्रभश्चैव महोल्काश्च प्रपेदिरे॥२८॥
इन्द्रके निकलते ही प्रचण्ड वायु चलने लगी। सूर्य की प्रभा फीकी पड़ गयी और आकाश से बड़ीबड़ी उल्काएँ गिरने लगीं॥ २८॥
एतस्मिन्नन्तरे शूरो दशग्रीवः प्रतापवान्।
आरुरोह रथं दिव्यं निर्मितं विश्वकर्मणा ॥२९॥
इसी बीच में प्रतापी वीर दशग्रीव भी विश्वकर्मा के बनाये हुए दिव्य रथ पर सवार हुआ॥ २९॥
पन्नगैः सुमहाकायैर्वेष्टितं लोमहर्षणैः।
येषां निःश्वासवातेन प्रदीप्तमिव संयुगे॥३०॥
उस रथ में रोंगटे खड़े कर देने वाले विशालकाय सर्प लिपटे हुए थे। उनकी निःश्वास-वायु से वह रथ उस युद्धस्थल में ज्वलित-सा जान पड़ता था॥ ३०॥
दैत्यैर्निशाचरैश्चैव स रथः परिवारितः।
समराभिमुखो दिव्यो महेन्द्रं सोऽभ्यवर्तत॥३१॥
दैत्यों और निशाचरों ने उस रथ को सब ओर से घेर रखा था। समराङ्गण की ओर बढ़ता हुआ रावण का वह दिव्य रथ महेन्द्र के सामने जा पहुँचा॥ ३१ ॥
पुत्रं तं वारयित्वा तु स्वयमेव व्यवस्थितः।
सोऽपि युद्धाद् विनिष्क्रम्य रावणिः समुपाविशत्॥ ३२॥
रावण अपने पुत्र को रोककर स्वयं ही युद्ध के लिये खड़ा हुआ। तब रावणपुत्र मेघनाद युद्धस्थल से निकलकर चुपचाप अपने रथ पर जा बैठा॥ ३२॥
ततो युद्धं प्रवृत्तं तु सुराणां राक्षसैः सह।
शस्त्राणि वर्षतां तेषां मेघानामिव संयुगे॥३३॥
फिर तो देवताओं का राक्षसों के साथ घोर युद्ध होने लगा। जल की वर्षा करने वाले मेघों के समान देवता युद्धस्थल में अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे॥३३॥
कुम्भकर्णस्तु दुष्टात्मा नानाप्रहरणोद्यतः।
नाज्ञायत तदा राजन् युद्धं केनाभ्यपद्यत ॥ ३४॥
राजन्! दुष्टात्मा कुम्भकर्ण नाना प्रकार के अस्त्रशस्त्र लिये किसके साथ युद्ध करता था, इसका पता नहीं लगता था (अर्थात् मतवाला होने के कारण अपने और पराये सभी सैनिकों के साथ जूझने लगता था) ॥ ३४॥
दन्तैः पादैर्भुजैर्हस्तैः शक्तितोमरमुद्गरैः ।
येन तेनैव संक्रुद्धस्ताडयामास देवताः॥ ३५॥
वह अत्यन्त कुपित हो दाँत, लात, भुजा, हाथ, शक्ति, तोमर और मुद्गर आदि जो ही पाता उसी से देवताओं को पीटता था॥ ३५ ॥
स तु रुदैर्महाघोरैः संगम्याथ निशाचरः।
प्रयुद्धस्तैश्च संग्रामे क्षतः शस्त्रैर्निरन्तरम्॥३६॥
वह निशाचर महाभयङ्कर रुद्रों के साथ भिड़कर घोर युद्ध करने लगा। संग्राम में रुद्रों ने अपने अस्त्रशस्त्रों द्वारा उसे ऐसा क्षत-विक्षत कर दिया था कि उसके शरीर में थोड़ी-सी भी जगह बिना घाव के नहीं रह गयी थी॥३६॥
बभौ शस्त्राचिततनुः कुम्भकर्णः क्षरन्नसृक्।
विद्युत्स्तनितनिर्घोषो धारावानिव तोयदः॥ ३७॥
कुम्भकर्ण का शरीर शस्त्रों से व्याप्त हो खून की धारा बहा रहा था। उस समय वह बिजली तथा गर्जना से युक्त जलकी धारा गिराने वाले मेघ के समान जान पड़ता था॥
ततस्तद् राक्षसं सैन्यं प्रयुद्धं समरुद्गणैः।
रणे विद्रावितं सर्वं नानाप्रहरणैस्तदा ॥ ३८॥
तदनन्तर घोर युद्ध में लगी हुई उस सारी राक्षससेना को रणभूमि में नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले रुद्रों और मरुद्गणों ने मार भगाया॥ ३८॥
केचिद् विनिहताः कृत्ताश्चेष्टन्ति स्म महीतले।
वाहनेष्ववसक्ताश्च स्थिता एवापरे रणे॥३९॥
कितने ही निशाचर मारे गये। कितने ही कटकर धरती पर लोटने और छटपटाने लगे और बहुत-से राक्षस प्राणहीन हो जाने पर भी उस रणभूमि में अपने वाहनों पर ही चिपटे रहे ॥ ३९॥
रथान् नागान् खरानुष्टान् पन्नगांस्तुरगांस्तथा।
शिशुमारान् वराहांश्च पिशाचवदनानपि॥४०॥
तान् समालिङ्ग्य बाहुभ्यां विष्टब्धाः केचिदुत्थिताः।
देवैस्तु शस्त्रसंभिन्ना मम्रिरे च निशाचराः॥४१॥
कुछ राक्षस रथों, हाथियों, गदहों, ऊँटों, सर्पो, घोड़ों, शिशुमारों, वराहों तथा पिशाचमुख वाहनों को दोनों भुजाओं से पकड़कर उनसे लिपटे हुए निश्चेष्ट हो गये थे। कितने ही जो पहले से मूर्छित होकर पड़े थे, मूर्छा दूर होने पर उठे, किंतु देवताओं के शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो मौत के मुख में चले गये॥ ४०-४१॥
चित्रकर्म इवाभाति सर्वेषां रणसम्प्लवः।
निहतानां प्रसुप्तानां राक्षसानां महीतले॥४२॥
प्राणों से हाथ धोकर धरती पर पड़े हुए उन समस्त राक्षसों का इस तरह युद्ध में मारा जाना जादू-सा आश्चर्यजनक जान पड़ता था॥ ४२॥
शोणितोदकनिष्पन्दा काकगृध्रसमाकुला।
प्रवृत्ता संयुगमुखे शस्त्रग्राहवती नदी॥४३॥
युद्ध के मुहाने पर खून की नदी बह चली, जिसके भीतर अनेक प्रकार के शस्त्र ग्राहों का भ्रम उत्पन्न करते थे। उस नदी के तट पर चारों ओर गीध और कौए छा गये थे॥४३॥
एतस्मिन्नन्तरे क्रुद्धो दशग्रीवः प्रतापवान्।
निरीक्ष्य तु बलं सर्वं दैवतैर्विनिपातितम्॥४४॥
इसी बीच में प्रतापी दशग्रीव ने जब देखा कि देवताओं ने हमारे समस्त सैनिकों को मार गिराया है, तब उसके क्रोध की सीमा न रही॥ ४४॥
स तं प्रतिविगाह्याशु प्रवृद्धं सैन्यसागरम्।
त्रिदशान् समरे निनन् शक्रमेवाभ्यवर्तत ॥ ४५ ॥
वह समुद्र के समान दूर तक फैली हुई देवसेना में घुस गया और समराङ्गण में देवताओं को मारता एवं धराशायी करता हुआ तुरंत ही इन्द्र के सामने जा पहुँचा॥ ४५ ॥
ततः शक्रो महच्चापं विस्फार्य सुमहास्वनम्।
यस्य विस्फारनिर्घोषैः स्तनन्ति स्म दिशो दश॥४६॥
तब इन्द्र ने जोर-जोर से टङ्कार करने वाले अपने विशाल धनुष को खींचा। उसकी टङ्कार-ध्वनि से दसों दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं॥ ४६॥
तद् विकृष्य महच्चापमिन्द्रो रावणमूर्धनि।
पातयामास स शरान् पावकादित्यवर्चसः॥४७॥
उस विशाल धनुष को खींचकर इन्द्र ने रावण के मस्तक पर अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी बाण मारे॥४७॥
तथैव च महाबाहुर्दशग्रीवो निशाचरः।
शक्रं कार्मुकविभ्रष्टैः शरवर्षैरवाकिरत्॥४८॥
इसी प्रकार महाबाहु निशाचर दशग्रीव ने भी अपने धनुष से छूटे हुए बाणों की वर्षा से इन्द्र को ढक दिया॥ ४८॥
प्रयुध्यतोरथ तयोर्बाणवषैः समन्ततः।
नाज्ञायत तदा किंचित् सर्वं हि तमसा वृतम्॥४९॥
वे दोनों घोर युद्ध में तत्पर हो जब बाणों की वृष्टि करने लगे, उस समय सब ओर सब कुछ अन्धकार से आच्छादित हो गया। किसी को किसी भी वस्तु की पहचान नहीं हो पाती थी॥ ४९॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डेऽष्टाविंशः सर्गः ॥२८॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ।२८॥
Good job you are doing guys….everyone should read this ramayana to know our religion better….thanks