वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 30 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 30
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
त्रिंशः सर्गः (सर्ग 30)
ब्रह्माजी का इन्द्रजित् को वरदान देकर इन्द्र को उसकी कैद से छुड़ाना,वैष्णव-यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिये कहना, उस यज्ञ को पूर्ण करके इन्द्र का स्वर्गलोक में जाना
जिते महेन्द्रेऽतिबले रावणस्य सुतेन वै।
प्रजापतिं पुरस्कृत्य ययुर्लङ्कां सुरास्तदा ॥१॥
रावणपुत्र मेघनाद जब अत्यन्त बलशाली इन्द्र को जीतकर अपने नगर में ले गया, तब सम्पूर्ण देवता प्रजापति ब्रह्माजी को आगे करके लङ्का में पहुँचे॥१॥
तत्र रावणमासाद्य पुत्रभ्रातृभिरावृतम्।।
अब्रवीद् गगने तिष्ठन् सामपूर्वं प्रजापतिः॥२॥
ब्रह्माजी आकाश में खड़े-खड़े ही पुत्रों और भाइयों के साथ बैठे हुए रावण के निकट जा उसे कोमल वाणी में समझाते हुए बोले- ॥२॥
वत्स रावण तुष्टोऽस्मि पुत्रस्य तव संयुगे।
अहोऽस्य विक्रमौदार्यं तव तुल्योऽधिकोऽपि वा॥३॥
‘वत्स रावण! युद्ध में तुम्हारे पुत्र की वीरता देखकर मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूँ। अहो! इसका उदार पराक्रम तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर है॥३॥
जितं हि भवता सर्वं त्रैलोक्यं स्वेन तेजसा।
कृता प्रतिज्ञा सफला प्रीतोऽस्मि ससुतस्य ते॥४॥
‘तुमने अपने तेज से समस्त त्रिलोकी पर विजय पायी है और अपनी प्रतिज्ञा सफल कर ली है। इसलिये पुत्रसहित तुम पर मैं बहुत प्रसन्न हूँ॥४॥
अयं च पुत्रोऽतिबलस्तव रावण वीर्यवान्।
जगतीन्द्रजिदित्येव परिख्यातो भविष्यति॥५॥
‘रावण! तुम्हारा यह पुत्र अतिशय बलशाली और पराक्रमी है। आज से यह संसार में इन्द्रजित् के नाम से विख्यात होगा॥ ५॥
बलवान् दुर्जयश्चैव भविष्यत्येव राक्षसः।
यं समाश्रित्य ते राजन् स्थापितास्त्रिदशा वशे॥६॥
‘राजन्! यह राक्षस बड़ा बलवान् और दुर्जय होगा, जिसका आश्रय लेकर तुमने समस्त देवताओं को अपने अधीन कर लिया॥६॥
तन्मुच्यतां महाबाहो महेन्द्रः पाकशासनः।
किं चास्य मोक्षणार्थाय प्रयच्छन्तु दिवौकसः॥
‘महाबाहो! अब तुम पाकशासन इन्द्र को छोड़ दो और बताओ इन्हें छोड़ने के बदले में देवता तुम्हें क्या दें’॥७॥
अथाब्रवीन्महातेजा इन्द्रजित् समितिंजयः।
अमरत्वमहं देव वृणे यद्येष मुच्यते॥८॥
तब युद्धविजयी महातेजस्वी इन्द्रजित् ने स्वयं ही कहा—’देव! यदि इन्द्र को छोड़ना है तो मैं इसके बदले में अमरत्व लेना चाहता हूँ॥८॥
ततोऽब्रवीन्महातेजा मेघनादं प्रजापतिः।
नास्ति सर्वामरत्वं हि कस्यचित् प्राणिनो भुवि॥
चतुष्पदां खेचराणामन्येषां च महौजसाम्।
यह सुनकर महातेजस्वी प्रजापति ब्रह्माजी ने मेघनाद से कहा—’बेटा! इस भूतल पर पक्षियों, चौपायों तथा महातेजस्वी मनुष्य आदि प्राणियों में से कोई भी प्राणी सर्वथा अमर नहीं हो सकता’ ॥ ९ १/२॥
श्रुत्वा पितामहेनोक्तमिन्द्रजित् प्रभुणाव्ययम्॥१०॥
अथाब्रवीत् स तत्रस्थं मेघनादो महाबलः।
भगवान् ब्रह्माजी की कही हुई यह बात सुनकर इन्द्रविजयी महाबली मेघनाद ने वहाँ खड़े हुए अविनाशी ब्रह्माजी से कहा- ॥ १० १/२॥
श्रूयतां या भवेत् सिद्धिः शतक्रतुविमोक्षणे॥११॥
ममेष्टं नित्यशो हव्यैर्मन्त्रैः सम्पूज्य पावकम्।
संग्राममवतर्तुं च शत्रुनिर्जयकाक्षिणः॥१२॥
अश्वयुक्तो रथो मह्यमुत्तिष्ठेत् तु विभावसोः।
तत्स्थस्यामरता स्यान्मे एष मे निश्चितो वरः॥१३॥
‘भगवन्! (यदि सर्वथा अमरत्व प्राप्त होना असम्भव है) तब इन्द्र को छोड़ने के सम्बन्ध में जो मेरी दूसरी शर्त है—जो दूसरी सिद्धि प्राप्त करना मुझे अभीष्ट है, उसे सुनिये। मेरे विषय में यह सदा के लिये नियम हो जाय कि जब मैं शत्रु पर विजय पाने की इच्छा से संग्राम में उतरना चाहूँ और मन्त्रयुक्त हव्य की आहुति से अग्निदेव की पूजा करूँ, उस समय अग्नि से मेरे लिये एक ऐसा रथ प्रकट हो जाया करे, जो घोड़ों से जुता-जुताया तैयार हो और उस पर जब तक मैं बैठा रहँ, तब तक मुझे कोई भी मार न सके, यही मेरा निश्चित वर है॥ ११–१३॥
तस्मिन् यद्यसमाप्ते च जप्यहोमे विभावसौ।
युध्येयं देव संग्रामे तदा मे स्याद् विनाशनम्॥१४॥
‘यदि युद्ध के निमित्त किये जाने वाले जप और होम को पूर्ण किये बिना ही मैं समराङ्गण में युद्ध करने लगें, तभी मेरा विनाश हो॥१४॥
सर्वो हि तपसा देव वृणोत्यमरतां पुमान्।
विक्रमेण मया त्वेतदमरत्वं प्रवर्तितम्॥१५॥
‘देव! सब लोग तपस्या करके अमरत्व प्राप्त करते हैं; परंतु मैंने पराक्रम द्वारा इस अमरत्व का वरण किया है’ ॥ १५ ॥
एवमस्त्विति तं चाह वाक्यं देवः पितामहः।
मुक्तश्चेन्द्रजिता शक्रो गताश्च त्रिदिवं सुराः॥
यह सुनकर भगवान् ब्रह्माजी ने कहा—’एवमस्तु (ऐसा ही हो)’ इसके बाद इन्द्रजित् ने इन्द्र को मुक्त कर दिया और सब देवता उन्हें साथ लेकर स्वर्गलोक को चले गये॥ १६॥
एतस्मिन्नन्तरे राम दीनो भ्रष्टामरद्युतिः।
इन्द्रश्चिन्तापरीतात्मा ध्यानतत्परतां गतः॥१७॥
श्रीराम ! उस समय इन्द्र का देवोचित तेज नष्ट हो गया था। वे दुःखी हो चिन्ता में डूबकर अपनी पराजय का कारण सोचने लगे॥१७॥
तं तु दृष्ट्वा तथा भूतं प्राह देवः पितामहः।
शतक्रतो किमु पुरा करोति स्म सुदुष्कृतम्॥१८॥
भगवान् ब्रह्माजी ने उनकी इस अवस्था को लक्ष्य किया और कहा—’शतक्रतो! यदि आज तुम्हें इस अपमान से शोक और दुःख हो रहा है तो बताओ पूर्वकाल में तुमने बड़ा भारी दुष्कर्म क्यों किया था? ॥ १८॥
अमरेन्द्र मया बुद्ध्या प्रजाः सृष्टास्तथा प्रभो।
एकवर्णाः समाभाषा एकरूपाश्च सर्वशः॥
‘प्रभो! देवराज! पहले मैंने अपनी बुद्धि से जिन प्रजाओं को उत्पन्न किया था, उन सबकी अङ्गकान्ति, भाषा, रूप और अवस्था सभी बातें एक-जैसी थीं॥ १९॥
तासां नास्ति विशेषो हि दर्शने लक्षणेऽपि वा।
ततोऽहमेकाग्रमनास्ताः प्रजाः समचिन्तयम्॥२०॥
‘उनके रूप और रंग आदि में परस्पर कोई विलक्षणता नहीं थी। तब मैं एकाग्रचित्त होकर उन प्रजाओं के विषय में विशेषता लाने के लिये कुछ विचार करने लगा॥ २०॥
सोऽहं तासां विशेषार्थं स्त्रियमेकां विनिर्ममे।
यद् यत् प्रजानां प्रत्यङ्गं विशिष्टं तत् तदुद्धृतम्॥२१॥
‘विचार के पश्चात् उन सब प्रजाओं की अपेक्षा विशिष्ट प्रजा को प्रस्तुत करने के लिये मैंने एक नारी की सृष्टि की प्रजाओं के प्रत्येक अङ्ग में जो-जो अद्भुत विशिष्टता-सारभूत सौन्दर्य था, उसे मैंने उसके अङ्गों में प्रकट किया॥२१॥
ततो मया रूपगुणैरहल्या स्त्री विनिर्मिता।
हलं नामेह वैरूप्यं हल्यं तत्प्रभवं भवेत्॥२२॥
यस्या न विद्यते हल्यं तेनाहल्येति विश्रुता।
अहल्येत्येव च मया तस्या नाम प्रकीर्तितम्॥२३॥
‘उन अद्भुत रूप-गुणों से उपलक्षित जिस नारी का मेरे द्वारा निर्माण हुआ था, उसका नाम हुआ अहल्या। इस जगत् में हल कहते हैं कुरूपता को, उससे जो निन्दनीयता प्रकट होती है उसका नाम हल्य है। जिस नारी में हल्य (निन्दनीय रूप) न हो, वह अहल्या कहलाती है; इसीलिये वह नवनिर्मित नारी अहल्या नाम से विख्यात हुई। मैंने ही उसका नाम अहल्या रख दिया था॥ २२-२३॥
निर्मितायां च देवेन्द्र तस्यां नार्यां सुरर्षभ।
भविष्यतीति कस्यैषा मम चिन्ता ततोऽभवत्॥२४॥
‘देवेन्द्र! सुरश्रेष्ठ! जब उस नारी का निर्माण हो गया, तब मेरे मन में यह चिन्ता हुई कि यह किसकी पत्नी होगी? ॥ २४॥
त्वं तु शक्र तदा नारी जानीषे मनसा प्रभो।
स्थानाधिकतया पत्नी ममैषेति पुरंदर॥२५॥
‘प्रभो! पुरंदर! देवेन्द्र! उन दिनों तुम अपने स्थान और पद की श्रेष्ठता के कारण मेरी अनुमति के बिना ही मन-ही-मन यह समझने लगे थे कि यह मेरी ही पत्नी होगी॥ २५॥
सा मया न्यासभूता तु गौतमस्य महात्मनः।
न्यस्ता बहूनि वर्षाणि तेन निर्यातिता च ह॥२६॥
‘मैंने धरोहर के रूप में महर्षि गौतम के हाथ में उस कन्या को सौंप दिया। वह बहुत वर्षोंतक उनके यहाँ रही। फिर गौतम ने उसे मुझे लौटा दिया॥ २६ ॥
ततस्तस्य परिज्ञाय महास्थैर्यं महामुनेः।
ज्ञात्वा तपसि सिद्धिं च पत्न्यर्थं स्पर्शिता तदा॥२७॥
‘महामुनि गौतम के उस महान् स्थैर्य (इन्द्रियसंयम) तथा तपस्याविषयक सिद्धि को जानकर मैंने वह कन्या पुनः उन्हीं को पत्नी रूप में दे दी॥ २७॥
स तया सह धर्मात्मा रमते स्म महामुनिः।
आसन्निराशा देवास्तु गौतमे दत्तया तया॥२८॥
‘धर्मात्मा महामुनि गौतम उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगे। जब अहल्या गौतम को दे दी गयी, तब देवता निराश हो गये॥२८॥
त्वं क्रुद्धस्त्विह कामात्मा गत्वा तस्याश्रमं मुनेः।
दृष्टवांश्च तदा तां स्त्री दीप्तामग्निशिखामिव॥२९॥
‘तुम्हारे तो क्रोध की सीमा न रही। तुम्हारा मन काम के अधीन हो चुका था; इसलिये तुमने मुनि के आश्रम पर जाकर अग्निशिखा के समान प्रज्वलित होने वाली उस दिव्य सुन्दरी को देखा॥ २९॥
सा त्वया धर्षिता शक्र कामार्तेन समन्युना।
दृष्टस्त्वं स तदा तेन आश्रमे परमर्षिणा॥३०॥
‘इन्द्र! तुमने कुपित और काम से पीड़ित होकर उसके साथ बलात्कार किया। उस समय उन महर्षि ने अपने आश्रम में तुम्हें देख लिया॥ ३० ॥
ततः क्रुद्धेन तेनासि शप्तः परमतेजसा।
गतोऽसि येन देवेन्द्र दशाभागविपर्ययम्॥३१॥
‘देवेन्द्र! इससे उन परम तेजस्वी महर्षि को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने तुम्हें शाप दे दिया। उसी शाप के कारण तुमको इस विपरीत दशा में आना पड़ा है-शत्रु का बंदी बनना पड़ा है।॥ ३१॥
यस्मान्मे धर्षिता पत्नी त्वया वासव निर्भयात्।
तस्मात् त्वं समरे शक्र शत्रुहस्तं गमिष्यसि॥३२॥
‘उन्होंने शाप देते हुए कहा—’वासव! शक्र ! तुमने निर्भय होकर मेरी पत्नी के साथ बलात्कार किया है; इसलिये तुम युद्ध में जाकर शत्रु के हाथ में पड़ जाओगे॥ ३२॥
अयं तु भावो दुर्बुद्धे यस्त्वयेह प्रवर्तितः।
मानुषेष्वपि लोकेषु भविष्यति न संशयः॥ ३३॥
‘दुर्बुद्धे ! तुम-जैसे राजा के दोष से मनुष्यलोक में भी यह जारभाव प्रचलित हो जायगा, जिसका तुमने स्वयं यहाँ सूत्रपात किया है। इसमें संशय नहीं है। ३३॥
तत्रार्धं तस्य यः कर्ता त्वय्यर्धं निपतिष्यति।
न च ते स्थावरं स्थानं भविष्यति न संशयः॥३४॥
‘जो जारभाव से पापाचार करेगा, उस पुरुष पर उस पाप का आधा भाग पड़ेगा और आधा तुम पर पड़ेगा;क्योंकि इसके प्रवर्तक तुम्ही हो। निःसंदेह तुम्हारा यह स्थान स्थिर नहीं होगा॥ ३४ ॥
यश्च यश्च सुरेन्द्रः स्याद् ध्रुवः स न भविष्यति।
एष शापो मया मुक्त इत्यसौ त्वां तदाब्रवीत्॥३५॥
‘जो कोई भी देवराज के पद पर प्रतिष्ठित होगा, वह वहाँ स्थिर नहीं रहेगा। यह शाप मैंने इन्द्रमात्र के लिये दे दिया है।’ यह बात मुनि ने तुमसे कही थी॥ ३५ ॥
तां तु भार्यां सुनिर्भर्त्य सोऽब्रवीत् सुमहातपाः।
दुर्विनीते विनिध्वंस ममाश्रमसमीपतः॥३६॥
रूपयौवनसम्पन्ना यस्मात् त्वमनवस्थिता।
तस्माद् रूपवती लोके न त्वमेका भविष्यति॥३७॥
‘फिर उन महातपस्वी मुनि ने अपनी उस पत्नी को भी भलीभाँति डाँट-फटकारकर कहा—’दुष्टे! तू मेरे आश्रम के पास ही अदृश्य होकर रह और अपने रूप सौन्दर्य से भ्रष्ट हो जा। रूप और यौवन से सम्पन्न होकर मर्यादा में स्थित नहीं रह सकी है, इसलिये अब लोक में तू अकेली ही रूपवती नहीं रहेगी (बहुत-सी रूपवती स्त्रियाँ उत्पन्न हो जायँगी) ॥ ३६-३७॥
रूपं च ते प्रजाः सर्वा गमिष्यन्ति न संशयः।
यत् तदेकं समाश्रित्य विभ्रमोऽयमुपस्थितः॥३८॥
‘जिस एक रूप-सौन्दर्य को लेकर इन्द्र के मन में यह काम-विकार उत्पन्न हुआ था, तेरे उस रूप सौन्दर्य को समस्त प्रजाएँ प्राप्त कर लेंगी; इसमें संशय नहीं है’।
तदाप्रभृति भूयिष्ठं प्रजा रूपसमन्विता।
सा तं प्रसादयामास महर्षि गौतमं तदा ॥ ३९॥
अज्ञानाद् धर्षिता विप्र त्वद्रूपेण दिवौकसा।
न कामकाराद् विप्रर्षे प्रसादं कर्तुमर्हसि॥४०॥
‘तभी से अधिकांश प्रजा रूपवती होने लगी। अहल्या ने उस समय विनीत-वचनों द्वारा महर्षि गौतम को प्रसन्न किया और कहा–’विप्रवर ! ब्रह्मर्षे ! देवराज ने आपका ही रूप धारण करके मुझे कलङ्कित किया है। मैं उसे पहचान न सकी थी। अतः अनजान में मुझसे यह अपराध हुआ है, स्वेच्छाचार वश नहीं। इसलिये आपको मुझ पर कृपा करनी चाहिये’॥ ३९-४०॥
अहल्यया त्वेवमुक्तः प्रत्युवाच स गौतमः।
उत्पत्स्यति महातेजा इक्ष्वाकूणां महारथः॥४१॥
रामो नाम श्रुतो लोके वनं चाप्युपयास्यति।
ब्राह्मणार्थे महाबाहुर्विष्णुर्मानुषविग्रहः॥४२॥
तं द्रक्ष्यसि यदा भद्रे ततः पूता भविष्यसि।
स हि पावयितुं शक्तस्त्वया यद् दुष्कृतं कृतम्॥४३॥
‘अहल्या के ऐसा कहने पर गौतम ने उत्तर दिया —’भद्रे! इक्ष्वाकुवंश में एक महातेजस्वी महारथी वीर का अवतार होगा, जो संसार में श्रीराम के नाम से विख्यात होंगे। महाबाहु श्रीराम के रूप में साक्षात् भगवान् विष्णु ही मनुष्य-शरीर धारण करके प्रकट होंगे। वे ब्राह्मण (विश्वामित्र आदि)-के कार्य से तपोवन में पधारेंगे। जब तुम उनका दर्शन करोगी, तब पवित्र हो जाओगी। तुमने जो पाप किया है, उससे तुम्हें वे ही पवित्र कर सकते हैं। ४१-४३॥
तस्यातिथ्यं च कृत्वा वै मत्समीपं गमिष्यसि।
वत्स्यसि त्वं मया सार्धं तदा हि वरवर्णिनि॥४४॥
‘वरवर्णिनि! उनका आतिथ्य-सत्कार करके तुम मेरे पास आ जाओगी और फिर मेरे ही साथ रहने लगोगी’॥
एवमुक्त्वा तु विप्रर्षिराजगाम स्वमाश्रमम्।
तपश्चचार सुमहत् सा पत्नी ब्रह्मवादिनः॥४५॥
‘ऐसा कहकर ब्रह्मर्षि गौतम अपने आश्रम के भीतर आ गये और उन ब्रह्मवादी मुनि की पत्नी वह अहल्या बड़ी भारी तपस्या करने लगी॥ ४५ ॥
शापोत्सर्गाद्धि तस्येदं मुनेः सर्वमुपस्थितम्।
तत् स्मर त्वं महाबाहो दुष्कृतं यत् त्वया कृतम्॥४६॥
‘महाबाहो! उन ब्रह्मर्षि गौतम के शाप देने से ही तुम पर यह सारा संकट उपस्थित हुआ है। अतः तुमने जो पाप किया था, उसको याद करो॥ ४६॥
तेन त्वं ग्रहणं शत्रोर्यातो नान्येन वासव।
शीघ्रं वै यज यज्ञं त्वं वैष्णवं सुसमाहितः॥४७॥
‘वासव! उस शाप के ही कारण तुम शत्रु की कैद में पड़े हो, दूसरे किसी कारण से नहीं। अतः अब एकाग्रचित्त हो शीघ्र ही वैष्णव-यज्ञ का अनुष्ठान करो॥४७॥
पावितस्तेन यज्ञेन यास्यसे त्रिदिवं ततः।
पुत्रश्च तव देवेन्द्र न विनष्टो महारणे॥४८॥
नीतः संनिहितश्चैव आर्यकेण महोदधौ।
‘देवेन्द्र! उस यज्ञ से पवित्र होकर तुम पुनः स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे। तुम्हारा पुत्र जयन्त उस महासमर में मारा नहीं गया है। उसका नाना पुलोमा उसे महासागर में ले गया है। इस समय वह उसी के पास है’।
एतच्छ्रुत्वा महेन्द्रस्तु यज्ञमिष्ट्वा च वैष्णवम्॥४९॥
पुनस्त्रिदिवमाक्रामदन्वशासच्च देवराट्।
ब्रह्माजी की यह बात सुनकर देवराज इन्द्र ने वैष्णवयज्ञ का अनुष्ठान किया। वह यज्ञ पूरा करके देवराज स्वर्गलोक में गये और वहाँ देवराज्य का शासन करने लगे॥ ४९ १/२॥
एतदिन्द्रजितो नाम बलं यत् कीर्तितं मया॥५०॥
निर्जितस्तेन देवेन्द्रः प्राणिनोऽन्ये तु किं पुनः।
रघुनन्दन! यह है इन्द्रविजयी मेघनाद का बल, जिसका मैंने आपसे वर्णन किया है। उसने देवराज इन्द्र को भी जीत लिया था; फिर दूसरे प्राणियों की तो बिसात ही क्या थी॥ ५० १/२॥
आश्चर्यमिति रामश्च लक्ष्मणश्चाब्रवीत् तदा॥५१॥
अगस्त्यवचनं श्रुत्वा वानरा राक्षसास्तदा।
अगस्त्यजी की यह बात सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण तत्काल बोल उठे—’आश्चर्य है।’ साथ ही वानरों और राक्षसों को भी इस बात से बड़ा विस्मय हुआ॥ ५१ १/२॥
विभीषणस्तु रामस्य पार्श्वस्थो वाक्यमब्रवीत्॥
आश्चर्यं स्मारितोऽस्म्यद्य यत् तद् दृष्टं पुरातनम्।
उस समय श्रीराम के बगल में बैठे हुए विभीषण ने कहा—’मैंने पूर्वकालमें जो आश्चर्यकी बातें देखी थीं, उनका आज महर्षि ने स्मरण दिला दिया है’ ॥ ५२ १/२॥
अगस्त्यं त्वब्रवीद् रामः सत्यमेतच्छ्रुतं च मे॥५३॥
एवं राम समुद्भूतो रावणो लोककण्टकः।
सपनो येन संग्रामे जितः शक्रः सुरेश्वरः॥५४॥
तब श्रीरामचन्द्रजी ने अगस्त्यजी से कहा—’आपकी बात सत्य है। मैंने भी विभीषण के मुख से यह बात सुनी थी।’ फिर अगस्त्यजी बोले-‘श्रीराम! इस प्रकार पुत्रसहित रावण सम्पूर्ण जगत् के लिये कण्टकरूप था, जिसने देवराज इन्द्र को भी संग्राम में जीत लिया था’।। ५३-५४॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे त्रिंशः सर्गः॥३०॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ।३०॥