वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 5 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 5
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
पञ्चमः सर्गः (सर्ग 5)
सुकेश के पुत्र माल्यवान्, सुमाली और माली की संतानों का वर्णन
सुकेशं धार्मिकं दृष्ट्वा वरलब्धं च राक्षसम्।
ग्रामणीर्नाम गन्धर्वो विश्वावसुसमप्रभः॥१॥
तस्य देववती नाम द्वितीया श्रीरिवात्मजा।
त्रिषु लोकेषु विख्याता रूपयौवनशालिनी॥२॥
तां सुकेशाय धर्मात्मा ददौ रक्षःश्रियं यथा।
(अगस्त्यजी कहते हैं—रघुनन्दन!) तदनन्तर एक दिन विश्वावसु के समान तेजस्वी ग्रामणी नामक गन्धर्व ने राक्षस सुकेश को धर्मात्मा तथा वरप्राप्त वैभव से सम्पन्न देख अपनी देववती नामक कन्या का उसके साथ ब्याह कर दिया। वह कन्या दूसरी लक्ष्मी के समान दिव्य रूप और यौवन से सुशोभित एवं तीनों लोकों में विख्यात थी। धर्मात्मा ग्रामणी ने राक्षसों की मूर्तिमती राजलक्ष्मी के समान देववती का हाथ सुकेश के हाथ में दे दिया॥ १-२ १/२॥
वरदानकृतैश्वर्यं सा तं प्राप्य पतिं प्रियम्॥३॥
आसीद् देववती तुष्टा धनं प्राप्येव निर्धनः।
वरदान में मिले हुए ऐश्वर्य से सम्पन्न प्रियतम पति को पाकर देववती बहुत संतुष्ट हुई, मानो किसी निर्धन को धन की राशि मिल गयी हो ॥ ३ १/२ ।।
स तया सह संयुक्तो रराज रजनीचरः॥४॥
अञ्जनादभिनिष्क्रान्तः करेण्वेव महागजः।
जैसे अञ्जन नामक दिग्गज से उत्पन्न कोई महान् गज किसी हथिनी के साथ शोभा पा रहा हो, उसी तरह वह राक्षस गन्धर्व-कन्या देववती के साथ रहकर अधिक शोभा पाने लगा॥ ४ १/२॥
ततः काले सुकेशस्तु जनयामास राघव॥५॥
त्रीन् पुत्राञ्जनयामास त्रेताग्निसमविग्रहान्।
रघुनन्दन! तदनन्तर समय आने पर सुकेश ने देववती के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न किये, जो तीन* अग्नियों के समान तेजस्वी थे॥ ५ १/२॥
* गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि।
माल्यवन्तं सुमालिं च मालिं च बलिनां वरम्॥
त्रींस्त्रिनेत्रसमान् पुत्रान् राक्षसान् राक्षसाधिपः।
उनके नाम थे—माल्यवान्, सुमाली और माली। माली बलवानों में श्रेष्ठ था। वे तीनों त्रिनेत्रधारी महादेवजी के समान शक्तिशाली थे। उन तीनों राक्षसपुत्रों को देखकर राक्षसराज सुकेश बड़ा प्रसन्न हुआ॥ ६ १/२॥
त्रयो लोका इवाव्यग्राः स्थितास्त्रय इवाग्नयः॥७॥
त्रयो मन्त्रा इवात्युग्रास्त्रयो घोरा इवामयाः।
वे तीनों लोकों के समान सुस्थिर, तीन अग्नियों के समान तेजस्वी, तीन मन्त्रों (शक्तियों अथवा वेदों’)के समान उग्र तथा तीन रोगों के समान अत्यन्त भयंकर थे॥ ७ १/२ ॥
१. प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति तथा मन्त्र-शक्ति-ये तीन शक्तियाँ हैं। २. ऋग्, यजु और साम—ये तीन वेद हैं। ३. वात, पित्त और कफ-इनके प्रकोप से उत्पन्न होने वाले तीन प्रकार के रोग हैं।
त्रयः सुकेशस्य सुतास्त्रेताग्निसमतेजसः॥८॥
विवृद्धिमगमंस्तत्र व्याधयोपेक्षिता इव।
सुकेश के वे तीनों पुत्र त्रिविध अग्नियों के समान तेजस्वी थे। वे वहाँ उसी तरह बढ़ने लगे, जैसे उपेक्षावश दवा न करने से रोग बढ़ते हैं॥ ८ १/२॥
वरप्राप्तिं पितुस्ते तु ज्ञात्वैश्वर्यं तपोबलात्॥९॥
तपस्तप्तुं गता मेरुं भ्रातरः कृतनिश्चयाः।
उन्हें जब यह मालूम हुआ कि हमारे पिता को तपोबल के द्वारा वरदान एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति हुई है, तब वे तीनों भाई तपस्या करने का निश्चय करके मेरुपर्वत पर चले गये॥९ १/२॥
प्रगृह्य नियमान् घोरान् राक्षसा नृपसत्तम॥१०॥
विचेरुस्ते तपो घोरं सर्वभूतभयावहम्।
नृपश्रेष्ठ! वे राक्षस वहाँ भयंकर नियमों को ग्रहण करके घोर तपस्या करने लगे। उनकी वह तपस्या समस्त प्राणियों को भय देने वाली थी॥ १० १/२ ॥
सत्यार्जवशमोपेतैस्तपोभिर्भुवि दुर्लभैः॥११॥
संतापयन्तस्त्रील्लोकान् सदेवासुरमानुषान्।
सत्य, सरलता एवं शम-दम आदि से युक्त तप के द्वारा, जो भूतल पर दुर्लभ है, वे देवताओं, असुरों और मनुष्योंसहित तीनों लोकों को संतप्त करने लगे। ११ १/२॥
ततो विभुश्चतुर्वक्त्रो विमानवरमाश्रितः॥१२॥
सुकेशपुत्रानामन्त्र्य वरदोऽस्मीत्यभाषत।
तब चार मुखवाले भगवान् ब्रह्मा एक श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वहाँ गये और सुकेश के पुत्रों को सम्बोधित करके बोले—’मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ’॥ १२ १/२॥
ब्रह्माणं वरदं ज्ञात्वा सेन्ट्रैर्देवगणैर्वृतम्॥१३॥
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे वेपमाना इव द्रुमाः।
इन्द्र आदि देवताओं से घिरे हुए वरदायक ब्रह्माजी को आया जान वे सब-के-सब वृक्षों के समान काँपते हुए हाथ जोड़कर बोले- ॥ १३ १/२॥
तपसाऽऽराधितो देव यदि नो दिशसे वरम्॥१४॥
अजेयाः शत्रुहन्तारस्तथैव चिरजीविनः।
प्रभविष्ण्वो भवामेति परस्परमनुव्रताः॥१५॥
‘देव! यदि आप हमारी तपस्या से आराधित एवं संतुष्ट होकर हमें वर देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये, जिससे हमें कोई परास्त न कर सके। हम शत्रुओं का वध करने में समर्थ, चिरजीवी तथा प्रभावशाली हों। साथ ही हमलोगों में परस्पर प्रेम बना रहे’ ॥ १४-१५॥
एवं भविष्यथेत्युक्त्वा सुकेशतनयान् विभुः।
स ययौ ब्रह्मलोकाय ब्रह्मा ब्राह्मणवत्सलः॥१६॥
यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा—’तुम ऐसे ही होओगे’। सुकेश के पुत्रों से ऐसा कहकर ब्राह्मणवत्सल ब्रह्माजी ब्रह्मलोक को चले गये॥१६॥
वरं लब्ध्वा तु ते सर्वे राम रात्रिंचरास्तदा।
सुरासुरान् प्रबाधन्ते वरदानसुनिर्भयाः॥१७॥
श्रीराम! वर पाकर वे सब निशाचर उस वरदान से अत्यन्त निर्भय हो देवताओं तथा असुरों को भी बहुत कष्ट देने लगे॥ १७॥
तैर्बाध्यमानास्त्रिदशाः सर्षिसङ्घाः सचारणाः।
त्रातारं नाधिगच्छन्ति निरयस्था यथा नराः॥१८॥
उनके द्वारा सताये जाते हुए देवता, ऋषि-समुदाय और चारण नरक में पड़े हुए मनुष्यों के समान किसी को अपना रक्षक या सहायक नहीं पाते थे। १८॥
अथ ते विश्वकर्माणं शिल्पिनां वरमव्ययम्।
ऊचुः समेत्य संहृष्टा राक्षसा रघुसत्तम॥१९॥
‘रघुवंशशिरोमणे! एक दिन शिल्प-कर्म के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ अविनाशी विश्वकर्मा के पास जाकर वे राक्षस हर्ष और उत्साह से भरकर बोले- ॥ १९॥
ओजस्तेजोबलवतां महतामात्मतेजसा।
गृहकर्ता भवानेव देवानां हृदयेप्सितम्॥२०॥
अस्माकमपि तावत् त्वं गृहं कुरु महामते।
हिमवन्तमुपाश्रित्य मेरुं मन्दरमेव वा॥२१॥
महेश्वरगृहप्रख्यं गृहं नः क्रियतां महत्।
‘महामते! जो ओज, बल और तेज से सम्पन्न होने के कारण महान् हैं, उन देवताओं के लिये आप ही अपनी शक्ति से मनोवाञ्छित भवन का निर्माण करते हैं, अतः हमारे लिये भी आप हिमालय,मेरु अथवा मन्दराचल पर चलकर भगवान् शंकर के दिव्य भवन की भाँति एक विशाल निवासस्थान का निर्माण कीजिये’। २०-२१ १/२॥
विश्वकर्मा ततस्तेषां राक्षसानां महाभुजः॥२२॥
निवासं कथयामास शक्रस्येवामरावतीम्।
यह सुनकर महाबाहु विश्वकर्मा ने उन राक्षसों को एक ऐसे निवासस्थान का पता बताया, जो इन्द्रकी अमरावती को भी लज्जित करने वाला था॥ २२ १/२॥
दक्षिणस्योदधेस्तीरे त्रिकूटो नाम पर्वतः॥२३॥
सुवेल इति चाप्यन्यो द्वितीयो राक्षसेश्वरः।
(वे बोले-) ‘राक्षसपतियो! दक्षिण समुद्र के तट पर एक त्रिकूट नामक पर्वत है और दूसरा सुवेल नाम से विख्यात शैल है।। २३ १/२ ॥
शिखरे तस्य शैलस्य मध्यमेऽम्बुदसंनिभे॥२४॥
शकुनैरपि दुष्प्रापे टङ्कच्छिन्नचतुर्दिशि।
त्रिंशद्योजनविस्तीर्णा शतयोजनमायता॥ २५॥
स्वर्णप्राकारसंवीता हेमतोरणसंवृता।
मया लङ्केति नगरी शक्राज्ञप्तेन निर्मिता॥२६॥
‘उस त्रिकूटपर्वत के मझले शिखर पर जो हरा-भरा होने के कारण मेघ के समान नीला दिखायी देता है तथा जिसके चारों ओर के आश्रय टाँकी से काट दिये गये हैं, अतएव जहाँ पक्षियों के लिये भी पहुँचना कठिन है, मैंने इन्द्र की आज्ञा से लङ्का नामक नगरी का निर्माण किया है। वह तीस योजन चौड़ी और सौ योजन लम्बी है। उसके चारों ओर सोने की चहारदीवारी है और उसमें सोने के ही फाटक लगे हैं ॥ २४–२६॥
तस्यां वसत दुर्धर्षा यूयं राक्षसपुंगवाः।
अमरावतीं समासाद्य सेन्द्रा इव दिवौकसः॥२७॥
‘दुर्धर्ष राक्षसशिरोमणियो! जैसे इन्द्र आदि देवता अमरावतीपुरी का आश्रय लेकर रहते हैं, उसी प्रकार तुम लोग भी उस लङ्कापुरी में जाकर निवास करो॥ २७॥
लङ्कादुर्गं समासाद्य राक्षसैर्बहुभिर्वृताः।
भविष्यथ दुराधर्षाः शत्रूणां शत्रुसूदनाः॥२८॥
‘शत्रुसूदन वीरो! लङ्का के दुर्ग का आश्रय लेकर बहुत-से राक्षसों के साथ जब तुम निवास करोगे, उस समय शत्रुओं के लिये तुम पर विजय पाना अत्यन्त कठिन होगा’ ॥ २८॥
विश्वकर्मवचः श्रुत्वा ततस्ते राक्षसोत्तमाः।
सहस्रानुचरा भूत्वा गत्वा तामवसन् पुरीम्॥२९॥
विश्वकर्मा की यह बात सुनकर वे श्रेष्ठ राक्षस सहस्रों अनुचरों के साथ उस पुरी में जाकर बस गये॥ २९॥
दृढप्राकारपरिखां हैमैहशतैर्वृताम्।
लङ्कामवाप्य ते हृष्टा न्यवसन् रजनीचराः॥३०॥
उसकी खाई और चहारदीवारी बड़ी मजबूत बनी थी। सोने के सैकड़ों महल उस नगरी की शोभा बढ़ा रहे थे। उस लङ्कापुरी में पहुँचकर वे निशाचर बड़े हर्ष के साथ वहाँ रहने लगे॥३०॥
एतस्मिन्नेव काले तु यथाकामं च राघव।
नर्मदा नाम गन्धर्वी बभूव रघुनन्दन॥३१॥
तस्याः कन्यात्रयं ह्यासीद् ह्रीश्रीकीर्तिसमद्युति।
ज्येष्ठक्रमेण सा तेषां राक्षसानामराक्षसी॥३२॥
कन्यास्ताः प्रददौ हृष्टाः पूर्णचन्द्रनिभाननाः।
रघुकुलनन्दन श्रीराम! इन्हीं दिनों नर्मदा नाम की एक गन्धर्वी थी। उसके तीन कन्याएँ हुईं, जो ह्री, श्री, और कीर्ति* के समान शोभासम्पन्न थीं। इनकी माता यद्यपि राक्षसी नहीं थी तो भी उसने अपनी रुचि के अनुसार सुकेश के उन तीनों राक्षसजातीय पुत्रों के साथ अपनी कन्याओं का ज्येष्ठ आदि अवस्था के अनुसार विवाह कर दिया। वे कन्याएँ बहुत प्रसन्न थीं। उनके मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर थे॥ ३१-३२ १/२॥
* ये तीन देवियाँ हैं, जो क्रमशः लज्जा, शोभा-सम्पत्ति और कीर्ति की अधिष्ठात्री मानी गयी हैं।
त्रयाणां राक्षसेन्द्राणां तिस्रो गन्धर्वकन्यकाः॥३३॥
दत्ता मात्रा महाभागा नक्षत्रे भगदैवते।
माता नर्मदा ने उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उन तीनों महाभाग्यवती गन्धर्व-कन्याओं को उन तीनों राक्षसराजों के हाथ में दे दिया॥३३ १/२॥
कृतदारास्तु ते राम सुकेशतनयास्तदा ॥ ३४॥
चिक्रीडुः सह भार्याभिरप्सरोभिरिवामराः।
श्रीराम! जैसे देवता अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते हैं, उसी प्रकार सुकेश के पुत्र विवाह के पश्चात् अपनी उन पत्नियों के साथ रहकर लौकिक सुख का उपभोग करने लगे॥ ३४ १/२॥
ततो माल्यवतो भार्या सुन्दरी नाम सुन्दरी॥३५॥
स तस्यां जनयामास यदपत्यं निबोध तत्।
उनमें माल्यवान् की स्त्री का नाम सुन्दरी था। वह अपने नाम के अनुरूप ही परम सुन्दरी थी। माल्यवान् ने उसके गर्भ से जिन संतानों को जन्म दिया, उन्हें बता रहा हूँ, सुनिये॥ ३५ १/२॥
वज्रमुष्टिर्विरूपाक्षो दुर्मुखश्चैव राक्षसः॥३६॥
सुप्तघ्नो यज्ञकोपश्च मत्तोन्मत्तौ तथैव च।
अनला चाभवत् कन्या सुन्दरीं राम सुन्दरी॥३७॥
वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, राक्षस दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त—ये सात पुत्र थे। श्रीराम ! इनके अतिरिक्त सुन्दरी के गर्भ से अनला नामवाली एक सुन्दरी कन्या भी उत्पन्न हुई थी॥ ३६-३७॥
सुमालिनोऽपि भार्याऽऽसीत् पूर्णचन्द्रनिभानना।
नाम्ना केतुमती राम प्राणेभ्योऽपि गरीयसी॥३८॥
सुमाली की पत्नी भी बड़ी सुन्दरी थी। उसका मुख पूर्णचन्द्रमा के समान मनोहर और नाम केतुमती था। सुमाली को वह प्राणों से भी अधिक प्रिय थी॥३८॥
सुमाली जनयामास यदपत्यं निशाचरः।
केतुमत्यां महाराज तन्निबोधानुपूर्वशः॥ ३९॥
महाराज! निशाचर सुमाली ने केतुमती के गर्भ से जो संतानें उत्पन्न की थीं, उनका भी क्रमशः परिचय दिया जा रहा है, सुनिये॥ ३९॥
प्रहस्तोऽकम्पनश्चैव विकटः कालिकामुखः।
धूम्राक्षश्चैव दण्डश्च सुपार्श्वश्च महाबलः॥४०॥
संहादिः प्रघसश्चैव भासकर्णश्च राक्षसः।
राका पुष्पोत्कटा चैव कैकसी च शुचिस्मिताः॥४१॥
कुम्भीनसी च इत्येते सुमालेः प्रसवाः स्मृताः॥४२॥
प्रहस्त, अकम्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राक्ष, दण्ड, महाबली सुपार्श्व, संहादि, प्रघस तथा राक्षस भासकर्ण—ये सुमाली के पुत्र थे और राका, पुष्पोत्कटा, कैकसी और कुम्भीनसी—ये चार पवित्र मुस्कान वाली उसकी कन्याएँ थीं। ये सब सुमाली की संतानें बतायी गयी हैं।
मालेस्तु वसुदा नाम गन्धर्वी रूपशालिनी।
भार्यासीत् पद्मपत्राक्षी स्वक्षी यक्षीवरोपमा॥४३॥
माली की पत्नी गन्धर्वकन्या वसुदा थी, जो अपने रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थी। उसके नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान विशाल एवं सुन्दर थे। वह श्रेष्ठ यक्षपत्नियों के समान सुन्दरी थी॥४३॥
सुमालेरनुजस्तस्यां जनयामास यत् प्रभो।
अपत्यं कथ्यमानं तु मया त्वं शृणु राघव॥४४॥
प्रभो! रघुनन्दन! सुमाली के छोटे भाई माली ने वसुदा के गर्भ से जो संतति उत्पन्न की थी, उसका मैं वर्णन कर रहा हूँ; आप सुनिये॥४४॥
अनलश्चानिलश्चैव हरः सम्पातिरेव च।
एते विभीषणामात्या मालेयास्ते निशाचराः॥४५॥
अनल, अनिल, हर और सम्पाति—ये चार निशाचर माली के ही पुत्र थे, जो इस समय विभीषण के मन्त्री हैं॥ ४५ ॥
ततस्तु ते राक्षसपुङ्गवास्त्रयो निशाचरैः पुत्रशतैश्च संवृताः।
सुरान् सहेन्द्रानृषिनागयक्षान् बबाधिरे तान् बहुवीर्यदर्पिताः॥४६॥
माल्यवान् आदि तीनों श्रेष्ठ राक्षस अपने सैकड़ों पुत्रों तथा अन्यान्य निशाचरों के साथ रहकर अपने बाहुबल के अभिमान से युक्त हो इन्द्र आदि देवताओं, ऋषियों, नागों तथा यक्षों को पीड़ा देने लगे॥ ४६॥
जगभ्रमन्तोऽनिलवद् दुरासदा रणेषु मृत्युप्रतिमानतेजसः।
वरप्रदानादपि गर्विता भृशं क्रतुक्रियाणां प्रशमंकराः सदा॥४७॥
वे वायु की भाँति सारे संसार में विचरने वाले थे। युद्ध में उन्हें जीतना बहुत ही कठिन था। वे मृत्यु के तुल्य तेजस्वी थे। वरदान मिल जाने से भी उनका घमंड बहुत बढ़ गया था; अतः वे यज्ञादि क्रियाओं का सदा अत्यन्त विनाश किया करते थे। ४७॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥५॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के उत्तरकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ॥५॥