वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 6 हिंदी अर्थ सहित | Valmiki Ramayana Uttarkanda Chapter 6
॥ श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण
उत्तरकाण्डम्
षष्ठः सर्गः (सर्ग 6)
देवताओं का भगवान् शङ्कर की सलाह से राक्षसों के वध के लिये भगवान् विष्णु की शरण में जाना, राक्षसों का देवताओं पर आक्रमण और भगवान् विष्णु का उनकी सहायता के लिये आना
तैर्वध्यमाना देवाश्च ऋषयश्च तपोधनाः।
भयार्ताः शरणं जग्मुर्देवदेवं महेश्वरम्॥१॥
(महर्षि अगस्त्य कहते हैं-रघुनन्दन!) इन राक्षसों से पीड़ित होते हुए देवता तथा तपोधन ऋषि भय से व्याकुल हो देवाधिदेव महादेवजी की शरण में गये॥१॥
जगत्सृष्टयन्तकर्तारमजमव्यक्तरूपिणम्।
आधारं सर्वलोकानामाराध्यं परमं गुरुम्॥२॥
ते समेत्य तु कामारिं त्रिपुरारिं त्रिलोचनम्।
ऊचुः प्राञ्जलयो देवा भयगद्गदभाषिणः॥३॥
जो जगत् की सृष्टि और संहार करने वाले, अजन्मा, अव्यक्त रूपधारी, सम्पूर्ण जगत् के आधार, आराध्य देव और परम गुरु हैं, उन कामनाशक, त्रिपुरविनाशक, त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव के पास जाकर वे सब देवता हाथ जोड़ भय से गद्गदवाणी में बोले- ॥ २-३॥
सुकेशपुत्रैर्भगवन् पितामहवरोद्धतैः।
प्रजाध्यक्ष प्रजाः सर्वा बाध्यन्ते रिपुबाधनैः॥४॥
‘भगवन्! प्रजानाथ! ब्रह्माजी के वरदान से उन्मत्त हुए सुकेश के पुत्र शत्रुओं को पीड़ा देने वाले साधनों द्वारा सम्पूर्ण प्रजा को बड़ा कष्ट पहुँचा रहे हैं।४॥
शरण्यान्यशरण्यानि ह्याश्रमाणि कृतानि नः।
स्वर्गाच्च देवान् प्रच्याव्य स्वर्गे क्रीडन्ति देववत्॥५॥
‘सबको शरण देने योग्य जो हमारे आश्रम थे, उन्हें उन राक्षसों ने निवास के योग्य नहीं रहने दिया है उजाड़ डाला है। देवताओं को स्वर्ग से हटाकर वे स्वयं ही वहाँ अधिकार जमाये बैठे हैं और देवताओं की भाँति स्वर्ग में विहार करते हैं॥ ५ ॥
अहं विष्णुरहं रुद्रो ब्रह्माहं देवराडहम्।
अहं यमश्च वरुणश्चन्द्रोऽहं रविरप्यहम्॥६॥
इति माली सुमाली च माल्यवांश्चैव राक्षसाः।
बाधन्ते समरोद्धर्षा ये च तेषां पुरःसराः॥७॥
‘माली, सुमाली और माल्यवान्—ये तीनों राक्षस कहते हैं—’मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही रुद्र हूँ, मैं ही ब्रह्मा हूँ तथा मैं ही देवराज इन्द्र, यमराज, वरुण, चन्द्रमा और सूर्य हूँ’ इस प्रकार अहंकार प्रकट करते हुए वे रणदुर्जय निशाचर तथा उनके अग्रगामी सैनिक हमें बड़ा कष्ट दे रहे हैं॥६-७॥
तन्नो देव भयार्तानामभयं दातुमर्हसि।
अशिवं वपुरास्थाय जहि वै देवकण्टकान्॥८॥
‘देव! उनके भय से हम बहुत घबराये हुए हैं, इसलिये आप हमें अभयदान दीजिये तथा रौद्र रूप धारण करके देवताओं के लिये कण्टक बने हुए उन राक्षसों का संहार कीजिये’ ॥ ८॥
इत्युक्तस्तु सुरैः सर्वैः कपर्दी नीललोहितः।
सुकेशं प्रति सापेक्षः प्राह देवगणान् प्रभुः॥९॥
समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर नील एवं लोहित वर्णवाले जटाजूटधारी भगवान् शंकर सुकेश के प्रति घनिष्ठता रखने के कारण उनसे इस प्रकार बोले-॥
अहं तान् न हनिष्यामि ममावध्या हि तेऽसुराः।
किं तु मन्त्रं प्रदास्यामि यो वै तान् निहनिष्यति॥१०॥
‘देवगण! मैंने सुकेश के जीवन की रक्षा की है। वे असुर सुकेश के ही पुत्र हैं; इसलिये मेरे द्वारा मारे जाने योग्य नहीं हैं। अतः मैं तो उनका वध नहीं करूँगा; परंतु तुम्हें एक ऐसे पुरुष के पास जाने की सलाह दूंगा, जो निश्चय ही उन निशाचरों का वध करेंगे॥ १०॥
एतमेव समुद्योगं पुरस्कृत्य महर्षयः।
गच्छध्वं शरणं विष्णुं हनिष्यति स तान् प्रभुः॥११॥
‘देवताओ और महर्षियो! तुम इसी उद्योग को सामने रखकर तत्काल भगवान् विष्णु की शरण में जाओ। वे प्रभु अवश्य उनका नाश करेंगे’ ॥ ११॥
ततस्तु जयशब्देन प्रतिनन्द्य महेश्वरम्।
विष्णोः समीपमाजग्मुर्निशाचरभयार्दिताः॥१२॥
यह सुनकर सब देवता जय-जयकार के द्वारा महेश्वर का अभिनन्दन करके उन निशाचरों के भय से पीड़ित हो भगवान् विष्णु के समीप आये॥ १२ ॥
शङ्खचक्रधरं देवं प्रणम्य बहुमान्य च।
ऊचुः सम्भ्रान्तवद् वाक्यं सुकेशतनयान् प्रति॥१३॥
शङ्ख, चक्र धारण करने वाले उन नारायणदेव को नमस्कार करके देवताओं ने उनके प्रति बहुत अधिक सम्मानका भाव प्रकट किया और सुकेश के पुत्रों के विषय में बड़ी घबराहट के साथ इस प्रकार कहा-॥ १३॥
सुकेशतनयैर्देव त्रिभिस्त्रेताग्निसंनिभैः।
आक्रम्य वरदानेन स्थानान्यपहृतानि नः॥१४॥
‘देव! सुकेश के तीन पुत्र त्रिविध अग्नियों के तुल्य तेजस्वी हैं। उन्होंने वरदान के बल से आक्रमण करके हमारे स्थान छीन लिये हैं॥ १४ ॥
लङ्का नाम पुरी दुर्गा त्रिकूटशिखरे स्थिता।
तत्र स्थिताः प्रबाधन्ते सर्वान् नः क्षणदाचराः॥१५॥
त्रिकूटपर्वत के शिखर पर जो लङ्का नामवाली दुर्गम नगरी है, वहीं रहकर वे निशाचर हम सभी देवताओं को क्लेश पहुँचाते रहते हैं।॥ १५॥
स त्वमस्मद्धितार्थाय जहि तान् मधुसूदन।
शरणं त्वां वयं प्राप्ता गतिर्भव सुरेश्वर ॥१६॥
‘मधुसूदन! आप हमारा हित करने के लिये उन असुरों का वध करें। देवेश्वर! हम आपकी शरण में आये हैं। आप हमारे आश्रयदाता हों॥ १६॥
चक्रकृत्तास्यकमलान् निवेदय यमाय वै।
भयेष्वभयदोऽस्माकं नान्योऽस्ति भवता विना॥१७॥
‘अपने चक्र से उनका कमलोपम मस्तक काटकर आप यमराज को भेंट कर दीजिये। आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो इस भय के अवसर पर हमें अभय दान दे सके॥१७॥
राक्षसान् समरे हृष्टान् सानुबन्धान् मदोद्धतान्।
नुद त्वं नो भयं देव नीहारमिव भास्करः॥१८॥
‘देव! वे राक्षस मद से मतवाले हो रहे हैं। हमें कष्ट देकर हर्ष से फूले नहीं समाते हैं; अतः आप समराङ्गण में सगे-सम्बन्धियोंसहित उनका वध करके हमारे भय को उसी तरह दूर कर दीजिये, जैसे सूर्यदेव कुहरे को नष्ट कर देते हैं’॥ १८॥
इत्येवं दैवतैरुक्तो देवदेवो जनार्दनः।
अभयं भयदोऽरीणां दत्त्वा देवानुवाच ह॥१९॥
देवताओं के ऐसा कहने पर शत्रुओं को भय देने वाले देवाधिदेव भगवान् जनार्दन उन्हें अभय दान देकर बोले- ॥ १९॥
सुकेशं राक्षसं जाने ईशानवरदर्पितम्।
तांश्चास्य तनयाञ्जाने येषां ज्येष्ठः स माल्यवान्।२०॥
तानहं समतिक्रान्तमर्यादान् राक्षसाधमान्।
निहनिष्यामि संक्रुद्धः सुरा भवत विज्वराः॥२१॥
‘देवताओ! मैं सुकेश नामक राक्षस को जानता हूँ। वह भगवान् शंकर का वर पाकर अभिमान से उन्मत्त हो उठा है। इसके उन पुत्रों को भी जानता हूँ, जिनमें माल्यवान् सबसे बड़ा है। वे नीच राक्षस धर्म की मर्यादा का उल्लङ्घन कर रहे हैं, अतः मैं क्रोधपूर्वक उनका विनाश करूँगा। तुमलोग निश्चिन्त हो जाओ’ ।। २०-२१॥
इत्युक्तास्ते सुराः सर्वे विष्णुना प्रभविष्णुना।
यथावासं ययुर्हृष्टाः प्रशंसन्तो जनार्दनम्॥२२॥
सब कुछ करने में समर्थ भगवान् विष्णु के इस प्रकार आश्वासन देने पर देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ। वे उन जनार्दन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अपने अपने स्थान को चले गये॥ २२ ॥
विबुधानां समुद्योगं माल्यवांस्तु निशाचरः।
श्रुत्वा तौ भ्रातरौ वीराविदं वचनमब्रवीत् ॥२३॥
देवताओं के इस उद्योग का समाचार सुनकर निशाचर माल्यवान् ने अपने दोनों वीर भाइयों से इस प्रकार कहा- ॥२३॥
अमरा ऋषयश्चैव संगम्य किल शङ्करम्।
अस्मद्वधं परीप्सन्त इदं वचनमब्रुवन्॥२४॥
‘सुनने में आया है कि देवता और ऋषि मिलकर हमलोगों का वध करना चाहते हैं। इसके लिये उन्होंने भगवान् शंकर के पास जाकर यह बात कही॥ २४ ॥
सुकेशतनया देव वरदानबलोद्धताः।
बाधन्तेऽस्मान् समुहप्ता घोररूपाः पदे पदे॥२५॥
‘देव! सुकेश के पुत्र आपके वरदान के बल से उद्दण्ड और अभिमान से उन्मत्त हो उठे हैं। वे भयंकर राक्षस पग-पगपर हमलोगों को सता रहे हैं ॥ २५ ॥
राक्षसैरभिभूताः स्मो न शक्ताः स्म प्रजापते।
स्वेषु सद्मसु संस्थातुं भयात् तेषां दुरात्मनाम्॥२६॥
‘प्रजानाथ! राक्षसों से पराजित होकर हम उन दुष्टों के भय से अपने घरों में नहीं रहने पाते हैं ॥२६॥
तदस्माकं हितार्थाय जहि तांश्च त्रिलोचन।
राक्षसान् हुंकृतेनैव दह प्रदहतां वर ॥२७॥
‘त्रिलोचन ! आप हमारे हित के लिये उन असुरों का वध कीजिये। दाहकों में श्रेष्ठ रुद्रदेव! आप अपने हुंकार से ही राक्षसों को जलाकर भस्म कर दीजिये’।२७॥
इत्येवं त्रिदशैरुक्तो निशम्यान्धकसूदनः।
शिरः करं च धुन्वान इदं वचनमब्रवीत्॥२८॥
‘देवताओं के ऐसा कहने पर अन्धकशत्रु भगवान् शिव ने अस्वीकृति सूचित करने के लिये अपने सिर और हाथ को हिलाते हुए इस प्रकार कहा- ॥२८॥
अवध्या मम ते देवाः सुकेशतनया रणे।
मन्त्रं तु वः प्रदास्यामि यस्तान् वै निहनिष्यति॥२९॥
‘देवताओ! सुकेश के पुत्र रणभूमि में मेरे हाथ से मारे जाने योग्य नहीं हैं, परंतु मैं तुम्हें ऐसे पुरुष के पास जाने की सलाह दूंगा, जो निश्चय ही उन सबका वध कर डालेंगे॥ २९॥
योऽसौ चक्रगदापाणिः पीतवासा जनार्दनः।
हरिर्नारायणः श्रीमान् शरणं तं प्रपद्यथ॥३०॥
‘जिनके हाथ में चक्र और गदा सुशोभित हैं, जो पीताम्बर धारण करते हैं, जिन्हें जनार्दन और हरि कहते हैं तथा जो श्रीमान् नारायण के नाम से विख्यात हैं, उन्हीं भगवान् की शरण में तुम सब लोग जाओ’। ३०॥
हरादवाप्य ते मन्त्रं कामारिमभिवाद्य च।
नारायणालयं प्राप्य तस्मै सर्वं न्यवेदयन्॥३१॥
भगवान् शङ्कर से यह सलाह पाकर उन कामदाहक महादेवजी को प्रणाम करके देवता नारायण के धाम में जा पहुँचे और वहाँ उन्होंने उनसे सब बातें बतायीं॥ ३१॥
ततो नारायणेनोक्ता देवा इन्द्रपुरोगमाः।
सुरारींस्तान् हनिष्यामि सुरा भवत निर्भयाः॥३२॥
तब उन नारायणदेव ने इन्द्र आदि देवताओं से कहा —’देवगण ! मैं उन देवद्रोहियों का नाश कर डालूँगा, अतः तुमलोग निर्भय हो जाओ’ ॥ ३२ ॥
देवानां भयभीतानां हरिणा राक्षसर्षभौ।
प्रतिज्ञातो वधोऽस्माकं चिन्त्यतां यदिह क्षमम्॥३३॥
‘राक्षसशिरोमणियो! इस प्रकार भयभीत देवताओं के समक्ष श्रीहरि ने हमें मारने की प्रतिज्ञा की है; अतः अब इस विषय में हमलोगों के लिये जो उचित कर्तव्य हो, उसका विचार करना चाहिये। ३३॥
हिरण्यकशिपोर्मृत्युरन्येषां च सुरद्विषाम्।
नमुचिः कालनेमिश्च संह्रादो वीरसत्तमः॥ ३४॥
राधेयो बहुमायी च लोकपालोऽथ धार्मिकः।
यमलार्जुनौ च हार्दिक्यः शुम्भश्चैव निशुम्भकः॥३५॥
असुरा दानवाश्चैव सत्त्ववन्तो महाबलाः।
सर्वे समरमासाद्य न श्रूयन्तेऽपराजिताः॥ ३६॥
‘हिरण्यकशिपु तथा अन्य देवद्रोही दैत्यों की मृत्यु इन्हीं विष्णु के हाथ से हुई है। नमुचि, कालनेमि, वीरशिरोमणि संह्राद, नाना प्रकार की माया जानने वाला राधेय, धर्मनिष्ठ लोकपाल, यमलार्जुन, हार्दिक्य, शुम्भ और निशुम्भ आदि महाबली शक्तिशाली समस्त असुर और दानव समरभूमि में भगवान् विष्णु का सामना करके पराजित न हुए हों, ऐसा नहीं सुना जाता॥ ३४-३६॥
सर्वैः क्रतुशतैरिष्टं सर्वे मायाविदस्तथा।
सर्वे सर्वास्त्रकुशलाः सर्वे शत्रुभयंकराः॥ ३७॥
‘उन सभी असुरों ने सैकड़ों यज्ञ किये थे। वे सबके-सब माया जानते थे। सभी सम्पूर्ण अस्त्रों में कुशल तथा शत्रुओं के लिये भयंकर थे॥ ३७॥
नारायणेन निहताः शतशोऽथ सहस्रशः।
एतज्ज्ञात्वा तु सर्वेषां क्षमं कर्तुमिहार्हथ।
दुःखं नारायणं जेतुं यो नो हन्तुमिहेच्छति॥३८॥
‘ऐसे सैकड़ों और हजारों असुरों को नारायणदेव ने मौत के घाट उतार दिया है। इस बात को जानकर हमसब के लिये जो उचित कर्तव्य हो, वही करना चाहिये। जो नारायणदेव हमारा वध करना चाहते हैं, उन्हें जीतना अत्यन्त दुष्कर कार्य है’ ॥ ३८ ॥
ततः सुमाली माली च श्रुत्वा माल्यवतो वचः।
ऊचतुतिरं ज्येष्ठमश्विनाविव वासवम्॥३९॥
माल्यवान् की यह बात सुनकर सुमाली और माली अपने उस बड़े भाई से उसी प्रकार बोले, जैसे दोनों अश्विनीकुमार देवराज इन्द्र से वार्तालाप कर रहे हों।
स्वधीतं दत्तमिष्टं च ऐश्वर्यं परिपालितम्।
आयुर्निरामयं प्राप्तं सुधर्मः स्थापितः पथि॥४०॥
वे बोले-राक्षसराज! हमलोगों ने स्वाध्याय, दान और यज्ञ किये हैं। ऐश्वर्य की रक्षा तथा उसका उपभोग भी किया है। हमें रोग-व्याधि से रहित आयु प्राप्त हुई है और हमने कर्तव्य-मार्ग में उत्तम धर्म की स्थापना की है॥ ४०॥
देवसागरमक्षोभ्यं शस्त्रैः समवगाह्य च।
जिता द्विषो ह्यप्रतिमास्तन्नो मृत्युकृतं भयम्॥४१॥
‘यही नहीं, हमने अपने शस्त्रों के बल से देवसेनारूपी अगाध समुद्र में प्रवेश करके ऐसे-ऐसे शत्रुओं पर विजय पायी है, जो वीरता में अपना सानी नहीं रखते थे; अतः हमें मृत्यु से कोई भय नहीं है। ४१॥
नारायणश्च रुद्रश्च शक्रश्चापि यमस्तथा।
अस्माकं प्रमुखे स्थातुं सर्वे बिभ्यति सर्वदा॥४२॥
‘नारायण, रुद्र, इन्द्र तथा यमराज ही क्यों न हों, सभी सदा हमारे सामने खड़े होनेमें डरते हैं। ४२॥
विष्णोषस्य नास्त्येव कारणं राक्षसेश्वर।
देवानामेव दोषेण विष्णोः प्रचलितं मनः॥४३॥
‘राक्षसेश्वर! विष्णु के मन में भी हमारे प्रति द्वेष का कोई कारण तो नहीं है। (क्योंकि हमने उनका कोई अपराध नहीं किया है) केवल देवताओं के चुगली खाने से उनका मन हमारी ओर से फिर गया है॥४३॥
तस्मादद्यैव सहिताः सर्वेऽन्योन्यसमावृताः।
देवानेव जिघांसामो येभ्यो दोषः समुत्थितः॥४४॥
‘इसलिये हम सब लोग एकत्र हो एक-दूसरे की रक्षा करते हुए साथ-साथ चलें और आज ही देवताओं का वध कर डालने की चेष्टा करें, जिनके कारण यह उपद्रव खड़ा हुआ है’ ।। ४४॥
एवं सम्मन्त्र्य बलिनः सर्वसैन्यसमावृताः।
उद्योगं घोषयित्वा तु सर्वे नैर्ऋतपुंगवाः॥४५॥
युद्धाय निर्ययुः क्रुद्धा जम्भवृत्रादयो यथा।
ऐसा निश्चय करके उन सभी महाबली राक्षसपतियों ने युद्ध के लिये अपने उद्योग की घोषणा कर दी और समूची सेना साथ ले जम्भ एवं वृत्र आदि की भाँति कुपित हो वे युद्ध के लिये निकले॥ ४५ १/२॥
इति ते राम सम्मन्त्र्य सर्वोद्योगेन राक्षसाः॥४६॥
युद्धाय निर्ययुः सर्वे महाकाया महाबलाः।
श्रीराम! पूर्वोक्त मन्त्रणा करके उन सभी महाबली विशालकाय राक्षसों ने पूरी तैयारी की और युद्ध के लिये कूच कर दिया॥ ४६ १/२॥
स्यन्दनैर्वारणैश्चैव हयैश्च करिसंनिभैः॥४७॥
खरैर्गोभिरथोष्ट्रैश्च शिशुमारैर्भुजंगमैः।
मकरैः कच्छपैर्मीनैर्विहंगैर्गरुडोपमैः॥४८॥
सिंहैा र्वराहैश्च सृमरैश्चमरैरपि।
त्यक्त्वा लङ्कां गताः सर्वे राक्षसा बलगर्विताः॥४९॥
प्रयाता देवलोकाय योद्धं दैवतशत्रवः।
अपने बल का घमण्ड रखने वाले वे समस्त देवद्रोही राक्षस रथ, हाथी, हाथी-जैसे घोड़े, गदहे,बैल, ऊँट, शिशुमार, सर्प, मगर, कछुआ, मत्स्य, गरुड़-तुल्य पक्षी, सिंह, बाघ, सूअर, मृग और नीलगाय आदि वाहनों पर सवार हो लङ्का छोड़कर युद्ध के लिये देवलोक की ओर चल दिये॥ ४७–४९ १/२॥
लङ्काविपर्ययं दृष्ट्वा यानि लङ्कालयान्यथ॥५०॥
भूतानि भयदीनि विमनस्कानि सर्वशः।
लङ्का में रहने वाले जो प्राणी अथवा ग्रामदेवता आदि थे, वे सब अपशकुन आदि के द्वारा लङ्का के भावी विध्वंस को देखकर भय का अनुभव करते हुए मनही-मन खिन्न हो उठे। ५० १/२॥
रथोत्तमैरुह्यमानाः शतशोऽथ सहस्रशः॥५१॥
प्रयाता राक्षसास्तूर्णं देवलोकं प्रयत्नतः।
रक्षसामेव मार्गेण दैवतान्यपचक्रमुः॥५२॥
उत्तम रथों पर बैठे हुए सैकड़ों और हजारों राक्षस तुरंत ही प्रयत्नपूर्वक देवलोक की ओर बढ़ने लगे। उस नगरके देवता राक्षसों के मार्ग से ही पुरी छोड़कर निकल गये॥ ५१-५२॥
भौमाश्चैवान्तरिक्षाश्च कालाज्ञप्ता भयावहाः।
उत्पाता राक्षसेन्द्राणामभावाय समुत्थिताः॥५३॥
उस समय काल की प्रेरणा से पृथ्वी और आकाश में अनेक भयंकर उत्पात प्रकट होने लगे, जो राक्षसों के विनाश की सूचना दे रहे थे॥५३॥
अस्थीनि मेघा ववृषुरुष्णं शोणितमेव च।
वेलां समुद्राश्चोत्क्रान्ताश्चेलुश्चाप्यथ भूधराः॥५४॥
बादल गरम-गरम रक्त और हड्डियों की वर्षा करने लगे, समुद्र अपनी सीमा का उल्लङ्घन करके आगे बढ़ गये और पर्वत हिलने लगे॥५४॥
अट्टहासान् विमुञ्चन्तो घननादसमस्वनाः।
वाश्यन्त्यश्च शिवास्तत्र दारुणं घोरदर्शनाः॥५५॥
मेघ के समान गम्भीर ध्वनि करने वाले प्राणी विकट अट्टहास करने लगे और भयंकर दिखायी देने वाली गीदड़ियाँ कठोर आवाज में चीत्कार करने लगीं। ५५॥
सम्पतन्त्यथ भूतानि दृश्यन्ते च यथाक्रमम्।
गृध्रचक्रं महच्चात्र प्रज्वालोद्गारिभिर्मुखैः॥५६॥
रक्षोगणस्योपरिष्टात् परिभ्रमति कालवत्।
पृथ्वी आदि भूत क्रमशः गिरते-विलीन होते-से दिखायी देने लगे, गीधों का विशाल समूह मुख से आग की ज्वाला उगलता हुआ राक्षसों के ऊपर काल के समान मँडराने लगा॥ ५६ १/२॥
कपोता रक्तपादाश्च सारिका विद्रुता ययुः॥५७॥
काका वाश्यन्ति तत्रैव विडाला वै द्विपादयः।
कबूतर, तोता और मैना लङ्का छोड़कर भाग चले। कौए वहीं काँव-काँव करने लगे। बिल्लियाँ भी वहीं गुर्राने लगीं तथा हाथी आदि पशु आर्तनाद करने लगे॥ ५७ १/२ ॥
उत्पातांस्ताननादृत्य राक्षसा बलदर्पिताः॥५८॥
यान्त्येव न निवर्तन्ते मृत्युपाशावपाशिताः।
राक्षस बल के घमण्ड में मतवाले हो रहे थे। वे काल के पाश में बँध चुके थे। इसलिये उन उत्पातों की अवहेलना करके युद्ध के लिये चलते ही गये, लौटे नहीं।। ५८ १/२॥
माल्यवांश्च सुमाली च माली च सुमहाबलः॥
पुरस्सरा राक्षसानां ज्वलिता इव पावकाः।
माल्यवान्, सुमाली और महाबली माली—ये तीनों प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी शरीर से समस्त राक्षसों के आगे-आगे चल रहे थे॥ ५९ १/२ ।।
माल्यवन्तं तु ते सर्वे माल्यवन्तमिवाचलम्॥६०॥
निशाचरा आश्रयन्ति धातारमिव देवताः।
जैसे देवता ब्रह्माजी का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार उन सब निशाचरों ने माल्यवान् पर्वत के समान अविचल माल्यवान् का ही आश्रय ले रखा था॥६० १/२॥
तद् बलं राक्षसेन्द्राणां महाभ्रघननादितम्॥६१॥
जयेप्सया देवलोकं ययौ मालिवशे स्थितम्।
राक्षसों की वह सेना महान् मेघों की गर्जना के समान कोलाहल करती हुई विजय पाने की इच्छा से देवलोक की ओर बढ़ती जा रही थी। उस समय वह सेनापति माली के नियन्त्रण में थी॥६१ १/२ ॥
राक्षसानां समुद्योगं तं तु नारायणः प्रभुः॥६२॥
देवदूतादुपश्रुत्य चक्रे युद्धे तदा मनः।
देवताओं के दूत से राक्षसों के उस युद्धविषयक उद्योग की बात सुनकर भगवान् नारायण ने भी युद्ध करने का विचार किया॥ ६२ १/२ ॥
स सज्जायुधतूणीरो वैनतेयोपरि स्थितः॥६३॥
आसाद्य कवचं दिव्यं सहस्रार्कसमद्युति।
वे सहस्रों सूर्यों के समान दीप्तिमान् दिव्य कवचधारण करके बाणों से भरा तरकस लिये गरुड़ पर सवार हुए।
आबद्ध्य शरसम्पूर्णे इषुधी विमले तदा॥ ६४॥
श्रोणिसूत्रं च खड्गं च विमलं कमलेक्षणः।
इसके अतिरिक्त भी उन्होंने सायकों से पूर्ण दो चमचमाते हुए तूणीर बाँध रखे थे। उन कमलनयन श्रीहरि ने अपनी कमर में पट्टी बाँधकर उसमें चमकती हुई तलवार भी लटका ली थी॥ ६४ १/२ ।।
शङ्खचक्रगदाशाखड्गांश्चैव वरायुधान्॥६५॥
सुपर्णं गिरिसंकाशं वैनतेयमथास्थितः।
राक्षसानामभावाय ययौ तूर्णतरं प्रभुः॥६६॥
इस प्रकार शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष और खड्ग आदि उत्तम आयुधों को धारण किये सुन्दरपंख वाले पर्वताकार गरुड़ पर आरूढ़ हो वे प्रभु उन राक्षसों का संहार करने के लिये तुरंत चल दिये॥ ६५-६६॥
सुपर्णपृष्ठे स बभौ श्यामः पीताम्बरो हरिः।
काञ्चनस्य गिरेः शृङ्गे सतडित्तोयदो यथा॥६७॥
गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए वे पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर श्रीहरि सुवर्णमय मेरुपर्वत के शिखर पर स्थित हुए विद्युत्सहित मेघ के समान शोभा पा रहे थे। ६७॥
स सिद्धदेवर्षिमहोरगैश्च गन्धर्वयक्षरुपगीयमानः।
समाससादासुरसैन्यशत्रुश्चक्रासिशार्णायुधशङ्खपाणिः॥६८॥
उस समय सिद्ध, देवर्षि, बड़े-बड़े नाग, गन्धर्व और यक्ष उनके गुण गा रहे थे। असुरों की सेना के शत्रु वे श्रीहरि हाथों में शङ्ख, चक्र, खड्ग और शार्ङ्गधनुष लिये सहसा वहाँ आ पहुँचे॥ ६८॥
सुपर्णपक्षानिलनुन्नपक्षं भ्रमत्पताकं प्रविकीर्णशस्त्रम्।
चचाल तद्राक्षसराजसैन्यं चलोपलं नीलमिवाचलाग्रम्॥६९॥
गरुड़ के पंखों की तीव्र वायु के झोंके खाकर वह सेना क्षुब्ध हो उठी। सैनिकों के रथों की पताकाएँ चक्कर खाने लगी और सबके हाथों से अस्त्र-शस्त्र गिर गये। इस प्रकार राक्षसराज माल्यवान् की समूची सेना काँपने लगी। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो पर्वतका नील शिखर अपनी शिलाओं को बिखेरता हुआ हिल रहा हो॥ ६९॥
ततः शितैः शोणितमांसरूषितै युगान्तवैश्वानरतुल्यविग्रहैः।
निशाचराः सम्परिवार्य माधवं वरायुधैर्निर्बिभिदुः सहस्रशः॥ ७० ॥
राक्षसों के उत्तम अस्त्र-शस्त्र तीखे, रक्त और मांस में सने हुए तथा प्रलयकालीन अग्नि के समान दीप्तिमान् थे। उनके द्वारा वे सहस्रों निशाचर भगवान् लक्ष्मीपति को चारों ओर से घेरकर उन पर चोट करने लगे॥ ७० ॥
इत्याचे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे षष्ठः सर्गः॥६॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके उत्तरकाण्डमें छठा सर्ग पूरा हुआ॥६॥